वेदमूर्ति श्रीपाद दामोदर सातवलेकर वेदों का गहन अध्ययन करनेवाले शीर्षस्थ विद्वान्। जन्म १९ सितंबर, १८६७ का रत्नगिरि (महाराष्ट्र) के कोलगाँव में हुआ। 'जे.जे स्कूल ऑव आर्टस' में शिक्षा प्राप्त कर हैदराबाद में चित्रशाला स्थापित की। अपने व्यवसाय के साथ साथ उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में भी उत्साहपूर्वक भाग लेना आरंभ किया। वेदों के आधार पर लिखित आपका लेख 'तेजस्विता' राजद्रोहात्मक समझा गया जिसके कारण आपको तीन वर्ष तक कैद की सजा भोगनी पड़ी।

वेदों के अर्थ और आशय का जितना गंभीर अध्ययन और मनन सातवलेकर जी ने किया उतना कदाचित् ही किसी अन्य भारतीय ने किया हो। वैदिक साहित्य के संबंध में उन्होंने अनेक लेख लिखे और हैदराबाद में विवेकवर्धिनी नामक शिक्षासंस्था की स्थापना की। राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत आपकी ज्ञानोपासना निजाम को अच्छी न लगी, अत: आपको शीघ्र ही हैदराबाद छोड़ देना पड़ा। हरिद्वार, लाहौर आदि में कुछ समय बिताने के बाद सन् १९१८ मे आप आैंध में बस गए और वहीं पर स्वाध्यायमंडप की स्थापना कर साहित्यसेवा में निरत रहने लगे। गांधी हत्याकांड के बाद उन्हें वहाँ से हट जाना पड़ा। अब उन्होंने गुजरात के पारडी नामक गाँव को अपना निवास्थान बनाया और स्वाध्याय मंडल की पुन: स्थापना कर वेदादि प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के परिष्कार एवं प्रचारप्रसार के पुनीत कार्य में और भी अधिक दृढ़ता से संलग्न हो गए।

सातवलेकर जी ने कोई ४०९ ग्रंथों की रचना की। इनमें से कुछ ये हैं - भगवद्गीता, उपनिषद् भाष्य ग्रंथमाल, ऋग्वेद संहिता, दैवत संहिता, महाभारत, यजुर्वेद, वैदिक व्याख्यानमाला, इत्यादि। आपके द्वारा संकलित 'वैदिक राष्ट्रगति' तो अद्भुत ग्रंथ है। यह एक साथ ही मराठी तथा हिंदी भाषा में बंबई और इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। राष्ट्रशत्रु का विनाश करने में सक्षम वैदिक मंत्रों के इस संग्रह से विदेशी शासन हिल उठा और उसने इसकी सभी प्रतियाँ जब्त कर नष्ट कर डालने का आदेश दे दिया। देश के स्वतंत्र होने पर सन् १९५९ में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें देश के विशिष्ट विद्वान् के रूप में पुरस्कृत किया और २६ जनवरी, १९६८ को 'पद्मभूषण' की उपाधि द्वारा उनका सम्मान किया गया। इसके पूर्व वे विद्यामार्तंड, महामहोपाध्याय, विद्यावाचस्पति, वेदमहर्षि, वेदमूर्ति आदि उपाधियों से समादरित हो चुके थे। अंत में 'जीवेम शरद: शतम्' इस वेदवाक्य को चरितार्थ करते हुए १०१ वर्ष की आयु प्राप्त कर ३१ जुलाई, १९६८ को आपने देवलोक की ओर प्रयाण किया। (मुकुंदीलाल श्रीवास्तव)