वैशेषिक दर्शन जीवन का मुख्य लक्ष्य है परमानंद की प्राप्ति या दु:ख की आत्यंतिक निवृत्ति। यह 'आत्मदर्शन' से ही होता है। 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्य:', यह भारतीय दर्शनों का तथा धर्म का भी लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग भी एक ही है - 'नान्य: पपंथा विद्यतेयनाय'। इसलिए आत्मा को देखने का प्रयत्न करते हुए तपस्वी लोगों ने अपने भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से भिन्न भिन्न समय में उपासना के द्वारा प्राप्त अपने अनुभवों को नियमबद्ध किया। उन अनुभवों को उनके विषय के अनुसार संकलित कर और उन्हें भिन्न भिन्न नाम देकर आचार्यों ने भिन्न-भिन्न दर्शनों को प्रवर्तित किया। इन दर्शनों की संख्या अनियत है और अनंत हो सकती है।

प्रत्येक प्रसिद्ध भारतीय दर्शन इसी दर्शनमार्ग का एक-एक विश्रामस्थान है। प्रत्येक विश्रामस्थान से स्वतंत्र रूप में परमतत्व की खोज की गई है। अतएव एक दर्शन दूसरे दर्शन से भिन्न भी है। दृष्टिकोण के भेद से परस्पर भेद होना स्वाभाविक है, किंतु इनमें परस्पर वैमनस्य नहीं है। कोरक से क्रमश: विकसित फूल के समान सोपान की क्रमिक बढ़ती हुई परंपरा में लक्ष्य की तरफ जाते हुए दर्शनों में एक आगे है, और एक पीछे है। सभी एक ही पथ के पथिक है।

भारतीय दर्शनों का एक विशिष्ट दर्शन - इसके नामकरण के दो करण कहे जाते हैं - (१) प्रत्येक नित्य द्रव्य को परस्पर पृथक् करने के लिए तथा प्रत्येक तत्व के वास्तविक स्वरूप को पृथक्-पृथक् जानने के लिए इन्होंने एक 'विशेष' नाम का पदार्थ माना है (२) तथा 'द्वित्व', 'पाकजोत्पत्ति' एवं 'विभागज विभाग' इन तीन बातों में इनका अपना विशेष मत है जिसमें ये दृढ़ हैं। अभिपाय यह है कि वैशेषिक दर्शन व्यावहारिक तत्वों का विचार करने में संलग्न रहने पर भी स्थूल दृष्टि से सर्वथा व्यवहारत: समान रहने पर भी, प्रत्येक वस्तु दूसरे से भिन्न है इसके परिचायक एक मात्र 'विशेष' पदार्थ को इन्होंने माना है। इसलिए इस शास्त्र को 'वैशेषिक' शास्त्र या दर्शन कहते हैं। अन्य शास्त्रों ने इस बात का विवेचन नहीं किया है। इन्हीं कारणों से इस दर्शन को 'वैशेषिक दर्शन' कहते हैं।

वैशेषिक तथा न्याय के दोनों दर्शन 'समानतंत्र' हैं। व्यावहारिक जगत् को यह वास्तविक मानते हैं। बाह्य जगत् तथा अंतर्जगत् की विचारधारा में घनिष्ठ संबंध ये मानते हैं। बाह्य जगत् मानसिकविचारधारा पर निर्भर नहीं है, यह स्वतंत्र है।

इस प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले कणाद ने सूत्र रूप में लिखा। कणाद एक ऋषि थे। ये 'उच्छवृत्ति' थे और धान्य के कणों का संग्रह कर उसी को खाकर तपस्या करते थे। इसी लिए इन्हें 'कणाद' या 'कणमुक्' कहते थे। किसी का कहना है कि कण अर्थात् परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार इन्होंने किया है, इसलिए इन्हें 'कणाद' कहते हैं। किसी का मत है कि दिन भर ये समाधि में रहते थे और रात्रि को कणों का संग्रह करते थे। यह वृत्ति 'उल्लू' पक्षी की है। किस का कहना है कि इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उलूक पक्षी के रूप में इन्हें शास्त्र का उपदेश दिया। इन्हीं कारणों से यह दर्शन 'औलूक्य', 'काणाद', 'वैशेषिक' या 'पाशुपत' दर्शन के नामों से प्रसिद्ध है।

