वेल्डन धातु के दो या अधिक टुकड़ों का स्थायी रूप से जोड़ देने की क्रिया का वेल्डन कहते हैं। वेल्डन दबाव द्वारा और द्रवण द्वारा किया जाता है। लोहार लोग दो धातुपिंडों को पीटकर जोड़ देते हैं यह दबाव द्वारा वेल्डन है। दबाव देने के लिए आज अनेक द्रवचालित दाबक बने हैं, जिनका उपयोग उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। द्रवण द्वारा वेल्डन में दोनों तलों को संपर्क में लाकर गलित अवस्था में कर देते हैं, जो ठंडा होने पर आपस में मिलकर ठोस और स्थायी रूप से जुड़ जाते हैं। गलाने का कार्य विद्युत् आर्क द्वारा संपन्न किया जाता है।

दबाव द्वारा वेल्डन में टक्कर, (Butt), चित्ती (Spot), प्रक्षेपी (Projection) और सीवन (Seam) की विधियाँ मुख्य हैं।

टक्कर विधि - इस विधि में मशीन के एक शिकंजे में एक टुकड़े को पहले स्थिरता से बाँधकर, दूसरे टुकड़े को सरकनेवाले दूसरे शिकंजे में इस प्रकार बाँध देते हैं। कि दोनों को निकट लाने पर जोड़ सही सही बैठ जाए। यह दोनों शिकजे विद्युत्रोधी आवरणों द्वारा ऐ दूसरे से विद्युतरोधी आवरणों द्वारा ऐ दूसरे से विद्युतरुद्ध रहते हैं और इनमें विद्युत् धारा देने के एक की धारा दूसरे में नहीं जाने पाती। जब सरकनेवाले शिकंजे को धातुपिंड सहित स्थिर शिंकजे की ओर सरकाते हैं, तब इन धातुपिंडों के जुड़नेवाले किनारों का ताप, किनारों के निकट आने पर, विद्युत् धारा के उच्च प्रतिरोध के प्रभाव से एकदम गरम होने के कारण, वेल्डन के ताप तक पहुँच जाता है; फिर किनारों को धीरे धीरे खूब दबा दिया जाता है और विद्युत् धारा बंद कर दी जाती है।

दमक वेल्डन (Flash Welding) - वेल्डन की यह विधि भी टक्कर की वेल्डन विधि के समान ही है, भेद केवल इतना ही है कि दोनों पिंडों को संपर्क में लाने के पहले ही यंत्र में विद्युत् धारा प्रवाहित कर दी जाती है और पिंडों के निकट आने पर उनके बीच के अंतराल में विद्युत् आर्क के चालू होने से धातुपिंड के किनारे पिघलने लगते हैं। जब धातु के कुछ छीटे उनमें से उछलने लगते हैं, तब धारा को बंद कर यंत्र से ही उन्हें दबाकर जोड़ देते हैं।

चित्ती वेल्डन (Spot Welding) - वेल्डन की यह विधि वही अपनाई जाती है जहाँ धातु की चादरों के किनारों को एक पर एक रखकर जोड़ना हो। इसका सिद्धांत भी टक्कर के वेल्डन के समान ही है। इसका सिद्धांत भी टक्कर के वेल्डन के समान ही है। इस काम के यंत्र में, वेल्डन करनेवाले किनारों को एक दूसरे के ऊपर नीचे रखकर, यंत्र में लगे दो इलेक्ट्रोडों के बीच में रख देते हैं। फिर पैर से एक लीवर को दबाने पर, ऊपरवाला इलेक्ट्रोड नीचे उतरकर संपीडित वायु की शक्ति से उन प्लेटों को दबा देता है और इलेक्ट्रोडों तथा प्लेटों के संपर्क में आते ही, उसमें विद्युत् धारा प्रवाहित होकर प्लेटों में से होती हुई नीचे के इलेक्ट्रोड में प्रवेश करती है, उस समय प्लेटों का वह भाग, जो उन इलेक्ट्रोडों के संपर्क में आता है, गरम होकर ज्यों ही वेल्डन के ताप पर पहुँचता है, उन इलेक्ट्रोडों का दबाव और बढ़ा दिया जाता है, जिससे वे उस स्थान पर आपस में जुड़ जाते हैं और वहाँ एक चित्ती सी पड़ जाती है।

