शाहजहाँ मुगल वंश के पंचम बादशाह तथा 'ताज' के निर्माता शाहजहाँ का जन्म ५ जनवरी, १५९२, बृहस्पतिवार की रात्रि में हुआ। इनका पालन पोषण इनके पितामह अकबर की निस्संतान स्त्री सुलताना रज़िया बेगम ने किया। पितामह ने इनका नाम खुर्रम रखा। चगताई रीति के अनुसार इनकी शिक्षा दीक्षा का प्रबंध भी उन्हीं ने किया। अबुल फज़ल का भाई फैजी इनका शिक्षक नियुक्त किया गया। १५ वर्ष की उम्र में (१६०७) इनकी सगाई ऐतकादखाँ (आसफ खाँ) की पुत्री अर्जुमंदबानू बेगम से हुई। पर कुछ कारणों से शीघ्र विवाह संपन्न न हो पाया। सितंबर, १६०९ में उनकी सगाई मिर्ज़ा मुजफ्फर हुसेन सफवी की पुत्री से हुई और २८ अक्टूबर, १६१० को विवाह भी संपन्न हो गया। मार्च, १६१२ में खुर्रम का दूसरा विवाह अर्जुमंदबानू से हुआ, और वहीं से उनके जीवन का सितारा उद्दीप्तमान होने लगा। अर्जुमंदबानू बेगम, जो बाद में मुमताजमहल या ताजमहल के नाम से प्रसिद्ध हुई, नूरजहाँ की भतीजी थी और यही कारण था कि उसके पति खुर्रम नवीन शाही गुट के कृपापात्र बन गए। १६१७ में जब मलिक अंबर की बएती हुई शक्ति का दमन करने खुर्रम दक्षिण गए तो वहाँ उन्होंने अबदुर्रहीम खानेखाना के पुत्र शाहनवाज खाँ की पुत्री से विवाह किया। इस राजनीतिक संबंध ने उनकी शक्ति और स्थिति को दृढ़ कर दिया। अपनी तीनों पत्नियों में से खुर्रम सबसे अधिक अर्जुमंदबानू से ही प्रेम करते थे। उनसे उनके १४ बच्चे हुए जिनमें से ७ की मृत्यु बचपन में ही हो गई और शेष सात में से ४ पुत्रों-दारा, शुजा, औरंगजेब और मुराद-तथा दो पुत्रियों-जहाँनारा बेगम व रोशन आरा बेगम-ने उनके जीवन के अंतिम काल में, मुगल साम्राज्य की राजनीति में महत्वपूर्ण भाग लिया।
अपने पिता जहाँगीर के राज्यकल में ही खुर्रम ने प्रतिभा, कार्यकुशलता, अपूर्व बुद्धि तथा सैन्य चातुर्य का परिचय दिया। उनकी योग्यता की परीक्षा लेने के लिये उन्हें मेवाड़ जैसे दुर्गम क्षेत्र में भेजा गया जहाँ सिसोदिया रणबाँकुरों ने बार बार मुगलों के छक्के छुड़ा दिए थे। कार्यक्षेत्र में पहुँचते ही खुर्रम ने सैनिक चौकियाँ स्थापित करके, चारों ओर से मेवाड़ की नाकाबंदी कर दी। राज्य में रसद के अभाव के कारण हाहाकार मच गया। महाराणा अमरसिंह की प्रजा भूखों मरने लगी और उसके सैनिकों का संहार निरंतर होता जा रहा था। विवश होकर उसने मुगलों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। खुर्रम की यह पहली विजय थी। इसमें उन्होंने सैनिक योग्यता, कूटनीति एवं राजनीतिज्ञ और कुशल कार्यपटुता का प्रमाण देकर सबको चकित कर दिया। उनके गुणों से प्रभावित होकर उनके पिता सम्राट् जहाँगीर ने उन्हें दक्षिण सीमा पर मलिक अंबर से मोरचा लेने भेजा। इस क्षेत्र में खानेखाना, अब्दुल्ला खाँ, खानेजहाँ जैसे नामी सेनापतियों ने एक हब्शी सरदार के हाथ मात खाई थी। परंतु भाग्य और योग्यता ने खुर्रम का साथ दिया और उनको अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई। उन्होंने दक्षिण