शिकार (आखेट) और मनुष्य दोनों सहजन्मा है। बहुत प्राचीन काल में जब मनुष्य ने खेती करना प्रारंभ नहीं किया था, तब वह अपने भोजन ओर वस्त्र दोनों के लिए विभिन्न पशुओं के मांस और खाल पर ही पूर्णतया निर्भर था। पशुओं की हड्डियों से ही वह शस्त्रास्त्रों का भी काम लेता था। सर्दियों तक अंधेरे में प्रकाश के लिए मनुष्य पशुओं की चर्बी का प्रयोग करता था। कृषियुग के उद्भव के साथ साथ, शिकार का महत्व केवल मनोरंजन और अभ्यास तक ही सीमित रह गया। शांति के समय अपने साहस, पौरुष और बहादुरी की वृत्ति को भी मनुष्य कभी कभी शिकार के माध्यम से संतुष्ट करता था।
धीरे धीरे शिकार केवल राजा महाराजाओं और उनके दरबारियों तथा दरबार से संबंधित योद्धाओं का ही कार्य रह गया, क्योंकि यहीं एक ऐसा वर्ग था। जिसके पास आखेटोपयुक्त समय और साधन सुलभ थे। मुख्य रूप से प्राचीन भारत में आखेट उपर्युक्त वर्ग में ही प्रचलित था। वाल्मीकि रामायण में राम द्वारा माया मृग के पीछा किए जाने का तथा महाभारत में वनवास के समय पांडवों के आखेट का वर्णन आया है। दुष्यंत और शकुंतला का प्रेम, जो संस्कृत के महान् नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम् का कारण बना, आखेट की पृष्ठभूमि में ही पनपा। शाकुंतलम् में आखेट के गुणों की चर्चा करते हुए कवि ने लिखा है :
भेदश्छेद कृशोदरं भवत्युत्सा योग्य वपुं:,
सत्वानामपि लक्ष्यते विकृतिमच्चित्तभयक्रोधयो:।
उत्कर्ष: स च धन्विनां यदिथय: सिद्धंति लक्ष्ये चले,
मिथ्यैव व्यसनं वदन्ति मृगया मीदृग विनोद: कुत:।।
अभि. शा. २।५।
प्राचीन काल में राजे, महाराजे और सामंत गण, दैनिक जीवन की चहल पहल से थोड़ी राहत पाने के विचार से, आखेट हेतु जंगलां में डेरा डालते थे। हिरन तथा अन्य जानवरों का पीछा छिपकर पैदल, रथ पर, या घोड़े पर सवार होकर किया जाता था।
मध्यकाल में राजपूत राजे महाराजे बराबर आखेट का आयोजन किया करते थे। आज भी राजपूत राजाओं के यहाँ दशहरे के दिन शिकार की प्रतिद्वंद्विताएँ होती हैं और जिसे सबसे पहला शिकार मिल जाता है, वह उसे प्रसन्नता का प्रतीक और शकुन समझता है।
मुस्लिम शासनकाल में सभी बादशाह आखेट के लिए अपने अपने स्थायी जंगल रखते थे। देहरादून के पास स्थित, 'राजाजी अभयारण्य' मुगलों के काल में बादशाही शिकारगाह था, जहाँ पर प्राय: राजवंश के लोग शिकार के लिए जाते थे। इन दिनों सभी प्रकार के शिकारों के लिए इतने प्रचुर आखेट्य पशु थे कि गैंडे का (जो आज देश के कुछ भागों, जैसे असम और नेपाल को छोड़कर अन्य सब जगह समाप्त हो चुका है) शिकार पेशावर के पास बाबर ने किया था। इसका उल्लेख उसकी आत्मकथा में मिलता है। मुस्लिम शासनकाल में शिकार जंगली जानवरों के लिए कत्लेआम के सदृश होता था। पूरा जंगल घेर कर हांके के कोलाहल से गुंजायमान कर दिया जाता था हाँके के अलावा जंगल में तीन ओर से आग लगा दी जाती थी और केवल एक दिशा ही जानवरों के भागने के लिए छोड़ दी जाती थी। इस दिशा की ओर शिकारी पैदल, हाथी और घोड़े पर सवार, शिकार की प्रतीक्षा किया करते थे और जो भी जानवर उधर से निकलता वह शिकारी के विषैले हथियारों का शिकार हो जाता। हथियारों से लैस हांकावाले भी सामने पड़नेवाले जानवरों का शिकार करते थे। शिकार का रूप उस जमाने में शिकारी और शिकार के बीच एक तरह के संघर्ष का था। बीसवीं शताब्दी में अच्छी बंदूकों के आविष्कार के साथ साथ, शिकार अपेक्षाकृत अधिक व्यवस्थित तथा जंगली जानवरों के लिए ज्यादा खतरनाक हो गया। परिणामस्वरूप जंगली जानवरों की जातियों में बड़ी तीव्र गति से ्ह्रास होने लगा है। प्रमुख जंगली जानवरों के शिकार का वर्णन निम्न लिखित है :-
चीता - हिरन तथा छोटे जानवरों का शिकार करने के लिए भारत में आखेटक चीतों का प्रयोग करने की भी एक पद्धति थी। आखेटक चीतों को पकड़ने के लिए, पीछा करके दौड़ाते दौड़ाते थका दिया जाता था तथा उनको डराने के लिए बीच बीच में फायरिंग भी की जाती थी और जब वे थककर बिल्कुल अशक्त और नि:सहाय हो जाते थे, तो उन्हें मोटे और मजबूत रस्सों में फँसाकर बाँध रखा जाता था और बाद में उन्हें प्रशिक्षित किया जाता था चीतों को पूर्ण प्रशिक्षित कर उन्हें हिरन और बारहसिंगों के आखेट के लिए प्रयुक्त किया जाता था।
