वेदांत दर्शन (इतिहास) वैदिक वाङ्मय मंत्र और ब्राह्मण इन दो भागों में विभाजित किया गया है। ब्राह्मण के अंतिम भाग को भी दो भागों में बाँटकर एक को आरण्यक और सबसे अंत के भाग को उपनिषद् कहा गया है। इस तरह उपनिषद् वेदों का अंत है। वेद में प्रतिपादित यज्ञ यागादि कर्मों की दार्शनिक व्याख्या उपस्थित करनेवाले सिद्धांत (अंत) का (जैसे बृहदारण्यक उपनिषद् में अश्वमेघ की दार्शनिक व्याख्या, छांदोग्य में मधुविद्या और सामतत्व) इसी भाग में प्रतिपादन है। इन दो कारणों से उपनिषद् वेदांत कहलाते हैं। उपनिषदों पर आधारित सभी मत इसी नाम से जाने जाते हैं।
उपनिषद् को ज्ञानकांड कहते हैं और इनको ब्राह्मणों के कर्मकांड से भिन्न माना गया है। किसी फल को लक्ष्य कर कर्म करना सभी जानते हैं पर कर्म का जो कर्ता पर प्रभाव होता है उसका विश्लेषण दार्शनिक बुद्धि की अपेक्षा रखता है। अत: उपनिषदों में कर्म और कर्ता के संबंध, कर्ता के स्वरूप एव कर्म के बंधन से छुटकारा पाने के उपाय का वर्णन होने के कारण एक रहस्यात्मकता दृष्टिगोचर होती है। यह रहस्य तब और भी बढ़ जाता है जब उपनिषद् दृश्यमान स्थूल जगत् के पीछे इसको संचालन और नियंत्रित करनेवाली सत्ता का वर्णन करते हैं। इन बातों को समझने के लिए शिष्य को गुरु की कृपा पानी होगी। अत: वेदांत ज्ञान गुरु के पास (उप) भली भाँति (नि) बैठकर ही (सद्) मिल सकता है (उप-निषद्)। इस गुह्य ज्ञान के बिना वेद का तत्वज्ञान नहीं हो सकता अत: वेदांत वैदिक विद्या का सार है।
वैदिक साहित्य की व्याख्या करने के लिए जो शास्त्र बना उसे मीमांसा कहते हैं। मीमांसा का अर्थ होता है पुन:-पुन: मनन। इस शास्त्र का उद्देश्य है - वैदिक वचनों की व्याख्या, उनमें आपातत: प्रतीयमान विरोध का निराकरण, उनमें निहित रहस्य का उद्घाटन तथा व्यख्या के तर्कसम्मत नियमों (न्याय) का निर्धारण। मीमांसा की यह परंपरा बहुत प्राचीन है पर उन परंपराओं का संकलन ई.पू. ५०० से २०० के बीच किया गया। पूर्वमीमांसा में जैमिनि ने कर्मकांड की तथ उत्तरमीमांसा में बादरायण ने उपिनिषद् की मीमांसाएँ उपस्थित कीं। हमारा यहाँ उत्तरमीमांसापर वेदांत या ब्रह्मसूत्र से प्रयोजन है।
वेदांत सूत्र से ज्ञात होता है कि वेदांत की परंपरा बादरायण से प्राचीन थी क्योंकि इसमें ही आश्मरथ्य, बादरि, काशकृत्स्न, औडुलोमि आदि प्राचीन आचार्यों के मतों का उल्लेख है। बादरायण ने 'अथाऽतो ब्रह्मजिज्ञासा' कहकर ब्रह्म के अध्ययन को वेदात का विषय माना। ब्रह्म के बारे में अनेक वचन उपनिषदों में प्राप्त होते हैं। कभी ब्रह्म और जीव को अभिन्न माना गया, कभी उनको अत्यंत भिन्न कहा गया, कभी ब्रह्म की अंशी और जीव को अंश कहा गया। इसी प्रकार ब्रह्म और जगत् में भी विभिन्न उपनिषदों में विभिन्न प्रकार के संबंध का प्रतिपादन किया गया। यदि मीमांसा का लक्ष्य वेद की व्याख्या करना है तो यह मानकर चलना पड़ेगा कि वेद का तात्पर्य एक ही मत से हैं - एक ही वेद विभिन्न विरोधी मतों का प्रतिपादन नहीं कर सकते। इस बात को ध्यान में रखकर बादरायण ने 'समन्वय' का सिद्धांत अपनाया और परस्पर विरोधी वचनों की एक समन्वयात्मक व्याख्या उपस्थित करने का प्रयत्न किया। पर सूत्र रूप में लिखे जाने के कारण बादरायण का भी आशय स्पष्ट नहीं होता; भगवद्गीता किंचित् विस्तार से उपनिषदों का निचोड़ उपस्थित करती है पर उसमें भी स्पष्ट एकरूपता नहीं परिलक्षित होती। लेकिन उपनिषद्, वेदांतसूत्र और भगवद्गीता ये तीन ग्रंथ वेदांत के प्रमाण हैं - इनमें अंतिम दो ग्रंथ इसीलिए प्रमाण हैं कि वे उपनिषदों (श्रुति) पर आधारित हैं। इन्हीं को वेदांत की प्रस्थानत्रयी कहा जाता है।