आत्मदर्शन के लिए विश्व की सभी छोटी बड़ी, तात्विक तथा तुच्छ वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। इन तत्वों के ज्ञान के लिए प्रमाणों की अपेक्षा होती है। न्यायशास्त्र में प्रमाण का विशेष विचार है, किंतु वैशेषिक में मुख्य रूप से प्रमेय का विचार है।

वैशेषिक दर्शन के मुख्य ग्रंथ कणादसूत्र, उसकी टीका भाष्य (रावण) कटंदी, वृत्ति-उपस्कार (शंकर मिश्र १५ वीं सदी), वृत्ति, भाष्य (चंद्रकांत २० वीं सदी), विवृत्ति (जयनारायण २० वीं सदी), पदार्थ-धर्म-संग्रह (प्रशस्तदेव, ४ वी सदी के पूर्व), उसकी टीका 'व्योमवती' (व्योमशिवाचार्य, ८ वीं सदी), 'किरणावली' (उदयनाचार्य १० वीं सदी), 'कंदली' (श्रीधराचार्य, १० वीं सदी), बल्लभाचार्य न्यायलीलावती (१२ वीं सदी), कणाद रहस्य, सप्तपदार्थी, तार्किकरक्षा आदि अनेक मूल तथा टीका रूप ग्रंथ हैं।

पठन-पाठन में विशेष प्रचलित न होने के कारण वैशेषिक सूत्रों में अनेक पाठभेद हैं तथा त्रुटियाँ भी पर्याप्त हैं। मीमांसासूत्रों की तरह इसके कुछ सूत्रों में पुनरुक्तियाँ हैं - जैसे 'सामान्यविशेषाभावेच' (४ बार) 'सामान्यतोदृष्टाच्चा विशेष:' (२ बार), 'तत्त्वं भावेन' (४ बार), 'द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्यख्याते' (३ बार), 'संदिग्धस्तूपचार:' (२ बार)।

वैशेषिकों के स्वरूप, वेष तथा आचार आदि नैयायिकों की तरह होते हैं; जैसे, ये लोग शैव हैं, इन्हें शैवी दीक्षा दी जाती थी। इनके चार प्रमुख भेद हैं - शैव, पाशुपत, महाव्रतधर, तथा कालमुख एवं भरट, भक्तर, आदि गौण भेद हैं। वैशेषिक विशेष रूप से 'पाशुपत्' कहे जाते हैं। (षड्दर्शनसमुच्चय, गुणरस्त की टीका न्याय-वैशेषिक मत। इस ग्रंथ से अन्य आचारों के संबंध में ज्ञान हो सकता है)।

यहाँ स्मरण कराना आवश्यक है कि न्याय की तरह वैशेषिक भी लौकिक दृष्टि ही से विश्व के वास्तविक तत्वों का दार्शनिक विचार करता है। लौकिक जगत् की वास्तविकी परिस्थिति की उपेक्षा वह कभी नहीं करता, तथापि जहाँ किसी तत्व का विचार बिना सूक्ष्म दृष्टि का हो नहीं सकता, वहाँ किसी प्रकार अतींद्रि, अदृष्ट, सूक्ष्म, योगज आदि हेतुओं की दुहाई देकर अपना कार्य सिद्ध कर लेना इन लोगों का स्वभाव है, अन्यथा उनके विचार पूर्ण हो नहीं सकते; जैसे, परमाणु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन आदि पदार्थों का स्वीकार करना।

वैशेषिक मत में समस्त विश्व 'भाव और अभाव' इन दो विभागों में विभाजित है। इनमें 'भाव' के छह विभाग किए गए है जिनके नाम हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, तथा समवाय। अभाव के चार भेद हैं - प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यंताभाव तथा अन्योन्याभाव। इनके लक्षण आदि नीचे दिए जाते हैं :