प्रक्षेपी वेल्डन - वेल्डन की इस विधि के सिद्धांत भी वे ही हैं जा चित्ती वेल्डन के हैं, केवल भेद यही है कि इसमें इलेक्ट्रोड से प्राप्त होनेवाली ऊष्मा एक छोटे से बिंदु पर ही केंद्रित कर दी जाती है। वैसे इलेक्ट्रोडों का क्षेत्रफल तो काफी बड़ा होता है। ऊष्मा को केंद्रित करने के लिए एक अथवा दोनों प्लेटों में उभार या गड्ढा बना दिया जाता है। इस विधि से विभिन्न मोटाई के प्लेटों को भी आपस में जोड़ा जा सकता है।

सीवन वेल्डन - यह विधि भी सिद्धांत और क्रिया में चित्ती वेल्डन के समान ही है, अंतर यही है कि इलेक्ट्रोड स्थिर स्तंभ के आकार के होने के बदले बेलनाकार घूमते हुए बनाए जाते हैं और जुड़नेवाले प्लेटों को उनके बीच यंत्र से चलाया जाता है तथा उन बेलनों की विद्युत् धारा आंतरायिक रूप (intermittent) से चटका लगाती हुई चलती है। धारा के प्रवाहित होने और रुकने के समय का अनुपात १:१ से लेकर १:१० तक रखा जा सकता है, इस कारण जोड़ ऐसा लगता है मानो डोरे से सी दिया गया हो।

विद्युत् आर्क वेल्डन (Arc Welding)

इस विधि में जोड़ी जानेवाली वस्तुओं की टक्करों को गलाने के लिए एक इलेक्ट्रोड तो वेल्डन की बत्ती के रूप में होता है और दूसरा उन जोड़नेवाले भागों के रूप में होता है तथा इन दोनों इलेक्ट्रोडों के बीच में विद्युत् आर्क स्थापित कर, आवश्यक ऊष्मा प्राप्त कर ली जाती है। इस काम के लिए दिष्ट और प्रत्यावर्ती किसी भी धारा का प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन दिष्ट धारा अधिक सुविधाजनक रहती है।

वेल्डन के इलेक्ट्रोड - इलेक्ट्रोड दो प्रकार के होते हैं : (१) कार्बन के और (२) धातु के। धातु के इलेक्ट्रोड भी तीन प्रकार के होते हैं: (१) नंगे, (२) ढँके और (३) पोले। धातु के इलेक्ट्रोड की अधिक काम में आते हैं। कार्बन के इलेक्ट्रोड तो कुछ स्वचालित यंत्रो में ही प्रमुख होते हैं। जिन इलेक्ट्रोडों में ०.९ प्रतिशत से अधिक मैंगनीज़ मिला होता है, वे भी अच्छा काम देते हैं। इसी प्रकार ऐलुमिनियम की वेल्डन की बत्तियाँ भी अच्छा काम देती हैं।

विद्युत् धारा का विभवत्व - यह धातु की बत्तियों के साथ १८ से ३० वोल्ट और कार्बन के साथ ८० से १०० वोल्ट तक रखा जाता है। यह आर्क की लंबाई के अनुसार ही घटता बढ़ता रहता है और उसी के अनुपात से गलित धातु का जमाब भी होता है। हाथ से वेल्डन करने के उपकरणों में बहुधा २० से ३०० ऐंपीयर तक की धारा का प्रयोग किया जाता है, लेकिन स्वचालित यंत्रों में वह १,२०० ऐंपियर तक पहुँच जाता है।

इलेक्ट्रोडों की मोटाई - धातु के इलेक्ट्रोड १/१६ इंच से ३/८ इंच व्यास के और १२ इंच से १८ इंच तक लंबे होते हैं तथा कार्बन के इलेक्ट्रोड ५/३२ इंच से १ इंच व्यास के और १२ इंच लंबे होते हैं। विद्युत् धारा का प्रवाह इलेक्ट्रोड के कार्य और मोटाई के अनुसार ही होना चाहिए।

