वेर्मीर, जा फान डेल्फ्ट (१६३२-१६७५) हालैंड का चित्रकार। बेर्मीर कला के क्षेत्र में सत्रहवीं शताब्दी के उस काल में आया जब कला राज्यसत्ता तथा धर्मसंरक्षण से मुक्त हो चुकी थी। कलाकार अपनी कला के द्वारा अपनी रोजी चलाने के लिए समाज के अन्य सदस्यों की भाँति स्वतंत्र था।
कहा जाता है, वह एक बड़े परिवार का सदस्य था और अल्प उम्र में ही उसे आत्मनिर्भर बनना पड़ा। उसे अपने चित्र वेचकर पेट पालना पड़ता था। कभी कभी चित्रों की बिक्री से उसे अच्दी रकम हाथ लगती थी और वह शान से रहता था पर कोई निश्चित जीवन उसे प्राप्त न था। राज्य का संरक्षण न होने के कारण दो शताब्दियों तक उसकी कला प्राय: लुप्त सी रही और आज उसके केवल सैंतीस चित्र प्राप्त हैं।
राज्यसत्ता तथा धर्मसंघों के संरक्षण के अभाव में धनाढ्य व्यापारी वर्ग कला में रुचि लेने लग गया था। कलाकारों को अपनी रोजी चलाने के, लिए इनकी रुचि का ध्यान रखना पड़ता था। इन्हें आमोद प्रमोद, शान शौकत तथा रंगीन जीवन पसंद था। सुंदर आकृतियोंवाले रंग बिरंगे अलंकारपूर्ण चित्र इन्हें पसंद थे और अधिकतर इसी ढंग के चित्र उस समय के कलाकारों ने बनाए भी। वेर्मीर की कला भी इस प्रभाव से न बच सकी।
बेर्मीर के चित्र अपने समय की सामाजिक रुचि तथा जीवन की रोचक झाँकी उपस्थित करते हैं - मनोहारी सुंदर युवतियाँ, भव्य तथा कीमती वेशभूषा, ठाटबाट, तथा सूक्ष्मतम अलंकरण; जिसे उसके चित्र 'आफिसर ऐंड लाफिंग गर्ल', 'यंग वूमन विद ए वाटर जग', 'द आर्टिस्ट्स स्टूडिओ', 'द लेस मेकर' तथा 'ए वूमन वेइंग गोल्ड' इत्यादि चित्रों में देखा जा सकता है।
वेर्मीर की कला का वास्तविक मूल्यांकन वीसवीं शताब्दी में हुआ है। आज वह महान् पाश्चात्य कलाकारों की श्रेणी में स्थान पाता है। उसके चित्रों में न धार्मिक कला की अलौकिकता है, न रहस्यवादी वातावरण, न ही आधुनिक चित्रकला का सा भयातुर क्रांतिकारी स्वरूप। उसने समकालीन जीवन के उस संतुलित रूप को चित्रित किया है जिसमें शांति और सौंदर्य प्रधान है। चित्र की छोटी से छोटी वस्तु भी रुचि के साथ पूरी रसार्द्रता से चित्रित हुई है। एक भी बिंदु, रेखा, रंग या आकार ऐसा नहीं जो जरूरत से ज्यादा उभर पड़े। (राम चंद्र शुक्ल.)