चीतों का प्रशिक्षण बड़ा आसान काम होता था। चीतों की आँख पर चढ़ा हुआ पट्टा हटाकर, हिरन और बारहसिंगों के पुतले दिखलाकर, उसे बंधनमुक्त कर दिया जाता था। इन पुतलों को देखकर, चीता अपने मूल स्वभाव की प्रेरणा से, उनपर प्रहारार्थ झपटता था और जब वह उन पुतलों का काम तमाम कर चुकता था, तो प्रशिक्षक गोश्त के टुकड़े लेकर, उनके पास जाता था और उसको उस पुतले के शिकार से विरत कर देता था। इस प्रकार प्रशिक्षित किए जाने के बाद, छोटी छोटी बैलगाड़ियों में बैठाकर, चीतों को हिरनों और बारहसिंगों का आखेट करने के लिए जंगलों, में ले जाया जाता था, और जब भी हिरन और बारहसिंगे दिखलाई पड़ते, तो शिकारी चीते की आँख की पट्टी हटाकर उसकी जंजीर खोल दी जाती थी। दूरी के अनुसार शिकारी चीता या तो दौड़ाकर शिकार का पीछा करता था, या उन्हें खतम कर डालने के लिए उनपर टूट पड़ता था, या शिकार को खूब दौड़ाकर पैरों से उनपर प्रहार करता था और पकड़ जाने पर, तब तक दबाए रखता था जब तक उसका मालिक शिकार के पास आकर शिकार की गर्दन न काट दे। गर्दन कटने पर जब तक शिकारी चीता शिकार के खून को चाटता था तबतक मरा हुआ शिकार गाड़ी में पहुंचा दिया जाता था और चीते की आँख पर आँख ढँकनेवाली पट्टी चढ़ा दी जाती थी तथा गले में जंजीर लगाकर, उसका प्रशिक्षक उसे गाड़ी पर ले जाता था। इस प्रकार दिन भर में एक अच्छा शिकारी चीता ४-५ हिरनों का शिकार कर लेता था। शिकार की यह पद्धति, जिसका उपयोग प्राचीन काल के राजे महराजे और सामंत करते थे, भारत में अब समाप्त हो चुकी है। अकबर के पास इस प्रकार के लगभग ६०० चीतों की पूरी पलटन थी। यह परंपरा भारत में सन् १९२० तक मिलती है। इसके बाद आखेटक चीतों का नामोनिशान भी नहीं मिलता।
आखेटक चीता लगभग तेंदुए के कद का होता है (देखें चीता, खंड ४, पृष्ठ १३५)। खड़ा होने पर अधिक ऊँचा और पतला मालूम होता है। पुतलियाँ और आंखें गोल तथा कान छोटे एवं गोल होते हैं। इसके बाल अपेक्षाकृत रूक्ष होते हैं तथा अन्य जगहों की अपेक्षा गर्दन पर कुछ लंबे होते हैं। खाल का रंग पांडुर, भूरा और पीला तथा कहीं कहीं रक्तपीत होता है, जो निचले हिस्सों में पार्श्व और पृष्ठ भागों की अपेक्षा हलका होता है। खाल लगभग सब जगह छोटे छोटे ठोस तथा गोले, काले धब्बों से अच्छादित रहती है। तेंदुए के समान इस पर गुल नहीं होते। इसकी ठुडुी और गर्दन श्वेत वर्णन की होती है। आंख से लेकर ऊपरी होंठों तक, एक काली रेखा खिंची रहती है। लगता है, जैसे अँाख से आँसू ऊपर के रोओं पर गिर रहे हैं। दूसरी ओर यह रेखा बालों में खो जाती है तथा आँख के कोनों से लेकर कानों तक धब्बे पड़े रहते हैं। यह ऊपरी हिस्सों पर काला और बगल तथा निम्न भागों में पांडुर-घूसर वर्ण का होता है। शरीर की तरह ही पूरे शरीर की लंबाई के आधे से अधिक लंबी पूँछ भी अंतिम छोर तक धब्बेदार होती है और नोक पर हलके वृत्त होते हैं। इसके तलवे और पंजे कुत्ते के समान होते हैं। बिल्लियों की तरह इसके पंजों के नाखून अंदर की ओर नहीं जाते।
ये कभी भी मनुष्यों पर आक्रमण नहीं करते। ये अपने शिकार के पास बड़ी सावधानी और शांति से आते हैं और उसके बाद एकाएक, बड़ी द्रुत गति से, शिकार पर आक्रमण करते हैं। ऊबड़ खाबड़ जमीन और घासों के झुरमुट का पूरा फायदा उठाते हुए, उनमें लुकते छिपते, ये अपने शिकार का पीछा करते हैं। कृष्णसार और चिकारा का पीछा करने में इनकी गति तीव्रतम होती है। इतनी तीव्रता कोई भी साधारण या शिकारी कुत्ता नहीं दिखला सकता। पूरा भोजन कर लेने के बाद, चीता दो दिन तक अपनी माँद में विश्राम करता है। इसके बाद किसी विशेष पेड़ के पास जाता है, जहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी आखेटक चीते इकट्ठे होकर अपने पंजे तेज करते रहे हैं। कभी कभी ये बहेलियों द्वारा भी पकड़ लिए जाते हैं और इस आशय से कि ये मानव गंध के आदी हो जाएँ, ये बच्चों तथा स्त्रियों के बीच रखे जाते हैं। छह महीने में ये पूर्णतया कुत्तों के समान प्रशिक्षित और पालतू हो जाते हैं तथा अपरिचितों के साथ भी इनका व्यवहार बड़ा मधुर हो जाता है। पालतू हो जाने के बाद, ये पालतू बिल्लियों के समान पूर्ण संतुष्ट और प्रसन्न रहते हैं और सदैव अपने मानव मित्रों के संपर्क में रहना पसंद करते हैं। ये पिंजड़े में कभी नहीं रखे जाते, बल्कि जमीन में गड़े खूँटे या दीवार में जड़े हुए किसी पल्ले के सहारे लौह शृंखलाओं में बाँधकर रखे जाते हैं।
