शस्त्र और कवच (Arms and Armour) मनुष्य की शारीरिक शक्ति अन्य जीवधारियों की तुलना में बहुत ही सीमित है। अपने शत्रुओं को परास्त करने या जानवरों के शिकार के लिए मनुष्य ने, अपने बुद्धिबल से, अपनी शक्ति को बढ़ाया। उसने पहले शत्रुओं का और उसके बाद, अस्त्रों का आविष्कार किया। जिन वस्तुओं का प्रयोग मनुष्य ने सीखा, उनको उसने अस्त्र शस्त्र बनाने के काम में भी प्रयुक्त किया। इस प्रकार जब मनुष्य को केवल पत्थर या लकड़ी का प्रयोग मालूम था, तब शस्त्र पत्थर या लकड़ी के बनते थे। इसके बाद जैसे जैसे धातुओं के प्रयोग में मनुष्य उन्नति करता गया, उसके साथ ही साथ शस्त्रों के बनाने में भी धातुएँ प्रयुक्त होने लगीं। साथ ही बहुत से नए प्रकार के अस्त्र शस्त्र भी बनने लगे, जो पहले के पत्थर, लकड़ी या मुलायम धातुओं से नहीं बनाए जा सकते थे।

अस्त्र शस्त्रों के विकास के साथ साथ मनुष्य ने उनसे अपने को बचाने के लिए कवच के प्रयोग में भी उन्नति की। कवच बनाने के लिए भी बहुत प्रकार की वस्तुओं का उपयोग किया गया। जैसे जैसे हथियार उत्तरोत्तर कारगर बनने लगे, कवच को भी उसी अनुपात में उतना ही अधिक मजबूत बनाना आवश्यक हो गया (देखे अस्त्र शस्त्र)।

जब तक मनुष्य ने धातुओं का प्रयोग नहीं सीखा था, तब तक अस्त्र शस्त्र पत्थर के बनते थे। पत्थर के बाद हथियारों के बनाने में, धातुओं में पहले पहल काँसे का प्रयोग हुअ। काँसे के हथियार पृथ्वी की खुदाई में प्राचीन यूनान, भारत में मोहनजोदड़ो और उसके समकालीन अन्य स्थानों में मिले हैं। ग्रीक कवि होमर के काव्यों में काँसे के कवच का भी उल्लेख है।

लोहे का आविष्कार होने के बाद हथियार लोहे के बनने लगे। प्राचीन यूननियों के मुख्य हथियार भाला, बरछे और तलवार थे। इन सब में भाला, जो २१ से २४ फुट तक लंबा होता था, सबसे मुख्य माना जाता था। ग्रीक तलवार दो फुट से भी छोटी होती थी और काटने के बजाय घुसेड़ने के काम में लाई जाती थी। परतले में ग्रीक तलवार दाहिनी ओर लगाई जाती थी। होमर ने अपने काव्य 'ऑडिसी' में तीर कमान के प्रयोग का उल्लेख किया है। इससे यह तो मालूम होता है कि प्राचीन यूनानी तीर कमान के प्रयोग में विज्ञ थे, परंतु उस समय की लड़ाइयों के वृतांत से पता चलता है कि इस हथियार का कभी विस्तृत रूप से यूनान में प्रयोग नहीं हुआ। इससे प्राचीन यूनान की सैन्य संचालन की शैली पर कोई असर नहीं पड़ा।

