शिक्षा न्यास भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में अधिकांशत: न्यासों के अधीन गैरसरकारी संस्थाओं का कार्य पर्याप्त महत्वपूर्ण है। विविध स्तरों पर शैक्षिक संस्थाओं की कुल संख्या वर्ष १९६०-६१ में गैरसरकारी शिक्षा संस्थाओं का प्रतिशत, शिक्षा आयोग १९६४-६५ के प्रतिवेदन से उद्घृत निम्न सूची में द्रष्टव्य है -

स्तर प्रतिशत

१. पूर्व प्राथमिक ७०.९

२. निम्नतर प्राथमिक २२.२

३. उच्चतर प्राथमिक २७.१

४. माध्यमिक ६९.२

५. व्यावसायिक स्कूल ५७.४

६. विशिष्ट स्कूल ७९.०

७. उच्चतर सामान्य शिक्षण संस्थाएँ ७८.८

८. व्यावसायिक शिक्षण संबंधी कॉलेज ४९.८

९. विशेष शिक्षा संबंधी कालेज ७४.९

१०. कालेजों की कुल संख्या सेक्टरों के लिये ३३.२

शिक्षा के विकास में स्वयंसेवी अभिकरणों का योगदान गुजरात, केरल, उड़ीसा तथा मद्रास जैसे प्रदेशों में दूसरे राज्यों की अपेक्षा बहुत अधिक है। योग्यता तथा कार्यनिष्पादन की दृष्टि से भी गैरसरकारी संस्थाओं की भिन्न भिन्न कोटियाँ हैं। शिक्षा आयोग के मतानुसार - यह सत्य है कि कुछ निजी संस्थाओं ने शिक्षा के क्षेत्र में धनात्मक योगदान की अपेक्षा निषेधात्मक कार्य ही अधिक किया है, किंतु साथ ही यह भी हमें मानना पड़ता है कि वर्तमान भारत में शैक्षिक विकास की दृष्टि से निजी संस्थाओं का विशिष्ट महत्व है। हमारे अधिकांश श्रेष्ठ संस्थान निजी क्षेत्र से ही संबद्ध हैं। आगामी वर्षों में शिक्षाविकास के लिये इनका योगदान और अधिक महत्वपूर्ण हो सकता है। अतएव राज्य को शैक्षिक विकास में निजी क्षेत्र के इस सहयोग का यथासंभव उपयोग करना चाहिए।

शिक्षा आयोग यह अनुभव करता है कि राज्य द्वारा संपूर्ण आवश्यक शैक्षिक सुविधाएँ प्रदान करने का उत्तरदायित्व ग्रहण करने के परिणामस्वरूप निजी कार्यक्षेत्र अपेक्षाकृत गौण एवं सीमित हो सकता है। शिक्षाविस्तार के बृहत् कार्य को देखते हुए निजी संस्थाएँ निस्संदेह इसमें अधिक योग तो नहीं दे सकतीं, किंतु शिक्षास्तर की उन्नति में स्वयंसेवी संस्थाओं का राष्ट्रीय शिक्षाविकास में महत्वपूर्ण योगदान सतत रहेगा। ऐसी भी शिक्षण संस्थाएँ हैं जो सरकर से किसी भी प्रकार की वित्तीय सहायता प्राप्त नहीं करती है और आत्मनिर्भर है। इनकी कार्यकुशलता सरकारी संस्थाओं से निस्संदेह श्रेष्ठ है। इनकी आय का आधार भेंट, दान तथा अन्य निजी साधन हैं और ये इनपर ही निर्भर करती हैं। ये सरकार से केवल मान्यता प्राप्त करती है वित्तीय सहायता नहीं लेतीं। तो भी अनेक ऐसी निजी संस्थाएँ हैं वित्तीय सहायता नहीं लेतीं। तो भी अनेक ऐसी निजी संस्थाएँ हैं जो सरकार से सहायता प्राप्त करती हैं और यह वित्तीय सहायता प्राप्त करने के फलस्वरूप उन्हें सरकार द्वारा अधिरोपित नियमों तथा उपनियमों के अनुरूप कार्य करना पड़ता है। देश में शैक्षिक विकस की समस्याएँ, विशेषत: निम्नतर स्तर पर, शिक्षाविस्तार से संबंद्ध हैं और सामान्यत: शिक्षास्तर के सर्वांगीण विकास की आवश्यकता है। न्यासों द्वारा पोषित स्वयंसेवी अभिकरण इन दोनों क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं और विशेषत: शिक्षास्तर के उन्नयन में। शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग तथा शोध की अत्यधिक आवश्यकता है। स्वयंसेवी शैक्षिक अभिकरण अथवा न्यास प्रभविष्णु तथा क्रांतिकारी योजना बना सकते हैं, क्योंकि ये उन समस्त सरकारी नियमों तथा बंधनों से मुक्त हो सकते हैं जिनके निर्जीव नियमबद्ध अभ्यासों में किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता संभव नहीं है।

यह मानी हुई बात है कि स्वयंसेवी अभिकरण जब सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त करते हैं तो इन्हें विद्यार्थियों के प्रवेश, स्थान, पाठ्यक्रम अतिरिक्त क्रियाओं, अध्यापकों के सेवाप्रतिबंधों इत्यादि से संबंधित नियमों तथा उपनियमों का पालन करना पड़ता है। सरकार को इस संबंध में सतर्क रहना पड़ेगा कि इस प्रकार की संस्थाओं में एक सामान्य परिवाद यह है कि उनकी वित्तीय आवश्यकताएँ बहुत बड़ी समस्या का रूप धारण कर लेती हैं। इसकेलिये भेंट तथा परोपकारी जीवों के नियमित योगदान के अतिरिक्त आय के अन्य साधन उपलब्ध करने पड़ते हैं।

संभ्रांत समाज एक जमींदारों से उपलब्ध होनेवाले दान दक्षिणा के पुरातन साधन तो अब समाप्त हो चुके हैं। किंतु योजना के परिणामस्वरूप उद्योगों तथा व्यापारिक क्षेत्रों के विकास ने अन्य साधन प्रदान किए हैं। इनका सदुपयोग किया जाना चाहिए। शैक्षिक न्यासों में दानस्वरूप दी गई राशि पर सरकार द्वारा कर में अधिक उदार छूट की नीति का अनुकरण किया जा सकता है। साथ ही सरकार द्वारा धार्मिक संस्थाओं की आय का उपयोग भी इस क्षेत्र में किया जा सकता है। कुछ दक्षिणी राज्यों में सरकार ने धार्मिक संस्थाओं के प्रबंध में एक विशिष्ट नीति का अनुसरण किया है। श्री वेंकटेश्वर न्यास का उदाहरण देश के अन्य भागों के लिये भी स्पृहणीय है। (राम कृष्ण भान)