यदि धारा का प्रवाह हलका होगा, तो इलेक्ट्रोड की धातु झिरियों में प्रवेश नहीं करेगी और वेल्डनवाली सतह भी नहीं गलेगी। यदि प्रवाह बहुत तेज होगा, तो इलेक्ट्रोड की धातु जल जाएगी और जोड़ कमजोर पड़ जाएगा। फिर भी यही उचित है कि विद्युत् धारा की गति अनुपात से मंद रखने की अपेक्षा कुछ तेज ही रखी जाए। ढँके हुए इलेक्ट्रोडों में अधिक तेज धारा प्रवाहित करने से उसकी गली धातु पर स्लैग नहीं आने पाता, जो उसकी रक्षा के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। वह बहुत श्यान प्रकृति का होता है। इस स्लैग का गली धातु के भीतर ही कैद हो जाने का डर रहता है। नंगे इलेक्ट्रोडों का प्रयोग करने से, उसकी धातु गलकर बड़ी बड़ी बूँदों के रूप में जोड़ने की जगह पर जम जाती है, जिससे विद्युत् आर्क लघुपथम (short circuit) करन लगता है ढँक इलेक्ट्रोडों से छोटी बूँदें निकलती हैं, धारा एकरस चलती है और लघुपथन भी नहीं होता।

वेल्डन की विधि श्- वेल्डन किए जाने वाली तल की रेखा से इलेक्ट्रोड को ६० से ७५ अंश के कोण तक झुका हुआ रखना चाहिए। अपने सिर के ऊपर (overhead) के जोड़ों को झालते समय बत्ती का कोण ६० से ९० अंश तक रखा जाता है।

जोड़ों को तैयार करना - वेल्डन के पहले जोड़ों को तैयार करना बड़े ही महत्व की बात है और इसी पर वेल्डन की सफलता निर्भर करती है।

१८ गेज अथवा उससे कम मोटाई की चादरों के वेल्डनवाले किनारों को थोड़ा मोड़ दिया जात है, जिससे उनके वेल्डन के समय बत्ती की आवश्यकता नहीं पड़ती। इनसे मोटे, अर्थात् ३/१६ इंच से १/४ इंच तक मोटाई के, प्लेटों में भी कोई खांचा डालने की आवश्कता नहीं पड़ती, लेकिन इनसे अधिक मोटे प्लेटों के झाले जाने वाले किनारों पर चित्र १. की आकृति क से च तक दिखाए अनुसारश् आकार क खाँचा, आधा आधा दोनों भागों में काटकर, तैयार करना चाहिए। कुछ लोगश् आकार का खाँचा काटना भी पसंद करते हैं। आकृति च में दोनों तरफ खाँचा काटा गया है। खाँचे के बीच का कोण प्राय: ६० से ९० तक बनाया जात है। इस विधि में भी दाहिने हाथ और बायें हाथ का वेल्डन करने का रिवाज है। सकरे कोण के साथ सीधे हाथ के वेल्डन में सुविधा रहती है और बाएँ हाथ की झाल लगाने के लिए चौड़े कोण की आवश्यकता होती है। दाएँ और बाएँ का भेद समझने के लिए देखें गैस द्वारा वेल्डन। चित्र १. की आकृति क से च तक खाँचा बनाते समय दोनों प्लेटों के बीच कुछ फासला स्वत: रह जाता है, जो बड़े महत्व की चीज है। अधिक फासला रखने से गली हुई धातु नीचे गिर जाती है तो फिर वेल्डन करना कठिन हो जाता है, और कम फासला छोड़ने से प्लेटों की जड़ तक धातु नहीं पहुँचने पाती। अत: पतले प्लेटों में तो फासला लगभग १/१६ इंच चौड़ा और २ इंच मोटाई तक के प्लेटों में उसे क्रमश: बढ़ाते हुए ३/१६ इंच तक कर दिया जाता है। समकोण पर रखकर झाले जानेवाले प्लेटों को थाई (फिलेट) का जोड़ कहते हैं, जो चित्र १. की थ से प तक की आकृतियों में दिखाया गया है। ऊपर नीचे रखकर जोड़े जानेवाले प्लेटों की भी धाइयाँ झाली जाती है, जैसा चित्र १. के ट और ठ में दिखाया गया है, इनके लिए किसी प्रकार का खाँचा काटना आवश्यक नहीं है। आकृति छ और ज में एकहरी पट्टी का जोड़ है और झ में दोहरी पट्टी का, जिसे 'बट' जोड़ भी कहते हैं। वेल्डन करते समय पतले प्लेटों में जिनकी मोटाई लगभग ३/१६ इंच होती है, तो झलाई के एक दौरे (run) से भी काम चल जाता है। अधिक मोटी चीजों के वेल्डन में सीधी ओर उलटी कई परत लगानी होती है जिसमें उनका खाँचा पूरा भर जाए।