के राज्यों के ऐक्य को अपनी बहुसंख्यक सेना का प्रदर्शन करके तथा नीति द्वारा तोड़ दिया। मलिक अंबर और उसके सहयोगियों को नीचा देखना पड़ा और मुगल आधिपत्य स्वीकार करना पड़ा। तीन मास में ही खुरर्म ने वह काम कर दिखाया जिसमें अन्य लोग वर्षों से व्यस्त थे। दक्षिण में मुगल प्रतिष्ठा पुन: स्थापित हो गई। सम्राट् जहाँगीर तो इतना प्रसन्न हुआ कि उसने विजयी राजकुमार को शाहजहाँ की उपाधि से विभूषित किया तथा उसका मन्सब ३०,००० जात व ३०,००० सवार कर दिया। दरबार में उसके बैठने के लिए, सिंहासन के निकट एक स्वर्ण कुर्सी भी रखी जाने लगी। एक मुगल राजकुमार के लिए यह उच्चतम सम्मान था।
अगले तीन वर्ष शाहजहाँ अपने पिता के सन्निकट ही रहा। इसी बीच उसने अपने नए मित्र बनाए और वह यह सोचने लगा कि वह कैसे नूरजहाँ बेगम की सहायता एवं सद्भावना के बिना भी अपने पैरों पर खड़ा रह सकता है। इधर उसकी महत्वाकांक्षाओं और सतत सफलताओं के कारण नूरजहाँ को उसके प्रति यह संदेह होने लगा कि वह कहीं उसके प्रति विरोध न कर बैठे और राजसत्ता को न दबा बैठे। इस प्रकार शाहजहाँ और नूरजहाँ में तनाव पैदा हो गया।
दक्षिण में मलिक अंबर ने एक बार फिर बीजापुर तथा गोलकुंडा के शासकों के साथ मिलकर मुगलों पर धावा बोल दिया और उन्हें निजामशाही राज्य से बाहर निकाल दिया। शाहजहाँ इस समय कांगड़ा के किले पर घेरा डाले हुए था और शाही सेनाएँ पूर्णतया इस काम में व्यस्त थीं। फिर भी उसे आदेश दिया गया कि वह शीघ्रता से दक्षिण सीमांत की ओर जाकर वहाँ की बिगड़ती हुई स्थिति को सँभाले। इस आज्ञा के पीछे शाहजहाँ को नूरजहाँ की चाल का संदेह हुआ। जहाँगीर की बीमारी के कारण शाहजहाँ दरबार से दूर नहीं जाना चाहता था। उसे भय था कि कहीं उसकी आकस्मिक मृत्यु के बाद खुसरव या शहरयार को गद्दी पर न बिठा दिया जाए। अत: उसने खुसरव को अपने साथ ले जाने की माँग की। जहाँगीर को उसकी योजना पर संदेह हुआ। पर नूरजहाँ तो यह चाहती ही थी कि खुसरव का वध दूसरे के हाथों हो। अत: उसके कहने पर जहाँगीर ने उसकी माँग स्वीकार कर ली। खुसरव को लेकर शाहजहाँ दक्षिण आया और एक बार फिर अपनी कूटनीति द्वारा उसने बीजापुर, गोलकुंडा और मलिक अंबर को संधि करने पर विवश किया। उसके पश्चात् उसने खुसरव को मौत के घाट उतार दिया। अभी वह अपनी शक्ति को दृढ़ करने का प्रयत्न कर ही रहा था कि खबर आई कि कंधार पर फारस के शाह ने अधिकार कर लिया है। शीघ्र ही सम्राट् का आदेश उसे मिला कि वह तुरंत उत्तर पश्चिमी सीमांत पर जाकर कंधार के किले पर अपना प्रभुत्व स्थापित करे और उसकी रक्षा करे। राजकुमार ने, सफलता पाने के विचार से, जहाँगीर के सामने कुछ माँगें प्रस्तुत कीं। सम्राट् ने उन माँगों को अस्वीकार कर दिया और शाहजहाँ को आदेश दिया कि वह तुरंत ही अपनी सेना सहित उत्तर पश्चिम की ओर चला जाए। उसकी माँगों से रुष्ट होकर सम्राट् ने उसकी हिसार फिरोजा की जागीर उससे छीन शाहजादे शहरयार को दे दी। इन घटनाओं ने उसे विद्रोह करने पर विवश किया। उसका विद्रोह दबा दिया गया। तत्पश्चात् वह दक्षिण में ही रहा। जहाँगीर की मृत्यु का समाचार मिलते ही आसफ खाँ के आदेशानुसार वह दक्षिण से आगरे पहुँचा और गद्दी पर आसीन हुआ।
