शॉपेनहावर (१७८८-१८६०) ''रुदनशील'' एवं निराशावादी दार्शनिक आर्थर शॉपेनहावर का जन्म पोलैंड के डांज़िग नगर में एक धनाढ्य व्यापारी के यहाँ हुआ। १९७३ में पोलैंड के द्वितीय विभाजन के बाद तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के कारण शॉपेनहावर परिवार को पाँच वर्ष के बालक आर्थर के साथ हैंबर्ग में शरण लेनी पड़ी। परिवार की समृद्धि में कमी नहीं आई और आर्थर की शिक्षादीक्षा सुचारु रूप से चलती रही। १७९७-१७९९ में उसे पेरिस और हार्वे का भ्रमण करने का अवसर मिला। किशोर शॉपेनहावर फ्राँस की साहित्यिक गतिविधि से अत्यंत प्रभावित हुआ और वोल्तेयर के विचारों ने उसके चिंतन पर अच्छी छाप छोड़ी। इंग्लैंड के जीवन से उसे ऊब महसूस हुई। वहाँ से पुन: फ्रंास, स्विट्जरलैंड, और वियना तथा बर्लिन की यात्रा ने शॉपेनहावर को जीवन की विविधता से परिचित कराया।

१८०५ में शॉपेनहावर के पिता की मृत्यु एक दुर्घटना से हो गई। इससे पूरा परिवार ही छिन्न भिन्न हो गया। आर्थिक स्थिति को भी इससे धक्का लगा। उसकी माँ और दस वर्षीया बहन वेमर में चली गईं, और आर्थर हैंबर्ग में अकेला रह गया - पूर्ण एकाकी। इन घटनाओं और परिस्थितियों ने शॉपेनहावर को एकांतप्रिय और आत्मलीन बना दिया। वह परछिद्रान्वेषक, आलोचक और शंकालु हो उठा। पारिवारिक संबंध कटु हो गए और शॉपेनहावर की मनस्थिति इन सबसे पूरी तरह डावांडोल हो गई। घुटन और कुंठाओं ने उसे घेर लिया।

२१ वर्ष की उम्र में शॉपेनहावर ने गोटिंजन में चिकित्साशास्त्र का अध्ययन आरंभ किया; किंतु उसकी रुचि उसकी अपेक्षा दर्शन शास्त्र में अधिक रही। यहीं उसने प्लैटो और कांट के सिद्धांतों का अनुशीलन किया। बर्लिन विश्वविद्यालय में वह फ़िक्टे के संपर्क में भी आया।

१८१३ में उसने सेना को भी अपनी सेवाएँ अर्पित कीं; फलस्वरूप उसे बर्लिन छोड़कर भागना पड़ा। उसे ड्रेसडेन और रूडोल्सटाड में शरण मिली। यहीं पर उसकी पहली पुस्तक (आन द फ़ोर फ़ोल्ड रूट ऑव द प्रिंसिपल ऑव सफ़ीशेंट रीज़न, रूडोल्सटाड, १८१३) प्रकाशित हुई, जिसपर उसे बर्लिन विश्वविद्यालय से डायक्रेट की उपाधि मिली।

वह अपनी माँ के पास वेमर गया। किंतु माँ की विलासपूर्ण जिंदगी के ढर्रें से वह निराश हो गया। और अंतत: १८१४ में उन्हें हमेशा के लिए त्याग दिया। माँ के प्रति उसकी यह घृणा समस्त नारी जाति की घृणा के रूप में प्रगट हुई। इसका प्रभाव इतना रहा कि शॉपेनहावर ने आजीवन विवाह ही नहीं किया।

