वेद का अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' है। ये वेद चार हैं, परंतु इन चारों को मिलाकर एक ही 'वेद ग्रंथ' समझा जाता था।
'एक एव पुरा वेद: प्रणव: सर्ववाङ्मय।-महाभारत

वेद को पढ़ना बहुत कठिन प्रतीत होने लगा, इसलिए उसी एक वेद के तीन या चार विभाग किए गए। तब उनको 'वेदत्रयी' अथवा 'चतुर्वेद' कहने लगे।

वेदत्रयी

वेदों के मंत्रों के 'पद्य, गद्य और गान' ऐसे तीन विभाग होते हैं। हर एक भाषा के ग्रंथों में पद्य, गद्य और गान ऐसे तीन भाग होते ही हैं। वैसे ही ये वैदिक वाङ्मय के तीन भाग है-

१ वेद का पद्य भाग - ऋग्वेद, अथर्ववेद

२ वेद का गद्य भाग - यजुर्वेद

३ वेद का गायन भाग - सामवेद

इनको 'वेदत्रयी' कहते हैं, अर्थात् ये वेद के तीन विभाग हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेंद और सामवेद यह 'त्रयी विद्या' है। इसका भाव यह है कि ऋग्वेद पद्यसंग्रह है, यजुर्वेद गद्यसंग्रह है और सामवेद गानसंग्रह है। इस ऋक्संग्रह में अथर्ववेद सम्मिलित है, ऐसा समझना चाहिए। इसका कारण यह है कि अथर्ववेद भी पद्यसंग्रह ही है।

यजुर्वेंद गद्यसंग्रह है, अत: इस यजुर्वेंद में जो ऋग्वेद के छंदोबद्ध मंत्र हैं, उनको भी यजुर्वेद पढ़ने के समय गद्य जैसा ही पढ़ा जाता है।

सामवेद

सामवेद के मंत्र प्राय: ऋग्वेद के ही मंत्र हैं। 'या ऋक् तत् साम' ऐसा छांदोग्य उपनिषद् में कहा है। इसका अर्थ यह है कि 'जो पादबद्ध मंत्र हैं वे ऋचा या ऋग्वेद के मंत्र हैं। और पादबद्ध मंत्र ही गाए जाते हैं। अर्थात् सब पादबद्ध मंत्र गाए जा सकते हैं। आज के सामवेद में जो मंत्र हैं वे 'साम-योनि-मंत्र' अर्थात् उनका गान हो सकता है। सामवेद में जो मंत्र हैं वे वैसे के वैसे गाए नहीं जाते, परंतु उन मंत्रों से जो गान बने हैं, वे ही गाए जाते हैं। सामवेद के मंत्रों को लेकर उन मंत्रों से अनेक गान बने हैं। वे गान ही गाए जाते हैं। सामगान अनेक प्रकार के हैं, अत: उनको कहा है 'सहस्रवर्त्मा सामवेद:' अर्थात् इन मंत्रों पर हजारों प्रकार के सामगान होते हैं, जो यज्ञों में गाए जाते हैं।

आज के सामवेद में १८७५ मंत्र हैं, इनमें करीब ९९ मंत्र ऐसे हैं जो ऋग्वेद में मिलते नहीं हैं, बाकी के मंत्र ऋग्वेद के ही मंत्र हैं। परंतु कई मंत्रों में थोड़ा सा पाठभेद भी है।

ऋग्वेद की मंत्रगणना

अब वेदों की मंत्र गणना देखिए। ऋग्वेद की मंडलानुसार मंत्रगणना होती है और अष्टकानुसार भी होती है। अब देखिए -

मंडलानुसार मंत्रसंख्या

१ प्रथम मंडल १९१ सूक्तसंख्या २००६ मंत्रसंख्या

२ द्वितीयश् '' ४३श्श् '' ४२९ ''
३ तृतीयश् '' ६२श्श् '' ६१७ ''
४ चतुर्थश् '' ५८श्श् '' ५८९ ''
५ पंचमश् '' ८७श्श् '' ७२९ ''
६ षष्ठ '' ७५श्श् '' ७६९ ''
७ सप्तम '' १०४श् '' ८४१ ''
८ अष्टम '' ९२श्श् '' १६२६ ''
९ नवमश् '' ११४श् '' ११०८ ''
१० दशम '' १९१श् '' १७५४ ''
१०१७ '' १०४७२श्श् ''
बालखिल्य ११श्श् '' ८० ''

