शिकार और वन्य पशु (उनकी कुछ विशेषताएँ) - शिकारियों को वन्य पशुओं का शिकार करते करते उनमें अक्सर ऐसी विशेषताएँ देख पड़ती हैं जिनकी अच्छी तरह जानकारी रहने से सफलतापूर्वक शिकार करने तथा खतरे से बचने में अधिक आसानी होती है। ऐसी कुछ विशेषताओं की चर्चा यहाँ की जाती है।

१. वे आपस में नहीं लड़ते - व्याघ्र, चीता आदि पशु मनुष्य के सामने प्राय: आपस में नहीं लड़ते। जयपुर के महाराज वन्य पशुओं का द्वंद्व देखने के बड़े शौकीन थे। प्राय: प्रति वर्ष इनकी लड़ाई देखने का विशेष कार्यक्रम तैयार किया जाता था। खास तौर से घेरकर बनाए गए मैदान में दो उन्मत्त हाथी या अन्यान्य जंगली पशु परस्पर लड़ने के लिए छोड़ लिए जाते थे। कई अवसरों पर जब बाघ और तेंदुए (पैंथर) एक ही कठघरे में आमने सामने खड़े कर दिए जाते तो अक्सर देखा जाता था कि जब तक लोग उनकी ओर देखते रहते थे, वे आपस में कदापि नहीं लड़ते थे, मानो वे यह अच्छी तरह जानते हों कि मानव हम दोनों का समान रूप से शत्रु है, अत: उसका मनोरंजन करने के लिए परस्पर लड़ना बेमतलब है।

इतना होते हुए भी जब व्याघ्र या अन्य दो खूँखार पशु किसी कारणवश एक दूसरे से चिढ़ने लगें या नफरत करने लगें तो सामना होने पर वे एक दूसरे का खात्मा करने के लिए सन्नद्ध हो उठते हैं। जयपुर के चिड़ियाघर का निरीक्षण करते समय लेखक ने कई बार देखा कि न जाने क्यां ''हैपी'' नाम का बाघ अपनी ही बहिन 'ग्रंपी' से बहुत चिढ़ता था, जिससे उसकी धारणा हो गई कि यदि वे दोनों एक साथ रख दिए जाएँ तो वे अवश्य ही एक दूसरे पर आक्रमण कर बैठेंगे। इसकी सच्चाई के परीक्षण का अवसर तब आया जब नवानगर के जाम साहब ने जयपुर आने पर दो शेरों (टाइगर्स) की या शेर तेंदुए की लड़ाई देखने की इच्छा प्रकट की। पहले एक बाधिन के सामने तेंदुआ खड़ा किया गया किंतु उन्होंने एक दूसरे के प्रति द्वेष या दुश्मनी का कोई भाव प्रकट नहीं किया। इसपर बहुतों का विश्वास हो गया कि वे कभी द्वंद्व न करेंगे किंतु लेखक ने अपने अनुभव के आधार पर बाजी लगाई और कहा कि 'हैपी' के छोड़ते ही शेरनी से उसकी लड़ाई ठन जाएगी। ऐसा ही हुआ। 'हैपी' ने झपटकर शेरनी की गर्दन पकड़ ली और जब तक वह मर नहीं गई उसने अपनी पकड़ ढीली नहीं की।

२. श्रेष्ठता दिखाने को लड़ते - कभी कभी अपनी शक्ति या श्रेष्ठता दिखलाने के लिए भी वन्य पशु एक दूसरे पर आक्रमण कर मर मिटने को आमादा हो जाते हैं। ऐसा एक दृश्य लेखक ने उस समय देखा जब वह डिगोटा नामक स्थान में एक मचान पर बैठकर एक हिंस्र व्याघ्र को मारने की प्रतीक्षा कर रहा था। जिस पोखरे में पानी पीने के लिए व्याघ्र आया करता था, उसी में पानी पीने की गरज से एक सूअर थोड़ी देर पहले आया। खतरे की घंटी बजते ही जंगल के सब पशु सावधान हो गए। सूअर ने भी वह आवाज सुनी पर वह वहाँ से हटा नहीं और बाघ के आने की राह देखने लगा। जब बाघ पानी के निकट पहुँचा तो दोनों एक दूसरे पर टूट पड़े और तब तक लड़ते रहे जब तक दोनों का, अपने अपने जख्मों के कारण, प्राणांत न हो गया। दोनों अपने अपने प्रतिद्वंद्वी को अपनी श्रेष्ठता दिखलाना चाहते थे, यद्यपि व्याघ्र का एक लक्ष्य सूअर को मारकर उसके मांस से अपने को तृप्त करना भी रहा होगा।