तेंदुआ - यद्यपि तेंदुआ (देखें तेंदुआ) व्याघ्र से कम शक्तिशाली होता है, तथापि इसके आक्रमण और प्रहार की पद्धति किसी भी हिंसक जानवर से अधिक भयंकर और खौफनाक होती है। इसकी बोली गुड़गुड़ाने और खाँसने की बीच की सी होती है और उसकी तीन या चार आवृत्तियाँ होती है। पूरी आवाज समवेत रूप से आरे की ध्वनि जैसी होती है। हाँके से ये घनी झाड़ियों और पेड़ों के झुरमुट में इस प्रकार छिप जाते हैं कि हाँकनेवालों और शिकारियों को पूर्णतया निराश होना पड़ता है। हाँके में ये प्राय: बहुत कम बाहर निकलते हैं। इसलिए इसपर गोली चलाना बड़ा मुश्किल होता है।
तेंदुए का शिकार करने के लिए, व्याघ्र के शिकार के समान एक पेड़ या ऐसे जलाशय के पास जहाँ वे प्राय: पानी पीने या अपने पंजा को साफ और तेज करने के लिए आते हैं, बकरी या कुत्ता बाँध दिया जाता है। शिकारी किसी मचान, या अपनी इच्छानुसार किसी झाड़ी में छिपा, प्रतीक्षा करता रहता है। शिकारी कुछ ऐसा करता है कि तेंदुए के लिए बाँधा गया शिकार बीच बीच में चिल्लाता रहे, जिससे आकृष्ट होकर तेंदुआ उसके पास तक आ सके। तेंदुआ के शिकार की दूसरी पद्धति यह होती है कि शिकारी सड़कवाला कोई ऐसा जंगल चुन लेता है, जहाँ तेंदुए अधिक संख्या में पाए जाते हैं। सड़क के पार्श्व भाग में छोटे छोटे मंच बना दिए जाते हैं, जिनकी ऊँचाई साढ़े तीन या चार फुट से अधिक नहीं होती। उसी मंच पर एक कुत्ता बाँध दिया जाता है। तेंदुये कुत्तों का माँस बहुत पसंद करते हैं और वे एक मील की दूरी से ही सूंघकर उसके पास आने का उपक्रम करते हैं। एक से दूसरे मंच के बीच की दूरी एक से दो फर्लांग तक होती है। मंचों के बन जाने के बाद शिकारी सूर्यास्त के पश्चात् अंधेरा हो जाने पर, मोटर में निकलता है। साधारणतया शिकारी दो या तीन मंचों में से किसी एक पर से ही तेंदुए का शिकार करने में सफल हो पाता है। यह पद्धति उस समय प्रचलित थी जब सर्चलाइट के सहारे शिकार किए जाते थे।
शेर या व्याघ्र - (देखें बाघ) भारत में व्याघ्र का शिकार ही गौरव का कार्य माना जाता है। किसी जलाशय या हाँके के माध्यम से, व्याघ्र के आश्रय स्थल के पास शिकार किया जाता है। हाँका मनुष्यों तथा प्रशिक्षित हाथियों, दोनों से किया जाता हैं। मनुष्यों के हाँके में ऐसा होता है कि पूरे जंगल को तीन ओर घेर लिया जाता है और शेष चौथी दिशा में शिकारी के बैठने के लिए एक मचान बना लिया जाता है, जिसकी ऊँचाई ७ से १० फुट तक होती है। मचान को चारों ओर से हरी पत्तियों तथा टहनियों से ढँक दिया जाता है और शिकारी के चढ़ने लायक एक सीढ़ी बना दी जाती है। मचान का निर्माण ऐसे ढंग से किया जाता है कि अगर व्याघ्र सिर ऊपर उठाकर देखे भी, तो शिकारी को देख नहीं सकता। व्याघ्र द्वारा मचान में बैठे हुए शिकारी के न देखे जा सकने का एक कारण मचान की ऊँचाई भी होती है, जो व्याघ्र की दर्शन शक्ति के धरातल से ऊँची होती है। हाँके के पहले ही कुछ ठोक भी पेड़ों पर बैठा दिए जाते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता कि अगर व्याघ्र हाँके से कटना चाहे तो ठोक अपनी कुल्हाड़ियों से पेड़ के तनों का ठोंक ठोंककर व्याघ्र को उसी ओर भागने को बाध्य करते हैं जिधर मचान पर बैठा शिकारी उसकी प्रतीक्षा कर रहा है।
व्याघ्र या और कोई जंगली जानवर किसी प्रकार की आवाज सुनकर रुक नहीं सकता और पहली आवाज पर ही वह इतना चौकान्ना हो जाता है कि जंगल के सबसे सुनसान अंचल में भाग जाने का प्रयास करता है। हाँका वाले ढोल तथा कनस्टर पीट पीटकर और चिल्लाकर, बड़ा तुमुल घोष करते हैं। जंगल के घने घासवाले अंचलों में, जहाँ मनुष्यों का जाना कठिन होता है, प्रशिक्षित हाथियों द्वारा हाँका कर दिया जाता है। ये प्रशिक्षित हाथी व्याघ्र के लिए लगभग २०० गज का वृत्ताकार अवरोध उत्पन्न करते हैं और शिकारी किसी एक हाथी की पीठ पर बैठा होता है। धीरे-धीरे ये हाथी वृत्त को सँकरा करते जाते हैं। इस प्रक्रिया को पारिभाषिक शब्दावली में घेरा डालना (ringing) कहते हैं। नेपाल में इसका बहुत प्रचलन था। हाँके के प्रयुक्त प्रत्येक हाथी के पास कँटीले तारों की लंबी लंबी जंजीरें होती हैं। जब हाँका शुरु होता है, तब विलक्षण किस्म की आवाज होती है, एक तरफ जंजीरों की झनझनाहट से संपृक्त हाथियों की चिग्घाड़ और दूसरी ओर वृत्तावरोध में कैद व्याघ्र की गर्जना। हाथियों के घेरे की मजबूत चहारदिवारी में पड़ा व्याघ्र किसी कमजोर मोहरे की तलाश में इधर से उधर दौड़ता हाथियों के पैरों पर प्रहार करता है। उधर शिकारी ज्यों ही काली पृष्ठभूमि में सफेद दागवाले कान के व्याघ्र को देखता है त्योंही गोली चलाना शुरु कर देता है। जब व्याघ्र उस घेरे को तोड़ने में अपने को असमर्थ पाता है, तब हाथी के सिर पर छलाँग मारता है और हाथी अपनी सूँड में पकड़ी हुई, उन कँटीली जंजीरों से उसपर प्रहार करते हैं तथा हाथी की पीठ पर स्थापित हौदे में बैठा शिकारी ऊपर से गोलियाँ चलता है।