१०२८ '' १०५५२श्श् ''

अब इनके ऋषि देखिए-

१ प्रथम मंडल (अनेक ऋषि)

२ द्वितीयश् '' गृत्समद ऋषि
३ तृतीयश् '' विश्वामित्रश् ''
४ चतुर्थश् '' वामदेव ''
५ पंचमश् '' अत्रि ''
६ षष्ठ '' भरद्वाज ''
७ सप्तम '' वसिष्ठ ''
८ अष्टम '' कण्व ''
९ नवमश्श् '' (सोम देवता)
१० दशम '' (अनेक ऋषि)

द्वितीय मंडल से अष्टम मंडल तक सात मंडलों के सात ऋषि क्रम से हैं, तथापि उनमें उस ऋषि के गोत्र में उत्पन्न हुए अनेक ऋषि भी हैं।

अथ अष्टकानुसार मंत्रसंख्या देखिए-

१ प्रथम अष्टक १२१ सूक्त २६५ वर्ग १३७० मंत्र

२ द्वितीयश् '' ११९श् '' २२१ '' ११४७ ''

३ तृतीयश् '' ११२श् '' २२५ '' १२०९ ''

४ चतुर्थश् '' १४०श् '' २५० '' १२८९ ''

५ पंचमश् '' १२९श् '' २३८ '' १२६३ ''

६ षष्ठश्श् '' १२४श् '' ३१३ '' १६५० ''

७ सप्तम '' ११६श् '' २४८ '' १२६३ ''

८ अष्टम '' १४६श् '' २४६ '' १२८१ ''

१०१७ २००६ १०४७२

बालखिल्य ११ १८ ८०

१०२८ २०२४ १०५५२

प्रथम मंडल और दशम मंडल के अनेक ऋषि हैं। प्राय: इन ऋषियों को 'क्षुद्रसूक्ता ऋषय:' अर्थात् छोटे सूक्तों के ऋषि कहते हैं। नवम मंडल 'सोम देवता' का मंडल है। बाकी के सात मंडल सात ऋषियों के है। इनको 'महासूक्ता ऋषय:' अर्थात् बड़े सूक्तों के ऋषि कहते हैं। ये महासूक्तवाले ऋषि सप्तर्षि कहकर सम्मानित होते हैं इनके नाम ऊपर देखें (गत्समद से कण्व तक) इनके मंत्र अधिक होने से ये ऋषि अधिक सम्माननीय माने गए हैं। इन मंडलों को इन ऋषियों के नाम भी दिए गए हैं और इनके गोत्र में उत्पन्न हुए ऋषि भी इनमें लिए गए हैं।

यजुर्वेद

यजुर्वेद में 'शुक्ल यजुर्वेद' और 'कृष्ण यजुर्वेद' ऐसे दो भेद हैं। शुक्ल यजुर्वेद में 'माध्यंदिन' और काण्व संहिता है और कृष्ण यजुर्वेद में 'तैत्तिरीय संहिता' मानी है। शुक्ल यजुर्वेद प्रकरणबद्ध है।

प्रथम आठ अध्यायों में प्रारंभिक यज्ञ कर्म का उपदेश है, नवम तथा दशम अध्यायों में वाजपेय तथा राजसूय यज्ञ का वर्णन है, ग्यारह से पंद्रहवें अध्याय तक अनेक चितियों की विधि है। सोलहवें अध्याय में शतरुद्रीय होम है। सत्रहवें अध्यायश् से इक्कीसवें अध्याय तक वसोधीरा आदि प्रयोग हैं। बाइसवें अध्याय से उनतीसवें अध्याय तक अश्वमेधादि यज्ञों का वर्णन है। तीस और इकतीसवें अध्यायों में नरमेध है। बत्तीस और तैंतीस अध्यायों में सर्वमेध यज्ञ है, चौतीसवें अध्याय में ब्रह्मयज्ञ है, पैंतीसवें अध्याय में पितृयज्ञ, छत्तीसवें अध्याय में शांतिपाठ, सैंतीस से उनतालीस तक महावीर आदि यज्ञकर्म और चालीसवें अध्याय में परमात्मस्वरूप का दर्शन है।

