व्यंग्यरचना (प्रहासक, वरलेस्क) 'बरलेस्क' शब्द का प्रयोग इंगलैंड में राजसत्ता की पुन: स्थापना (रेस्टोरेशन-१६६०) से कुछ वर्ष पूर्व ही हुआ जिसका अर्थ पहले मुक्त विनोद ही था, साहित्यिक पद्धति नहीं। उसके पश्चात् 'ड्रोल' (चित्र विचित्र, विनोदपूर्ण, हास्यास्पपद) के पर्याय के रूप में इसका प्रयोग हुआ जिसका अर्थ था अत्यंत हास्यजनक। अब भी यही अर्थ उन साहित्यिक रूपों के लिए प्रयुक्त होता है जो परिवृत्ति (अनुकृति काव्य, पैरोडी), व्यंग्यचित्रण (कैरीकेचर) और छदमरूपक (ट्रावेस्टी) की श्रेणी में आते हैं। सर्वप्रथम सन् १६४३ में स्कारो ने इसका प्रयोग किया था और फिर सन् १६४८ में उसके ग्रंथ 'वर्जिल के छद्म रूपक' (ट्रावेस्टी ऑव वर्जिल) के लिए इसका प्रयोग हुआ था। चार्ल्स कौटन ने अंगरेजी में जो इसका अनुकरण किया था (प्रथम भाग १६६४) उसका शीर्षक था स्कारोनिडस, और वर्जिल ट्रावर्सिटी (ए मौक पोएम, बीइंग दि फर्स्ट बुक ऑव वर्जिल्स ईनीस इन इंगलिश, वरलेस्क-एक हास्य कविता जो वर्जिल के ईनीस की अंग्रेजी में प्रथम पुस्तक प्रहासक, बरलेस्क है)। इस शब्द का प्रयोग 'हुडिब्रास' के लिए भी हुआ था जिसी उन बड़े अटपटे द्विचरणी छंदों में रचना हुई थी जिनका प्रयोग आगे चलकर सभी प्रहासकों के लिए स्वीकृत हो गया था।

'बरलेस्क' शब्द का प्रयोग अब उन सभी कविताओं, कथा - उपन्यासों और नाटकों के लिए होता है जिनमें असंगत अनुकरण के द्वारा रीति नीति, संस्था, व्यक्ति या साहित्यिक कृतियाँ (कोई विशेष कृति या किसी श्रेणी की कृतियाँ) हास्यास्पद तथा व्यंग्यात्मक रूप में प्रस्तुत की जाती हैं या उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है। जौन्सन की परिभाषा के अनुसार ऐसी रचनाओं में जान बूझकर शैल और भाव के बीय विरोध या अननुपात उत्पन्न करके विनोदात्मक प्रभव उत्पन्न किया जाता है। इनमें से जिनमें किसी तुच्छ वस्तु या भाव को अत्यंत व्यंगात्मक गंभीरता के साथ प्रस्तुत किया जाता है उन्हें उच्च प्रहासक (हाई वरलेस्क) और जिनमें गंभीर भाव को अत्यंत निम्न तथा विचित्र हास्यास्पद क्षुद्रता, लघुता या हीनता के साथ प्रदर्शित किया जाता है उन्हें निम्न प्रहासक (लो वरलेस्क) कहते हैं। अधिकांश इस प्रकार की रचनाओं का उद्देश्य आलोचना करना, खिल्ली उड़ाना या छींटे कसना होता है किंतु इसमें असंयत और असंगत क्रियाओं या व्यवहारों के द्वारा मनोविनोद भी किया जा सकता है। इस प्रकार के शुद्ध काल्पनिक प्रहासक का एस्ट्रावेगांज़ा (अटर सटर) कहते हैं। प्रहासक (वरलेस्क) के मुख्य रूप हैं परिवृत्ति (अनुकृति काव्य, पैरोडी) व्यंग चित्रण (कैरीकेचर) और छद्मरूपक (ट्रावेस्ट्री)। जिस प्रहासक (वरलेस्क) में किसी विशेष कृति या लेखक या बाद की शैली या प्रकृति तथा रीति का विनोदपूर्ण विकृत अनुकरण किया गया हो और जिसका उद्देश्य हँसी उड़ाना या उसे नीचा दिखाना या उसकी खिल्ली उड़ाना हो उसे परिवृत्ति (पैरोडी) कहते हैं। जिस प्रहासक (बरलेस्क) में किसी लेखक या कृति या व्यक्ति के सरलता से पहचाने जा सकने वाले लक्षणों को तोड़ मरोड़ या विकृत करके चित्रण किया गया हो, उसे व्यंग्यचित्रण (कैरीकेचर) कहते हैं। छद्मरूपक (ट्रावेस्टी) उस प्रहासक (बरलेस्क) को कहते हैं जिसमें मूल विषय तो ज्यों का त्यों रहता है किंतु उसका प्रतिपादन अत्यंत असंगत तथा तुच्छ भाषा में और हास्यासपद अतिरंजकता के साथ किया जाता है। किसी प्रहसक में इन तीनों पद्धतियों का सम्मिश्रण भी हो सकता है और कभी-कभी तीनों का पूर्ण परित्याग भी विशेषत: जहाँ सार्वभौम विचार या जीवन के सर्वसामान्य पक्षों को असंगत रूप में प्रस्तुत किया जाए - जैसे वायरन के डान जुवाँ में। किंतु प्राय: प्रहासक (वरलेस्क) का आनंद अप्रत्यक्ष रूप से प्रस्तुत हास्योद्बोधक विषय की पहचान से अधिक होता है इसलिए उसमें ऐरिवृत्ति, छद्मरूपक या व्यंगचित्रण प्राय: अपरिहर्य होता है।