व्याघ्र का शिकार करने की दूसरी पद्धति यह है कि उसके आम रास्ते में तीन या चार साल का भैंस का पँड़वा बाँध दिया जाता है, जिसके गले में एक घंटी बँधी होती है। भोजन की तलाश में निकला हुआ व्याघ्र ज्यों ही वहाँ पहुँचता है, तुंरत पँड़वे को मार डालता है और उसे थोड़ा बहुत खाने के बाद दूसरे दिन खाने के लिए लेकर चल देता है और कुछ दूर पर किसी जंगली जलाशय के पास, घनी झाड़ियों में उसे छिपाकर रख देता है तथा उसके पास ही बैठा रहता है, जिससे कोई दूसरा जानवर उसके शिकार के पास न जाने पाए। मरे हुए पँड़वे के आस पास गिद्ध और कौव यदि पेड़ पर बैठे हुए दिखलाई पड़ जाए, तो समझ लेना चाहिए कि व्याघ्र के डर से ही वे शिकार के पास नहीं जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में एक मचान बनाकर हाँका शुरू कर दिया जाता है और मचान में बैठा हुआ शिकारी मरे हुए पँड़वे के पास, संध्या में सूर्यास्त के पश्चात् या रात में, व्याघ्र के आने की प्रतीक्षा करता है। कभी कभी शिकारी बिना हाँके के ही, भूखे व्याघ्र के निकलने की प्रतीक्षा में, बंधे हुए शिकार के पास रात भर बैठा रहता है।
तेंदुआ पहले अपने शिकार का पेट फाड़ता है और वहीं से खाना शुरु करता है, लेकिन व्याघ्र पहले पट्ठों की ओर से शिकार को खाता है। प्राचीन काल में भारत के सभी जंगलों में व्याघ्र बड़ी संख्या में पाए जाते थे, लेकिन अब ये बहुत कम रह गए हैं और कहीं कहीं तो पूर्णता दुर्लभ हैं। इसका एक मात्र कारण अंधाधुंध और अनुशासनहीन शिकार ही है। हिमालय की उपत्यका तथा मध्य प्रदेश के जंगली अंचलों में अब भी ये प्रचुर संख्या में पाए जाते हैं। व्याघ्र की सामान्य रूपरेखा पर्याप्त परिचित होती है। यह बिल्ली के कुल का होता है। इसकी पुतलियाँ गोल होती हैं। पूरे नौजवान व्याघ्र के कान के पिछले हिस्से के आस पास गर्दन के चारों ओर लंबे लंबे बाल होते हैं, जिन्हें फर कहते हैं। फर छोटे और घने होते हैं, लेकिन उनकी लंबाई, घनेपन और रंग में जलवायु के अनुसार अंतर होता है। इसकी धारियाँ बिल्कुल काली और स्पष्ट होती हैं। उसका शिरोप्रदेश और पूरा शरीर काली धारियों से, जो पूँछ की ओर जाते जाते वृत्ताकार हो जाती हैं, ढँका रहता है। शरीर और पार्श्व भाग का रंग पांडर-धूसर वर्ण का होता है, लेकिन निचले हिस्से सफेद होते हैं। उत्तरी भारत में पाए जाने वाले व्याघ्र मध्य और दक्षिणी भारत के व्याघ्रों की अपेक्षा अधिक गहरे रंग के और ललछौंह होते हैं। व्याघ्र के कान काले होते है, जिनके पिछले हिस्से पर एक सफेद धब्बा होता है, जो शिकारियों को छिपे व्याघ्र का पता देता है। तीन साल की अवस्था में व्याघ्र पूरा नौजवान हो जाता है। यह दिन भर आराम करता है और शाम को शिकार की खोज में निकलता है और किसी निश्चित रास्ते या नदी के बलुआ तट पर चला जाता है। अनुभवी और जानकार शिकारी पहले इन रास्तों का पता लगाता है और उन्हीं पर पड़वा बाँधता है। पूरी रात भर और मौसम के अनुसार सुबह के सात से नौ बजे तक व्याघ्र टहलते घूमते हैं। उसके बाद जंगल के किसी ठंढे, घने और शांत अंचल में जाकर विश्राम करते हैं। व्याघ्र को सोते समय आसानी से मारा जा सकता है, शर्त यह है कि व्याघ्र के सोने के स्थान का पता लग जाए और वहाँ व्याघ्र की निद्रा में बिना विघ्न डाले चुपके से शिकारी पहुंच जाए।
