शिवली नोअमानी इनका जन्म सन् १८५० ई. में आजमगढ़ के एक ग्राम बगोल में हुआ था। इनकी आरंभिक शिक्षा आजमगढ़ में हुई और इसके अनंतर अरबी, फारसी आदि की उच्च शिक्षा प्रसिद्ध उस्तादों से प्राप्त की, जिसके लिए इन्होंने रामपुर, लाहौर, सहारनपुर तथा लखनऊ की यात्राएँ की। परीक्षोत्तीर्ण होने पर वह वकालत करने लगे पर उसमें इनका मन नहीं लगा। सन् १८८२ ई. में यह अलीगढ़ चले गए और वहाँ के कालेज में फारसी के अध्यापक का कार्य सोलह वर्ष तक किया। यहाँ के वातावरण में इनकी साहित्यिक रुचि जाग्रत हुई और इन्होंने अल् मामून, अल् फारूक, सीरतुन्नोमान, अल् गिजाली आदि लिखीं। इस कारण कि ये पुस्तकें इसलाम के खलीफों तथा बड़े लोगों के संबंध में थी, यह इनके लिए सामग्री एकत्र करने को शाम, मिस्र, कुस्तुनतुनिया आदि तक गए।

१८९८ ई. में सर सैयद की मृत्यु हो जाने पर इन्होंने आजमगढ़ में स्थायी रूप से रहने का निश्चय कर अलीगढ़ त्याग दिया किंतु सैयद अली विलग्रामी ने इन्हें हैदराबाद (दक्षिण) बुलाकर शिक्षा विभाग में प्रबंधकार्य पर रख लिया। यहाँ यह चार वर्ष रहे और कई पुस्तकें लिखीं, जो वहीं प्रकाशित हुई। इल्मुल् कलाम, अल्कलाम, मुआजनए अनीसोदबीर तथा सवानेह रूमी लिखीं और अल्गिजाली को पूरा किया। सन् १८९२ ई. में इन्हें शम्सुल उलमा की पदवी मिली। इसके पहले तुर्की के सुलतान ने इन्हें मजीदिया पदक सन् १८८२ ई. में दिया था। सन् १९०४ ई. में यह हैदराबाद से लखनऊ आए और नदवतुल् उलमा का कार्य देखने लगे। यह संख्या इस उद्देश्य से सन् १८९४ ई. में स्थापित हुई थी कि विद्वानों के बीच के विवाद मिटाए जाएँ, मुसलमानों की साधारण अवस्था सुधारी जाए, शुद्ध धार्मिक शिक्षा फैलाई जाए तथा फारसी, अरबी एवं उर्दू के विभिन्न पाठ्यक्रम की पुस्तकों का निरीक्षण किया जाए। इस संस्था का नौ वर्ष तक सुप्रबंध करने के अनंतर वहाँ के मौलवियों के संकुचित विचारों के कारण दु:खित हो यह आजमगढ़ चले आए। यहीं दूसरे वर्ष सन् १९१४ ई. में इनकी मृत्यु हो गई। आजमगढ़ में इन्होंने दारुल् मुसन्नफ्रीन स्थापित किया, जिसको अपना गृह, बाग़ तथा पुस्तकालय दान दे दिया। यहीं शेरुल् अजम पाँच खंडों में लिखा, जिसमें पूरे फारसी साहित्य की आलोचना सरल उर्दू में लिखी गई है।

शिबली ने उर्दू गद्य को विद्वानों का गद्य बनाया और अनेक विषयों पर रचनाएँ लिखकर उसे उन्नत किया। आलोचना शैली को भी अग्रसर किया। इसकी इतिहास लिखने की शैली औपन्यासिक ढंग की है पर अन्वेषण तथा सत्यता कहीं नहीं छोड़ी गई हैं। इनके लेखों ने मुसलमानों के हृदय तथा मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला। (रजिया सज्जाद जहीर)