वेदांतसूत्र प्राचीन परंपरा के अनुसार इस ग्रंथ के लेखक बादरायण माने जाते हैं। पर इन सूत्रों में ही बादरायण का नामोल्लेख करके उनके मत का उद्धरण दिया गया है अत: कुछ लोग इसे बादरायण की कृति न मानकर किसी परवर्ती संग्राहक की कृति कहते हैं। बादरायण और व्यास की कभी-कभी एक माना जाता है। जैमिनि ने अपने पूर्वमीमांसासूत्र में बादरायण का तथा बादरायण ने वेदांतसूत्रों में जैमिनि का उल्लेख किया है। यदि बादरायण और व्यास एक ही हैं तो महाभारत की परंपरा के अनुसार जैमिनि व्यास के शिष्य थे। और गुरु अपनी कृति में शिष्य के मत का उल्लेख करे, यह विचित्र सा लगता है।

इन सूत्रों में सांख्य, वैशेषिक, जैन और बौद्ध मतों की और संकेत मिलता है। गीता की ओर भी इशारा किया गया है। इन सूत्रों में बहुत से ऐसे आचार्यों और उनके मत का उल्लेख है जो श्रौत सूत्रों में भी उल्लिखित हैं। गरुड़पुराण, पद्मपुराण और मनुस्मृति वेदांत सूत्रों की चर्चा करते हैं। हापकिंस के अनुसार हरिवंश का रचनाकाल ईसा की दूसरी शताब्दी है और इसमें स्पष्ट रूप से वेदांतसूत्र का उल्लेख है। कीथ के अनुसार यह रचना २०० ई. के बाद की नहीं होगी, जाकोबी इसे २०० से ४५० ई. के बीच का मानते हैं। मैक्समूलर इसे भगवद्गीता के पहले की रचना मानते हैं क्योंकि उसमें ब्रह्मसूत्र शब्द आया है जो वेदांतसूत्र का पर्यायवाची है। भारीतय विद्वान् इसका रचनाकाल ई.पू. ५०० से २०० के बीच मानते हैं।

जिस प्रकार मीमांसासूत्र में वेद के कर्मकांड भाग की व्यख्या प्रस्तुत की गई है उसी तरह चार अध्यायों में विभाजित लगभग ५०० वेदांतसूत्रों में वैदिक वाङ्मय के अंतिम भाग अर्थात् उपनिषदों की व्याख्या दी गई है। उपनिषदों में प्रतिपादित सिद्धांत इतने परस्पर विरोधी तथा बिखरे हुए है कि उनसे एक पप्रकार का दार्शनिक मत निकालना कठिन है। वेदांत सूत्र 'समन्वय' के सिद्धांत का सहारा लेकर उपनिषदों में एक दार्शनिक दृष्टि का प्रतिपादन करता है। पर ये सूत्र स्वयं इतने संक्षिप्त है कि बिना व्याख्या के सहारे उनसे अर्थ निकालना कठिन है। इनकी संक्षिप्तता के कारण इनपर कई व्याख्याएँ लिखी गई जो परस्पर विरोधी दृष्टि से वेदांत का प्रतिपादन करती है। वेदांत के सभी प्रस्थान इन सूत्रों को अपना प्रमाण मानते हैं। ब्रह्म का प्रतिपादन करने के कारण इन सूत्रों को ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। (रा.च.पां.)

वेदी वैदिक एव स्मार्त कर्म के लिए वेदी या वेदि का निर्माण अत्यावश्यक है। कर्मकांडीय अनुष्ठान के लिए एक निश्चित परिमाणम की शास्त्रानुसार परिष्कृत भूमि वेदी कहलाता है। इस वेदी में यज्ञपात्रों का स्थापन, यज्ञपशु का बंधन एवं अन्यान्य याज्ञिक कर्म अनुष्ठित होते हैं।

श्रौत परंपरा में वेदी के विषय में अनेक विशिष्ट तथ्य मिलते हैं। यथा स्फ्य (खड्गाकृति अस्त्र जो खदिर वृक्ष से बनाया जाता है, जिसका प्रमाण १ अरत्नि = २४ अंगुल है; १ अंगुल = इंच) से भूमि खोदने, तृण को हटाने और शुद्ध पांशु लाकर वेदी का निर्माण करने का निर्देश है।

वेदी अनेक आकृतियों की होती है। अग्निहोत्र दर्शपूर्णमास के लिए एक ही वेदी बनाई जाती है, जबकि चातुर्मांस यज्ञांतर्गत वरुणप्रधास में दो वेदियाँ होती हैं। यज्ञकर्मानुसार वेदी का स्थान निश्चित होता है, यथा - आह्वनीय अग्नि के पूर्व में, निरूढ पशुबंध यज्ञ की वेदी बनाई जाती है, जबकि दर्शपूर्णमास में अग्नि के पश्चिम में। वेदी का परिमाण भी यज्ञकर्म के भेद के अनुसार विभिन्न प्रकार का होता है। एक ही यज्ञ की वेदियाँ विभिन्न श्रौतसूत्रों के अनुसार कुछ विभिन्न रूपों से बनाई जाती हैं। आपस्तबानुसारी जहाँ वेदी को गार्हत्याग्नि से कुछ दूर बनाते हैं, वहाँ सत्याषाढानुसारी वेदी को अग्नि के पास ही बनाते हैं। (रामांकर भट्टाचार्य)