शाह वली उल्लाह (१७०३-१७६२ ई.) शाह वली उल्लाह को प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से मिली जिसके फलस्वरूप मुजद्दिद से अत्यधिक प्रभावित होने पर भी वे तौहीदे शहूदी से सहमत न थे। जब वे १७ वर्ष के थे तभी उसके पिता चल बसे। इसके बाद भी वे १२ वर्ष तक अपने पिता के मदरसे में व्यस्त रहे। ११४३ हि. (१७३१ ई.) में उन्होंने हज किया। मक्के तथा मदीने के विद्वानों से लाभान्वित होकर १७३३ ई. में दिल्ली लौट आए। मृत्यु तक सुन्नी मुसलमानों के धर्म में शुद्धतम रूप का प्रचार करते रहे।
श्शाह साहब का सबसे बड़ा कार्य हिंदुस्तानी मुसलमानों के पतन के कारणों का विश्लेषण है। उनका विचार था कि हजरत मुहम्मद के प्रथम चारों खलीफाओं के समय की शासनपद्धति को १८वीं शताब्दी के हिंदुस्तान में चलाने से मुसलमानों का कल्याण हो सकता है।
उनकी रचनाओं में कुरान शरीफ का फारसी अनुवाद, हुज्जतिल्लाहिन बालेगा, फयूजुल हरमैन, इनतबाह फी सलासिल औलिया अल्लाह, इजालतुल खेफा, अनफासुल आरेफीन, तफहीमाते इलाहिया एवं पत्रों का संग्रह अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
सं. ग्रं. - मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी : शाह वली उल्लाह और उनकी सियासी तहरीक; शाह वली उल्लाह और उनका फलसफा; मुहम्मद अशरफ: हिंदुस्तानी मुसलमानी सियासत; प्रो. निजामी : शाह वली उल्लाह के सियासी रुजहानात। (सैयद अतहर अब्बास रिज़वी)