तीरकमान का सबसे अधिक प्रयोग प्राचीन मिस्र में होता था। पैदल सेना का यह मुख्य हथियार समझा जाता था। मिस्री कमानें लंबाई में मनुष्य के कद से कुछ छोटी होती थीं। मिस्र देश की विशेषता एक काँटेदार हथियार था, जो दुश्मन की तलवार को फँसाकर तोड़ने के काम में लाया जाता था। प्राचीन ऐसिरिया में भी तीर कमान का विस्तृत रूप से प्रयोग होता था, परंतु उन लोगों में भाला और बरछे का मिस्र देश वासियों की अपेक्षा अधिक प्रयोग होता था। इसके अतिरिक्त युद्ध के यंत्रों में प्राचीन ऐसिरिया में काफी उन्नति हो गई थी। रथ, जिनकी धुरी में हँसिए लगे हुए होते थे, घेरा डालने के समय किलों के अंदर भारी पत्थर फेंकने के यंत्र इत्यादि, लड़ाई के यंत्रों का ऐसिरिया में आविष्कार हुआ था। प्राचीन भारत में तीर कमान का विस्तृत रूप से प्रयोग होता था। रामायण और महाभारत में इसका बहुत जगह उल्लेख है। इसके अतिरिक्त शक्ति, गदा, फरसा, तलवार इत्यादि भी उस समय प्रयुक्त किए जाते थे। लड़ाई में रथों का बहुत प्रयोग होता था।

प्राचीन रोम के मुख्य हथियार तलवार, भाला और बरछे होते थे। रोमन तलवार २२ इंच से २४ इंच तक लंबी होती थी। इसके फल में दोनों ओर धार रहती थी और नोंक चौड़ी होती थी। यूनानी तलवार की तरह यह भी परतले में दाहिनी तरफ लगाई जाती थी और काटने के बजाय घुसेड़ने के काम आती थी। आरंभ में रोमन तलवार काँसे की बनती थी, पर ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी में लोहे की बनने लगी। रोमन सैनिकों में बरछे के प्रयोग पर अधिक जोर दिया जाता था। ये बरछे पाँच फुट से छह फुट तक लंबे होते थे, जिनमें आगे दो फुट का फल लगा होता था। दुश्मन से जब १० या १५ कदम के फासले पर रोमन सैनिक पहुँच जाते थे, तब बरछे एक साथ जोर से फेंके जाते थे। ये बरछे विरोधी दल की ढालों में घुस जाते थे। रोमन सैनिक तुरंत ही झपटकर बरछों के डंडों को पकड़ कर ढालों को नीचे गिरा लेते थे और इस तरह रास्ता बनाकर, दुश्मन फौज पर तलवारों से हमला करते थे। रोमन सेना में युद्ध के रथ, पत्थर फेंकने की कलें और दुश्मन के किलों की दीवार तोड़ने के लिए यंत्रों का प्रयोग होता था। यद्ध के मैदान में रोमन सैनिक लोहे के काँटों को फेंकते थे, जो किसी तरफ भी गिरें पर उनमें से कुछ की नोकें ऊपर को रहती थीं। इन काँटों से दुश्मन की घुड़सवार सेना की गति में बहुत बाधा पड़ती थी।

प्राचीन काल में अस्त्र शस्त्रों की मार से बचाव के लिए ढाल, झिलम, उरस्त्राण और पदत्राण काम में लाए जाते थे। प्राचीन मिस्र में तीरंदाजों के पास ढाल नहीं होती थी, पर नेजेबाजों के पास बड़ी ढाल, जो नीचे से चौकोर और ऊपर से अर्धवृत्त की शकल की थी, होती थी।

इस ढाल में ऊपर की ओर एक सूराख रहता था, जिसमें से निशाना लिया जा सकता था। प्राचीन यूनान में बहुत बड़ी ढाल का प्रयोग होता था, जिससे सारे शरीर का बचाव हो सकता था। इसका आकार गोल या अंडाकार होता था और सामने से उभरी हुई रहती थी। धीरे धीरे ढालों का आकार उत्तरोत्तर छोटा बनने लगा।

प्राचीन भारत में ढालें आम तौर से काम में लाई जाती थीं। ढालें गोल होती थीं और उनसे शरीर के ऊपरी भाग का बचाव हो जाता था। अधिकतर ढालें भैंसे, या गैंडे के चमड़े की बनाईसे जाती थीं।

