शिक्षा, भारत में प्राचीन भारत की शिक्षा का प्रारंभिक रूप हम ऋग्वेद में देखते हैं। ऋग्वेद युग की शिक्षा का उद्देश्य था तत्वसाक्षात्कार। ब्रह्मचर्य, तप, और योगाभ्यास से तत्व का साक्षात्कार करनेवाले ऋषि, विप्र, वैघस, कवि, मुनि, मनीषी के नामों से प्रसिद्ध थे। साक्षात्कृत तत्वों का मंत्रों के आकार में संग्रह होता गया वैदिक संहिताओं में, जिनका स्वाध्याय, सांगोपांग अध्ययन, श्रवण, मनन औरनिदिध्यासन वैदिक शिक्षा रही।

विद्यालय गुरुकुल, आचार्यकुल, गुरुगृह इत्यादि नामों से विदित थे। आचार्य के कुल में निवास करता हुआ, गुरुसेवा और ब्रह्मचर्य व्रतधारी विद्यार्थी षडंग वेद का अध्ययन करता था। शिक्षक को आचार्य और गुरु कहा जाता था और विद्यार्थी को ब्रह्मचारी, व्रतधारी, अंतेवासी, आचार्यकुलवासी। मंत्रों के द्रष्टा अर्थात् साक्षात्कार करनेवाले ऋषि अपनी अनुभूति और उसकी व्याख्या और प्रयोग को ब्रह्मचारी, अंतेवासी को देते थे। गुरु के उपदेश पर चलते हुए वेदग्रहण करनेवाले व्रतचारी श्रुतर्षि होते थे। गुरु के उपदेश पर चलते हुए वेदग्रहण करनेवाले व्रतचारी श्रुतर्षि होते थे। वेदमंत्र कंठस्थ किए जाते थे। आचार्य स्वर से मंत्रों का परायण करते और ब्रह्मचारी उनको उसी प्रकार दोहराते चले जाते थे। इसके पश्चात् अर्थबोध कराया जाता था। ब्रह्मचर्य चले जाते थे। इसके पश्चात् अर्थबोध कराया जाता था। ब्रह्मचर्य का पालन सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था। स्त्रियों के लिए भी आवश्यक समझा जाता था। आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करनेवाले विद्यार्थी को नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते थे। ऐसी विद्यार्थिनी ब्रह्मवादिनी कही जाती थी।

यज्ञों का अनुष्ठान विधि से हो, इसलिए होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा को आवश्यक शिक्षा दी जाती थी। वेद, शिक्षा, कल्प, व्यकरण, छंद, ज्योतिष और निरुक्त उनके पाठ्य होते थे। पाँच वर्ष के बालक की प्राथमिक शिक्षा आरंभ कर दी जाती थी। गुरुगृहश् में रहकर गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता उपनयन संस्कार से प्राप्त होती थी। ८ वें वर्ष में ब्राह्मण बालक के, ११ वें वर्ष में क्षत्रिय के और १२ वें वर्ष में वैश्य के उपनयन की विधि थी। अधिक से अधिक यह १६, २२, और २४ वर्षों की अवस्था में होता था। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्यार्थी गुरुगृह में १२ वर्ष वेदाध्ययन करते थे। तब वे स्नातक कहलाते थे। समावर्तन के अवसर पर गुरुदक्षिणा देन की प्रथा थी। समावर्तन के पश्चात् भी स्नातक स्वाध्याय करते रहते थे। नैष्ठिक ब्रह्मचारी आजीवन अध्ययन करते थे। समावर्तन के सम ब्रह्मचारी दंड, कमंडलु, मेखला, आदि को त्याग देते थे। ब्रह्मचर्य व्रत में जिन जिन वस्तुओं का निषेध था अब से उनका उपयोग हो सकता था। प्राचीन भारत में किसी प्रकार की परीक्षा नहीं होती थी और न कोई उपाधि ही दी जाती थी। नित्य पाठ पढ़ाने के पूर्व ब्रह्मचारी ने पढ़ाए हुए षष्ठ को समझा है और उसका अभ्यास नियम से किया है या नहीं, इसका पता आचार्य लगा लेते थे। ब्रह्मचारी अध्ययन और अनुसंधान में सदा लगे रहते थे तथा बाद विवाद और शास्त्रार्थ में संम्मिलित होकर अपनी योग्यता का प्रमाण देते थे।