शाहजहाँ के सिंहासनारोहण से एक नए युग का आविर्भाव होता है। राजनीति के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता, देश में शांति, सुख वैभव, समृद्धि, कलाकौशल तथा साहित्य की उन्नति इत्यादि साम्राज्य के चमत्कार के लक्षण थे। शाहजहाँ के राज्यकाल में तीन विद्रोह हुए। (१) खानेजहाँ लोदी दक्षिण का गवर्नर और जहाँगीर तथा नूरजहँ का कृपापात्र था। वह शाहजहाँ की बढ़ती हुई शक्ति एवं ख्याति को सहन न कर सका। सम्राट् जहाँगीर की मृत्यु के पश्चात् की परिस्थिति से लाभ उठाकर उसने उस क्षेत्र में जो निजामशाही प्रदेश मुगलों के हाथ आ गए थे उनमें से बालाघाट को, घूस लेकर, अहमद नगर के मंत्री हामिद खाँ को दे दिया और उसने अहमदनगर के किले के रक्षक को आज्ञा दी कि वह भी किले को निजामशाही सैनिकों को सौंप दे। परंतु दुर्गसंरक्षक ने इस आज्ञा का पालन नहीं किया। जब शाहजहाँ गद्दी पर बैठा तब उसने खानेजहाँ से कहा कि वह उक्त प्रदेशों को वापस ले ले। परंतु खानेजहाँ ने इस काम को करने में आनाकानी की। इसलिए उसे दरबार में वापस बुला लिया गया। वह आगरा आ गया परंतु उसका हृदय उद्विग्न रहने लगा। यह समाचार पाकर कि उसके विरुद्ध कार्यवाही होनेवाली है भयभीत होकर वह भाग खड़ा हुआ और दक्षिण में जाकर उसने निजामशाह की शरण ली। शाहजहाँ एक बड़ी फौज लेकर दक्षिण पहुंचा। उसने स्वयं सैन्यसंचालन किया। खानेजहाँ लोदी विवश होकर उत्तर की ओर भागा पर शाही सेना ने उसका पीछा किया और उसे घेरकर मार डाला। (२) दूसरा विद्रोह जुझारसिंह बुंदेले का था। शाहजहाँ के हुक्म के विपरीत भी उसने चौरागढ़ के किले पर अधिकार कर लिया। शाही सेना ने बुंदेलखंड पर चढ़ाई की। सभी किलों और चौकियों पर अधिकार स्थापित किया तथा जुझारसिंह को संधि करने पर विवश किया। (३) तीसरा विद्रोह नूरपुर के जमींदार जगत सिंह का था। जगत सिंह ने चांबा राज्य पर हमला किया और जब शाहजहाँ ने उसे दरबार में उपस्थित होने का आदेश दिया तो वह न आया। शाही सेना ने उसे चारों ओर से घेर लिया। जब उसने क्षमायाचना की तब उसे शाहजहाँ ने क्षमा कर उसके पहलेवाले मंसब पर उसे बहाल कर दिया। इन तीन विद्रोहों के अतिरिक्त कुछ छोटी घटनाएँ भी घटीं। मुगलों ने बंगाल में पुर्तगाली लुटेरों का दमन किया। १६३२ में भगीरथ भील, १६४४ में मालवा के सरदार भारवी गोंड़, १६४२ में पालामऊ के राजा प्रताप को हराकर उसके राज्यों तथा जागीरों को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। मुगल सेनाओं ने कूचबिहार और कामरूप पर अधिकार स्थापित किया और आसाम के साथ व्यापारिक संबंध पुन: स्थापित किए।