(१)�� द्रव्य - जिसमें 'द्रव्यत्व जाति' हो वही द्रव्य कहलाता है। कार्य के समवायिकरण को द्रव्य कहते हैं। गुणों का आश्रय द्रव्य होता है। पृथ्वी, जल, तेजस, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा तथा मनस् ये नौ 'द्रव्य' कहलाते हैं। इनमें से प्रथम चार द्रव्यों के नित्य और अनित्य दो भेद हैं। नित्यरूप को 'परमाणु' तथा अनित्य रूप को कार्य कहते हैं। चारों भूतों के उस हिस्से को 'परमाणु' कहते हैं जिसका पुन: भाग न किया जा सके, अतएव यह नित्य है। पृथ्वीपरमाणु के अतिरिक्त अन्य परमाणुओं के गुण भी नित्य है।

जिससे गंध हो वह 'पृथ्वी', जिसमें शीत स्पर्श हो वह 'जल' जिसमें उष्ण स्पर्श हो वह 'तेजस्', जिनमें रूप न हो तथा अग्नि के संयोग से उत्पन्न न होनेवाला, अनुष्ण और अशीत स्पर्श हो, वह 'वायु', तथा शब्द जिसका गुण हो अर्थात् शब्द का जो समवायिकरण हो, वह 'आकाश' है। ये पाँच 'भूत' भी कहलाते हैं।

आकाश, काल, दिक् तथा आत्मा ये चार 'विभु' द्रव्य हैं। मनस् अभौतिक परमाणु है और नित्य भी है। आज, कल, इस समय, उस समय, मास, वर्ष, आदि समय के व्यवहार का जो आसाधारण कारण है वह काल है। यह नित्य और व्यापपक है। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आदि दिशाओं तथा विदिशाओं का जो असाधारण कारण है, वह 'दिक्' है। यह नित्य तथा व्यापक है। आत्मा और मनस् का स्वरूप न्यायमत के समान ही है।

(२)�� गुण - कार्य का असमवायिकरण 'गुण' है। रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह (चिकनापन), शब्द, ज्ञान, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म अधर्म तथा संस्कार ये चौबीस गुण के भेद हैं। इनमें से रूप, गंध, रस, स्पर्श, स्नेह, स्वाभाविक द्रवत्व, शब्द तथा ज्ञान से लेकर संस्कार पर्यंत, ये 'वैशेषिक गुण' हैं, अवशिष्ट साधारण गुण हैं। गुण द्रव्य ही में रहते हैं।

(३)�� कर्म - क्रिया को 'कर्म' कहते हैं। ऊपर फेंकना, नीचे फेंकना, सिकुड़ना, फैलाना तथा (अन्य प्रकार के) गमन, जैसे भ्रमण, स्पंदन, रेचन, आदि, ये पाँच 'कर्म' के भेद हैं। कर्म द्रव्य ही में रहता है।

(४)�� सामान्य - अनेक वस्तुओं में जो एक सी बुद्धि होती है, उसके कारण प्रत्येक घट में जो 'यह घट है' इस प्रकार की ए सी बुद्धि होती है, उसका कारण उसमें रहनेवाला 'सामान्य' है, जिसे वस्तु के नाम के आगे 'त्व' लगाकर कहा जाता है, जैसे - घटत्व, पटत्व। 'त्व' से उस जाति के अंतर्गत सभी व्यक्तियों का ज्ञान होता है।

यह नित्य है और द्रव्य, गुण तथा कर्म में रहता है। अधिक स्थान में रहनेवाला 'सामान्य', 'परसामान्य' या 'सत्तासामान्य' या 'पर सत्ता' कहा जाता है। सत्तासामान्य द्रव्य, गुण तथा कर्म इन तीनों में रहता है। प्रत्येक वस्तु में रहनेवाला तथा अव्यापक जो सामान्य हो, वह 'अपर सामान्य' या 'सामान्य विशेष' कहा जाता है। एक वस्तु को दूसरी वस्तु से पृथक् करना सामान्य का अर्थ है।

