व्यक्तिवाद : साधारण अर्थ में, स्वार्थ के समर्थन की, अथवा विशिष्ट समझे जानेवाले व्यक्तियों की महत्ता स्वीकार करने की प्रवृत्ति; दर्शन में, प्रत्येक व्यक्ति को विशिष्ट व्यक्ति ठहराने की प्रवृत्ति।
पाश्चात्य दर्शन में व्यक्तिवाद की समस्या पहले पहल सोफ़िस्त विचारकों के समय, पाँचवों शताब्दी ईसापूर्व के आसपास, उत्पन्न हुई। मूलत: यह सामाजिक समस्य थी। प्रारंभिक शासन योद्धाओं के शौर्य पर स्थापित हुए थे। कालांतर में, उन प्रारंभिक शासकों के वंशज, परिवार तथा उनके संबंधियों के कुल कुलीन बन गए थे। योद्धा उनके सहायक एवं अनुचर थे। सोफिस्त काल के यूनानी समाज में कुलीनों और योद्धाओं की ही गिनती थी। इन्हीं को सुख-सुविधाएँ उपलब्ध थीं। कुलीन समाज परंपराओं को दैवी बताकर सामान्य जनों के अधिकारों का अपहरण कर रहा था। ऐसी परिस्थितियों में सोफिस्तों ने परंपराओं को मननीय सिद्ध करने का प्रयत्न किया। सोफिस्तों में वयोवृद्ध प्रोतागोरस (४८०-४१०) ने मनुष्य को सभी वस्तुओं का मानदंड घोषित किया। प्रोतागोरस का उक्त कथन पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में व्यक्तिवाद का मूल स्रोत प्रसिद्ध है। इसी प्रतिज्ञा के अनुरूप प्रोतागोरस ने ज्ञान की व्याख्या में कहा, 'हम वस्तुओं को नहीं, प्रत्यक्ष के विषयो को जानते हैं। सामान्य प्रत्यक्ष को ज्ञान का स्रोत बताना मानसिक आधार पर सामान्य व्यक्ति की सत्ता का तथा उसके मूल्य का समर्थन था।' यह 'अल्प' की सैद्धांतिक सत्ता के विरुद्ध सामान्यत: ज्ञात 'बहु' की सत्ता का समर्थन था। किंतु विवाद का अंत न हुआ।
अफलातून ने सत्ता की समस्या पर विचार करते हुए वस्तुओं के 'सार' को सत्ता स्वीकार किया। उसी को उसने द्रव्य ठहराया। पर वह 'सार' वस्तुओं के वर्गों में व्यास 'सामान्य' था। इस प्रकार उसने विशिष्ट वस्तुओं को अयथार्थ और उनके सामान्यों को यथार्थ दिखाने का प्रयत्न किया। अफलातून प्रत्यक्ष की बहुता को, उसके सार की पृथक् सत्ता मानकर, निस्सार एवं असत्य सिद्ध करना चाहता था। अरस्तू ने अफलातून के सामान्यवादी दर्शन में तत्काल कोई विशेष परिवर्तन तो नहीं किया, किंतु उसने इस बात पर बल दिया कि 'पदार्थ' और 'आकार' वस्तु के दो सहयोगी कारण हैं। इन्हें वस्तु से अलग नहीं किया जा सकत। बात ठीक लगती है। वस्तुएँ केवल सारभूत गुण तो नहीं हो सकतीं; केवल सार समग्र वस्तु का स्थानापन्न कैसे हो सकता है,
अफलातून और अरस्तू के दर्शन के बाद, सिनिक और स्टोइक दार्शनिकों ने भौतिक वस्तु की सत्ता पर बल दिया तथा नैतिक आधार पर व्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन किया। छठी शताब्दी में बीथियस ने, अरस्तू की 'कैतागोरिया' नामक पुस्तक का पॉर्फिरी (२३३-३०४) कृत परिचय अनूदित कर, नामवाद (नॉमिनलिज्म) का मार्ग प्रशस्त किया। पाश्चात्य दर्शन के मध्यकाल में, ११ वीं से १४ वीं शताब्दी तक, नामवादी विचारकों ने बराबर ही कहा कि सामान्य प्रत्यय नाम के अतिरिक्त कुछ नहीं है, वास्तविक सत्ता वस्तुओं की है। इस प्रसंग में विलियम ऑव ओखम (१२८०-१३४९) का स्मरण किया जा सकता है। उसने स्पष्ट रूप से कहा था कि विशिष्ट वस्तुएँ ही होती है। इन्हीं की हमें अपरोक्षानुभूति होती है, जिसे हम निर्णय के माध्यम से व्यक्त करते हैं। वस्तुओं के सामान्य धर्मों को अलग कर, हम सामान्य प्रत्ययों की रचना करते हैं। किंतु विवाद चलता रहा। परंपराओं के पोषक जगत् की व्यवस्था में प्रत्येक वस्तु को स्थान देने के लिए तैयार न थे।