शाहजहाँ के राज्यकाल में सबसे महत्वपूर्ण अभियान बल्ख और बदखशाँ को विजय करने के लिए हुए। इन प्रदेशों पर मुगल अपना पैत्रिक अधिकार समझते थे। अकबर और जहाँगीर दोनों ही उनपर पुन: मुगल आधिपत्य स्थापित करना चाहते थे। पर समय अनुकूल न होने के कारण अपनी योजनाएँ कार्यान्वित करने में वे सफल न हो सके। परंतु इस समय बुखारा के शासक नजर मुहम्मद और उसके पुत्र अजीज में संघर्ष छिड़ जाने के कारण शाहजहाँ को मध्य एशिया में अपने भाग्य की परीक्षा लेने पर सुअवसर प्राप्त हुआ। जून, १६४६ में राजकुमार मुराद की अध्यक्षता में, ५०,००० घुड़सवार तथा १०,००० पैदल सिपाहियों की एक सेना बल्ख पर चढ़ाई करने भेजी गई। बिना विरोध के मुगलों का बल्ख पर अधिकार हो गया। नजर मुहम्मद वहाँ से ईरान भाग गया। इसी कारण मुगलों के उद्देश्य की पूर्ति में बाधा पड़ गई। इस अभियान के प्रति मुराद पहले से ही उदासीन था। आगामी कठिनाइयों का अनुमान करके ही वह व्याकुल हो उठा और सम्राट् की आज्ञा का उल्लंघन करके बल्ख से चल दिया। उसकी जगह औरंगजेब को भेजा गया लेकिन उसे भी कोई सफलता उजबेकों के विरुद्ध न मिल सकी और वह भी हताश होकर लौट आया। समस्त प्रदेश पर शत्रु ने पुन: अधिकार कर लिया।
कूटनीति का प्रयोग करके शाहजहाँ ने १६३८ में कंधार पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था और अगले दस वर्ष तक इस दुर्ग पर मुगलों का अधिकार भी बना रहा। बल्ख की हार के पश्चात् परिस्थिति एकाएक बदल गई। १६४६ में शाह अब्बास द्वितीय ने योजना बनाकर कंधार को मुगलों के हाथ से छीन लिया। शाहजहाँ के गौरव पर यह गहरी चोट थी, अत: उसने कंधार वापस लेने का निश्चय किया। दो बार औरंगजेब के और एक बार दारा शिकोह के नेतृत्व में सेनाएँ भेजी गई, परंतु सफलता प्राप्त न हो सकी। इससे मुगलों की धन और जन की हानि के अलावा उनकी सामरिक प्रतिष्ठा पर भी बुरा प्रभाव पड़ा।
यद्यपि शाहजहाँ अपने पैत्रिक प्रदेशों को वापस न ले सका और कंधार पर भी अपना अधिकार पुन: स्थापित न कर सका तथापि शाही सेनाओं ने उस क्षति की पूर्ति दक्षिणी सीमांत पर सफलता प्राप्त करके की। मलिक अंबर के उत्तराधिकारी, फतह खाँ, पर न किसी विश्वास था और न उसमें पिता के समान गण विद्यमान थे, जो निजामशाही राज्य को बचा सकते। एक गलत बाह्यनीति का अनुसरण कर, जब मुर्तजा निज़ामशाह द्वितीय ने, मुगल साम्राज्य के विद्रोही खानेजहाँ लोदी को शरण दी उसी दिन से निजामशाही राज्य के भाग्य का निर्णय हो गया। शाही फौजों ने, अहमदनगर को जीतकर दौलताबाद को घेर लिया। खानेजहाँ लोदी के निष्कासन के पश्चात् फतह खाँ ने शाहजहाँ से संधि की वार्तां आरंभ की और उसे विश्वास दिलाया कि वह उसका नाम खुतबा में पढ़ेगा तथा सिक्कों में अंकित करेगा। लेकिन शाहजहाँ को उसकी बातों पर विश्वास न हुआ। विश्वास दिलाने के हेतु ही फतेह खाँ ने मुर्तजा को मौत के घाट उतार दिया और हुसैन निजामशाह को गद्दी पर बिठाया। अब शाहजहाँ के नाम पर खुतबा पढ़ा गया जिससे सम्राट् प्रसन्न हुआ। दौलताबाद का किला फतह खाँ के हाथ सौंपकर वह उत्तर की ओर लौट गया। लेकिन जैसे ही उसने पीठ फेरी, फतह