(५)�� विशेष - द्रव्यों के अंतिम विभाग में रहनेवाला तथा नित्य द्रव्यों में रहनेवाला 'विशेष' कहलाता है। नित्य द्रव्यों में परस्पर भेद करनेवाला एकमात्र यही पदार्थ है। यह अनंत है।

(६)�� समवाय - एक प्रकार का संबंध है, जो अवयव और अवयवी, गुण और गुणी, क्रिया और क्रियावान् जाति और व्यक्ति तथा विशेष और नित्य द्रव्य के बीच रता है। वह एक है और नित्य भी है।

अभाव - किसी वस्तु का न होना, उस वस्तु का 'अभाव' कहा जाता है। इसके चार भेद हैं - 'प्राग् अभाव' कार्य उत्पन्न होन के पहले कारण में उस कर्य का न रहना, 'प्रध्वंस अभाव' कार्य के नाश होने पर उस कार्य का न रहना, 'अत्यंत अभाव' तीनों कालों में जिसका सर्वथा अभाव हो, जैसे वंध्या का पुत्र तथा 'अन्योन्य अभाव' परस्पर अभाव, जैसे घट में पट का न होना तथा पट में घट का न होना।

ये सभी पदार्थ न्यायदर्शन के प्रमेयों के अंतर्गत है। इसलिए न्यायदर्शन में इनका पृथक् विचार नहीं है, किंतु वैशेषिक दर्शन में तो मुख्य रूप से इनका विचार है। वैशेषिक मत के अनुसार इन सातों पदार्थों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने से मुक्ति मिलती है।

इन दोनों समान तत्वों में पदार्थों के स्वरूप में इतना भेद रहने पर भी दोनों दर्शन एक ही में मिले रहते हैं, इसका कारण है कि दोनों शास्त्रों का मुख्य प्रमेय है 'आत्मा'। आत्मा का स्वरूप दोनों दर्शनों में एक ही सा है। अन्य विषय है - उसी आत्मा के जानने के लिए उपाय। उसमें इन दोनों दर्शनों में विशेष अंतर भी नहीं है। केवल शब्दों में तथा कहीं कहीं प्रक्रिया में भेद है। फल में भेद नहीं है। अतएव न्यायमत के अनुसार प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों के तत्वज्ञान से दोनों से एक ही प्रकार की 'मुक्ति' मिलती है। दोनों का दृष्टिकोण भी एक ही है।

न्याय वैशेषिक मत में पृथ्वी, जल, तेजस् तथा वायु इन्हीं चार द्रव्यों का कार्य रूप में भी अस्तित्व है। इन लागों का मत में सभी कार्य द्रव्यों का नाश हो जाता है, और वे परमाणु रूप में आकाश में रहते हैं। यही अवस्था 'प्रलय' कहलाती है। इस अवस्था में प्रत्येक जीवात्मा अपने मनस् के साथ तथा पूर्व जन्मों के कर्मों के संस्कारों के साथ तथा अदृष्ट रूप में धर्म और अधर्म के साथ विद्यमान रहती है। परतु इस समय सृष्टि का कोई कार्य नहीं होता। कारण रूप में सभी वस्तुएँ उस समय की प्रतीक्षा में रहती हैं, जब जीवों के सभी अदृष्ट कार्य रूप में परिणत होने के लिए तत्पर हो जाते हैं। परंतु अदृष्ट जड़ है, शरीर के न होने से जीवात्मा भी कोई कार्य नहीं कर सकती, परमाणु आदि सभी जड़ हैं, फिर 'सृष्टि' के लिए क्रिया किस प्रकार उत्पन्न हो?