वेगर में शॉपेनहावर गेटे के संपर्क में भी आया। यहीं उसने अपनी पुस्तक ''आन विज़न ऐंड कलर्स'' लिखी, जो १८१६ में लाइपज़िग से प्रकाशित हुई। १८१४ से १८१८ के बीच वह ड्रेमडेन में रहा और वहाँ उसने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ''द वर्ल्ड ऐज़ विल ऐंड आइडिया'' लिखी। १८१८ में वह इटली गया। १८२० में उसने बर्लिन विश्वविद्यालय में अध्यापन की कोशिश की, किंतु हीगेल से मतभेद होने के कारण उसे छोड़ दिया। अब वह अपना समय यात्रा और मनन में बिताने लगा। नाटक और संगीत के प्रति भी उसकी रुचि बढ़ी। १८३१ में वह फ्रैंकफ़र्ट चला आया। यहीं पर १८३६ में उसकी पुस्तक ''आन द विल इन नेचर'' प्रकाशित हुई। १८३८ में उसे नार्वेजियन सोसायटी से पुरस्कार मिला। १८४१ में उसके दो महत्वपूर्ण लेख ''द टू फंडामेंटल प्राब्लम्स ऑव इथिक्स'' प्रकाशित हुए, जिनमें उसने अपने नैतिक सिद्धांतों की व्याख्या की।

शॉपेनहावर को सबसे अधिक प्रसिद्धि ''द वर्ल्ड ऐज़ विल ऐंड आइडिया'' से मिली। उसको प्रसिद्धि तो मिली, किंतु बड़ी देर से। तब तक उसकी माँ बहन की मृत्यु हो चुकी थी। १८५५ में प्रसिद्ध फ्रांसीसी चित्रकार गोबेल ने उसका चित्र बनाया। बाद का जीवन एकांकी बीता और फ्रैकफटं में २१ अक्टूबर, १८६० को उसकी मृत्यु हुई।

दार्शनिक शॉपेनहावर के मतानुसार परमतत्व इच्छाशक्ति है, जो अपना विकास बुद्धि के रूप में करती है। हमें केंद्रउत्स (Nisus) के अस्तित्व का प्रत्यक्ष अंतर्ज्ञान होता है, जिसका अनुभव बुद्धि के द्वारा प्रत्यक्ष रूप में प्रगट होता है। कांट की भाँति वह भी दिक् काल को बुद्धि का रूप मानता है। शॉपेनहावर के लिए संसार का आविर्भाव नाड़ीमंडल के विकास के रूप में होता है। इस प्रकार इच्छाशक्ति शासन करती है। यदि कोई मनुष्य शांति की स्थिति तक पहुँचना चाहता है, तो वह उसे जीने की इच्छाशक्ति को पुर्णरूपेण त्याग देने से प्राप्त कर सकता है। वह प्रयत्न करके ''निर्वाण'' (शॉपेनहावर द्वारा प्रयुक्त बौद्ध दर्शन का तत्व) - अनस्तित्व की स्थिति को प्राप्त कर सकता है, जहाँ इच्छाशक्ति विलुप्त होकर बुद्धिमात्र शेष रहती है।

शॉपेनहावर का जीवन सदा दु:खी और अवसादपूर्ण रहा, इसीलिए निराशवाद उसके नाम के साथ जुड़ा हुआ है। इच्छाशक्ति आत्मप्रदर्शन के लिए सतत संघर्षशील रहती है, जिसमें व्यक्ति को कभी संतोष नहीं प्राप्त होता। इच्छाशक्ति अंधी है, इसीलिए कष्टों से मुक्ति नहीं मिलती। हम सुख के पीछे भागते हैं, यही दु:ख का कारण है। वैयक्तिक इच्छाशक्ति को अपने से अलग करना अपेक्षित है। यही त्याग हमें परमतत्व की ओर प्रेरित करेगा। इस प्रकार शॉपेनहावर पर बौद्ध दर्शन की छाप स्पष्ट रूप में परिलक्षित होती है।

शॉपेनहावर ने कहा है कि संसार के दु:खों से पलायन करके कलाचिंतन में रस लेना अभीष्ट है। संगीत में यह क्षमता है कि वह मनुष्य को परमानंद की प्राप्ति कराती है। इसीलिए, शॉपेनहावर दार्शनिक के साथ साथ कवि अथवा कलाकार के रूप में भी माना गया है। उसने स्वयं कहा है कि उसका दर्शन ''कला के रूप में दर्शन'' है। (मुक्ता शुक्ल)