्व्राण (Ulcer) शरीरपृष्ठ (body surface) पर संक्रमण द्वारा शोध उत्पन्न होता है। इस संक्रमण के जीवविष (toxins) स्थानिक उपकला (epithelium) को नष्ट कर देते हैं। नष्ट हुई उपकला के ऊपर मृत कोशिकाएँ एवं पूय संचित हो जाता है। मृत कोशिकाओं तथा पूय के हट जाने पर नष्ट हुई उपकला के स्थान पर धीरे धीरे कणिकामय ऊतक (granular tissues) आने लगते हैं। इस प्रकार की विक्षति को व्रण कहते हैं। दूसरे शब्दों में संक्रमणोपरांत उपकला ऊतक की कोशिकीय मृत्यु को व्रण कहते है।

अनावरित क्षत व्रण कहलाता है। किसी भी पृष्ठ के ऊपर, अथवा पार्श्व में, यदि कोई शोधयुक्त परिगलित (necrosed) भाग हो गया है, तो वहाँ व्रण उत्पन्न हो जाएगा। शीघ्र भर जानेवाले व्रण को सुदम्य्व्राण कहते हैं। कभी कभी कोई व्रण शीघ्र नहीं भरता। ऐसा व्रण दुदम्य हो जाता है, इसका कारण यह है कि उसमें या तो जीवाणुओं (bacteria) द्वारा संक्रमण होता रहता है, या व्रणवाले भाग में रक्तपरिसंचरण (circulation of blood) उचित रूप से नहीं हो पाता। व्रण, पृष्ठ पर की एक कोशिका के बाद दूसरी कोशिका के नष्ट होने पर, बनता है। निम्नलिखित तीन ऐसे स्थान है जहाँ पर व्रण प्राय: हो जाते हैं :

(१) मुख, आमाशय अथवा आंत्र - इनमें विकृति द्वारा उत्पन्न शोथयुक्त परिगलन होता है (देखें, आमाशय तथा ग्रहणी के व्रण तथा पाचक तंत्र के रोग)।

(२) निम्न शाखाओं के अधस्त्वक् - इनमें वृद्धावस्था में रक्त परिसंचरण के उचित रूप में न होने के कारण शोथ उत्पन्न हो जाता है, जिससे परिगलन होना प्रारंभ हो जाता है।

(३) गर्भाशय-ग्रीवा (Cervix of the uterus)

्व्राण की प्रावस्थाएँ - व्रण का जीवन निम्नलिखित तीन प्रावस्थाओं (phases) में विभाजित है :-

(१) विस्तार (Extension), (२) परिवर्त (Transition) तथा (३) सुधार (Repair)

विस्तार की प्रावस्था में व्रण का तल स्राव एवं गलित पदार्थों से ढँका रहता है। व्रण के परिसर तीव्र होते हैं तथा इसमें से पूयमुक्त स्राव निकलना रहता है।

परिवर्त प्रावस्था में व्रण का भरना प्रारंभ होने लगता है। इसके तल का भाग साफ होने लगता है। तल में कणिकामय ऊतक बनने प्रारंभ हो जाते हैं और आपस में जुड़ने के कारण संपूर्ण तल इनमें ढँक जाता है।

सुधार की प्रावस्था में कणिकामय रेशेदार तंतु ऊतक (fibrous tissue) में, परिवर्तित हो जाते हैं। कणिकामय ऊतकों का अधिक बनना भी उचित नहीं है। यदि किसी व्रण में कणिकामय ऊतक अधिक बन गए हों, तो उनको खुरच देना चाहिए अथवा सिल्वर नाइट्रेट जैसे किसी कॉस्टिक पदार्थ से जला देना चाहिए।

्व्राण के प्रकार - व्रण निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं :

(१) विशिष्टि (specific), (२) विशिष्टताहीन (nonspecific) तथा (३) दुर्दम्य (Malignant)।

विशिष्टताहीन व्रण - इसके होने का कारण क्षत (wound) का संक्रमण है। यह क्षत अभिघात, अथवा किन्हीं उत्तेजक पदार्थों, के कारण हो जाता है। स्थानिक क्षोभ, जैसा दंत्व्राण में, अथवा रक्त-परिसंचरण-बाधा, जैसा स्फीत शिराओं (varicose veins) में, इसके उत्पन्न करने में प्राथमिक कारण हैं। पोषणज व्रण (trophic ulcer) वाहिका प्रेरक नियंत्रण (vasomotor control) के अनौचित्य से संबंधित है। अस्वस्थावस्था में यह व्रण के भरने में बाधक है।

विशिष्ट व्रण - ये कुछ विशिष्ट रोगों के सूक्ष्म जीवों के संक्रमण के कारण उत्पन्न होते हैं। ये रोग है : यक्ष्मा, सिफलिस आदि। इन व्रणों की चिकित्सा करते समय स्थानिक चिकित्सा के अतिरिक्त विशिष्ट रोग की चिकित्सा भी करनी होती है।

दुर्दम्य व्रण - यह किसी संक्रमण की शोथज प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न नहीं होता, अपितु दुर्दम्य अर्बुद द्वारा ऊतकों को नष्ट करने के कारण होता है। इसके द्वारा उत्पन्न व्रण के परिसर अर्बुद में ही विलीन हो जाते हैं। यह व्रण अतिशीघ्रता से बढ़ता है। दुर्दम्य अर्बुद हैं : (१) कार्सिनोमा, (२) रोडेंट व्रण तथा (३) सार्कोमा।

्व्राण का भरना - ऊतकों की जीवनशक्ति बिगड़ जाती है, जिसके फलस्वरूप संक्रमण भी अपना प्रभाव डालता रहता है। यही कारण है कि व्रण के रोपण में अधिक समय लग जाता है निम्न अवस्था में व्रण के शीघ्र नहीं भरते :

(१) तंत्रिका क्षत (Nerve lesion),

(२) स्फीत शिराओं के कारण रुधिर संकुलता (congestion) एवं कुपोषण (malnutrition) तथा

(३) ऊतकों में संवर्धन माध्यम (culture medium) की अधिक मात्रा में उपस्थित, अर्थात् मधुमेह (diabetes) में शर्करा का होना आदि। (रमेश चंद्र गर्ग)