खाँ ने बीजापुर के सेनापति मुकर्रब खाँ की बातों में आकर मुगलों के विरुद्ध फिर लड़ाई प्रारंभ कर दी। इसपर महावत खाँ ने दौलताबाद के किले पर घेरा डाल दिया। किले पर कब्जा करके फतहा खाँ और हुसैन निजामशाह को बंदी बना लिया। परंतु महावत खाँ की कठिनाइयों का अंत न हुआ। मराठा सरदार साहू तथा बीजापुर की सेनाओं की गतिविधि के कारण, उसे अपमान ही न सहना पड़ा बल्कि नैराश्य से उसकी मृत्यु भी हो गई और दक्षिण की परिस्थिति पूर्व के समान बिगड़ गई। साहू ने बीजापुर से मदद लेकर, मुगलों के प्रदेशों पर छापा मारना प्रारंभ कर दिया। स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि शाहजहाँ को स्वयं दक्षिणी सीमांत की ओर प्रस्थान करना पड़ा। शाही सेनाओं ने साहू को निजामशाही राज्य और महाराष्ट्र से निकाल दिया और बीजापुर तथा गोलकुंडा के शासकों को संधि करके और धन देने पर विवश किया। औरंगजेब को दक्षिण का वाइसराय नियुक्त कर शाहजहाँ आगरे लौट गया। अगले आठ वर्ष तक दक्षिण का शासन प्रबंध औरंगजेब के हाथ में रहा। उसने बगलना, औसा और उदगीर पर अधिकार किया तथा देवगढ़ के सरदार को धन देने पर विवश किया। सं. १६४४ में दक्षिण के प्रांत से हटाकर औरंगजेब को गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया गया। सं. १६५४ ई. में सम्राट् ने उसे दूसरी बार दक्षिण भेजा। यहाँ पहुँचकर उसने शासन प्रबंध को सुव्यवस्थित किया।
६ सितंबर, १६५७ ई. को शाहजहाँ के रोगग्रस्त हो जाने से, उसके स्वर्ण युग पर दलबंदी की काली घटाओं ने मँडराना प्रारंभ किया। रोग के कारण सम्राट् का दरबार में प्रतिदिन आना, जाना झरोखे में प्रात:काल दर्शन देना तथा समाचारवाहकों से मिलना, स्थगित हो गया। ज्यों ज्यों उसका रोग करवट बदलता, त्यों त्यों, साम्राज्य की नींव पर एक धक्का सा लग जाता। मुगल राजकुमार दारा, शुजा, औरंगजेब तथा मुराद एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखते थे। सभी सिंहासन पर बैठने को उत्सुक थे। ईर्ष्या और विद्वेष ने उत्तराधिकार युद्ध अनिवार्य कर दिया। इस रक्तपूर्ण युद्ध का परिणाम दारा की हार और उसका वध, मुराद का अपमान और उसका वध और शुजा की दुर्गति तथा सम्राट् का आजन्म कारावास हुआ। दिल्ली के भूतपूर्व सम्राट् को दु:ख और यातनाएँ सहन करनी पड़ीं। उसका हृदय आपदाओं से छलनी हो गया था। ऐसी अवस्था में कन्नौज के सैयद मुल्ला मुहम्मद और उसकी पुत्री जहाँनारा ने उसकी सेवा करके उसके दु:खों का भार हल्का किया। जीवन के अंतिम क्षणों तक वह अपनी जीवनसंगिनी मुमताज महल के मकबरे को निहारता रहा। ७ जनवरी, १६६६ को उसे ज्वर हुआ और पेट की पीड़ा बढ़ी इसके १६ दिन बाद कुरान की आयतों का उच्चारण करते करते उसने अनी आँख सदैव के लिए बंद कर ली। चालीस वर्ष से अधिक उसने सम्राट् के रूप में साम्राज्य पर, पिता के रूप में कुटुंब पर, मनुष्य के रूप में जनता का शासन किया तथा सदैव अपनी न्यायप्रियता, उदारता, सहनशीलता के लिए प्रसिद्धि प्राप्त की। वह सदा प्रजा के लिए सुख, शांति तथा समृद्धि लाने का प्रयत्न करता रहा।