प्रहासक उस युग में अधिक फलता फूलता है जब लेखकों के बाद या सामाजिक संस्थाएँ निंदा या आलोचना के पात्र बन जाती हैं और जब बहुत से लोग उन सब बातों की असंगति के सबंध में अधिक अभिज्ञ हो जाते हैं जो पहले प्रशंसनीय समझी जाती थीं। यूरोप में जब मध्यकालीन कल्पनावादी साहित्य (रोमान्सेज) की घोर शब्दाडंबर से युक्त ऊटपटाँग बातें चलीं तब चौसर ने अपने 'सर टोपास' नामक ग्रंथ में उनकी खिल्ली उड़ाई। दो शताब्दी पश्चात् सामंतवादी प्रणाली (शिवेलरी) की ्ह्रासयुक्त शस्त्रसज्जा को 'डौन क्विक्ज़ौट' द्वारा उत्पन्न किए हुए विनोद ने पूर्णत: समाप्त कर डाला जिसमें उस प्रकार के प्रहासक लिखने के लिए केवल प्रेरणा ही नहीं मिली वरन् आदर्श भी उपस्थित किए गए। इसका परिणाम यह हुआ कि १७ वीं शताब्दी के प्रारंभ में विशेषत: इंग्लैंड में प्रहासक के सब रूप अत्यंत प्रभूत संख्या में लिखे गए। 'हुडित्रास' शैली से निम्न प्रहासकों (लो वरलेस्क) की परिपाटी चली और उच्च प्रहासक 'ड्राइडेन' के 'मैकफ्लैक्नो' तथा पोप के 'दि रेप ऑव दि लौक' शीर्षक रचनाओं के वीरतापूर्ण छंदों में अपनी पराकाष्ठा को पहुँच गय। १८ वीं शताब्दी के संवेगात्मक (सेंटीमेंटल) और गोथि उपन्यासों पर भी गद्य में कई प्रहासक लिखे गए और उनकी खिल्ली उड़ाई गई जैसे जैन ओस्टेन का 'नीर्थेनार एबे' पीकौक का 'हेडलौंग हौ' तथा 'हौरिस हौ' तथा 'थैकरे' की रचनाएँ। इसी प्रकार 'गिफोर्ड' और 'हौरिस स्मिथ' की कविताएँ, वीरतापूर्ण तथा कल्पनावादी नाटक और नृत्य नाट्य भी सफल हुए।

नाटकीय प्रहासक (थियेटर बरलेस्क) उतना ही पुराना है जितना सुखांत नाटक या प्रहसन (कौमेडी)। कोमोस की प्रहसनात्मक गुप्ततंत्र क्रियाएँ (बरलेस्किंग और्गीज) से 'अरिस्तोफ़नेस' के नाटकों में छद्मरूपक (टावेस्टी), परिवृत्ति (पैरोडी) और व्यंग्यचित्रण (कैरिकेचर) का अत्यंत भव्य सम्मिश्रण विकसित हुआ। एलीजाबेथीय रंगशाला पर यद्यपि इस प्रकार के प्रहसन बहुत कम हुए, फिर भी वे उल्लेखनीय हैं जैसे - 'शेक्सपियर' के 'लब्ज लेबर्स लौस्ट' में 'नाइन वर्दीज़', 'मिड समर नाइट्स ड्रीम' में 'पिरेमस एंड थिसबे' का छद्मरूपक तथा 'दि नाइट ऑव दि बर्निग पेसिल'। वर्तमान नाटकीय प्रहासकों को मुख्य प्रेरणा 'दी जार्ज विलियर्स' के 'दि रिहर्सल' (नाट्याभ्यास) की सफलता ने जिसमें (१६७१) वीरतापूर्ण नाटकों का छद्मरूपण और ड्राइडेन का व्यंग्यचित्रण किया गया था।