रोमन सैनिक दो प्रकार की ढालों का प्रयोग करते थे : एक को स्क््यटूम (Scutum) कहते थे, जो आयताकार, बड़ी और बहुत उभरी हुई होती थी। यह ढाल बड़ी पैदल सेना को मिलती थी। दूसरी जो 'पार्मा' कहलाती थी, छोटी, गोल या अंडाकार और चपटी ढाल होती थी तथा छोटी, पैदल और घुड़सवार सेना के लिए थी। ढालों के आकार में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रही और रोम के अंतिम दिनों में तो ढालें बहुत बड़ी बनने लगीं।

झिलम या शिरस्त्राण प्राचीन ऐसिरिया, मिस्र, यूनान और रोम में आम तौर से प्रयुक्त होता था। ऐसिरियाई झिलम गावदुम होता था। कभी कभी इसकी कलँगी आगे की ओर झुकी हुई होती थी। यूनानी झिलम की, जो गरदन के पीछे मुड़ी हुई होती थी, कलँगी बहुत ऊँची होती थी, रोमन झिलम में गर्दन और चेहरे के बचाव का भी बंदोबस्त रहता था। महाभारत में शिरस्त्राण के प्रयोग का उल्लेख मिलता है।

प्राचीन यूनान में उरस्त्राण काँसे का बनाया जाता था। ऐसिरिया में उरस्त्राण, सिले हुए और सरेस से चिपकाए हुए, सन के कपड़े का कई परतों का कोट होता था। मिस्री तीरंदाज रुई भरा हुआ कोट का उरस्त्राण पहनते थे, पर नेजेबाजों के पास काँसे के छिलकों के उरस्त्राण होते थे। रोमन पैदल अफसर काँसे का उरस्त्राण, जिसमें नीचे चमड़ा लगा रहता था, पहनते थे। पैदल सैनिक कपड़े या चमड़े का उरस्त्राण पहनते थे, जिनमें कँासे के टुकड़े टँके हुए रहते थे। बाद में घुड़सवारों को भी उरस्त्राण मिलने लगे, जो या तो जंजीर के बने होते थे, या कपड़े के, तथा जिनमें काँसे की टिकुलिया टँकी हुई रहती थीं।

यूनान में पदत्राण दो टुकड़ो में होता था, जो पैर को पूरी तौर से ढँक लेता था। रोमन पदत्राण, जो केवल सामने और बगल से बचाव करता था, एक ही टुकड़े में होता था। यह केवल एक ही पैर में पहना जाता था, क्योंकि दूसरे पैर का बचाव ढाल से हो जाता था। रोमन सैनिक पैर में नोकदार जूते, जो दुश्मन पर चोट करने के काम में भी आ सकते थे, पहनते थ।

रोमन साम्राज्य को नष्ट करनेवाली जर्मन जातियाँ थीं। उनके हथियार फरसा, भाला और तलवार थे। शरीर के बचाव के लिए ये लोग केवल एक बड़ी ढाल का, जो पतली लकड़ी की बनी हुई और चमड़े से मढ़ी हुई होती थी, प्रयोग करते थे। यह ढाल प्राय: आठ फुट लंबी और दो फुट चौड़ी, अंडाकार होती थी। कुछ काल पश्चात् ढाल चमड़े की जगह लोहे से मढ़ी जाने लगी और उसकी शकल गोलाकार बनाई जाने लगी।

फ्रैंक जाति का विशेष हथियार कुल्हाड़ी थी जिसको फ्रांसिस्का कहते थे। इसके फल में एक ही तरफ धार होती थी और वेंट छोटी होती थी। इस कुल्हाड़ी को फेंककर मारा जाता था। फ्रैंक लोगों का बरछा रोमन बरछे के समान होता था और उसके प्रयोग करने की विधि भी रोमन बरछे की तरह थी। फ्रैंक लोगों में तलवार केवल घुड़सवार ही रखते थे। फ्रैंक लोग कवच का प्रयोग नहीं करते थे, बचाव के लिए केवल एक गोल ढाल रखते थे। इन्हीं के समकालीन स्कैंडिनेविया की जातियों के मुख्य हथियार तलवार और ढाल थी। तलवार सीधी, लंबी और दुधारी होती थी। ढाल गोल, चपटी और लकड़ी की बनी हुई होती थी, जो कभी काँसे से और कभी लोहे से मढ़ी जाती थी। इन ढालों का व्यास २२ इंच से ४४ इंच तक होता था। ऐंग्लो सैक्सन पैदल सैनिकों के आम हथियार भाला, कुल्हाड़ी और एक विशेष प्रकार का भारी चाकू होता था। तलवार फ्रैंक लोगों की तरह केवल घुड़सवार रखते थे। यह तलवार तीन फुट लंबी, चौड़े फल की, और गोल नोकवाली होती थी। ऐंग्ला सैक्सन ढाल गोल या अंडाकार लकड़ी की बनती थी, जिसपर चमड़ा चढ़ा हुआ होता था और बाहर की तरफ एक नोक लगी रहती थी।

