शर्मा, चंद्रधर, गुलेरी जन्म सं. १९४० (१८८३ ई.) में हुआ। पिता पंडित शिवराम संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान् थे। उनकी विद्वत्ता की ख्याति सुनकर जयपुर नरेश रामसिंह ने उन्हें अपने दरबार में बुला लिया था। 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' के अनुसार चंद्रधर शर्मा ने शैशव में ही अपनी प्रतिभा का परिचय दे दिया था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा विद्वान् पिता से हुई। छह सात वर्ष की अवस्था में ही वे अच्छे प्रकार संस्कृत में बोलने लगे। सं. १९५६ वि. (१८९९ ई.) में प्रयाग विश्वविद्यालय की एंट्रेंस परीक्षा में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसके पश्चात् इन्होंने अपने अध्ययन क्रम में ही जयपुर के मानमंदिर के उद्धार में दो विदेशी विद्वानों की सहायता की तथा लेफ्टिनेंट गैरट के साथ (The Jaipur Observatory and its Builder) ग्रंथ लिखा और इस कार्य के एक वर्ष के पश्चात् सं. १९६० (१९०३ ई.) में प्रयाग विश्वविद्यालय से बी. ए. प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए किया। वे दर्शन शास्त्र में एम. ए. करना चाहते थे, किंतु जयपुर के महाराजा के आग्रह से उन्हें अध्ययन छोड़कर खेतड़ी के राजा जयसिंह के संरक्षक तथा शिक्षक बनकर मेयो कालेज, अजमेर जाना पड़ा। कुछ वर्ष पश्चात् वे वहीं संस्कृत के प्रधानाध्यापक हो गए। परंतु उनके अपने स्वाध्याय में व्याघात नहीं पड़ा। वे अति प्रतिभावान् थे। संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश पर तो उनका असाधारण अधिकार था ही, मराठी, बँगला, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था। उन्होंने साहित्य, ज्योतिष, दर्शन, भाषाविज्ञान, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व का गंभीर अध्ययन किया। गुलेरी जी की प्रतिभा एवं विद्वत्ता से प्रभावित होकर ही महामना मालवीय जी ने उन्हें काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास तथा संस्कृति विभाग में 'मंणींद्रचंद्र नंदी' पीठ का आचार्य (प्रोफेसर) और साथ ही प्राच्यविद्या एवं धर्मविज्ञान महाविद्यालय का प्रधानाचार्य नियुक्त किया। परंतु भारतीय वाङ्मय का यह दुर्भाग्य था कि सं. १९७९ (सन् १९२२ ई.) में केवल ३९ वर्ष की आयु में गुलेरी जी का निधन हो गया।

गुलेरी जी ने वर्षों तक 'समालोचक' का बड़ी ही योग्यता से संपादन किया था। उनके शोधपूर्ण लेखों ने इस पत्र का स्तर अति उन्नत बना दिया था। भाषा, संस्कृति, इतिहास, दर्शन आदि का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं था जिसपर गुलेरी जी ने साधिकार कुछ न लिखा हो। उनकी अधिकांश रचनाएँ हिंदी में ही हैं। हिंदी के प्रति उन्हें विशेष अनुराग था। काशी की 'नागरीप्रचारिणी पत्रिका' के संपादकों में उनका विशिष्ट स्थान था। गुलेरी जी की प्रेरणा से ही शाहपुरा के राजा श्री उम्मेद सिंह जी ने अपनी स्वर्गीया पत्नी सूर्यकुमारी जी की स्मृति में नागरीप्रचारिणी सभा के तत्वावधान में सूर्यकुमारी पुस्तकमाला चलाने के लिए प्रचुर दान दिया। वर्षों तक इस पुस्तकमाला का संपादन गुलेरी जी ने ही किया।

ग्रंथरचना की अपेक्षा गुलेरी जी ने स्फुट रूप में साहित्य, भाषा विज्ञान एवं आलोचना के क्षेत्र में लेख अधिक लिखे। उनकी भाषा और शैली की प्रमुख विशेषता है सजीवता, संकेतमयता, वक्रता एवं व्यंजनामयता। यद्यपि गुलेरी जी ने पर्याप्त लिखा है, तथापि उनकी 'उसने कहा था' शीर्षक कहानी ही उन्हें साहित्यजगत् में अमर बनाने के लिए पर्याप्त है। यह अत्युत्तम एवं बेजोड़ कहानी है। वैसे उनकी 'सुखमय जीवन' तथा 'बुद्धू का काँटा' कहानियाँ भी प्रसिद्ध हैं। उनके प्रकाशित ग्रंथों में 'पुरानी हिंदी' का विशिष्ट स्थान है। 'कछुआ धर्म', 'मारेसि मोहिं कुठाउं' आदि लेखों में बड़ी ही मधुर और तीखी मार रहती थी। उनके लेखों को अच्छी प्रकार समझने के लिए पाठक का बहुज्ञ, बहुपठित एवं बहुश्रुत होना आवश्यक है। उनका अध्ययन बड़ा विस्तृत था। स्थल स्थल पर वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, सूत्र, पुराण, रामायण, महाभारत आदि के संकेत देते गए हैं। यदि संकेतित ग्रंथ के विषय से पाठक का परिचय नहीं है तो वह संबंधित लेख को पूरी तरह समझ नहीं सकता। (धर्मेंद्र नाथ शास्त्री)