किसी व्याघ्र पर अगर गोली का निशाना बहक जाय, या वह घायल होकर भाग जाए, तो वह फिर कभी उस ओर, जहाँ वह घायल हुआ था, नहीं लौटता। जंगल के किसी दूसरे अंचल की शरण लेता है, क्योंकि यह बहुत ही चालाक और मक्कार जानवर है, जो अपनी गलतियों को कभी दुहराता नहीं। घायल होने के बाद अगर यह मरने से बच जाता है, तो नरभक्षी हो जाता है। किसी भी हाँके में बचा हुआ व्याघ्र दुबारा हाँके के चक्कर में जल्दी नहीं पड़ता। हाँके का जरा भी संकेत पाकर पुराने अनुभव के आधार पर वह बहुत दूर भाग जाता है। व्याघ्र मादाएँ नर की अपेक्षा भयंकर तथा खूँखार होती हैं। बुड्ढा, अशक्त तथा घायल व्याघ्र और बच्चोंवाली व्याघ्र मादाएँ, जो अपना स्वाभाविक शिकार करने में असमर्थ होती हैं, पहले छोटे छोटे पालतू जानवरों पर प्रहार करना शुरु करती हैं और चरवाहों के संसर्ग में आते आते, जब मनुष्य के प्रति इनका स्वाभाविक डर समाप्त हो जाता है, तो ये पूर्णतया नरभक्षी बन जाते हैं। कुछ व्याघ्र, बिल्कुल सफेद होते हैं जिन्हें रंजकहीन (albino) व्याघ्र कहते हैं। इनके शरीर की धारियाँ, गहरे भूरे रंग की तथा आँखें भूरी हरी होने की जगह, हल्की गुलाबी होती हैं।
व्याघ्र के शिकारी को चाहिए कि वह अगर उसपर गोली चलाए, तो उसे जिंदा न छोड़े। यह उसका नैतिक कर्तव्य और शिकार संहिता का आग्रह होता है। इसका पालन करने के लिए, घायल व्याघ्र का पीछा करने के लिए कुछ पालतू भैंसों को लगा देना चाहिए और शिकारी उनका अनुगमन करें। घायल व्याघ्र किस रास्ते से गया है, इसका पता लगाने के लिए जमीन पर, घनी मोटी और मुलायम घासों पर पड़े हुए उसके पैरों के निशान पर्याप्त होते हैं। इसके साथ साथ उसके घाव से टपकने वाले खून के धब्बे भी, जो सूखी टहनियों, घासों, झाड़ियों और जमीन पर होते हैं, रास्ते का निर्देश करते हैं। भैंसे व्याघ्र को बहुत जल्दी सूँघ लेते हैं। इनकी उत्तेजित गतिविधि देखकर, शिकारी को यह समझते देर नहीं लगती कि व्याघ्र नजदीक ही है। इतना मालूम हो जाने पर, पहले इसके कि व्याघ्र कुछ करने के लिए सावधान हो सके, शिकारी को चाहिए कि तुरंत उसे समाप्त कर देने का प्रयास करे।
भालू - (देखें भालू) भालू का शिकार करने के लिए हाँके वालों को भालू को उसके रहने के स्थान से बिलकुल बाहर निकालकर लाना पड़ता है। चूँकि यह बहुत ही चालाक और शंकालु जानवर होता है, इसलिए इसे बाहर ले आना बड़ा कठिन कार्य होता है। गर्मी के दिनों में जब जल का अभाव होता है, तब किसी जलाशय के पास पानी पीते समय इसका शिकार किया जा सकता है, या फिर शाम को या बहुत सुबह जब भालू भोजन की तलाश में महुआ, तेंदु और जंगली मकोय के पेड़ों के पास आते हैं तब इनका शिकार सुलभ होता है। शिकारी पहले हवा की दिशा का अंदाज लगाता है और अपने को जानवर की ओर से आने वाली हवा के विपरीत दिशा में रखते हुए, किसी झाड़ी के पीछे, या वृक्ष की आड़ में ही छिप जाता है। अगर वह महुए का पेड़ हुआ तो शिकारी उसपर चढ़कर अपने को पत्तियों में अच्छी तरह छिपा लेता है और भालू की प्रतीक्षा करता रहता है।
स्लोथ भालू ताड़ी बहुत पसंद करता है, इसलिए उसका शिकार ताड़ी के पेड़ के पास आसानी से किया जा सकता है। लबनी में भरे रस को पीने के बाद जब वह बिल्कुल मस्त तथा लापरवाह हो जाता है, तब उसे आसानी से बंदूक का निशाना बनाया जा सकता है। गन्ने के मौसम में प्राय: वह गन्ने के खेतों के पास आते या जाते मिल सकता है। भालू के शिकार में हाथियों के हाँके का प्रयोग नहीं किया जा सकता, क्योंकि भालू ऐसी जगहों पर रहते हैं जहाँ हाथी जा ही नहीं सकते।
हिरन - भारत के हिरन परिवार के चीतल, कृष्णसार, चौसिंगा काकर, पाढ़ा तथा बारहसिंगों पर गर्व किया जा सकता हैं। इनका वर्णन निम्नलिखित है :-
चीतल - ये देश भर में पाए जाते हैं और इनके सींग तीस इंच लंबे होते हैं तथा कभी कभी ३८ इंच लंबे भी पाए जाते हैं। इनके सींग बिलकुल सीधे होते हैं और बाहरी सींग प्राय: लंबे होते हैं। इनका रंग ललछौंह भूरा होता है, जिस पर सफेद सफेद चित्तियाँ पड़ी होती हैं। संस्कृत के पुराने कवियों ने इन्हें ही स्वर्णमृग की संज्ञा दी है। लंबी लंब चित्तीवाली इनकी पूँछ के ए सिरे से लेकर पीठ तक लंबी काली धारी होती है, जिसके दोनों ओर सफेद धब्बों की दो या तीन पंक्तियाँ होती हैं। ठुड्ढी, गर्दन का ऊपरी हिस्सा, उदर भाग, पैरों का भीतरी हिस्सा तथा पूँछ का निचला भाग बिल्कुल सफेद होता है। कान बाहर से बादामी और अंदर से सफेद होता है। सिर का रंग एक समान गहरा भूरा तथा चेहरे पर काला होता है और थूथन के ऊपर काली धारी होती है, जो आँखों के पास तक चली जाती है।