आधुनिक काल में, जर्मन दार्शनिक इमैनुएल काँट के समय (१७२४-१८०४) तक, बाह्य जगत् की बहुता को असत्य सिद्ध करने के प्रयत्नों का सिलसिला चलता रहा। प्राकृतिक विज्ञानों का विकास भी होता रहा। इस विकास ने प्रत्यक्ष का भ्रामक मानने में अड़चन पैदा कर दी थी। कांट ने, जो स्वयं विज्ञान का अध्येता रह चुका था, वस्तुओं की सत्ता स्वीकार की। उसने जगत् की भ्रमात्मकता को कायम रखा, किंतु ज्ञान की प्रक्रिया को इसके लिए उत्तरदायी ठहराया। अब वस्तु जगत् के समर्थन की समस्या समाप्त हो गई थी; समस्या थी उसे जानने की।
२० वीं शताब्दी के व्यवहारवादी दर्शन (प्रैग्मेटिज्म) ने प्रत्यक्ष का ज्ञान का उचित माध्यम बनाने में काफी योग दिया। इस दार्शनिक प्रवृत्ति का विकास अमरीका में हुआ। चार्ल्स एस. पीयर्स (१८३९-१९१४) को इसका संस्थापक माना जाता है। किंतु इसके प्रमुख व्याख्याता विलियम जेम्स (१८४२-१९१०) हैं। जेम्स ने प्रयोग को सत्यासत्य विवक का माध्य बताया। उनके अनुसार हमें देखना चाहिए कि दी हुई वस्तु हमारी आकांक्षाओं को पूरी करती है अथवा नहीं। यदि करती है तो वह उसी प्रकार की वस्तु है जैसी हम उसे समझते हैं। प्रत्ययवादी अद्वैत के विरुद्ध उसने ठोस वस्तुओं की बहुता की स्थापना की। उसने कहा, यदि मनुष्य सहित प्रत्येक वस्तु मात्र प्राथमिक निराकार या असीम द्रव्य का परिणाम है, तो नैतिक उत्तरदायित्व, कर्म सबंधी स्वतंत्रता, व्यक्तिगत प्रयत्नों और आकांक्षाओं का अर्थ क्या होगा?
यहीं से मनुष्य सहित प्रत्यक्ष जगत् की बहुता दार्शनिकों के तात्विक ऊहापोह से मुक्त हुई। मनोविज्ञान ने प्रत्यक्ष का अध्ययन कर उचित प्रत्यक्ष और भ्रम के आधारों को अलग किया। मनोविज्ञान के प्रभाव से यथार्थवादी चिंतन व्यापक हुआ। मनुष्य और जगत् की सत्ता पर संदेह करने की कोई बात न रह गई और प्रत्यक्ष दोनों के बीच प्रेषणीयता का माध्यम समझा जाने लगा। २० वीं शताब्दी में दार्शनिक ज्ञानमीमांसा और मनोवैज्ञानिक व्याख्याओं में समझौता हो जाने से दार्शनिकों ने अपरोक्षानूभुति अथवा अव्यवहित प्रत्यक्ष पर बल दिया। मनोविज्ञान ने व्यक्तित्व के अध्ययन से प्रत्येक व्यक्ति को एक स्वतंत्र प्रकार निश्चित किया। फ्रांसीसी विचारक हेनरी वर्ग् साँ (१८५९-१९४१) ने वस्तुओं के मानसिक बोध की अपेक्षा आंतरिक अनुभव (इंट्वीशन) को अधिक मूल्य दिया। व्यक्ति की अपरोक्षानुभूति उसे अन्य व्यक्तियों से विशिष्ट बना देती है। यह अनुभूति किसी विशिष्ट व्यक्ति में नहीं, सभी में होती है। अभिप्राय यह है कि एक ही संसार में रहते हुए, सबके दृष्टिकोण भिन्न हैं, सभी अपने अपने ढंग के व्यक्ति हैं। इस प्रकार, वर्तमान ज्ञानमीमांसा व्यक्तियों की समष्टि में प्रत्येक व्यक्ति को एक विशिष्ट स्थान देती है।
वर्तमान अस्तित्ववाद इससे भी थोड़ा आगे बढ़कर विशिष्ट मनस्थितियों एवं वासनाओं का उद्घाटन करने में प्रवृत्त है। यदि हम व्यपारसमष्टि में, इन व्यक्तिगत मानवीय व्यापारों को स्थान देते हैं, तो निश्चय ही समान रूप से सभी व्यक्तियों के अस्तित्व एवं मूल्य को स्वीकार करते हैं। दार्शनिक व्यक्तिवाद का यही आशय है। विशेष दे. 'पाश्चात्यदर्शन', 'सोफिस्त', 'सिनिक', 'सिनिक पंथ', 'स्तोइक'।
सं.ग्रं. - विलियम जेम्स : प्ल्यूरलिस्टिक यूनीवर्स; हेनरी वर्ग् साँ; इंट्रोडक्शन टु मेटाफिजिक्स। (शिवानंद शर्मा)