अद्वैत वेदांत - जिस प्रकार उपनिषद्वाक्यों में समन्वय करने के लिए वेदांतसूत्र और गीता की रचना हुई उसी प्रकार इन तीनों प्रस्थानों में एक ही दृष्टि का प्रतिपादन है, यह बतलाने के लिए विभिन्न आचार्यों ने अपने अपने दृष्टिकोण से इन तीनों की व्याख्या प्रस्तुत की। इस प्रकार वेदांत के अनेक संप्रदायों का जन्म हुआ।
शंकराचार्य ने अपने मत का नाम अद्वैतवाद रखा। अद्वैतवाद के तत्व उपनिषदों में सर्वाधिक स्पष्ट रूप से मिलते हैं। शंकर के परमगुरु गौडपाद ने इसका प्रतिपादन भी अपनी कारिकाओं में किया। पर शंकर ने सर्वप्रथम एक नियोजित ढंग से तार्किक पद्धति पर इसका विवेचन किया इसलिए ये इसके प्रचारक आचार्य कहे जाते हैं।
शंकर के अनुसार सारे उपनिषद् एक अद्वितीय और निर्गुण सत्ता का प्रतिपादन करते हैं जिसे ब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म पूर्ण है, उसकी पूर्णता इसी से हो सकती है कि वह विकाररहित और अपने से अतिरिक्त सत्ता से शून्य हो। इसलिए शंकर ने जगत् और ब्रह्म में एक विशेष प्रकार के कार्य-कारण-भाव की कल्पना की जिसे विवर्तवाद कहा है। (इसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं।) ब्रह्म इस विश्व का अधिष्ठान है पर इस कारण से ब्रह्म में कोई परिवर्तन नहीं होता। विश्व सर्प की तरह न तो एकदम सत्य है और न एकदम मिथ्या। यह अनिर्वचनीय है। प्राणी जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में अपरिवर्तित रहता है। उसकी आत्मा ही इन सारी अवस्थाओं का कारण है। यदि यह आत्मा जड़ विषय से एक दम असंपृक्त होकर स्थित हो तो इसका शुद्ध चैतन्य रूप स्पष्ट हो जाएगा। तुरीय अवस्था में आत्मा विषयवासना से शून्य हो जाती है और इसलिए उस अवस्था में परिच्छेदक के अभाव से आत्मा विषयवासना से शून्य हो जाती है और इसलिए उस अवस्था में परिच्छेदक के अभाव से आत्मा में भेद और भेदक गुण नहीं रह जाते। विश्व के सारे पदार्थ परिवर्तनशील होने के कारण तत्व नहीं हो सकते, पर चैतन्य आत्मा में परिवर्तन नहीं होता अत: अपने शुद्ध रूप में चैतन्य निर्गुण आत्मा ही तत्व है - उससे अतिरिक्त सब कुछ केवल सर्प की तरह व्यावहारिक सत्य है, पारमार्थिक सत्य नहीं। यही अपरिच्छिन्न आत्मा ब्रह्म है और जो कुछ अनुभूत होता है सब इसी आत्मा में अधिष्ठित है। 