क्रूसेड्स के काल में चेन का जिरहबकतर बनना आरंभ हो गया था। १४वीं शताब्दी तक जिरह बकतर चेन के ही बनते रहे। १५वीं सदी में चेन तथा प्लेट; दोनों के जिरह चलने लगे और शताब्दी के अंत में केवल प्लेट के ही जिरहबकतर का चलन रह गया। इससे प्लेट के जिरह बकतर बनाने की कारीगरी का विकास हुआ जो सोलहवीं शताब्दी प्रारंभ होते होते उच्चतम शिखर पर पहुँच गई। जिरहबकतर अंत में इतने भारी हो गए कि उनको पहनकर पैदल लड़ना लगभग असंभव हो गया। इसलिए घोड़ों के बचाव के लिए जिरह बकतर का प्रयोग आवश्यक हो गया। घोड़ों के लिए भी प्लेट के जिरह का चलन हो गया। जिरह की कारीगरी इस हद तक पहुँच गई कि जिरहबकतर तोड़कर यों उसमें कोई सेंध पाकर दुश्मन के शरीर पर चोट करना करीब करीब असंभव हो गया। इसलिए विपक्षी को जख्मी करने के बजाय उसे घोड़े से गिराना लड़ाई का मुख्य उद्देश्य हो गया। घोड़े से गिरने पर गदा से मार मारकर, दुश्मन की जान निकाल देना लड़ाई का माना हुआ तरीका हो गया। अच्छे जिरह या बकतर बनने पर ढालों की कोई आवश्यकता नहीं रह गई और धीरे धीरे उनका प्रयोग बंद हो गया।

प्लेट के जिरहबकतर में शरीर के अवयवों की हरकत में काफी विघ्न पड़ता था, इसलिए १७वीं शताब्दी में छोटे छोटे प्लेट, जो कपड़े में टँके हुए होते थे, जिरह बनाने के लिए काम में लाए जाने लगे। इस काल में बकतरबंद योद्धाओं के हथियार बल्लम, तलवार,गदा और कुल्हाड़ी थे। ये सब हथियार भारी और मजबूत बनाए जाते थे, क्योंकि हलके हथियारों का प्लेट के जिरहबकतर पर कोई असर नहीं हो सकता था। बल्लम का प्रयोग जख्म करने के अतिरिक्त विपक्षी को धक्के से घोड़े से गिरा देने के लिए भी होता था। तलवारें भारी होने के कारण दोनों हाथों से चलाई जाती थीं।

