शहतूत या तूत (Mulberry) मोरेसिई (Moraceae) कुल का एक पेड़ है। शहतूत की सैकड़ों किस्में हैं। दमदम के रेशम अनुसंधानशाला में ११० किस्म के शहतूत के पेड़ लगे हैं। मोरस ऐल्बा (Morus alba) किस्म का शहतूत सफेद फल देता है और मोरस निग्रा (Morus nigra) किस्म का शहतूत काला फल देता है। शहतूत की खेती फलों के लिए नहीं, वरन् रेशम के कीड़ों के पालने के लिए की जाती है, यद्यपि इसके फल भी उपयोग में आते है। मैसूर में इसकी बागवानी लगभग ७०,००० एकड़ भूमि में होती है। मद्रास और बिहार के भागलपुर में भी इसकी बागवानी होती है। जहाँ जहाँ रेशम के कीड़े पाले जाते हैं वहाँ वहाँ इसके

शहतूत

पेड़ उगाए जाते हैं। यह शीतकटिबंधी वृक्ष है। पर उष्ण कटिबंधी और समेष्ण कटिबंधी स्थलों में भी उगता है। यह गरमी और वर्षा दोनों को समान रूप से सहन कर सकता है। इस पेड़ में कीड़े या रोग कम लगते हैं।

२,७०० वर्ष पूर्व चीन में इसकी खेती होने का पता लगता है। इसका प्रसार कलम (cuttings, 8-12 लंबा कलम) द्वारा होता है। बीज से भी उगाए जाते हैं। पौधे चश्म द्वारा भी यह उगाया जाता है। यह सब प्रकार की मिटटी में उपज सकता है। बागों में २० फुट की दूरी पर, दो फुट गहरा गड्ढा खोदहरक, उसमें एक मन गोबर की सड़ी खाद देकर, शहतूत का वृक्ष उगाना अच्छा होता है। बरसात में पेड़ लगाना चाहिए। रेशम के कीड़ों के पालने की दृष्टि से एक एकड़ में ४,००० पेड़ लगाए जाने चाहिए। गोबर के साथ साथ नाइट्रोजन उर्वरक का उपयोग आवश्यक है। अच्छे फल के लिए छँटाई आवश्यक है। फल देने के बाद छँटाई करके, खाद देकर, सिंचाई करने से नई पत्तियाँ भरपूर मात्रा में निकल आती हैं। फरवरी में फूल लग जाते हैं और मई जून में फल पकते हैं। फल खाए जाते हैं। फल की गुद्दी से शरबत बनता है। यूरोप में इससे शराब भी बनाई जाती है। फल में औसतन ९ प्रति शत चीनी और ०.९५ प्रतिशत अम्ल पाया जाता है।

सं. ग्रं. - रामसागर राय : उद्यान-कृषि-दर्शन, प्रकाशक, कला निकेतन, पटना। (फलदेव सहाय वर्मा)