इसके उत्तर में यह जानना चाहिए कि उत्पन्न होनेवाले जीवों के कल्याण के लिए परमात्मा में सृष्टि करने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है, जिससे जीवों के अदृष्ट कार्योन्मुख हो जाते हैं। परमाणुओं में ए प्रकार की क्रिया उत्पन्न हो जाती है, जिससे एक परमाणु, दूसरे परमाणु से संयुक्त हो जाते हैं। दो परमाणुओं के संयोग से एक 'द्रव्यणुक' उत्पन्न होता है। पार्थिव शरीर को उत्पन्न करने के लिए जो दो परमाणु इकट्ठे होते हैं वे पार्थिव परमाणु हैं। वे दोनों उत्पन्न हुए 'दव्यणुक' के समवायिकारण हैं। उन दोनों का संयोग असमवायिकारण है और अदृष्ट, ईश्वर की इच्छा, आदि निमित्तकारण हैं। इसी प्रकार जलीय, तैजस आदि शरीर के संबंध में समझना चाहिए।

यह स्मरण रखना चाहिए कि सजातीय दोनों परमाणु मात्र ही से सृष्टि नहीं होती। उनके साथ एक विजातीय परमाणु, जैसे जलीय परमाणु भी रहता है। 'द्रव्यणुक' में अणु-परिमाण है इसलिए वह दृष्टिगोचर नहीं होता। 'दवयणुक' से जो कार्य उत्पन्न होगा वह भी अणुपरिमाण का ही रहेगा और वह भी दृष्टिगोचर न होगा। अतएव दव्यणुक से स्थूल कार्य द्रव्य को उत्पन्न करने के लिए 'तीन संख्या' की सहायता ली जाती है। न्याय-वैशेषिक में स्थूल द्रव्य, स्थूल द्रव्य का महत् परिमाणवाले द्रव्य से तथा तीन संख्या से उत्पन्न होता है। इसलिए यहाँ दव्यणुक की तीन संख्या से स्थूल द्रव्य 'त््रयणुक' या 'त्रसरेणु' की उत्पत्ति होती है। चार त््रयणुक से चतुरणुक उत्पन्न होता है। इसी क्रम से पृथिवी तथा पार्थिव द्रव्यों की उत्पत्ति होती है। द्रव्य के उत्पन्न होने के पश्चात् उसमें गुणों की भी उत्पत्ति होती है। यही सृष्टि की प्रक्रिया है।

संसार में जितनी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं सभी उत्पन्न हुए जीवों के भोग के लिए ही हैं। अपने पूर्वजन्म के कर्मों के प्रभाव से जीव संसार में उत्पन्न होता है। उसी प्रकार भोग के अनुकूल उसके शरीर, योनि, कुल, देश, आदि सभी होते हैं। जब वह विशेष भोग समाप्त हो जाता है, तब उसकी मृत्यु होती है। इसी प्रकार अपने अपने भोग के समाप्त होने पर सभी जीवों की मृत्यु होती है।

न्यायमत - 'संहार' के लिए भी एक क्रम है। कार्य द्रव्य में, अर्थात् घट में, प्रहार के कारण उसके अवयवों में एक क्रिया उत्पन्न होती है। उस क्रिया से उसके अवयवों में विभाग होता है, विभाग से अवयवी (घट) के आरंभक संयोगों का नाश होता है। और फिर घट नष्ट हो जाता है। इसी क्रम से ईश्वर की इच्छा से समस्त कार्य द्रव्यों का एक समय नाश हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि असमवायिकारण के नाश से कार्यद्रव्य का नाश होता है। कभी समवायिकारण के नाश से भी कार्यद्रव्य का नाश होता है।

इनका ध्येय है कि बिना कारण के नाश हुए कार्य का नाश नहीं हो सकता। अतएव सृष्टि की तरह संहार के लिए भी परमाणु में ही क्रिया उत्पन्न होती है और परमाणु तो नित्य है, उसका नाश नहीं होता, किंतु दो परमाणुओं के संयोग का नाश होता है और फिर उससे उत्पन्न 'द्रव्यणुक' रूप कार्य का तथा उसी क्रम से 'त््रयणुक' एवं 'चतुरणुक' तथा अन्य कार्यों का भी नाश होता है। नैयायिक लोग स्थूल दृष्टि के अनुसार इतना सूक्ष्म विचार नहीं करते। उनके मत में आघात मात्र ही से एक बारगी स्थूल द्रव्य नष्ट हो जाता है। कार्य द्रव्य के नाश होने पर उसके गुण नष्ट हो जाते हैं। इसमें भी पूर्ववत् दो मत हैं जिनका निरूपण 'पाकज प्रक्रिया' में किया गया है।