साँभर - भारतीय हिरनों में साँभर बहुत बड़ा होता है। यह पहाड़ी इलाकों के जंगली हिस्सों में पाया जाता है। हिमालय की पर्वतीय उपत्यका में यह दस हजार फुट की ऊँचाई तक और दक्षिण में विंध्य के पूरे पहाड़ी इलाकों में मिलते हैं। मरुस्थली भागों में ये नहीं रहते। इनके सींग बहुत बड़े बड़े होते हैं। इनका थूथन बड़ा होता है और शरीर पर रूखे रूखे मोटे बाल उगे होते हैं। नर सांभर के गले और गर्दन में बाल घने होते हैं। इनके शरीर का रंग गहरा भूरा होता है, जो कुछ कुछ राखी के रंग को लेकर पीतिभा लिए होता है। पुट्ठे और पेट के हिस्सों में पीलापन अधिक स्पष्ट होता है। पुराने साँभर कभी कभी काले, या स्लेटी भूरे रंग के, हो जाते हैं। ये कभी भी बड़े झुंडों में नहीं रहते, फिर भी चार या पाँच का परिवार इनका सदैव साथ रहता है। आदतन ये रात्रिचर होते हैं। वैसे इन्हें शाम और सुबह भी चरते हुए देखा जा सकता है, लेकिन प्राय: ये रात को ही अपना पेट भरते हैं और दिन में किसी घनी मोटी झाड़ी में छिपे रहते हैं। ये बहुत ही चुप्पे होते हैं और इतने सावधान होकर चलते हैं कि जरा भी अवाज नहीं होती।
पाढ़ा, हॉगडीयर (Hog-deer) - ये तराई क्षेत्रों और घने घासके मैदानों में पाए जाते हैं, और कभी भी पर्वतीय क्षेत्रों की ओर नहीं चढ़ते। इनकी पूँछ लंबी और पैर छोटे होते हैं। इनके सींग अप्रैल में झड़ जाते हैं और ये साधारणतया एक फुट से ज्यादा लंबे नहीं होते। चीतल, सांभर, पाढ़ा, सभी के सींग समयानुसार आप झड़ते हैं और जब नए सींग उगते हैं, तो उन्हें ऐंटिलर्स इन वेलवेट (antelers in velvet) कहा जाता है। पाढ़े का रंग ललछौंह मिश्रित बादामी होता है, लेकिन रोओं के सिरे में हलकी सफेदी होती है। निचले हिस्सों में रंग गहरा बादामी होता है। गर्मियों कानों के भीतरी भाग तथा पूँछ के निचले हिस्से सफेद रहते हैं। छह महीने की अवस्था तक का पाढ़ा पूरे शरीर पर धब्बा लिए रहता है। पाढ़ा आदतन ऊँची झाड़ियों तथा ऊँचे घास के मैदानों में रहता है। दौड़ते समय यह अपना सिर नीचा कर लेता है और उसकी गति बड़ी तीव्र होती है। यद्यपि एक जंगल में बहुत से पाढ़े रहते हैं, तथापि स्वभावत: ये या तो अकेले रहेंगे, या जोड़े में।
बारहसिंगा - ये हिमालय की तलहटी, गंगा एवं गोदावरी की घाटियों तथा कहीं कहीं नर्मदा की घाटियों में पाए जाते हैं। मध्य प्रदेश के बस्तर आदि जिले के कुछ भागों में भी ये मिलते हैं। इनके सींग चिकने होते हैं और कई भागों में बँट जाते हैं, जिसके कारण उनमें चार नोक आ जाती हैं। इनके बाल, जो गर्दन पर अधिक घने हो जाते हैं, घने और बारीक होते हैं। जाड़े में शरीर का रंग ऊपरी हिस्से में पांडुर भूरा तथा निचले हिस्से में अपेक्षाकृत अधिक पीला होता है लेकिन गर्मियों में शरीर के ऊपरी हिस्से का रंग गहरा ललछौंह बादामी हो जाता है तथा निचले हिस्से का रंग बिलकुल सफेद होता है। बारहसिंगा जंगलों में नहीं बल्कि खुले घास के मैदानों और वृक्षों के पास रहता है। जाड़ों में यह तीस और चालीस तक के झुंड में टहलता है, लेकिन वसंत ऋतु में यह इस नियम का पालन नहीं करता। साँभर की अपेक्षा यह रात्रि में कम निकलता है, लेकिन दोपहर के पहले और दोपहर के बाद सामान्यतया अधिक देर तक चरता रहता है।
काँकर - यह एक छोटा और अजीब किस्म का हिरन होता है, जो खुले मैदानों में नहीं दिखलाई पड़ता, प्रत्युत हिमालय के जंगलों में पाँच से छह हजार फुट की ऊँचाई तक मिलता है। इसके सींग छोटे होते हैं, जिनकी ऊपरी नोक थोड़ी अंदर की ओर घूमी रहती है। सींगों के नीचे से मुख तक एक काली धारी आती है। सामान्यतया इसका रंग गहरा अखरोटी होता है, जो पृष्ठ प्रदेश पर अधिक गहरा और निचले हिस्सों में हलका होता है। ठुड्ढी गले का ऊपरी हिस्सा एवं निचले भाग (जिसमें पूँछ का निचला हिस्सा भी सम्मिलित होता है) तथा जंघों के अंत:प्रदेश सफेद रंग के होते हैं। अपने जोड़े के साथ यह प्राय: अकेला रहता है। घने जंगलों से बाहर केवल घास के मैदानों तक चरने के लिए यह निकलता है और प्राय: गोधूलि में या प्रात: काल ही चरता है। इसकी गति बड़ी तीव्र होती है।