कुट्टित वेल्डन (Forge Welding)

इस्पात अथवा लोहे के दो टुकड़ों को खूब सफेद गरम कर पाटने की क्रिया द्वारा जोड़ने को कुट्टित वेल्डन या चटका लगाना कहते हैं। प्रत्येक धातु को खूब तपाने से वह ठो से द्रव रूप में बदलने लगती है लेकिन पिटवाँ लोहा अथवा मुलायम इस्पात में एकदम ऐसा नहीं होता। सफेद चमकते हुए गरम होने पर वे बहुत मुलायम और चिपचिपे हो जाते हैं, ऐसी अवस्था में यदि दो टुकड़ों को पास पास सटाकर दबाव के साथ मिला दिया जाए, तो वे जुड़कर एक हो जाते हैं। यह ताप ८१५ से ८७० सें. तक होता है। इससे कम ताप पर गरम कर टुकड़ों को जितना ही पीटकर जोड़ने की चेष्टा की जाए, वे कभी नहीं जुड़ेंगे और उन्हें उपर्युक्त ताप से अधिक ताप पर गरम करने से उनकी धातु जलकर बेकार हो जाएगी। पिटवाँ लोह को अधिक गरम करने से उसमें से बारीक सफेद चिनगारियाँ स्वत: ही निकलने लगती हैं। मुलायम इस्पात में कुट्टित वेल्डन योग्य ताप कुछ नीचा होता है और वह उस समय आता है, जब उसका लाल रंग सफेद में बदलने लगता है। मजबूत और उत्तम जोड़ लगान के लिए जोड़े जानेवाले तलों को भौतिक और रासायनिक दोनों ही प्रकार की अशुद्धियों से, जैसे लोह ऑक्साइड की पपड़ी या भट्ठी की राख, रहित कर देना चाहिए। अशुद्धियों को छुड़ाने के लिए तलों पर सुहागा और दानेदार शुद्धश् वालू छिड़क दी जाती है, जो उपर्युक्त ताप पर गलकर उन तलों पर जमनेवाली ऑक्साइड की पपड़ी और राख को गलाकर दूर करती है और बाद में ऑक्साइड जमने भी नहीं देती। सुहागा और बालू छिड़कने का समय वह होता है, जब लोहा पीला दिखाई देने लगे। गलकर बालू का जो स्लैग बन जाता है, व पीटते समय छिटककर बाहर आ जाता है। जोड़ने के उद्देश्य से दो टुकड़ों को आपस में मिलाकर चोट मारने की क्रिया जोड़ के मध्य भाग से आरंभ करनी चाहिए। कठिन किस्म के इस्पातों के लिए कुट्टित वेल्डन का ताप इतना ऊँचा नहीं होता कि उसपर बालू छिड़कने से वह गल से, अत: शुद्ध सुहागा अथवा चार भाग सुहागा और एक भाग नौसादर के मिश्रण की लाग बनाकर छिड़की जाती है।

कुट्टित वेल्डन के जोड़ - पिटवाँ लोहा और मुलायम इस्पात के टुकड़ों को सीधा जोड़ लगाने के लिए बहुधा तीन प्रकार के जोड़ों का उपयोग किया जाता है जिन्हें क्रमश: टक्कर का जोड़, ऊपर नीचे का जोड़, जिसे लप्पा लगाना भी कहते हैं, और चिरवाँ जोड़ कहते हैं। चित्र २. में इनकी आकृति क्रमश: क, ख और ग में दिखाई गई है।