भारतीय शिक्षा में आचार्य का स्थान बड़ा ही गौरव का था। उनका बड़ा आदर और सम्मान होता था। आचार्य पारंगत विद्वान्, सदाचारी, क्रियावान्, नि:स्पृह, निरभिमान होते थे और विद्यार्थियों के कल्याण के लिए सदा कटिबद्ध रहते थे। अध्यापक, छात्रों का चरित्रनिर्माण, उनके लिए भोजनवस्त्र का प्रबंध, रुग्ण छात्रों की चिकित्सा, शुश्रूषा करते थे। कुल में सम्मिलित ब्रह्मचारी मात्र को आचार्य अपने परिवार का अंग मानते थे और उनसे वैसा ही व्यवहार रखते थे। आचार्य धर्मबुद्धि से नि:शुल्क शिक्षा देते थे।

विद्यार्थी गुरु का सम्मान और उनकी आज्ञा का पालन करते थे। आचार्य का चरणस्पर्श कर दिनचर्या के लिए प्रात:काल ही प्रस्तुत हो जाते थे। गुरु के आसन के नीचे आसन ग्रहण करा, सुसंयत वेश में रहना, गुरु के लिए दातौन इत्यादि की व्यवस्था करना, उनके आसन को उठाना और बिछाना, स्नान के लिए जल ला देना, समय पर वस्त्र और भोजन के पात्र को साफ करना, ईधंन संग्रह करना, पशुओं को चराना इत्यादि छात्रों के कर्तव्य माने जाते थे। विद्यार्थी ब्राह्ममुहूर्त में उठते थे और प्रात: कृत्यों से निवृत्त होकर, स्नान, संध्या, होम आदि कर लेते थे। फिर अध्ययन में लग जाते थे। इसके उपरांत भोजन करते थे और विश्राम के पश्चात् आचार्य के पाठ ग्रहण करते थे। सांयकाल समिधा एकत्र कर ब्रह्मचारी संध्या ओर होम का अनुष्ठान करते थे। विद्यार्थी के लिए भिक्षाटन अनिवार्य कृत्य था। भिक्षा से प्राप्त अन्न गुरु को समर्पित कर विद्यार्थी मनन औरनिदिध्यासन में लग जाते थे।

वेदों का अध्ययन श्रावण पूर्णिमा को उपाकर्म से प्रारंभ होकर पौष पूर्णिमा को उपसर्जन से समाप्त होता था। शेष महीनों में अधीत पाठों की आवृत्ति, पुनरावृत्ति होती रहती थी। विद्यार्थी पृथक् पृथक् पाठ ग्रहण करते थे, एक साथ नहीं। प्रतिपदा और अष्टमी को अनध्याय होता था। गाँव, नगर अथवा पड़ोस मे आकस्मिक विपत्ति से और शिष्टजनों के आगमन से विशेष अनध्याय होते थे। अनध्याय में अधीत वेदमंत्रों की पुनरावृत्ति और विषयांतर का अध्ययन निषिद्ध न थे। विनय के नियमों का उल्लंघन करनेवाले विद्यार्थी को दंड देने की परिपाटी थी। पाठ्यक्रम के विस्तार के साथ वेदों ओर वेदांगों के अतिरिक्त साहित्य, दर्शन, ज्योतिष, व्याकरण और चिकित्साशास्त्र इत्यादि विषयों का अध्यापन होने लगा। टोल पाठशाला, मठ ओर विहारों में पढ़ाई होती थी।

