वैखानम 'मनुस्मृति' (६/२१) में वानप्रस्थ यतियों के लिए, वैखानसमत में स्थित रहकर फलादि के सेवन का निर्देश मिलता है। इस प्राचीन मत का संबंध 'कृष्ण यजुर्वेद' की औरवेय शाखा से है और इसके अपने 'गृह्यंसूत्र', 'धर्मसूत्र', 'श्रौतसूत्र' एवं 'मत्रसंहिता' ग्रंथ भी हैं। इसकी आचार्यपरंपरा विखनस मुनि से आरंभ होती है जिसके पिता नारायण, माता हरिप्रिया तथा पुत्र भृगु, आदि कहे गए हैं और जिनके अनंतर आनेवाले दो आचार्य क्रमश: कश्यप एवं मरीचि बतलाए गए हैं। मरीचि का 'वैखानस आगम' ग्रंथ उपलब्ध हैं जिसमें ७० पटल हैं और जिसमें इस मत का बहुत कुछ परिचय मिल जाता है। इसके अनुसार परमात्मा की चार मूर्तियाँ 'विष्णु', 'महाविष्णु', 'सदाविष्णु', तथा 'सर्वव्यापी' नाम की होती है जिनसे फिर चार अंश क्रमश: 'पुरुष', 'सत्य', 'अच्युत', एवं 'अनिरुद्ध' उत्पन्न होते हैं और इन्हीं से युक्त रहकर नारायण 'पंचमूर्ति' कहे गए हैं जिनके नामजप, हुत, ध्यान एवं अर्चन द्वारा जीवों का मायाबंधन दूर किया जा सकता है। इन विष्णु वा नारायण की वैसी मूर्ति की स्थापना के लिए विशिष्ट मंदिर के निर्माण का विधान है जहाँ पर, वैदिक मंत्रों द्वारा उनकी सम्यक् आराधना करके 'आमोद', 'प्रमोद', 'संमोद', एवं 'वैकुंठ' नामक लोकों तक पहुँचा जा सकता है तथा क्रमश: सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य एव सायुज्य मुक्ति की प्राप्ति भी होती है। यहाँ पर अमूर्त की आराधना से समूर्त के पूजन को श्रेष्ठ ठहराया गया है और अवतारों की चर्चा भी प्राप्ति भी होती है। यहाँ पर अमूर्त की आराधना से समूर्त के पूजन को श्रेष्ठ ठहराया गया है और अवतारों की चर्चा भी प्राय: गौण रूप से ही की गई मिलती है। वैखानस गृह्य सूत्र में जो चैत्री पूर्णिमावाले पूजन की विधि निर्दिष्ट है उसके पीछे कृषि, पशु, ग्राम एवं जन के कल्याण की भी भावना काम करती है।

इस मत की चार शाखाएँ मानी जाती है जिन्हें आत्रेय, काश्यपीय, मारीच एवं भार्गव कहा गया है और इनकी केवल संहिताएँ मात्र ही भिन्न हैं। इसका आगम, पांचरात्र आगम से कहीं अधिक प्राचीन वैदिक परंपरा क अनुसरण करता है और इसका प्रभाव, स्वामी रामानुजाचार्य के समय से कम होते आने पर भी, अभी दक्षिण में तिरुपति आदि कई स्थानों पर पाया जाता है। 'गौतमधर्मसूत्र' (३/२) 'बौधायन धर्मसूत्र' (२/६/१७) एवं 'वसिष्ठधर्मसूत्र' (९-१०) में वानप्रस्थ यतियों को 'वैखानस' कहा गया है तथा कालिदास भवभूति एवं तुलसीदास, आदि की रचनाओं में भी, इन दोनों को अभिन्न माना गया है। (दे. क्रमश: शाकुंतल अं. १ श्लो. २४, उ.रा.अं. १ श्लो. २५ तथा मानस, अयो.दोऋ १७३, २०६, २२४, आदि)। (परशुराम चतुर्वेदी)