'सर्वं खल्विटं ब्रह्म नेह नानाऽस्ति किंचन' इस दर्शन का मूल वाक्य है। इस ब्रह्म में और व्यक्ति में कोई अंतर नहीं है। परिच्छिन्न होने पर ब्रह्म ही व्यक्ति या जीव कहलाता है और मुक्त होने पर जीव ब्रह्म हो जाता है। तत्वत: सारे जीव ब्रह्म ही हैं। इस ब्रह्म का स्वरूप हमसे इसलिए छिपा है कि हम जीव अज्ञानी हैं। अज्ञान के कारण तत्व आवृत होकर अनेक प्रकार के विक्षेपों की सृष्टि करता है। यह अज्ञान सारे प्राणियों में है अत: यह एक विश्वजनीन शक्ति है जिसे माया कहा गया। माया ही ब्रह्म को परिच्छिन्न सो करती है। यही विवर्त का कारण है। ब्रह्म की दृष्टि से माया का अभाव है क्योंकि ब्रह्म शुद्ध चैतन्य है, जीव की दृष्टि से माया सत्य है क्योंकि इसी के कारण उसकी स्थिति है। अतएव शांकर संप्रदाय के एक अंश में माया अनिवर्चनीय कही जाती है। शांकर वेदांत मायावादी कहा गया है। प्राणी का लक्ष्य है अपने ब्रह्म रूप का ज्ञान प्राप्त करना जो शंकर के अनुसार कर्म से नहीं हो सकता क्योंकि कर्म तो प्राणी का बाँधते हैं। ब्रह्म के अतिरिक्त वास्तव में कुछ नहीं है अत: इस दर्शन को द्वैतरहित अथवा अद्वैत कहते हैं।
विशिष्टाद्वैत वेदांत - इसके प्रतिष्ठापक रामानुजाचार्य हैं। इनके अनुसार निर्गुण वस्तु अस्तित्वहीन होती है। ज्ञान भी सगुण का ही होता है। अत: गुण से विशिष्ट गुणी का ही अस्तित्व और ज्ञान संभव है। इसलिए ब्रह्म सगुण है निर्गुण नहीं। ब्रह्म ही परम सत्य है। भूत (अचित्) और जीव (चित्) उसके विशेषण या अंश हैं। ये अंश परिवर्तित होते हैं पर अंशी अपरिवर्तित ही रहता है। परिवर्तन परिणामवाद कहलाता है। जैसे दूध दही में परिवर्तित होता है उसी प्रकार ब्रह्म के गुण परिवर्तित होते हैं। चित् और अचित् ब्रह्म के शरीर हैं, ब्रह्म इनकी आत्मा है। अत: ब्रह्म सारे ब्रह्मांड में व्याप्त होकर स्थित है। जैसे शरीर और शरीरी एक हैं वैसे ही ब्रह्म और उसका शरीर रूपी ब्रह्मांड एक है पर इस एकता में गुण और गुणी का भेद भी है। इसलिए इस दर्शन को विशिष्टाद्वैत कहते हैं।
द्वैत वेदांत - इसके प्रतिष्ठापक मध्व है। इनके अनुसार स्वतंत्र और परतंत्र ये दो तत्व है। ईश्वर स्वतंत्र तथा जीव और प्रकृति परतंत्र तत्व हैं। सर्वगुणसंपन्न ब्रह्म या ईश्वर संसार का बनानेवाला है, प्रकृति उसका उपादान है। विष्णु ही ईश्वर हैं। उनकी नित्य सहचरी लक्ष्मी उनपर आश्रित हैं। पर लक्ष्मी अपने आपमें स्वतंत्र हैं। प्रकृति ईश्वर की इच्छा है और वे एक साथ रहती हैं। ईश्वर और जीव में, ईश्वर और प्रकृति में, जीव और प्रकृति में जीव और जीव में तथा प्रकृति और प्रकृति में नित्य भेद है। प्रकृति, जीव और ईश्वर को मिलाया नहीं जा सकता। आत्मा नित्य है तथा धर्म अधर्म से आवृत है। मोक्ष होने पर आवरण का नाश हो जाता है और इसको पूर्ण ज्ञान तथा आनंद मिल जाते हैं। आत्मा यद्यपि ईश्वराश्रित है, तथापि यह स्वतत्र कर्ता है। पर इसका स्वातंत््रय सीमित है। ईश्वर इसकी क्रिया को नियंत्रित करता है। ईश्वर आत्मा में रहता है पर आत्मा के सुख दु:ख का उसे ज्ञान नहीं होता। मुक्ति ईश्वर की कृपा होने पर उसकी भक्ति से ही प्राप्य है।
द्वैताद्वैत वेदांत के प्रतिष्ठापक निंबार्काचार्य हैं। इसके अनुसार ब्रह्म अनंत-सद्गुण-संपन्न है। वही सृष्टि, स्थिति और संहार करता है तथा पूर्ण स्वतंत्र है। ब्रह्म ही विश्व का उपादान और निमित्त कारण है। ईश्वर और जगत् में समुद्र और लहरों की तरह भेद और अभेद दोनों हैं। जीव नित्य और ब्रह्म से भिन्न है। पर यह भेद आत्यंतिक नहीं है क्योंकि ईश्वर की कृपा से जब अज्ञान नष्ट हो जाता है तो जीव ब्रह्म के समान हो जाता है।