काशी, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वलभी, ओदंतपुरी, जगद्दल, नदिया, मिथिला, प्रयाग, अयोध्या आदि शिक्षा के केंद्र थे। दक्षिण भारत के एन्नारियम, सलौत्गि, तिरुमुक्कुदल, मलकपुरम् तिरुवोरियूर में प्रसिद्ध विद्यालय थे। अग्रहारों के द्वारा शिक्षा का प्रचार और प्रसार शताब्दियों होता रहा। कादिपुर और सर्वज्ञपुर के अग्रहार विशिष्ट शिक्षाकेंद्र थे। प्राचीन शिक्षा प्राय: वैयक्तिक ही थी। कथा, अभिनय इत्यादि शिक्षा के साधन थे। अध्यापन विद्यार्थी के योग्यतानुसार होता था अर्थात् विषयों को स्मरण रखने के लिए सूत्र, कारिका और सारनों से काम लिया जाता था। पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष पद्धति किसी भी विषय की गहराई तक पहुँचने के लिए बड़ी उपयोगी थी। भिन्न भिन्न अवस्था के छात्रों को कोई एक विषय पढ़ाने के लिए समकेंद्रिय विधि का विशेष रूप से उपयोग होता था सूत्र, वृत्ति, भाष्य, वार्तिक इस विधि के अनुकूल थे। कोई एक ग्रंथ के बृहत् और लघु संस्करण इस परिपाटी के लिए उपयोगी समझे जाते थे।

बौद्धों और जैनों की शिक्षापद्धति भी इसी प्रकार की थी।

भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना होते ही इस्लामी शिक्षा का प्रसार होने लगा। फारसी जाननेवाले ही सरकारी कार्य के योग्य समझे जाने लगे। हिंदू अरबी और फारसी पढ़ने लगे। बादशाहों और अन्य शासकों की व्यक्तिगत रुचि के अनुसार इस्लामी आधार पर शिक्षा दी जाने लगी। इस्लाम के संरक्षण और प्रचार के लिए मस्जिदें बनती गई, साथ ही मकतबों, मदरसों और पुस्तकालयों की स्थापना होने लगी। मकतब प्रारंभिक शिक्षा के केंद्र होते थे और मदरसे उच्च शिक्षा के। मकतबों की शिक्षा धार्मिक होती थी। विद्यार्थी कुरान के कुछ अंशों का कंठस्थ करते थे। वे पढ़ना, लिखना, गणित, अर्जीनवीसी और चिट्ठीपत्री भी सीखते थे। इनमें हिंदू बालक भी पढ़ते थे।

मकतबों में शिक्षा प्राप्त कर विद्यार्थी मदरसों में प्रविष्ट होते थे। यहाँ प्रधानता धार्मिक शिक्षा दी जाती थी। साथ साथ इतिहास, साहित्य, व्याकरण, तर्कशास्त्र, गणित, कानून इत्यादि की पढ़ाई होती थी। सरकार शिक्षकों को नियुक्त करती थी। कहीं कहीं प्रभावशाली व्यक्तियों के द्वारा भी उनकी नियुक्ति होती थी। अध्यापन फारसी के माध्यम से होता था। अरबी मुसलमानों के लिए अनिवार्य पाठ्य विषय था। छात्रावास का प्रबंध किसी किसी मदरसे में होता था। दरिद्र विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति मिलती थी। अनाथालयों का संचालन होता था। शिक्षा नि:शुल्क थी। हस्तलिखित पुस्तकें पढ़ी और पढ़ाई जाती थीं।

राजकुमारों के लिए महलों के भीतर शिक्षा का प्रबंध था। राज्यव्यवस्था, सैनिक संगठन, युद्धसंचालन, साहित्य, इतिहास, व्याकरण, कानून आदि का ज्ञान गृहशिक्षक से प्राप्त होता था। राजकुमारियाँ भी शिक्षा पाती थीं। शिक्षकों का बड़ा सम्मान था। वे विद्वान् और सच्चरित्र होते थे। छात्र और शिक्षकों को आपसी संबंध प्रेम और सम्मान का था। सादगी, सदाचार, विद्याप्रेम और धर्माचरण पर जोर दिया जाता था। कंठस्थ करने की परंपरा थी। प्रश्नोत्तर, व्याख्या और उदाहरणों द्वारा पाठ पढ़ाए जाते थे। कोई परीक्षा नहीं थी। अध्ययन अध्यापन में प्राप्त अवसरों में शिक्षक छात्रों की योग्यता और विद्वत्ता के विषय में तथ्य प्राप्त करते थे। दंड प्रयोग किया जाता था। जीविका उपार्जन के लिए भी शिक्षा दी जाती थी। दिल्ली, आगरा, बीदर, जौनपुर, मालवा मुसलिम शिक्षा के केंद्र थे। मुसलमान शासकों के संरक्षण के अभाव में भी संस्कृत काव्य, नाटक, व्याकरण, दर्शन ग्रंथों की रचना और उनका पठन पाठन बराबर होता रहा।

भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव यूरोपीय ईसाई धर्मप्रचारक तथा व्यापारियों के हाथों से डाली गई। उन्होंने कई विद्यालय स्थापित किए। प्रारंभ में मद्रास ही उनका कार्यक्षेत्र रहा। धीरे धीरे कार्यक्षेत्र का विस्तार बंगाल में भी होने लगा। इन विद्यालयों में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ साथ इतिहास, भूगोल, व्याकरण, गणित, साहित्य आदि विषय भी पढ़ाए जाते थे। रविवार को विद्यालय बंद रहता था। अनेक शिक्षक छात्रों की पढ़ाई अनेक श्रेणियों में कराते थे। अध्यापन का समय नियत था। साल भर में छोटी बड़ी अनेक छुट्टियाँ हुआ करती थीं।

प्राय: १५० वर्षों के बीतते बीतते व्यापारी ईस्ट इंडिया कंपनी राज्य करने लगी। विस्तार में बाधा पड़ने के डर से कंपनी शिक्षा के विषय में उदासीन रही। फिर भी विशेष कारण और उद्देश्य से १७८० में कलकत्ते में 'कलकत्ता मदरसा' और १७९१ में बनारस में 'संस्कृत कालेज' कंपनी द्वारा स्थापित किए गए। धर्मप्रचार के विषय में भी कंपनी की पूर्वनीति बदलने लगी। कंपनी अब अपने राज्य के भारतीयों को शिक्षा देने की आवश्यकता को समझने लगी। १८१३ के आज्ञापत्र के अनुसार शिक्षा में धन व्यय करने का निश्चय किया गया। किस प्रकार की शिक्षा दी जाए, इसपर प्राच्य और पाश्चात्य शिक्षा के समर्थकों में मतभेद रहा। वाद विवाद चलता चला। अंत में लार्ड मेकाले के तर्क वितर्क और राजा राममोहनराय के समर्थन से प्रभावित हो १८३५ ई. में लार्ड बेंटिक ने निश्चय किया कि अंग्रेजी भाषा और साहित्य और यूरोपीय इतिहास, विज्ञान, इत्यादि की पढ़ाई हो और इसी में १८१३ के आज्ञापत्र में अनुमोदित धन का व्यय हो। प्राच्य शिक्षा चलती चले, परंतु अंग्रेजी और पश्चिमी विषयों के अध्ययन और अध्यापन पर जोर दिया जाए।

पाश्चात्य रीति से शिक्षित भारतीयों की आर्थिक स्थिति सुधरते देख जनता इधर झुकने लगी। अंग्रेजी विद्यालयों में अधिक संख्या में विद्यार्थी प्रविष्ट होने लगे क्योंकि अंग्रेजी पढ़े भारतीयों को सरकारी पदों पर नियुक्त करने की नीति की सरकारी घोषणा हो गई थी। सरकारी प्रोत्साहन के साथ साथ अंग्रेजी शिक्षा को पर्याप्त मात्रा में व्यक्तिगत सहयोग भी मिलता गया। अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार के साथ साथ अधिक कर्मचारियों की और चिकित्सकों, इंजिनियरों और कानून जाननेवालों की आवश्यकता पड़ने लगी। उपयोगी शिक्षा की ओर सरकार की दृष्टि गई। मेडिकल, इजिनियरिंग और लॉ कालेजों की स्थापना होने लगी। स्त्री शिक्षा पर ध्यान दिया जाने लगा।

१८५३ में शिक्षा की प्रगति की जाँच के लिए एक समिति बनी। १८५४ में बुड के शिक्षासंदेश पत्र में समिति के निर्णय कंपनी के पास भेज दिए गए। संस्कृत, अरबी और फारसी का ज्ञान आवश्यक समझा गया। औद्योगिक विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया। प्रातों में शिक्षा विभाग अध्यापक प्रशिक्षण नारीशिक्षा इत्यादि की सिफारिश की गई। १८५७ में स्वतंत्रता युद्ध छिड़ गया जिससे शिक्षा की प्रगति में बाधा पड़ी। प्राथमिक शिक्षा उपेक्षित ही रही। उच्च शिक्षा की उन्नति होती गई। १८५७ में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित हुए।

