शिक्षा, अनिवायर् शिक्षा का अर्थ किसी क्षेत्र में निश्चित आयु के अंतर्गत आनेवाले बालकों की शाला में विधान द्वारा अनिवार्य उपस्थिति है। यह आयुसीमा प्राय: छह वर्ष से १६ वर्ष तक की होती है। प्रारंभ में उपस्थिति की अनिवार्यता न रखते हुए, केवल १२ वर्ष तक की उम्र के सभी बालकों को लिखने पढ़ने की योग्यता प्राप्त करना आवश्यक था। इसका आधार धार्मिक सिद्धांतों का महत्व और व्यक्ति पर अपने चरित्रनिर्माण की जिम्मेदारी थी। आधुनिक काल में इस विश्वास ने कि प्रजातंत्र की सफलता शिक्षित नागरिक पर निर्भर करती है, अनिवार्य शिक्षा को बहुत बल दिया है।

सर्वप्रथम जर्मनी में मार्टिन लूथर ने प्रत्येक व्यक्ति को बाइबिल पढ़ने की योग्यता प्राप्त करने के लिए राज्य द्वारा नियंत्रित सार्वभौम शिक्षा पर जोर दिया। फलत: सन् १६१९ ई. में वाइमार में और फिर सन् १७६३ में प्राय: संपूर्ण जर्मनी में अनिवार्य शिक्षा का कानून लगाया गया। इसके अनुसार छह से १२ वर्ष की उम्र के बालकों की शाला में उपस्थिति अनिवार्य कर दी गई। बाद में अंतिम सीमा बढ़ाकर १४ वर्ष कर दी गई।

फ्रांस में, जनक्रांति के पूर्व मानव स्वतंत्रता के आधार को लेकर, अनिवार्य शिक्षा का बड़ा विरोध किया गया। किंतु धीरे धीरे शिक्षा सुविधाएँ बढ़ाकर मार्ग प्रशस्त बनाया गया, तब कहीं सन् १७९१ में एक कानून के अनुसार छह से १२ वर्ष के बालकों की शिक्षा अनिवार्य की जा सकी और नियम भंग करनेवाले अभिभावकों पर जुर्माना करने की व्यवस्था हुई। सन् १८८२ के विधान ने प्राथमिक शिक्षा समस्त देश में अनिवार्य कर दी।

इस दिशा में इंग्लैंड के प्रथम प्रयत्न मानवता भावना से प्रेरित बालकों की सुरक्षा पर आधारित थे। सन् १८७० में बोर्ड स्कूलों की स्थापना के साथ अनिवार्यता का सिद्धांत भी आया। सन् १८७६ में पाँच से १४ वर्ष के बालकों के माता पिता से उन्हें प्रमाणित शालाओं में भेजने के लिये कहा गया और २० वीं शती के प्रथम दशक में ऐसे बालकों की शाला में उपस्थिति अनिवार्य कर दी गई।

अमरीका के मेसाचुसेट्स राज्य में इस दिशा में प्रथम प्रयास सन् १८५२ ई. में हुआ जिसमें आठ से १४ वर्ष के बालकों को वर्ष के बारह सप्ताहों में शाला में उपस्थित होना अनिवार्य बनाया गया। सन् १८९८ में उपस्थिति के संबंध में कठोर नियम बने। इनकी अवहेलना करनेवाले माता पिता को जुर्माना देने और संस्था का अनुदान बंद कर देने की व्यवस्था हुई। आजकल अनिवार्य शिक्षा आयुसीमा छह से १६ वर्ष है किंतु कुछ राष्ट्रों में इससे कम या अधिक उम्र तक के बालकों को शाला में रखा जाता है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर अनिवार्य उपस्थिति के नियमों को चुनौती दी गई है किंतु न्यायालयों का निर्माण रहा है कि व्यक्ति को न्यूनतम शिक्षा देने का अधिकार राष्ट्र को प्राप्त है।

भारतवर्ष में सन् १८३८ ई. में विलियम ऐडम ने अनिवार्य शिक्षा के विचार को जन्म दिया। सन् १८४६ में पश्चिमोत्तर प्रांत के गवर्नर टॉमेसन ने हल्काबंदी शालाओं में और १८५२ में कैप्टेन विनगेट ने बंबई प्रांत में इसको क्रियात्मक रूप देना चाहा किंतु इसमें अधिक सफलता न मिल सकी। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तथा बीसवीं के आरंभ में अनिवार्य शिक्षा करने के लिये भारतीय नेताओं ने बहुत जोर लगाया किंतु विदेशी शासन के सम्मुख उनकी एक न चली। बड़ोदा राज्य के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने सन् १८९३ में अमरैली क्षेत्र में अनिवार्य शिक्षा आरंभ की और उसकी सफलता से प्रेरित हो बाद में संपूर्ण राज्य में इसकी व्यवस्था की। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद सभी प्रांतों में अनिवार्य शिक्षा के नियम बनाए गए जिसका श्रीगणेश बिट्ठलभाई पटेल के बंबई विधान परिषद् के प्रस्ताव से सन् १९१९ में हुआ। राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रांतों के मंत्रिपद ग्रहण करने पर सन् १९३८ में इस दिशा में बड़े प्रयास हुए। इस समय महात्मा गांधी की मूलोद्योग शिक्षा योजना में छह से १४ वर्ष के बालकों के लिये शिक्षा अनिवार्य तथा नि:शुल्क की गई जिसका अधिकाधिक प्रसार हुआ। भारत के स्वतंत्र होने पर विधान में १४ वर्ष की उम्र तक बालकों की शिक्षा अनिवार्य करने की जिम्मेदारी शासन पर रखी गई। द्वितीय पंचवर्षीय योजना की आशा व्यक्त की गई।

अनिवार्य शिक्षा प्राय: प्राथमिक स्तर तक दी जाती है किंतु कुछ प्रगतिशील देशों में उच्चतर माध्यमिक स्तर तक जोर दिया जा रहा है। इस शिक्षा की सार्थकता एवं सफलता बालकों की शाला में उपस्थिति पर निर्भर करती है जिसका आधार निम्नांकित है: अनिवार्य आयुसीमाएँ, सत्र में शाला खुलने के दिनों की संख्या, दैनिक कार्यविधि, उपस्थिति का न्यूनतम प्रतिशत, और अपेक्षित शिक्षा संप्राप्ति। गरीब बालकों और उनके पालकों को आर्थिक सहायता देना, शाला से दूर रहनेवाले बालकों के आने जाने का प्रबंध करना, अनिवार्य उपस्थिति के नियमों का पालन कराना और बालकों की उपस्थिति नियमित बनाना आदि समस्याओं के उचित समाधान पर अनिवार्य शिक्षा की सफलता निर्भर है। (अनिरुद्ध मिश्र.)