टक्कर का जोड़ - यह जोड़ वस्तु की लंबाई की दिशा से समकोण पर बनाया जाता है। ठंढी हालत में ही सही सही जोड़ बनाकर फिर वेल्डनवाली वस्तुओं को सफेद गरम कर उन्हें आपस में दबाते हुए चोंटे मारते है, लेकिन प्राय: देखा जाता है कि हाथ से दबाने पर पूरा दबाव न पड़ने के कारण गरम तल एकदम एक दूसरे से नहीं मिलते जिस कारण जोड़ कच्चा रहकर बाद में टूट जाता है, अत: अच्छे कारखानों में एक विशेष प्रकार के यंत्र में वस्तुओं को दबाकर यहीं यंत्र के साथ लगी निहाई पर रखकर चोटें मारते हैं।

लप्पे का जोड़ - इस जोड़ को बनाने के लिए ठंढी हालत में किसी प्रकार की तैयारी नहीं करनी पड़ती। लेकिन यह जोड़ चित्र २. की आकृति ज में दिखाए अनुसार मोटा रह जाता है और जहाँ एक टुकड़े का मोटा किनारा दूसरे में घुसता है, वहाँ दरार रह जाती है, अत: जोड़ मिलाने के पहले प्रत्येक टुकड़े के सिरे के अलहदा से तपा और पीटकर काफी पतला कर लिया जाता है, जैसा चित्र २. की आकृति ख और झ में दिखाया गया है। इन जोड़ों को बनाने की तैयारी में खास बात यह है कि उन दोनों टक्करों की आकृति ऐसी बनाई जाए कि इने तेज गरम होने की हालत में उनपर बननेवाला स्लैग संपर्क के कारण दबते ही स्वत: बाहर की तरफ आसानी से निकल जाए, अत: दोनों सिरों का थोड़ा-थोड़ा ठाँस कर उन्हें कुछ उन्नतोदर आकृति दे दी जाती है (चित्र १. घ)। ऐसी आकृति बनाने के लिए विशेष प्रकर के ठस्सों का भी प्रयोग किया जाता है, जिस प्रकार के ठस्सों का भी प्रयोग किया जाता है, जिस प्रकार के सिरे चित्र २. की आकृति च में दिखाए गए हैं, वे बिलकुल गलत हैं, क्योंकि जोड़ के बीच में जहाँ टक्करें आपस में मिलेंगी एक गुहा बन जाएगी, जिसमें से स्लैग बाहर नहीं निकल सकेगा, अत: दोनों टक्करों को आपस में मिलाते समय किनारा सबसे पहले जुड़ेगा, फलत: जोड़ कमजोर रहेगा। गोल छड़ों को जोड़ने के लिए सिरे बनाने की आकृति चित्र २. के च में दिखाई गई हैं। यही विधि प्राय: जंजीरों की कड़ियों के मुँह जोड़ने के लिए अधिक उपयुक्त रहती है।

चिरवाँ जोड़ - यह जोड़ बहुत भारी वस्तुओं को जोड़ने के लिए बनाया जाता है। ऐसा साधारण जोड़ तो चित्र २. की आकृति ग में दिखाया गया है लेकिन विशेष भारी वस्तुओं के उपयुक्त जोड़ चित्र २. की आकृति ट और ठ मे दिखाया गया है। इस जोड़ में संपर्क मे आनेवाली सतह तो अधिक होती ही है, बल्कि चिरे हुए द्विशाखित भाग की नोंके, कलीनुमा दूसरे भाग की गोलाई के पीछे मुड़कर उसे मजबूती से पकड़ लेती हैं और फिर बाद में पीटकर पतला करने पर एक भाग की धातु दूसरे भाग में प्रविष्ट होकर एकजान हो जाती है। दूसरे टुकड़े के कलीनुमा भाग को बनाते समय उसे चिकना न बनाकर सीढ़ीनुमा दाँतेयुक्त बनाकर खुरदरा कर देना चाहिए।