मुख्यत: प्राथमिक शिक्षा की दशा की जाँच करते हुए शिक्षा के प्रश्नों पर विचार करने के लिए १८८२ में सर विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में भारतीय शिक्षा आयोग की नियुक्ति हुई। आयोग ने प्राथमिक शिक्षा के लिए उचित सुझाव दिए। सरकारी प्रयत्न को माध्यमिक शिक्षा से हटाकर प्राथमिक शिक्षा के संगठन में लगाने की सिफारिश की। सरकारी माध्यमिक स्कूल प्रत्येक जिले में एक से अधिक न हो; शिक्षा का माध्यम माध्यमिक स्तर में अंग्रेजी रहे। माध्यमिक स्कूलों के सुधार और व्यावसायिक शिक्षा के प्रसार के लिए आयोग ने सिफारिशें कीं। सहायता अनुदान प्रथा और सरकारी शिक्षाविभागों का सुधार, धार्मिक शिक्षा, स्त्री शिक्षा, मुसलमानों की शिक्षा इत्यादि पर भी आयोग ने प्रकाश डाला।

आयोग की सिफारिशों से भारतीय शिक्षा में उन्नति हुई। विद्यालयों की संख्या बढ़ी। नगरों में नगरपालिका और गाँवों में जिला परिषद् का निर्माण हुआ और शिक्षा आयोग ने प्राथमिक शिक्षा को इनपर छोड़ दिया परंतु इससे विशेष लाभ न हो पाया। प्राथमिक शिक्षा की दशा सुधर न पाई। सरकारी शिक्षा विभाग माध्यमिक शिक्षा की सहायता करता रहा। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही रही। मातृभाषा की उपेक्षा होती गई। शिक्षा संस्थाओं और शिक्षितों की संख्या बढ़ी, परंतु शिक्षा का स्तर गिरता गया। देश की उन्नति चाहनेवाले भारतीयों में व्यापक और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा की आवश्यकता का बोध होने लगा। स्वतंत्रताप्रेमी भारतीयों और भारतप्रेमियों ने सुधार का काम उठा लिया। १८७० में बाल गंगाधर तिलक और उनके सहयोगियों द्वारा पूना में फर्ग्यूसन कालेज, १८८६ में आर्यसमाज द्वारा लाहौर में दयानंद ऐंग्लो वैदिक कालेज और १८९८ में काशी में श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा सेंट्रल हिंदू कालेज स्थापित किए गए।

१९०१ में लार्ड कर्ज़न ने शिमला में एक गुप्त शिक्षा सम्मेलन किया था जिसें १५२ प्रस्ताव स्वीकृत हुए थे। इसमें कोई भारतीय नहीं बुलाया गया था और न सम्मेलन के निर्णयों का प्रकाशन ही हुआ। इसको भारतीयों ने अपने विरुद्ध रचा हुआ षड्यंत्र समझा। कर्ज़न को भारतीयों का सहयोग न मिल सका। प्राथमिक शिक्षा की उन्नति के लिए कर्ज़न ने उचित रकम की स्वीकृति दी, शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की तथा शिक्षा अनुदान पद्धति और पाठ्यक्रम में सुधार किया। कर्ज़न का मत था कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही दी जानी चाहिए। माध्यमिक स्कूलों पर सरकारी शिक्षाविभाग और विश्वविद्यालय दोनों का नियंत्रण आवश्यक मान लिया गया। आर्थिक सहायता बढ़ा दी गई। पाठ्यक्रम में सुधार किया गया। कर्जन माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में सरकार का हटना उचित नहीं समझता था, प्रत्युत सरकारी प्रभाव का बढ़ाना आवश्यक मानता था। इसलिए वह सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ाना चाहता था। लार्ड कर्जन ने विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा की उन्नति के लिए १९०२ में भारतीय विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त किया। पाठ्यक्रम, परीक्षा, शिक्षण, कालेजों की शिक्षा, विश्वविद्यालयों का पुनर्गठन इत्यादि विषयों पर विचार करते हुए आयोग ने सुझाव उपस्थित किए। इस आयोग में भी कोई भारतीय न था। इसपर भारतीयों में क्षोभ बढ़ा। उन्होंने विरोध किया। १९०४ में भारतीय विश्वविद्यालय कानून बना। पुरातत्व विभाग की स्थापना से प्राचीन भारत के इतिहास की सामग्रियों का संरक्षण होने लगा। १९०५ के स्वदेशी आंदोलन के समय कलकत्ते में जातीय शिक्षा परिषद् की स्थापना हुई और नैशनल कालेज स्थापित हुआ जिसके प्रथम प्राचार्य अरविंद घोष थे। बंगाल टेकनिकल इन्स्टिट्यूट की स्थापना भी हुई।