न्याय मत की तरह वैशेषिक मत में भी बुद्धि, उपलब्धि, ज्ञान तथा प्रत्यय ये समान अर्थ के बोधक शब्द हैं। अन्य दर्शनों में ये सभी शब्द भिन्न भिन्न पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। बुद्धि के अनेक भेद होने पर भी प्रधान रूप से इसके दो भेद हैं - 'विद्या' और 'अविद्या', अविद्या के चार भेद है - संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय तथा स्वप्न।

संशय तथा विपर्यय का निरूपण न्याय में किया गया है। वैशेषिक मत में इनके अर्थ में कोई अंतर नहीं है। अनिश्चयात्मक ज्ञान को 'अनध्यवसाय' कहते हैं। जैसे - कटहल को देखकर वाहीक को, एक सास्ना आदि से युक्त गाय को देखकर नारिकेल द्वीपवासियों के मन में शंका होती है कि यह क्या है?

दिन भर कार्य करने से शरीर के सभी अंग थक जाते हैं। उनको विश्राम की अपेक्षा होती है। इंद्रियॉ विशेषकर थक जाती हैं और मन में लीन हो जाती है। फिर मन मनोवह नाड़ी के द्वारा पुरीतत् नाड़ी में विश्राम के लिए चला जाता है। वहाँ पहुँचने के पहले, पूर्वकर्मों के संस्कारों के कारण तथा वात, पित्त और कफ इन तीनों के वैषम्य के कारण, अदृष्ट के सहारे उस समय मन को अनेक प्रकार के विषयों का प्रत्यक्ष होता है, जिसे स्वप्नज्ञान कहते हैं।

यहाँ इतना ध्यान में रखना चाहिए कि वैशेषिक मत में ज्ञान के अंतर्गत हो 'अविद्या' को रखा है और इसीलिए 'अविद्या' को 'मिथ्या ज्ञान' भी कहते हैं। बहुतों का कहना है कि ये दोनों शब्द परस्पर विरुद्ध है। जो मिथ्या हैं, वह ज्ञान नहीं कहा जा सकता और जो ज्ञान है, वह कदापि मिथ्या नहीं कहा जा सकता।

विद्या भी चार प्रकार की है - प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति तथा आर्ष। यहाँ यह ध्यान में रखना है कि न्याय में 'स्मृति' को यथार्थज्ञान नहीं कहा है। वह तो ज्ञात ही का ज्ञान है। इसी प्रकार 'आर्ष ज्ञान' भी नैयायिक नहीं मानते। नैयायिकों के शब्द या आगम को अनुमान में तथा उपमान को प्रत्यक्ष में वैशेषिकों ने अंतर्भूत किया है।

वेद के रचनेवाले ऋषियों को भूत तथा भविष्य का ज्ञान प्रत्यक्ष के समान होता है। उसमें इंद्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष की आवश्यकता नहीं रहती। यह 'प्रातिभ' (प्रतिभा से उत्पन्न) ज्ञान या 'आर्षज्ञान' कहलाता है। यह ज्ञान विशुद्ध अत:करणवाले जीव में भी कभी कभी हो जाता है। जैसे - एक पवित्र कन्या कहती है - कल मेरे भाई आवेंगे और सचमुच कल उसके भाई आ ही जाते हैं। यह 'प्रातिभ ज्ञान' है।

प्रत्यक्ष और अनुमान के विचार में दोनों दर्शनों में कोई भी मतभेद नहीं है। इसलिए पुन: इनका विचार यहाँ नहीं किया गया।