विशेष प्रकार के जोड़ - चित्र ३. में विभिन्न प्रकार के उद्देश्यों से जोड़ दिखाए गए हैं। चित्र ३. की आकृति क में कीलीनुमा जोड़, ख में त्रिशाखित जोड़, ग में कोने का जोड़ और घ में गोल छड़ों के उपयुक्त विशाखित जोड़ बनाने की विधि दिखाई गई है। इंजनों और जहाजों के बड़े बड़े व्यास के घुरों को, जिन्हें शक्ति पारेषण के काम में लाने से उनपर मरोड़ बल भी पड़ता है, जोड़ना जब अभीष्ट होता है, तब उन्हें चित्र ३. की आकृति च में दिखाए अनुसार ठंढा ही चीरकर और फिर गरम कर आपस में बैठा दिया जाता है।

गैस वेल्डन (Gas Welding)

गैसों की सहायता से वेल्डन की क्रिया एक सी होती है, लेकिन उनका विभाजन उपयोग में आनेवाली गैस के अनुसार किया जाता है। ये गैसें बहुधा ऑक्सीजन और ऐसीटिलीन का मिश्रण, कोल गैस और हाइड्रोजन आदि हुआ करती हैं। इनमें से ऑक्सी-ऐसीटिलीन वेल्डन सबसे अधिक प्रचलित है। वेल्डनो-पयोगी गैसें तैयार करनेवाली व्यापारिक कंपनियाँ इस्पात के मजबूत सिलिंडरों (cylinders) में गैस को कई वायुमंडलों के दबाव पर भरकर वेल्डन के लिए बेचा करती हैं। वेल्डन के बड़े बड़े कारखानों में निजी गैस जनित्रों द्वारा कैल्सियम कार्बाइड और पानी के मिश्रण से यह गैस कम दाबस पर तैयार की जाती है। ऐसीटिलीन को ऐसीटोन में घुला देने से उसे विस्फोटन का डर नहीं रहता।

चाहे किसी भी प्रकार की गैस का व्यवहार किया जाए, वेल्डन के लिए उसे किसी प्रकार की फुँकनी (blowpipe) के द्वारा ही वेल्डन के स्थान पर पहुँचाया जाता है, जिनमें लगे एक बाल्व की सहायता से गैस के बहाव पर नियंत्रण कर उचित आकार की लौ बना ली जाती है। चित्र ४. की आकृति क में फुँकनी के मुँह पर लगनेवाली एक छुच्छी की बनावट दिखाई गई है और ख में लौ की आकृति है। लौ को छोटी, बड़ी, पतली या मोटी बनाने के लिए विभिन्न नापों के जेट फुँकनी पर अदल बदलकर लगाए जाते हैं। जेट की माप अर्थात् उसकी ताकत प्रति घंटा गैस के खर्चे के अनुसार निर्धारित की जाती है। सबसे छोटे जेट द्वारा एक घंटे में एक घन फुट और सबसे बड़े जेट द्वारा लगभग २०० घन फुट गैस खर्च हो जाती है तथा फुँकनी में गैस की दाब २ से ८ पाउंड प्रति वर्ग इंच तक रखी जाती है। प्रयोग करते समय ऐसीटिलीन गैस को पहले खोलकर जेट के मुँह पर उसे जला दिया जाता है, फिर ऑक्सीजन के सिलिंडर का बाल्व धीरे-धीरे इतना खोला जाता है कि जिससे उचित प्रकार की लौ बन जाए।

जलनेवाली गैस के मिश्रण में अधिक ऐसीटिलीन होने से उसकी लौ कार्बुरीकर (carburising) होकर कुछ मोटी पड़ जाती है, लेकिन वह आरंभ से अंत तक एक सी तेज चमकदार बनी रहती है। यदि मिश्रण में ऑक्सीजन की अधिकता हो, तो लौ ऑक्सीकारक (oxidising) प्रभाव से युक्त हो जाती है और उसका सूंड लंबा तथा चमकदार हो जाता है, लेकिन दोनों प्रकार की गैसों की मात्रा में उचित समायोजन कर देने से जो लौ बनती है उसके सूंड का चमकदार भाग छोटा और स्पष्ट आकृतियुक्त होता है और उसी की नोंक पर सबसे अधि ताप होता है, जैसा चित्र ४. में दिखाया गया है। अत: झाल लगाते समय धातु को गलाने के लिए लौ को धातु की सतह से लगभग १/८ इंच से १/१६ इंच तक दूर रखा जाता है।