प्लेट का जिरहबकतर इतना भारी होता था कि केवल घुड़सवार ही उसको पहनकर लड़ सकते थे, इसलिए सेनाओं में घुड़सवार सेना हो गई थी और पैदल सेना किसी गिनती में नहीं रह गई थी। केवल इंग्लैंड में पैदल तीरंदाज सेना के आवश्यक और कभी कभी तो मुख्य अंग बने रहे। नॉर्मन विजय के समय नॉर्मन कमानें गज भर लंबी होती थीं। पीछे पाँच और छह फुट की कमानें बनने लगीं, जिनसे एक गज लंबा तीर चलाया जाता था। जर्मनी और इटली में भी कमानों का चलन था, जो करीब डेढ़ गज लंबी होती थीं। बाद में क्रॉसवो (crossbow) का आविष्कार हुआ। इसकी मार हाथ से खींचनेवाले कमान से बहुत अधिक होती थी और तीर में ताकत भी बहुत अधिक होती थीं, पर इसके चलाने में बहुत समय लगता था। इसलिए क्रॉसवो कमान का चलन बंद न कर सकी। तीर कमान और क्रॉसवो यूरोपीय देशों में १७वीं शताब्दी तक चलते रहे। बारूद का आविष्कार होने से पहले, यूरोपीय सेनाओं के यही मुख्य हथियार थे। युद्ध की बड़ी बड़ी कलें भी, जो प्राचीन काल में ऐसिरिया, रोम इत्यादि में प्रयुक्त होती थीं, चलती रहीं। पैदल सिपाही सेना के बहुत गौण अंग माने जाते थे और उनके बचाव के लिए केवल चमड़े के, या रुई भरे, कोट दिए जाते थे।

बारूद का आविष्कार तो चौदहवीं शताब्दी में ही हो गया था, पर बारूद से चलनेवाले हथियारों, तोपों, बंदूकों, और पिस्तौलों में बहुत काल तक कोई उन्नति नहीं हुई। क्रमश: इन हथियारों में उन्नति होने पर, लड़ाई के हथियार, रणशैली और बचाव के साधनों में क्रांतिकारी परिवर्तन हो गए। सब से पहले तोप का प्रयोग फ्रांस में, क्रैब्रे शहर के घेरे में, सन् १३३९ ई. में हुआ। इन तोपों से पत्थर का गोला चलाया जाता था और यह पीछे से भरी जाती थीं। पंद्रहवीं सदी में लड़ाई के मैदान में ले जाई जानेवाली तोपें बनने लगीं। १७वीं सदी के लगभग बीच में, फ्रांस देश में मॉर्टर या बंब गोला फेंकनेवाली छोटी तोपें बनी। बंदूकों का बनना १५वीं सदी में आरंभ हुआ। स्विस सेना ने बड़े पैमाने पर बंदूकों का प्रयोग सन् १४७६ ई. में मोराट की लड़ाई में किया। इंग्लैंड में सन् १४८५ में, योमैन पल्टन को पहले पहल बंदूकें मिलीं। ये प्रारंभिक बंदूकें बहुत ही भद्दी बनी हुई होती थीं, उनका निशाना बहुत गलत लगता था, और मार भी बहुत कम होती थी। इन बंदूकों को चलाने में, दो मनुष्यों की आवश्यकता पड़ती थी और चलाते समय नाल को साधने के टेक लगाए जाते थे। इन बंदूकों को चलाने के लिए, हाथ से पलीता लगाया जाता था। १४७६ ईस्वी में, पलीता लगाने के लिए घोड़े का प्रयोग आरंभ हुआ। जलता हुआ पलीता एक पुरजे में बँधा हुआ होता था, जो घोड़ा दबाने पर झुककर, नाल में सटे हुए बारुद के दिए में लग जाता था, और फायर हो जाता था। और भी कई प्रकार की कलों का बंदूकों का फायर करने के लिए आविष्कार हुआ, जो थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ १९वीं शताब्दी तक चलती रहीं। सन् १८०७ ई. में स्कॉटलैंड के एक पादरी ने टोपीदार बंदूक का आविष्कार किया। इस आविष्कार के साथ बंदूकें की शकल बहुत कुछ आधुनिक हो गई। सन् १८३६ में जर्मनी के शहर इरफर्ट में सबसे पहले कारतूसी बंदूक बनी और २०वीं शताब्दी का आरंभ होने तक, उसकी बनावट में बहुत कुछ उन्नति हो गई। कारतूसी बंदूकों के साथ साथ तोपें भी, जो मुँह से भरी जाती थीं, पीछे से भरनेवाली बनने लगीं। इसी समय सपाट नली की जगह चूड़ीदार नली का आविष्कार होने से रायफल बनी। इस आविष्कार से बंदूकों और तोपों की मार पहले से कहीं अधिक हो गई और उनके निशाने में बहुत अधिक सच्चाई आ गई। १६५० ई. में फ्रेंच मार्शल वबाँ ने संगीन का आविष्कार किया। इस हाथियार के ईजाद होने से पैदल सेना का भाला अनावश्यक हो गया।