चिकारा (Indian Hazel) - दक्षिण में कृष्णा नदी से लेकर बिहार के पलामु, छोटा नागपुर तथा संपूर्ण उत्तर प्रदेश में ये पाए जाते हैं। नर और मादा दोनों को सींगे होती हैं। नर के सींगों में मुंदरी के समान वृत्त बने होते हैं और ऊपरी सिरे नुकीले होते हैं। मादा के सींग छोटे और नुकीले होते हैं। इनका रंग पृष्ठ भाग पर अखरोट के समान भूरा होता है, जो पार्श्व भागों में गहरा होता है तथा निचले हिस्सों में सफेद। लेकिन पूंछ का रंग काला होता है। ये प्राय: झुंड में रहते हैं। बरसात से कटी हुई ऊँची नीची जमीन, रेतीली पहाड़ियाँ तथा इधर उधर छिटकी झाड़ियाँ और पेड़ों की पंक्तियाँ इनके निवास स्थान होते हैं। भयभीत होने पर, ये कूदकर हवा में उछलते नहीं, बल्कि जहाँ रहते हैं वहीं खड़े रहकर खर पटकते और हुंकार भरते रहते हैं।
कृष्णसार - भारत का कृष्णसार अपने सींगों और शारीरिक सौंदर्य में संसार का सबसे सुंदर जानवर है। यह केवल भारत में पाया जाता हैं और वृक्षों से रहित समतल मैदानी प्रदेश में रहता है। यह मलाबार और सरत से दक्षिण के क्षेत्रों को छोड़कर शेष पूरे देश में पाया जाता है। गंगा और यमुना के दुआबा में इनकी बड़ी संख्या मिलती है। इनके खुर नुकीले होते हैं और घुटने पर थोड़े से गुच्छेदार बाल होते हैं। केवल नर के ही सींग होते हैं, जो जड़ पर नजदीक होती हैं और उनमें मुंदरी के समान वृत्त बने रहते हैं तथा ऊपर जाने पर सींग छितरा जाते हैं। समवेत रूप से सींग गोल और छल्लेदार होते हैं। पूरा नौजवान नर कृष्णसार काला बादामी होता है और अधिक अवस्था हो जाने पर बिलकुल काला हो जाता है। चेहरा काला बादामी तथा कानों के नीचे सफेद लंबी धारी होती है और आँखें एक सफेद वृत्त में घिरी होती हैं। शरीर के निचले भाग सफेद होते हैं। ये झुंडों में रहते हैं और इनके भोजन करने का कोई निश्चित समय नहीं रहता, यद्यपि ये विश्राम दोपहर ही में करते हैं। ये दौड़ने में बड़े तेज होते हैं और ज्यों ही किसी खतरे की सूचना मिलती है त्यों ही ये बड़ी लंबी चौकड़ियाँ भरते हुए हवा से बातें करने लगते हैं।
चौसिंगा - इसके चार छोटे सींगे होते हैं, जिनमें से दो सिर पर आँखों के बीच में होते हैं और दो इन्हीं दोनों के पीछे। आकार में ये सींग सीधे तथा गोल होते हैं। सामने के सींग छोटे और पिछले बड़े होते हैं। इनके बाल पतले, रूखे और छोटे होते हैं। साधारणतया इनका रंग खैरा होता है, जो शनै: नीचे उतरते उतरते सफेद हो जाता है। थूथन तथा कान के बाहरी हिस्सों का रंग अपेक्षाकृत गहरा होता है। यह बड़ा शर्मीला जानवर है। जंगल के किनारों पर यह बहुत प्रात: या शाम के झुटपुटे में चरने के लिए निकलता है।
उपर्युक्त सभी हिरनों का शिकार बहुत सावधान होकर, लुक छिपकर किया जाता है। ये सभी बड़े शर्मीले और सावधान होते हैं। जब भी ये दिखलाई पड़ते है तब आखेटक सदैव अपने को जानवर की ओर से आती हुई हवा की विपरीत दिशा में रखकर बड़े चुपके चुपके घासों के झुरमुट तथा झाड़ियों के बीच से होकर छिपता छिपता, इनका पीछा करता है। अगर जानवर को यह मालूम हो जाए कि उसका पीछा किया जा रहा है, शिकारी को अपने स्थान पर बिलकुल खामोश होकर पत्थर के समान जड़ हो जाना चाहिए और जब जानवर का भय दूर हो जाए, तो फिर चुपके से पीछा करना चाहिए। हाँका किए जाने पर, ये सबके सब बहुत तेज दौड़ते हुए बाहर निकल आते हैं, लेकिन चीतल सदैव कावा काटते हुए, बहुत तेज दौड़ते हुए निकलता है। बार बंदूक दग जाने पर, ये पूरी रफ्तार से भागते हैं, जिनमें से साँभर और चीतल तो हाँका वालों की पंक्तियां तोड़कर भाग जाते हैं।
इनका शिकार करने का दूसरा ढंग इनके चरागाह और जलाशय का पता लगाकर, वहाँ जानवरों के पहले पहुंचकर, किसी झाड़ी, वृक्ष या चट्टान के पीछे छिपकर बैठने का है। प्रतीक्षा की घड़ियों में बिलकुल खामोश और शांत रहना चाहिए। बैठने के पहले हवा का रुख थोड़ी सी घूल उड़ाकर, या सूखी गिरती पत्तियों को देखकर मालूम कर लेना चाहिए और जहाँ तक संभव हो सके हवा की विपरीत दिशा में रहना चाहिए। जलाशय या चरागाह के पास छिपकर बैठने वाले शिकारी को बार बार अपनी जगह नहीं बदलनी चाहिए। इन जानवरों का आखेट करने के लिए एक और उपयुक्त स्थल होता है, जिसे नूनचट कहते हैं, जहाँ पर नमक चाटने के लिए जंग के अधिकांश जानवर समय समय पर प्राय: आते हैं। ऐसी जमीनें प्राय: प्रत्येक जंगल में पाई जाती हैं। कौन सा जानवर वहाँ कब आया है, इसका पता उनके खुर और पैर के निशानों को देखकर लग सकता है। ताजे निशान बहुत स्पष्ट और गहरे होते हैं और ज्यों ज्यों समय बीतता है, हवा के संचार और सूरज की रोशनी ये निशान धुँधले और अस्पष्ट हो जाते हैं। कृष्णसार