३. मनुष्य से भय - वन्य पशुओं की तीसरी विशेषता यह है कि वे स्वभावत: मनुष्य से भय खाते हैं। प्रकृति ही मानो व्याघ्र को सिखा देती है कि मानव बुद्धिबल के कारण उससे प्रबलतर है और वह (मनुष्य) काफी दूर रहकर भी उसपर प्रहार कर सकता है, इसलिए वह मनुष्य से छेड़छाड़ नहीं करना चाहता। किंतु एक बार यदि यह भय दूर हो जाए तो फिर वह मानवभक्षी बन जाता है; नहीं तो वह शिकार के पशुओं को ही मारकर या मवेशियों को उठा ले जाकर संतोष कर लेता है।

४. पेड़ पर नहीं चढ़ते - व्याघ्र साधारणत: वृक्षों पर नहीं रहते, न उनपर चढ़ने का प्रयत्न करते हैं किंतु अत्यंत लाचारी की स्थिति में कभी कभी वे ऐसा प्रयास कर भी बैठते हैं। एक बार वैरठ के जंगल से कुछ ही दिन पूर्व पकड़ा गया एक मनुष्यभक्षी व्याघ्र जब शोरगुल करनेवाली भीड़ से चारों तरफ घिर गया और बीच में पड़नेवाली ३० फुट चौड़ी खाईं के कारण जब उसने उसपर हमला करने में अपने को असमर्थ पाया, तब वह पास के पीपल के पेड़पर ३० फुट तक चढ़ गया और वहाँ बैठकर सुस्ताने लगा। कुछ ही मिनट बाद वह वहाँ से आसानी से उतर भी आया। इसपर लोगों को सहसा विश्वास न होगा, लेकिन लेखक की यह प्रत्यक्ष देखी घटना है। वृक्ष की तिरछी या लटकती हुई शाखा पर तो व्याघ्र को १०-१२ फुट तक ऊँचाई पर चढ़ते कई बार देखा गया है किंतु ३० फुट तक चढ़ जाने की ऊपर की घटना सचमुच अद्भुत और निराली है।

५. संकट में मनुष्य की शरण चाहते - वन्य पशुओं की एक आदत यह होती है कि यद्यपि वे मनुष्य की संगति से बचते रहते हैं, फिर भी संकट के समय वे मनुष्य की शरण में आने से भी नहीं हिचकते। ऐसी ही एक घटना सन् १९३३ में सवाई माधोपुर के निकट एक जंगल में देखी गई थी। एक स्थान पर शिकारियों का खेमा गड़ा हुआ था। सवेरे के वक्त, जब लोग नाश्ता पानी कर रहे थे, एक साँभर मृग, जो स्वभावत: बहुत लज्जालु होता है और मनुष्य के सामीप्य से दूर भागता है, अचानक छह फुट ऊँची कनात की दीवार को लाँघकर सामने आ खड़ा हुआ। कुछ समय स्थिर रहने के बाद जब वह दूसरी तरफ से चौकड़ी भरते हुए निकल गया तो शामियाने के बाहर निकल कर देखने से पता चला कि कुछ जंगली कुत्ते उसका तेजी से पीछा कर रहे थे, अत: उनसे जान बचाने के लिए वह मनुष्यों की शरण में जा पहुँचा था। उसकी यह युक्ति काम कर गई और उसके प्राण बच गए।

एक और घटना १९४० की है जब विशनगढ़ के समीप के एक गाँव में प्रात: ९ बजे एक शेर मीना परिवार की झोपड़ी की ओर आता दिखाई दिया। बाहर दो बच्चे खेल रहे थे और उनकी माँ भोजन बना रही थी किंतु उन्हें कोई नुकसान न पहुँचाकर शेर झोपड़ी के अंदर घुसकर बैठ गया। समाचार पाकर गाँव के लोग इकट्ठे हो गए। झोपड़ी का दरवाजा भीतर की ओर खुलता था अत: भीतर हाथ डालकर उसे बाहर की ओर खींचकर बंद करना खतरनाक था, इसलिए उन लोगों ने ढँढ़ ढाँढ़कर एक टट्टर चुपके से दरवाजे के सामने लगा दिया और फिर गाड़ी भर कँटीली झाड़ियाँ आदि इकट्ठी कर उससे सटाकर रख दीं। इसके बाद उन्होंने लेखक के पास आकर सहायता की याचना की। बात कुछ समझ में आ नहीं रही थी किंतु पगच्ह्रोिं को देखकर अविश्वास करना कठिन था। टट्टर आदि को हटाकर गोली चलाने की चेष्टा करना खतरे से खाली न था, अत: छप्पर पर बैठकर एक सुराख के जरिए निशाना बाँधकर गोली चलाई गई। एक दर्दीली तेज गुर्राहट के बाद शेर ठंढा हो गया। काँटों का अंबार हटवाने के बाद जब देखा गया तो पता चचला कि शेर की गर्दन में बहुत से घाव थे जिनमें कीड़े पड़ गए थे। स्पष्ट था कि किसी अन्य बाघ के साथ हुई लड़ाई में वह बुरी तरह घायल हो गया था और वह जीभ से चाटकर जख्मों को साफ नहीं कर सकता था, अत: इस दु:खद स्थिति से छुटकारा पाने की गरज से ही उसने मनुष्य के निवास तक चले आने का निश्चय किया था। जो हो, लेखक को अपने शिकारी जीवन में ऐसी अनेक घटनाओं का अनुभव हुआ। सचमुच यह बड़े आश्चर्य की बात है कि व्याघ्र, जो मनुष्य का स्वाभाविक शत्रु है, संकट में पड़कर उसकी सहायता की आकांक्षा करे। इससे यह कहावत चरितार्थ होती है कि आवश्यकता के समय कानून के बंधन टूट जाते हैं।