शुद्धाद्वैत वेदांत की स्थापना वल्लभ ने की। ब्रह्म सगुण और सविशेष है। वही विश्व है। आत्मा तथा प्रकृति का स्वामी है। आत्माएँ ब्रह्म के नित्यअंश हैं। माया ईश्वर की शक्ति है। ईश्वर अशरीरी है पर लीला से भक्तों के हित के लिए वह अनेक शरीर धारण कर सकता है। ब्रह्म अपने गुणों का आविर्भाव और तिरोभाव करता रहता है। विश्व के सारे पदार्थ इन्हीं गुणों के आविर्भाव और तिरोभाव की अवस्था में हैं। जब ईश्वर चेतना और आनंद को छिपा लेता है तो वह विश्व हो जाता अत: सृष्टि तिरोभाव और प्रलय आविर्भाव है। ब्रह्म विश्व का समवायी और निमित्त कारण है। जैसे आग से चिनगारियाँ फूटती हैं वैसे ही ब्रह्म से जीव उत्पन्न होते हैं। ये जीव आध्यात्मिक अणु रूप हैं।
अचिंत्य भेदाभेद वेदांत - चैतन्य के द्वारा प्रवर्तित इस दर्शन में ईश्वर में, अचिंत्य गुण और शक्तियाँ रहती हैं। वह आनंदस्वरूप और माया का स्वामी है। जीव उससे भिन्न है। संसार सत्य पर परिणामी है। ईश्वर की जीवशक्ति से जीव तथा मायाशक्ति से संसार उत्पन्न होता है। ये सारी शक्तियाँ उसी ईश्वर की हैं और ये अपनी इयत्ता में अचिंत्य हैं। उस कृष्णरूपधारी ईश्वर की अनन्य सर्वांगीण उपासना से मोक्ष मिलता है।
इस प्रकार वेदांत के विभिन्न संप्रदाय पारमार्थिक सत्ता, विश्व और जीव इनके परस्पर संबंध के आधार पर एक दूसरे से भिन्न हैं। ये सारे संप्रदाय अपने दृष्टिकोण से प्रस्थानत्रयी की व्याख्या करते हुए अपने मत को ही वेदांत की संज्ञा देते हैं। सभी संप्रदाय ईश्वर या ब्रह्म को स्थिति मानते हैं, श्रुति को तर्क से बलवान् माने हैं और कर्म के सिद्धांत तथा मोक्ष का प्रतिपादन करते हैं।
अद्वैत को छोड़कर सारे वेदांत संप्रदाय भक्ति को मोक्ष का सर्वोत्कृष्ट मार्ग मानते हैं। वेदांत के प्राय: सारे संप्रदाय दक्षिण भारत में उत्पन्न हुए। दक्षिण भारत वैष्णव और शैव मतों का गढ़ रहा है। सामान्य जन भक्ति में ही अपने दु:खपूर्ण मन का समाधान पाते हैं इसलिए यदि वेदांत को भक्ति के साथ मिला दिया जाए तो भक्ति की महत्ता और भी बढ जाएगी। रामानुज, वल्लभ, मध्व और चैतन्य ने भक्ति को अपने अपने ढंग से वेदांत का प्रतिपाद्य माना और विष्णु को किसी न किसी रूप में पूजित करने का उपदेश दिया। शैवों ने अपने भक्ति के सिद्धांत को वेदांत से जोड़ने का उतना अधिक प्रयत्न नहीं किया। केवल श्रीकंठ ने शैवभाष्य लिखा है जो उतना लोकप्रिय नहीं हो सका।
ज्ञानमूलक होने के कारण अद्वैत वेदांत ने विद्वानों में आदर पाया और भक्तिमूलक वेदात संप्रदायों ने साधारण जनता में। लोगों ने वेदांत को अपने जीवन का अंग बना लिया। इसीलिए वेदात दर्शन ही भारत में एक ऐसा दर्शन है जिसमें आज भी नए विचार और उद्भावनाएँ पैदा होती हैं। अरविंद का दर्शन इसका ताजा उदाहरण है।
सं.ग्रं. - स. राधाकृष्णन् : इंडियन फिलासफी, द्वितीय भाग; सुरेंद्रनाथ दासगुप्त : हिस्ट्री ऑव इंडियन फिलासफी, चारो भाग; बलदेव उपाध्याय : भारतीय दर्शन; टी.एम.पी. महादेवत् : द फिलासफी ऑव अद्वैत; श्रिनिवासाचारी : द फिलासफी ऑव विशिष्टाद्वैत; नागराज शर्मा : द फिलासफी ऑव मध्व; उमेश मिश्र : निंबार्क फिलासफी; तेलिवाला : फिलासफी ऑव वल्लभाचार्य; केनेडी : चैतन्य मूवमेंट। (रामचंद्र पांडेय)