का, जो वृक्ष से रहित, सपाट घास के मैदानों में रहता है, पीछा करना बड़ा मुश्किल होता है। दिन के समय वे छिपने के लिए किसी गन्ने या अरहर के खेत में चले जाते हैं और जब यह मालूम हो जाता है तब शिकारी खेत के एक ओर खड़ा हो जाता है और बाकी तीनों ओर से हाँका कर दिया जाता है और कृष्णसार को आखेटक की ओर खदेड़ा जाता है। ज्यों ही यह बाहर निकलता है, मार दिया जाता है। अरहर या गन्ने के खेत में कैद हो जाने पर, कृष्णसार को जाल में भी पकड़ा जा सकता है। इसके लिए तीन ओर से जाल बिछा दिया जाता है और चौथी ओर से हाँका किया जाता है, जिससे कि वह जिधर से भी निकले जाल में फँस जाए, लेकिन यह पद्धति विध्वंसक होती है और इसी से धीरे धीरे भारत के कृष्णसार परिवार का ्ह्रास होता गया।
हाथी - हाथियों का शिकार बड़ा ही रोमांचकारी और कठिन होता है। इनका पीछा करने के लिए पैर और गोबर के निशान के सहारे चलना पड़ता है, जिसमें कभी कभी कई दिन लग जाते है। ये बाँस के घने जंगलों, या घनी लंबी घासों के जंगल, में रहते हैं। इनका शिकार जितना ही कठिन होता है उतना ही खतरनाक भी। जंगली हाथियों के शिकार का एक ढंग मेला शिकार कहलाता है, जो नेपाल और असम में अधिक प्रचलित है। नेपाल में इसे पीठा शिकार कहते हैं। इस पद्धति से जंगली हाथियों को पकड़कर कब्जे में किया जाता है। प्रशिक्षित हाथियों की पीठ पर बैठे हुए जो शिकारी यह काम करते हैं, उन्हें फंदी कहते हैं। मेला शिकार के दल में तीन इकाइयाँ होती हैं : (१) फंदी, जो फंदा डालता है, (२) महावत, जो कुनकी अर्थात् प्रशिक्षित हाथी को अनुशासन में रखता है और (३) वसियारा, जो कुनकी की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। फंदी कुनकी के सिर पर बैठ जाता है। महावत गद्दी पर रहता है और आवश्यकता पड़ने पर एक हाथ से गद्दी बाँधनेवाली रस्सी पकड़े खड़ा हो जाता है और दूसरे में अंकुश पकड़कर प्रशिक्षित हाथी के, जिसे कुनकी कहते है, परिचालन का काम करता है और दिनभर के परिश्रम के बाद कुनकी की रीढ़ की हड्डी और पिछले पुट्ठे पर गरम जल डालता है। गरम जल कुनकी की थकान दूर करने में सेंक का काम करता है।
मेला शिकार की पद्धति और उपकरण सब जगह एक जैसे ही होते हैं। चालाक फंदी, मजबूत कुनकी और जुट के रेशों का बना मोटा रस्सा आवश्यक होता है। मेला शिकार के लिए हथिनी सबसे उपयुक्त होती है, क्योंकि मादा हाथी दूसरी मादा को देखकर उनपर शक नहीं करती और जंगली हाथियों के झुंड में बिना हिचकिचाहट के घुस जाती है। मेला शिकार में तीन तीन, चार चार कुनकी छोटे छोटे झुंड में शिकार करते हैं, जिससे कोई खतरा आने पर एक दूसरे की सहायता कर सके। जंगली हाथियों के झुंड का पता लग जाने पर, कुनकी द्वारा बहुत चुपके चुपके उनका पीछा किया जाता है। बड़े हाथी तथा अकेलवा हाथी को नहीं पकड़ा जाता। केवल किशोर अवस्था के हाथी ही पकड़े जाते हैं। पहले उन्हें कुनकी की सहायता से झुंड में से बहकाने का प्रयास किया जाता है। इसके बाद तब उनका पीछा किया जाता है, जब तक फंदी उनके गले में फंदा न फेंक दे। एक बार जब बहके हुए जंगली हाथी के गले में फंदा डाल दिया जाता है, तब यह देखना फंदी का काम होता है कि न तो फंदा फिसलने पाए और न हाथी का गला ही घुटने पाए। इन दो बातों का ध्यान रखते हुए, बंदी हाथी को धीरे धीरे कुनकी की ओर खींचा जाता है। कुनकी के पेट से अवरोधक रस्सियाँ भी बँधी रहती हैं। उन्हीं में बंदी हाथी को बाँधा जाता है। फंदे का दूसरा सिरा कुनकी के पेट से बँधा रहता है, जिससे एक बार फंदे में फँसा हुआ हाथी कुनकी के बल से धीरे धीरे खिंचता हुआ रुक जाता है। अवरोधक रस्सियाँ बाँधने के बाद, वह बिल्कुल कुनकी के शरीर से बँध जाता है। इसलिए फंदी के साथ अपना जंगली स्वभाव दिखलाने और निकल भागने में असमर्थ रहता है। एक बात और आवश्यक होती है कि जब बंदी हाथी कुनकी से बाँध दिया जाता है, तब यह देखना आवश्यक होता है कि वह उसी ओर रहे जिस ओर फंदा कुनकी के पेट में बँधी हुई रस्सी से बँधा हुआ है। कभी कभी कुनकी के लिए बँदी हाथी का नियंत्रित करने में कठिनाई होती है और कई कुनकी तथा कई फंदी एकत्रित करने पड़ते हैं। इसे दोहर या तेहर कहते हैं। नेपाल के पीठा शिकार में, रस्सी कुनकी के गले से बाँधी जाती है, न कि असम की तरह उसके पेट से। (यादवेंद्र दत्त दुबे.)