सिंह और व्याघ्र

भारत में सिंह पुरातन काल से पाए जाते रहे हैं। राजस्थान तथा मध्यप्रदेश के जंगलों में तो वे प्राय: ही दिखाई दे जाया करते थे किंतु देश में अब सौराष्ट्र के गिर जंगल को छोड़कर अन्य स्थानों से उनका अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है। उनके लोप का मुख्य कारण यह है कि इन स्थानों में बाहर से आनेवाले व्याघ्रों की संख्या बढ़ती गई और उन्होंने सिंहों को या तो मार डाला या उन्हें भगा दिया, जिससे अंत में उन्हें गिर जंगल में पनाह मिली। यह जंगल बहुत कुछ अलग अलग सा पड़ जाता है और उसके ईद गिर्द सौ मील से भी अधिक दूरी तक कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ व्याघ्र पाए जाते हों।

ऐसा जान पड़ता है कि व्याघ्र इस देश में चीन से और बर्मा से ''बंगाल के व्याघ्र'' की बात किया करते हैं। वह सिंह से ज्यादा होशियार और ताकतवर होता है, इसलिए जहाँ जहाँ वह पहुँचा उसने सिंहों का या तो विनाश कर दिया या उन्हें भगा दिया। यों तो सिंह बड़ा साहसी होता है और व्याघ्र से सामना होने पर पहले वही आक्रमण करता है किंतु वह प्राय: उतना संघर्षशील नहीं होता और बाघ के पंजों के दो चार आघात झेलकर ही हट जाना बेहतर समझता है।

शिकारी के दृष्टिकोण से विचार किया जाए तो सिंह की अपेक्षा व्याघ्र का शिकार करना अधिक मनोरंजक तथा स्फूर्तिमय होता है। बाघ के शिकार में गोली चलाने की सुविधा आदि की दृष्टि से लंबा चौड़ा इंतजाम करना पड़ता है और इतना करने पर भी संभावना इस बात की रहती है कि वह चकमा देकर निकल जाए। सचमुच वह सिंह की तुलना में अधिक सावधान और चालक होता है।

सन् १९५२ में जूनागढ़ के जंगलों में सिंह का शिकार करने के लिए जाने का लेखक को दो तीन बार मौका लगा। उस समय यह देखकर आश्चर्य हुआ कि सिंह ने आड़ में या झाड़ी आदि के पीछे लुक छिपकर सतर्कतापूर्वक आने की चेष्टा नहीं की। वह निर्भयतापूर्वक यों सामने निकल आया मानो वह चहलकदमी के लिए निकला हो। इसलिए उसे गोली का निशाना बनाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। किंतु एक बार घायल हो जाने पर सिंह भी उतना ही भयानक हो उठता है जितना व्याघ्र।

इन दोनों की आदतों में बड़ा अंतर होता है। सिंह अपने प्रतिद्वंद्वी पर प्रहार करने के लिए पंजे का प्रयोग करता है, जब कि व्याघ्र अपने शिकार को दबोचे रखने के लिए उन्हें काम में लाता है। सिंह बड़े परिवार के साथ गर्वपूर्वक रहता है किंतु व्याघ्र की आदत इससे बिलकुल भिन्न होती है। सिंह प्राय: शिकार के लिए झुंड में निकलते हैं जब कि व्याघ्र अकेला ही चलता है। सिंह, जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं, साहसी अधिक होता है किंतु ताकत में व्याघ्र से कमजोर होता है और उसकी तुलना में आधा भी चालाक नहीं होता। व्याघ्र के साथ यदि उसके बच्चे और व्या्घ्राणीं भी हो तो व्याघ्र ही शिकार पर हमला करेगा और पहले खुद अपना पेट भरने का प्रयत्न करेगा, तब कहीं परिवार के किसी सदस्य को आहार में हाथ लगाने देगा। सिंह के मामले में प्राय: सिंहनी ही शिकार पर धावा बोलती है और पहले वही उसे खाना शुरु करती है; बाद में सिंह भी उसके साथ हो लेता है।