वेल्डन - वेल्डन करते समय वेल्डन की जानेवाली वस्तुओं के टक्करों को मिलाकर, ऊपर से गैस की लौ द्वारा उनको जोड़ पर गला दिया जाता है जिससे दोनों पृथक् भागों की धातुएँ आपास में गलाकर मिल जाती है और साथ ही साथ उसी प्रकार की कुछ फालतू धातु, जो पतली बत्तियों के रूप में होती है तथा जिसे पूरक (फिलर) या बत्ती भी कहते हैं, गलाकर भर दी जाती है और इन सबके ठंढा हो जाने पर ठोस संधि बन जाती है।

फुँकनी को चलाने की दो तरकीबें होती हैं, एक तो बाएँ हाथ की और दूसरी दाहिने हाथ की। बाएँ हाथ की क्रिया में वेल्डन का काम दाहिनी ओर से बाई ओर को बढ़ता है जिससे लौ बिना झले हुए भाग की तरफ झुकी रहती है और फुँकनी को दाहिने हाथ से थामकर बत्ती को बाएँ हाथ से थामा जाता है। वेल्डन करते समय फुँकनी वेल्डन की जानेवाली वस्तु से ६० से ७० अंश का कोण और धातु की बत्ती ३० ४० अंश का कोण बनाती है। दाहिने हाथ की क्रिया में लौ का मुँह झले हुए भाग की ओर झुका रहता है और झलाई की क्रिया बाई ओर से दाहिनी ओर को बढ़ती है। बाएँ हाथ से बेल्डन करते समय फुँकनी का पानी की लहरों जैसे चलाया जाता है और दाहिने हाथ के वेल्डन में फुँकनी को बहुत ही कम या बिलकुल ही नहीं लहराया जाता, लेकिन बत्ती को गोल छल्लों के आकार में घुमाते हुए, चलाया जाता है।

वेल्डन की बत्ती - बत्ती का व्यास वेल्ड की जानेवाली वस्तु की मोटाई और फुँकनी की नाप के अनुपात से होना चाहिए। पतली बत्ती स्वयं तो जल्दी गल जाएगी और वेल्डित किया जानेवाला जोड़ गरम होकर गलित अवस्था में आने भी नहीं पाएगा। यदि बत्ती अधिक मोटी होगी, तो वह स्वयं देर से गलेगी और वस्तु के पहले से गले हुए भागों को जल्दी से ठंडा कर देगी। बत्ती की मोटाई और जेट की नाप का सही अनुपात लगाने के लिए निम्नलिखित सूत्रों का प्रयोग किया जा सकता है जिनमें व बत्ती का व्यास है और म बत्ती की मोटाई इंचों में है, तथा श फुँकनी का शक्तिसूचक अंक है, जो प्रति घंटा ऐसीटिलीन के खर्चे के अनुसार निश्चित किया जाता है :

= श्+ श्इंच (पंख मारे हुए प्लेटो के लिए)।

= श्म (विना पंख मारे हुए प्लेटों के लिए)।

= ९० म +

दोहरी लौ की फुँकनी - इस प्रकार की फुँकनी का रिवाज आजकल बढ़ता जा रहा है। इसमें दो लौ एक साथ निकलती हैं, आगेवाली लौ तो धातु को अगाऊ गरम करने का काम करती है, जिसमें थोड़ी अधिक ऐसीटिलीन खर्च हो जाती है लेकिन लाभ यह होता है कि व कार्बुरीकर होकर प्लेटों को ऑक्सीकरण होने से बचा लेती है, क्योंकि उस समय प्लेटों में कार्बन का अवशोषण हो जाने से उनका द्रवणांक घट जाता है और पिछली छोटी लौ वहाँ पहुँचते ही सरलता से अपना काम कर लेती है। इस प्रकार की लौ से वेल्डिंग किए जानेवाले भागों में सिकुड़न और ऐंठन के दोषों का भी परिहार हो जाता है तथा वेल्डन का काम भी शीघ्रता से होता है। (ओंकार नाथ शर्मा)