कर्म का बहुत विस्तृत विवेचन वैशेषिक दर्शन में किया गया है। न्याय दर्शन में कहे गए 'कर्म' के पाँच भेदों को ये लोग भी उन्हीं अर्थों में स्वीकार करते हैं। कायिक चेष्टाओं ही को वस्तुत: इन लोगों ने 'कर्म' कहा है। फिर भी सभी चेष्टाएँ प्रयत्न के तारतम्य ही से होती हैं। अतएव वैशेषिक दर्शन में उक्त पाँच भेदों के प्रत्येक के साक्षात् तथा परंपरा में प्रयत्न के संबंध से कोई कर्म प्रयत्नपूर्वक होते हैं, जिन्हें 'सत्प्रत्यय-कर्म' कहते हैं, कोई बिना प्रयत्न के होते हैं, जिन्हें 'असत्प्रत्यय-कर्म' कहते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे कर्म होते हैं, जैसे पृथ्वी आदि महाभूतों में, जो बिना किसी प्रयत्न के होते हैं, उन्हें 'अप्रत्यय-कर्म' कहते हैं।

इन सब बातों को देखकर यह स्पष्ट है कि वैशेषिक मत में तत्वों का बहुत सूक्ष्म विचार है। फिर भी सांसारिक विषयों में न्याय के मत में वैशेषिक बहुत सहमत है। अतएव ये दोनों 'समानतंत्र' कहे जाते हैं।

इन दोनों दर्शनों में जिन बातो में 'भेद' है, उनमें से कुछ भेदों का पुन: उल्लेख यहाँ किया जाता है।

(१)�� न्यायदर्शन में प्रमाणों का विशेष विचार है। प्रमाणों ही के द्वारा तत्वज्ञान होने से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। साधारण लौकिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर न्यायशास्त्र के द्वारा तत्वों का विचार किया जाता है। न्यायमत में सोलह पदार्थ हैं और नौ प्रमेय हैं।

वैशेषिक दर्शन में प्रमेयों का विशेष विचार है। इस शास्त्र के अनुसार तत्वों का विचार करने में लौकिक दृष्टि से दूर भी शास्त्रकार जाते हैं। इनकी दृष्टि सूक्ष्म जगत् के द्वार तक जाती है इसलिए इस शास्त्र में प्रमाण का विचार गौण समझा जाता है। वैशेषिक मत में सात पदार्थं हैं और नौ द्रव्य हैं।

(२)�� प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द इन चार प्रमाणों को न्याय दर्शन मानता है, किंतु वैशेषिक केवल प्रत्यक्ष और अनुमान इन्हीं दो प्रमाणों को मानता है। इसके अनुसार शब्दप्रमाण अनुमान में अंतर्भूत है। कुछ विद्वानों ने इसे स्वतंत्र प्रमाण भी माना है।

(३)�� न्यायदर्शन के अनुसार जितनी इंद्रियाँ हैं उतने प्रकार के प्रत्यक्ष होते हैं, जैसे - चाक्षुष, श्रावण, रासन, ध्राणज तथा स्पार्शना किंतु वैशेषिक के मत में एकमात्र चाक्षुष प्रत्यक्ष ही माना जाता है।

(४)�� न्याय दर्शन के मत में समवाय का प्रत्यक्ष होता है, किंतु वैशेषिक के अनुसार इसका ज्ञान अनुमान से होता है।

(५)�� न्याय दर्शन के अनुसार संसार की सभी कार्यवस्तु स्वभाव ही से छिद्रवाली (Porous) होती हैं। वस्तु के उत्पन्न होते ही उन्हीं छिद्रों के द्वारा उन समस्त वस्तुओं में भीतर और बाहर आग या तेज प्रवेश करता है तथा परमाणु पर्यंत उन वस्तुओं को पकाता है। जिस समय तेज की कणाएँ उस वस्तु में प्रवेश करती हैं, उस समय उस वस्तु का नाश नहीं होता। यह अंग्रेजी में केमिकल ऐक्शन (chemical action) कहलाता है। जैसे - कुम्हार घड़ा बनाकर आवें में रखकर जब उसमें आग लगाता है, तब घड़े के प्रत्येक छिद्र से आग की कणाएँ उस में प्रवेश करती हैं और घड़े के बाहरी और भीतरी हिस्सों को पकाती हैं। घड़ा वैसे का वैसा ही रहता है, अर्थात् घड़े के नाश हुए बिना ही उसमें पाक हो जाता है। इसे ही न्याय शास्त्र में 'पिठरपाक' कहते हैं।