वन्य जंतुओं के संरक्षण की आवश्यकता

यह देखते हुए कि भारत में सिंहों का तथा अन्य कई वन्य पशु पक्षियों का तिरोभाव होता जा रहा है, इस बात की नितांत आवश्यकता है कि उनके संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाया जाए। वन्य पशु पक्षियों के क्रमिक ्ह्रास का एक कारण यह है कि यहाँ शिकारचोरों अर्थात् अनधिकारिक रूप से पशुपक्षियों का शिकार करनेवालों के खिलाफ कड़ी काररवाई नहीं की जाती। इसके सिवा प्राय: प्रत्येक राज्य का वन विभाग प्रति वर्ष बहुत बड़ी संख्या में वृक्षों को कटवाता जा रहा है जिससे वन्य जंतुओं को आत्मरक्षा के लिए समुचित शरण्य स्थान नहीं मिल पाता।

पशुपक्षियों के वन्य जीवन की रक्षा के दो उपाय हो सकते हैं-(१) लेखों, भाषणों, पुस्तिकाओं द्वारा प्रचार कराना, तथा (२) विधान और नियम बना देना। पहले में खर्च अधिक पड़ने की संभावना है और भारत जैसे अल्पशिक्षित देश में इससे उतना लाभ भी नहीं हो सकता, इसलिए कानून बना देना और कड़ाई से उसका पालन कराना ही श्रेयस्कर है।

्ह्रासमान पशुपक्षियों की रक्षा के लिए आवश्यक है कि संरक्षित शरण्य स्थानों (मृगवनों, सैंक्चुअरीज़) तथा राष्ट्रीय उद्यानों की ओर अधिक ध्यान दिया जाए। इन शरण्य स्थानों-संरक्षित वनों-की समुचित देखभाल और रक्षा से वन्य पशुपक्षियों की संख्या में वृद्धि होगी और वे प्राकृतिक वातावरण में उचित ढंग से पनप सकेंगे। ऐसा होने से सामान्य जनता और वैज्ञानिकों को भी उन्हें स्वाभाविक परिस्थितियों में देखने का अध्ययन मिल सकेगा। कतिपय किसानों की यह माँग कि समस्त वन्य पशुपक्षियों की समाप्ति कर दी जाए क्योंकि उनसे कृषि के उत्पादन में बाधा पड़ती है, उचित नहीं है। फसल की रक्षा के लिए यथोचित उपाय करने की छूट तो उन्हें मिलनी चाहिए किंतु साथ ही यह भी आवश्यक है कि उन वन्य क्षेत्रों में, जहाँ अन्न का उत्पादन न होता हो, वन्य पशुपक्षियों के संरक्षणार्थ बनाए गए नियमों का उल्लंघन न होने दिया जाए।

यदि शिकार के पशुपक्षियों का ्ह्रास होता जाएगा तो व्याघ्र, तेंदुआ आदि हिंस्र पशुओं को उनका स्वाभाविक आहार न मिल पाएगा और वे घरेलू जानवरों तथा मनुष्यों पर भी हमला शुरु कर देंगे, जैसा लखनऊ, दिल्ली आदि के समीप कई बार हो चुका है, इससे उन्हें मार डालना आवश्यक हो जाएगा। तब सिंहों की तरह व्याघ्रों, तेंदुओं आदि की संख्या भी घटने लगेगी जिससे शिकार के लिए भारत आनेवाले विदेशियों का आकर्षण कम हो जाएगा और उनसे देश को प्रचुर मात्रा में विदेशी मुद्रा की जो आमदनी होती है वह भी बंद हो जाएगी। स्पष्ट है कि संरक्षित शरण्य स्थलों के रहने से हिंस्र पशुओं के लिए यथोचित आहार प्राप्त होता रहेगा किंतु इसके साथ ही शाकाहारी पशु पक्षियों के लिए पीपल, महुआ, गुलर शहतूत तथा जंगली फलवृक्षों का बड़ी संख्या में आरोपण भी आवश्यक होगा जिससे भालू, हिरण, साँभर आदि पशुओं की संवृद्धि हो सके। (कर्नल केसरी सिंह)