१८ वीं शताब्दी में प्रहासक के साथ संगीत के जोड़ देने की प्रवृत्ति बढ़ी जो बैलट औपरा की हास्य-नृत्य-नाट्य शैली में चले थे। वे इतने लोकप्रिय हुए कि छोटी अव्यवस्थित रंगशालाओं में उनका बहुत प्रचलन हुआ जो पीछे चलकर रंगशाला के लिए बने हुए पेटेंट नियमों से बाध्य किए गए कि वे बिना संगीत के संवाद प्रस्तुत न करें। इस प्रकार की रचनाओं के लिए बरलेटा शब्द का प्रयोग किया गया जिसे प्रहासक (बरलेस्क) का पर्यायवाची समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। १७ वीं शताब्दी में उसका अर्थ था सूक्ष्म संगीतमय प्रहसन किंतु पीछे चलकर उसका अर्थ हुआ ऐसा नाटक जिसमें इतना संगीत हो कि वह पेटेंट नियम की बाधा से मुक्त रहे।

१९ वीं शताब्दी के प्रारंभ में इस प्रकार के निम्न कोटि के नाटकीय प्रहासकों को दो प्रकार के प्रभावों ने समाप्त कर डाला और उनके स्थान पर आ बैठे। पहला तो अधिक शिष्ट फ्रांसीसी शैली का प्रचलन और दूसरे अधिक कलात्मक नाटकीय रचनाओं का उत्पादन। फ्रांस में भी निम्न कोटि के नाटककारों ने दो प्रकार के हल्के और ललित संगीतमय प्रहासकों (म्यूजिकल बरलेस्क) की रचना की जिसे फेयरीज़ फौलीज़ (परियों की कथाओं का कल्पनाशील छद्मरूपण) और रेव्यू (तत्कालीन नाटकीय प्रभावों का चटपटा छद्मरूपण)। इस प्रकार के अटर सटरों (एक्स्ट्रा वेगेंजाज़ में), लालित्य, कल्पना, चतुरतापूर्ण श्लेष और उन सामयिक प्रवृत्तियों पर अत्यंत कौशलपूर्ण टिप्पणी भरी रहती थी जिनका संबंध फ्रांसीसी या अंग्रेजी सात्हिय से होता था।

वर्तमान काल के अमरीकी प्रहासक का प्रादुर्भाव लुप्त अंग्रेजी कला से हुआ है। अमरीकी रंगमंच पर इसका प्रचलन बहुत हले ही हो गया था किंतु इंग्लैंड की अपेक्षा अधिक शील के साथ हुआ था जहाँ प्रारंभ में ही कामभावना की प्रेरणा से वह बहुत लोकप्रिय हो गया था। कामभावना पर अधिक बल देना अमरीका में उस समय से प्रारंभ हुआ जब १८६९ में एक अंग्रेजी नाट्य मंडली अमरीका में आई जिसमें अंगों के सौदर्यमय प्रदर्शन, सुंदरी बालाओं और ग्रीज पेंट से चारों ओर हाहाकार मच गया। अब तो केवल उस हाहाकार का और प्रहासक का नाममात्र बच गया है जिसने उस समय के लोगों को प्रभावित किया था। अब उस प्रकार का अंगप्रदर्शन, संगीतमय प्रहसन और रेव्यू में पहुँच गया है।

सं.ग्रं. - आर पी.वांड : इंगलिश बर्लेस्क पोइट्री, १९३१; जी. किचिन : ए सर्वे ऑव बरलेस्क ऐंड पैरोडी इन इंगलिश, १९१३; डब्ल्यू जे. राड और एम. ल्यूनीड : ए सेंचुरी ऑव पैराडीएट इमीटेशन, १९१३; ए.बी. सेपरसन : दी नावेल इन माटले, १९३६; सीताराम चतुर्वेदी : समीक्षा शास्त्र। (सीताराम चतुर्वेदी)