आरंभ में बंदूक की मार से बचने के लिए अधिक मजबूत कवच बनाए गए। ऐसा करने से कवच का बोझ बढ़ गया। जैसे जैसे बंदूक और पिस्तौल की बनावट और मार में उन्नति होती गई, वैसे वैसे उनसे बचने के लिए कवच का बोझ बढ़ता गया। अंत में यह बोझ इतना बढ़ गया कि कवच की कोई व्यावहारिक उपयोगिता न रह गई। रायफल का आविष्कार होने के बाद तो बंदूकों और पिस्तौलों में इतनी शक्ति बढ़ गई कि कवच उनके सामने बेकार हो गया। इस प्रकार १८वीं सदी में जिरहबकतर का चलन उठ गया। बिना बचाव के रायफलों और तोपों के सामने जाने का मतलब तो निश्चित मृत्यु के मुख में जाना था। फिर मशीनगन का आविकार होने के बाद तो सेनाओं का खुले मैदान में आना असंभव हो गया। सन् १९१४-१८ की लड़ाई में जर्मन और मित्र राष्ट्रों की फौजें आमने सामने खाइयों में पड़ी रहीं, और हमला करके हराना दोनों फौजों के लिए बहुत हानिकारक और कठिन काम हो गया।

अंत में टैंक का आविष्कार होने पर ही इस कठिनाई का अंत हुआ। वास्तव में टैंक वही कार्य करने के लिए बने जो काम पहले जिरहबकतर किया करता था। इसीलिए टैंक सेना का नाम आर्मर पड़ा। टैंकों के आने से और पिछले महायुद्ध में उनके बड़े पैमाने पर उपयोग किए जाने से, युद्ध की शकल ही बिल्कुल बदल गई। लड़ाई के दौरान टैंकों की बनावट और उनके प्रयोग में बहुत प्रगति हुई। भिन्न भिन्न कार्यों के लिए विभिन्न प्रकार के टैंक बनाए गए। हलके, मझोले और भारी, तेज और धीमे, हलकी और भारी तोपवाले, तरह तरह के टैंक लड़ाई के मैदान में दिखाई देने लगे और ऐसा प्रतीत होने लगा कि लड़ाई की शैली का भाविष्य टैंकों के हाथ में है।

पर साथ ही साथ टैंकमार तोपों की उन्नति से एक संतुलन स्थापित हो गया। पहले पहल तो टैंकों ही की जीत रही, पर धीरेधीरे, जैसे जैसे अधिक शक्तिशाली तोपें बनीं, टैंक काबू में आ गए। पहले टैंकमार तोपों को खींचने के लिए किसी दूसरी गाड़ी को जोतना पड़ता था। बाद में स्वचालित तोपें बनने लगीं। बैलेंटाइन आर्चर इसी प्रकार की तोप थी, जो पिछले महायुद्ध के समाप्त होने पर बहुत उत्तम टैंकमार तोप समझी जाती थी। महायुद्ध के बाद खोखला चार्ज, और बिना धक्केवाली तोपों के आविष्कार सेनाओं की टैंकमार शक्ति बहुत बढ़ गई। अब यह कहा जा सकता है कि इस समय टैंक शक्ति से टैंक मार शक्ति अधिक प्रबल है।

नौसेना में भी इसी प्रकार, तोप और जहाजों के आर्मर में भी प्रतियोगिता चलती रही। वायुशक्ति के विकास से इस प्रतियोगिता का इतना महत्व नहीं रह गया। आजकल जहाजों के आर्मर के बजाय उनकी तोपों और चाल की तेजी का अधिक महत्व है। (नरेश चंद्र चतुर्वेदी)