१९११ में गोपाल कृष्ण गोखले ने प्राथमिक शिक्षा को नि:शुल्क और अनिवार्य करने का प्रयास किया। अंग्रेज़ सरकार और उसके समर्थकों के विरोध के कारण वे सफल न हो सके। १९१३ में भारत सरकार ने शिक्षानीति में अनेक परिवर्तनों की कल्पना की। परंतु प्रथम विश्वयुद्ध के कारण कुछ हो न पाया। प्रथम महायुद्ध के समाप्त होने पर कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त हुआ। आयोग ने शिक्षकों का प्रशिक्षण, इंटरमीडिएट कालेजों की स्थापना, हाई स्कूल और इंटरमीडिएट बोर्डों का संगठन, शिक्षा का माध्यम, ढाका में विश्वविद्यालय की स्थापना, कलकत्ते में कालेजों की व्यवस्था, वैतनिक उपकुलपति, परीक्षा, मुस्लिम शिक्षा, स्त्रीशिक्षा, व्यावसायिक और औद्योगिक शिक्षा आदि विषयों पर सिफारिशें की। बंबई, बंगाल, बिहार, आसाम आदि प्रांतों में प्राथमिक शिक्षा कानून बनाये जाने लगे। माध्यमिक क्षेत्र में भी उन्नति होती गई। छात्रों की संख्या बढ़ी। माध्यमिक पाठ्य में वाणिज्य और व्यवसाय रखे दिए गए। स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट परीक्षा चली। अंग्रेजी का महत्व बढ़ता गया। अधिक संख्या में शिक्षकों का प्रशिक्षण होने लगा।

१९१६ तक भारत में पाँच विश्वविद्यालय थे। अब सात नए विश्वविद्यालय स्थापित किए गए। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तथा मैसूर विश्वविद्यालय १९१६ में, पटना विश्वविद्यालय १९१७ में, ओसमानिया विश्वविद्यालय १९१८ में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय १९२० में, और लखनऊ और ढाका विश्वविद्यालय १९२१ में स्थापित हुए। असहयोग आंदोलन से राष्ट्रीय शिक्षा की प्रगति में बल और वेग आए। बिहार विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, गौड़ीय सर्वविद्यायतन, तिलक विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, जामिया मिल्लिया इस्लामिया आदि राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना हुई। शिक्षा में व्यावहारिकता लाने की चेष्टा की गई। १९२१ से नए शासनसुधार कानून के अनुसार सभी प्रांतों में शिक्षा भारतीय मंत्रियों के अधिकार में आ गई। परंतु सरकारी सहयोग के अभाव के कारण उपयोगी योजनाओं का कार्यान्वित करना संभव न हुआ। प्राय: सभी प्रांतों में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य करने की कोशिश व्यर्थ हुई। माध्यमिक शिक्षा में विस्तार होता गया परंतु उचित संगठन के अभाव से उसकी समस्याएँ हल न हो पाईं। शिक्षा समाप्त कर विद्यार्थी कुछ करने के योग्य न बन पाते। दिल्ली (१९२२), नागपुर (१९२३) आगरा (१९२७), आंध्र (१९२६) और अन्नामलाई (१९२६) में विश्वविद्यालय स्थापित हुए। बंबई, पटना, कलकत्ता, पंजाब, मद्रास और इलाहबाद विश्वविद्यालयों का पुनर्गठन हुआ। कालेजों की संख्या में वृद्धि होती गई। व्यावसायिक शिक्षा, स्त्रीशिक्षा, मुसलमानों की शिक्षा, हरिजनों की शिक्षा, तथा अपराधी जातियों की शिक्षा में उन्नति होती गई।