संतति के लिए वह, महान् चिरस्थायी, वैभवशाली, गौरवपूर्ण कार्यों को रूपवद्ध करके छोड़ गया, जिसका वर्णन पूर्वी तथा पश्चिमी इतिहासकारों ने ओजस्वी भाषा में किया है। उसकी कलाप्रियता उसकी सौंदर्य में अनुरक्ति, उसका उच्च तथा श्रेष्ठ संस्कृति से अनुराग और उसका साहित्यप्रेम उसकी बहुमुखी प्रतिभा के परिचायक हैं। आगरे और दिल्ली में जिन भवनों तथा प्रासादों का निर्माण शाहजहाँ ने किया वे उसकी संस्कृति एवं शिष्टता के महान् द्योतक हैं। शिल्पकला एवं चित्रकला का हर एक नमूना हमें विचारों की उन गहराइयों में ले जाता है जहाँ चित्रकार, शिल्पकार, कलाकार कौतूहलविभोर हो जाते हैं और मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं। दिल्ली के 'दीवाने खास' में यह पंक्ति 'यदि कहीं स्वर्ग है तो यहाँ है, यहाँ है' अक्षरश: सत्य है। ताजमहल का सौंदर्य अद्भुत है। वह भारतीय नारी की आदर्श सुंदरता, रमणीयता, नम्रता, कोमलता, सुशीलता एवं सौम्यता का नमूना है। कर्नल स्लीमैन की स्त्री ने उसको देखकर सहसा यही कहा कि मेरी स्मृति में यदि ऐसी इमारत का निर्माण हो सके तो मैं सो बार मरना चाहूँगी। उसके अतिरिक्त शाहजहाँ ने अन्य इमारतें भी बनवाई जो वास्तुकला की प्रगति की द्योतक हैं। इनमें आगरे के किले में मोती मस्जिद, दिल्ली में लाल किले में नौबतखाना, दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, रंगमहल, दिल्ली की जामा-ए-मस्जिद इत्यादि महत्वपूर्ण हैं।
चित्रकला के क्षेत्र में भी प्रगति हुई। मुहम्मद फरूर उल्लाह खाँ और मीर हाशिम की कृतियों में उस युग की मनोवृत्तियों का आभास मिलता है। सौंदर्य की भावना रंगों द्वारा अभिव्यक्त की गई है। इन चित्रों में स्वर्ण के अत्यधिक प्रयोग से मुगलों के विलासमय जीवन, अतुल धन और वैभव की झलक मिलती है। शाहजहाँ संगीतप्रेमी भी था। ध्रुपदराग उसका प्रिय राग था, जिसे वह प्रसिद्ध गायक तानसेन के दामाद लाल खाँ से सुना करता था। उस युग के प्रसिद्ध गायक जगन्नाथ को भी शाहजहाँ ने संरक्षण दिया। शाहजहाँ को साहित्य से भी प्रेम रहा, सईदायी गिलानी, तालिब कलीम, मुहम्मद जान कुदसी, मीर मुहम्मद यहिया, काशी, सलीम, मसीह, शैदा, चंद्रभान, ब्राहमन, खपाली और दिलेरी जैसे कवि, तुगराई तथा मुहम्मद अफजल, अमानुल्लाह और मुहम्मद सादिक, बनमाली दास, और इब्न हरकरन जैसे लेखकों ने न केवल फारसी साहित्य की ही वृद्धि की वरन् संस्कृत ग्रंथों का फारसी में अनुवाद भी किया। शाहजहाँ ने हिंदू कवियों, जैसे सुंदरदास, चिंतामणि व कवींद्र आचार्य, को भी संरक्षण दिया। यदि उसने एक ओर साम्राज्य का विस्तार किया, सुख और शांति की स्थापना की तो दूसरी ओर मुगलिया सलतनत के वैभव, शौर्य, और गौरव को उसकी पराकाष्ठा पर ले जाने के लिए साहित्य, कला, को प्रोत्साहन देकर स्वर्ण युग की स्थापना करने में कोई कसर शेष न रखी। (बनारसी प्रसाद सक्सेना)