यज्ञों में पशु का वध होता है, ऐसा कई मानते हैं, पर यज्ञ में पशु का वध करने के लिए कोई मंत्र नहीं है। 'ओषधे त्रायत्व स्वधिते मा एनं हिंसी:' यह मंत्र प्रयुक्त होता है। इस मंत्र का अर्थ है- हे ओषधि। इसका संरक्षण कर, हे शस्त्र इसकी हिंसा न कर।' इस कारण इस मंत्र से पशु का वध करना इष्ट नहीं है। क्योंकि मंत्र का स्पष्ट भाव तो पशु का संरक्षण करना ही है।

गोमेध में भी गौ का वध करना उचित नहीं है, क्योंकि वेदों में गौ का नाम 'अध्न्या' है। इस 'अध्न्या' पद का अर्थ 'अवध्य' है। वेद जिसको अध्न्या अर्थात् 'अहंतव्या' कहता है, उसका वध नहीं किया जा सकता। अर्थात् गोमेध में गौ का वध नहीं है।

महाभारत में कहा है कि-

बीजैर्यशेषु यष्टव्यमिति वा वैदिकी श्रुति:।

अजसंज्ञानि बीजानि छागं नो हन्तुमर्हथ।। महाभारत, शांतिपर्व

'यज्ञ में बीजों से हवन करना चाहिए, ऐसा वेदमंत्रों का आदेश है। अज नाम के बीज हैं, अत: बकरे का वध नहीं करना चाहिए।'

अजमेध में बकरे का वध करना अनुचित है, क्योंकि अज एक प्रकार के धान्य का नाम है। कोश में 'अज' के अर्थ हैं, सुवर्णमाक्षिक, अजशृंगी ओषधि, चलानेवाला, प्रेरक नेता, मरुतों की सेना का नायक, दल का नेता, अग्निरथ, सूर्यकिरण, सूर्यरथ, चावल का एक प्रकार, चंद्रमा, प्रकृति, माया, मरुत् इंद्र, कामदेव।

अश्वमेध के विषय में कहा है कि 'राष्ट्रं वा अश्वमेध:। श. ब्रा. १३।१४६।३

राष्ट्रसेवा ही अश्वमेध है। राष्ट्रशासन को अश्वमेध यज्ञ कहते हैं। 'मेध' का अर्थ बुद्धिवैभव बढ़ाना है। इस प्रकार ये यज्ञ होते थे। यज्ञ में 'सत्कार-सगतिकरण-दान' ये तीन कार्य मुख्य हैं। जो सत्कार के योग्य हों उनका सत्कार करना, आपस का संगठन करना और गरीबों को दान देना, यों तीन प्रकार से यज्ञ होता है। यह राष्ट्रीय उन्नति का महान् कार्य है। यह यजुर्वेद के यज्ञों का स्वरूप है।

सामवेद

सामवेद गायन करने के मंत्रों का संग्रह है। सामगायन गाने के लिए तैयार रहते हैं, वे गाए जाते हैं। गायन करने के सिवाय सामवेद के मंत्रों का दूसरा कोई प्रयोग नहीं है।

अथर्ववेद

'अ-थर्व' का अर्थ 'गति रहितता अर्थात् शांति है। सचमुच अथर्ववेद आत्मज्ञान देकर विश्व में शांतिस्थापना करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है।

'थर्वति: गतिकर्मा, तत्प्रतिषेधो निपात:।' निरुक्त

'थर्व' का अर्थ 'गति' है और अथर्व का अर्थ 'शांति' अर्थात् अथर्ववेद शांति का प्रसार करनेवाला वेद है। यज्ञ में 'ब्रह्मा' के पद के लिए अथर्ववेदी ही योग्य समझा जाता है, वह इसीलिए कि यह सब दोषों को दूर करके यज्ञ से शांतिस्थापन करने का कार्य करता है।

अथर्ववेद के २० कांड हैं, इनमें प्रथम के ७ कांड फुटकर सूक्तों के है, आगे के १८वें कांड तक के ११ कांड विषयवार हैं, देखिए-