वैशेषिकों का कहना है कि कार्य में जो गुण उत्पन्न होता है, उस पहले उस कार्य के समवायिकारण में उत्पन्न होना चाहिए। इसलिए जब कच्चा घड़ा आग में पकने को दिया जाता है, तब आग सबसे पहले उस घड़े के जितने परमाणु हैं, उन सबको पकाती है और उसमें दूसरा रंग उत्पन्न करती है। फिर क्रमश: वह घड़ा भी पक जाता है और उसका रंग भी बदल जाता है। इस प्रक्रिया के अनुसार जब कुम्हार कच्चे घड़े को आग में पकने के लिए देता है, तब तेज के जोर से उस घड़े का परमाणु पर्यंत नाश हो जाता है और उसके परमाणु अलग अलग हो जाते हैं पश्चात् उनमें रूप बदल जाता है, अर्थात् घड़ा नष्ट हो जाता है और परमाणु के रूप में परिवर्तित हो जाता है तथा रंग बदल जाता है, फिर उस घड़े से लाभ उठानेवालों के अदृष्ट के कारणवश सृष्टि के क्रम से फिर बनकर वह घड़ा तैयार हो जाता है। इस प्रकार उन पक्व परमाणुओं से संसार के समस्त पदार्थ, भौतिक या अभौतिक तेज के कारण पकते रहते हैं। इन वस्तुओं में जितने परिवर्तन होते हैं वे सब इसी पाकज प्रक्रिया (केमिकल ऐक्शन) के कारण होते हैं। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यह पाक केवल पृथिवी से बनी हुई वस्तुओं में होता है। इसे वैशेषिक 'पीलुवाक' कहते हैं।

(६)�� नैयायिक असिद्ध, विरुद्ध, अनैकांतिक, प्रकरणसम तथा कालात्ययापदिष्ट ये पाँच हेत्वाभास मानते हैं, किंतु वैशेषिक विरुद्ध, असिद्ध तथा संदिग्ध, ये ही तीन हेत्वाभास मानते हैं।

(७)�� नैयायिकों के मत में पुण्य से उत्पन्न 'स्वप्न' सत्य और पाप से उत्पन्न स्वप्न असत्य होते हैं, किंतु वैशेषिक के मत में सभी स्वप्न असत्य हैं।

(८)�� नैयायिक लोग शिव के भक्त हैं और वैशेषिक महेश्वर या पशुपति के भक्त हैं। आगम शास्त्र के अनुसार इन देवताओं में परस्पर भेद है।

(९)�� इनके अतिरिक्त कर्म की स्थिति में, वेगाख्य संस्कार में, सखंडोपाधि में, विभागज विभाग में, द्वित्वसंख्या की उत्पत्ति में, विभुओं के बीच अजसंयोग में, आत्मा के स्वरूप में, अर्थ शब्द के अभिप्राय में, सुकुमारत्व और कर्कशत्व जाति के विचार में, अनुमान संबंधों में, स्मृति के स्वरूप में, आर्ष ज्ञान में तथा पार्थिव शरीर के विभागों में भी परस्पर इन दोनों शास्त्रों में मतभेद हैं।

इस प्रकार के दोनों शास्त्र कतिपय सिद्धांतों में भिन्न-भिन्न मत रखते हुए भी परस्पर संबद्ध हैं। इनके अन्य सिद्धांत परस्पर लागू होते हैं। (श्री उमेश मिश्र)