अगले शासनसुधार के लिए साइमन आयोग की नियुक्ति हुई। हर्टाग समिति इस आयोग का एक आवश्यक अंग थी। इसका काम था भारतीय शिक्षा की समस्याओं की सागोपांग जाँच करना। समिति ने रिपोर्ट में १९१८ से १९२७ क प्रचलित शिक्षा के गुण और दोष का विवेचन किया और सुधार के लिए निर्देश दिया।

१९३०-१९३५ के बीच संयुक्त प्रदेश में बेकारी की समस्या के समाधान के लिए समिति बनी। व्यावहारिक शिक्षा पर जोर दिया गया। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दो वर्षों में से एक वर्ष स्कूल के साथ कर दिया जाए, जिससे पढ़ाई ११ वर्ष की हो। बाकी एक वर्ष बी.ए. के साथ जोड़कर बी.ए. पाठ्यक्रम तीन वर्ष का कर दिया जाए। माध्यमिक छह वर्ष के दो भाग हों - तीन वर्ष का निम्न माध्यमिक और तीन वर्ष का उच्च माध्यमिक। अंतिम तीन वर्षों में साधारण पढ़ाई के साथ साथ कृषि, शिल्प, व्यवसाय सिखाए जायँ। समिति की ये सिफारिशें कार्यान्वित नहीं हुई।

१९३७ में शिक्षा की एक योजना तैयार की गई जो १९३८ में बुनियादी शिक्षा के नाम से प्रसिद्ध हुई। सात से ११ वर्ष के बालक बालिकाओं की शिक्षा अनिवार्य हो। शिक्षा मातृभाषा में हो। हिंदुस्तानी पढ़ाई जाए। चरखा, करघा, कृषि, लकड़ी का काम शिक्षा का केंद्र हो जिसकी बुनियाद पर साहित्य, भूगोल, इतिहास, गणित की पढ़ाई हो। १९४५ में इसमें परिवर्तन किए गए और परिवर्तित योजना का नाम रखा गया 'नई तालीम।' (१) पूर्व बुनियादी, (२) बुनियादी, (३) उच्च बुनियादी और (४) वयस्क शिक्षा इसके चार विभाग थे। हिंदुस्तानी तालीमी संघ पर इसका संचालनभार छोड़ दिया गया।

१९४५ में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होते होते सार्जेट योजना का निर्माण हुआ। छह से १४ वर्ष की अवस्था के बालकों तथा बालिकाओं के लिए अनिवार्य शिक्षा हो। जूनियर बेसिक स्कूल, सीनियर बेसिक स्कूल, साहित्यिक हाई स्कूल ओर व्यावसायिक हाई स्कूल की पढ़ाई ११ वर्ष की अवस्था से १७ वर्ष की अवस्था तक हो। इसके बाद विश्वविद्यालय में प्रवेश हो। डिग्री पाठ्यक्रम तीन वर्ष का हो। इंटरमीडिएट कक्षा समाप्त कर दी जाए। पाँच से कम अवस्थावालों के लिए नर्सरी स्कूल हो। माध्यम मातृभाषा हो। १९५२-५३ में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की उन्नति के लिए अनेक सुझाव दिए। माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन से शिक्षा में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई।

१९४८-४९ में विश्वविद्यालयों के सुधार के लिए विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति हुई। आयोग की सिफारिशों को बड़ी तत्परता के साथ कार्यान्वित किया गया। उच्च शिक्षा में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई। पंजाब, गौहाटी, पूना, रुड़की, कश्मीर, बड़ौदा, कर्णाटक, गुजरात, महिला विश्वविद्यालय, विश्वभारती, बिहार, श्रीवेकंटेश्वर, यादवपुर, वल्लभभाई, कुरुक्षेत्र, गोरखपुर, विक्रम, संस्कृत वि.वि. आदि अनेक नए विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात् शिक्षा में प्रगति होने लगी। विश्वभारती, गुरुकुल, अरविंद आश्रम, जामिया मिल्लिया इसलामिया, विद्याभवन, महिला विश्वक्षेत्र में प्रशंसनीय वनस्थली विद्यापीठ आधुनिक भारतीय शिक्षा के विद्यालय, और प्रयोग हैं। (सत्यां मोहन मुखोपाध्याय)