कांड विषय

श् अष्टम कांड दीर्घायु, रोगनाशन आदि

श् नवम श्श् '' मधुविद्या, यक्ष्मनाशन

१० दशम '' कृत्या दूषण आदि

११ एकादश '' ब्रह्मौदन आदि
१२ द्वादश '' मातृभूमिश् ''
१३ त्रयोदश '' अध्यात्म
१४ चतुर्दशश् '' विवाह प्रकरण
१५ पंचदशश् '' अध्यात्म
१६ षोडशश्श् '' दु:खविमोचन
१७ सप्तदश '' अभ्युदय
१८ अष्टादश '' पितृमेध

कांड १९ और २० फुटकर मंत्रसंग्रह के कांड हैं। यह सब देखकर स्पष्ट होता है कि वेदमंत्रों का संग्रह सर्वत्र समान दृष्टि से नहीं हुआ है। उदाहरणार्थ अथर्ववेद में ही देखिए, प्रथम के ७ कांड और अंतिम के २ कांड ऐसे हैं जिनका विषयवार वर्गीकरण नहीं है, परंतु कांड ८ से १८ तक के ११ कांड विषयवार हैं। ऋग्वेद में भी द्वितीय मंडल से अष्टम मंडल तक के ७ मंडल ऋषिवार है तथा अथर्ववेद में कांड ८ से १८ तक के कांड विषयवार हैं, पर बाकी के वैसे नहीं है।

अथर्ववेद में १९ वें कांड के अंत में यह मंत्र है -

यस्मात् कोशादुदभराम वेदं

तस्मिन्नन्तरवदध्म एनम्।

कृतमिष्टं ब्रह्मणों वीर्येण

तेन मा दवास्तपसावतेह।। अथर्व १९/७२/१

'जिस आलमारी से हमने वेद के ग्रंथ निकाले थे, उसी में हम इनको पुन: रखते हैं। इस वेद के ज्ञान से हमने इष्ट कार्य किया, इस तप से देवता हमारा यहाँ रक्षण करें।'

इस मंत्र से स्पष्ट मालूम होता है कि इस समय वेद के लिखित ग्रंथ थे। वे कार्य हो जाने पर संदूक में रखे जाते थे।

इस प्रकार चारों वेदों का मंत्रसंग्रह है। ये वेद मानव की उन्नति करने का सच्चा धर्म बताते हैं। यह बात अब अति संक्षेप से देखिए - ऋग्वेद का उपदेश ऐसा है -

'मिलकर रहो, परस्पर प्रेम से भाषण करो, अपने मनों को सुसंस्कारों से सुसंस्कृत करो। पूर्व समय के उत्तम ज्ञानी जिस प्रकार उपासना करते थे, वैसी तुम भी किया करो (ऋ. १०/१९१/२)। अब यजुर्वेद का उपदेश देखिए -

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत् किंच जगत्यां जगत्।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्यस्चिद्धनम्।।

वा.यजु. ४०१

इस जगत् में जो कुछ है, उस सब में परमेश्वर व्याप रहा है। इसलिए त्याग से भोग करो (लोभ न करो), किसी का धन न ग्रहण करो।

सामवेद का उपदेश है - 'ज्ञानी, तेजस्वी, सत्यधर्मपालक, रोगनिवारक ईश्वर की स्तुति करो।' और अथर्ववेद का उपदेश है -

यूयं गावो मेदयथा कृशं चित्

अश्रीरं चित्कृणुथा सुप्रतीकम्।

भद्रं गृहं कुणुथ भद्रवाचो

बृहद्वो वय उच्यते सभासु।।

'हे गौवो! तुम कृश मनुष्य को पुष्ट करती हो, शोभारहित मनुष्य को सुंदर बनाती हो, तुम कल्याणकारी शब्द करके घर को कल्याणमय करती हो, इसलिए सभाओं में हम तुम्हारी बहुत स्तुति करते हैं।'

इस प्रकार विविध क्षेत्रों में उत्तम से उत्तम उपदेश वेदों में है। स्तुति, प्रार्थना और उपासना की पद्धति से वे मानव को उन्नति का श्रेष्ठ मार्ग बतलाते हैं। (श्रीपाद दामोदर सातवलेकर)