विश्वविद्यालय अनुदान आयोग : संगठन और कार्य सन् १९५६ ई. के संसदीय अधिनियम के अंतर्गत स्थापित विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती ही गई है। शिक्षा संसार तथा केंद्र एवं राज्य सरकार से इसे सम्मान प्राप्त है। सरकार और विश्वविद्यालयों के बीच में एक ऐसी समिति अंतर्स्थापित करना जिसके सदस्य राजनीतिक संबद्धता के कारण नहीं बल्कि ज्ञान और शैक्षिक स्थान के आधार पर चुने जाते हों, वास्तव में राष्ट्रमंडलीय युक्ति है। संयुक्त राज्य की विश्वविद्यालय अनुदान समिति १९१९ ई. में स्थापित की गई जब विश्वविद्यालयों के वित्तीय असंतुलन से संयुक्त राज्य सरकार बहुत चिंतित थी। संयुक्त राज्य कोष ने विश्वविद्यालय शिक्षा की वित्तीय आवश्यकताओं की जाँच पड़ताल करने के लिए तथा संसद् द्वारा दिए जा सकनेवाले अनुदान की प्रयुक्ति पर सरकार को मंत्रणा देने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान समिति के नाम से एक स्थायी समिति का प्रारंभ किया।
भारतीय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग १९५६ में स्थापित हुआ, ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालय आयोग १९५९ में, और श्रीलंका विश्वविद्यालय अनुदान आयोग १९६१ में, और श्रीलंका विश्वविद्यालय अनुदान आयोग १९६२ में। ये सब संस्थाएँ उसी प्रयोजन के लिए स्थापित हुई जिसके लिए अद्वितीय ब्रितानी विश्वविद्यालय अनुदान समिति १९१९ में स्थापित हुई थी। इन सब संस्थाओं की ब्रितानी विश्वविद्यालय अनुदान समिति के ४५ वर्षों के अनुभव का लाभ प्राप्त है। गैर-राष्ट्रमंडलीय देशों में इसे सदृश संस्था है, अमरीका की नैशनल सायस फाउंडेशन जो १९५० में स्थापित हुई और जो अमरीकी सरकार की संघीय निधि से भौतिक, सामाजिक और जैव विज्ञानों के संपूर्ण क्षेत्र में आधारभूत अनुसंधान के लिए, मुख्यत: कालेजों और विश्वविद्यालयों को अनुदान द्वारा आश्रय और परामर्श देती है।
भारत सरकार का विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ब्रितानी विश्वविद्यालय अनुदान समिति से थोड़ा अलग ढंग से कार्य संसदीय अधिनियम के अधीन संपादित होते हैं। इसके अतिरिक्त संविधान की परिगणना (Schedule) VII की प्रविष्टि (entry) ६६ में वर्णित संवैधानिक कर्तव्य (obligation) भी इसकी शक्ति के स्रोत हैं। वास्तव में, संविधान के अनुसार भारत में शिक्षा का विषय राज्यों के अधीन है लेकिन प्रविष्टि ६६ से स्पष्ट है कि संविधान निर्माताओं ने भारत में उच्च शिक्षा के भविष्य पर दूरदर्शिता से विचार किया था। इसका अर्थ है कि उच्च शिक्षा संस्थाओं के स्तरों का समन्वय और निर्धारण केंद्रीय सरकार का कर्तव्य है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम की धारा १२ के अधीन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के काम इस प्रकार बताए गए हैं - विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का यह साधारण कर्तव्य होगा कि विश्वविद्यालयों और अन्य सबंधित संस्थाओं की राय से विश्वविद्यालय शिक्षा के उन्नयन और समन्वय के लिए तथा विश्वविद्यालय में शिक्षा, परीक्षा एवं अनुसंधान के स्तरों के निर्धारण और अनुरक्षण के लिए यह ऐसे सब काम करे जो इसे समुचित लगें। इस धारा के अधीन आयोग को इस प्रकार के कार्य करने जरूरी हैं जैसे भारतीय विश्वविद्यालयों की वित्तीय आवश्यकताओं का पता लगाना और उनके स्तरों के अनुरक्षण एवं विकास के लिए निधियाँ देना।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नौ सदस्य होते हैं जिसमें सरकर द्वारा मनोनीत विश्वविद्यालय उपकुलपतियों की संख्या अधिकतम तीन होती है। देश की विश्वविद्यालय शिक्षा के अनुभव और ज्ञान तथा निष्पक्षता और अखंडता की भावना के आधार पर इन्हें चुना जाता है। सरकार का प्रतिनिधित्व दो अधिकारी, सामान्यत: वित्त-सचिव और शिक्षा-सचिव, करते हैं। अन्य चार सदस्य प्रसिद्ध शिक्षाविद् और उच्च शैक्षिक योग्यताप्राप्त व्यक्ति होते हैं। इनमें से एक को आयोग का अध्यक्ष बनाया जाता है। केंद्र या राज्य सरकार के अधिकारी अध्यक्ष नहीं बन सकते। पिछले दस वर्षों में आयोग को इससे बड़ा लाभ हुआ। प्रसिद्ध शासक एवं शिक्षाविद् डा. चि.दा. देशमुख, दिल्ली विश्वविद्यालय के वर्तमान उपकुलपति तथा भारत के भूतपूर्व वित्तमंत्री, १९५६ के बाद ६ साल तक इसके अध्यक्ष रहे। तत्पश्चात् सौभाग्यवश डा. दौलतसिंह कोठारी अध्यक्ष हुए। प्रथम अध्यक्ष ने आयोग की कार्यविधियों के लिए मजबूत नींव तैयार की और विश्वविद्यालयों तथा केंद्र एवं राज्य सरकारों के साथ विचार विमर्श की परंपरा स्थापित की। इसके बाद डा. दौलतसिंह कोठारी ने विश्वविद्यालयों में विकास के नए कार्यक्रम शुरू किए जैसे उच्च अध्ययन केंद्र की स्थापना, विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए, विशेषतया विज्ञान में, ग्रीष्मकालीन कक्षाओं का आयोजन, और विश्वविद्यालय की सहायता के लिए अन्य बहुत सी योजनाएँ। अध्यक्ष और सचिव आयोग के पूर्णकालिक वैतनिक अधिकारी होते हैं और अन्य सदस्य अवैतनिक।
आयोग की सहायता के लिए एक सचिवालय है जिसमें एक सचिव, एक संयुक्त सचिव, तीस अन्य अधिकारी तथा करीब दो सौ अन्य कर्मचारी हैं। नई दिल्ली में इसके दफ्तर के लिए अपना मकान है और इसका प्रशासनिक व्यय बहुत ही कम है - कुल वार्षिक बजट का प्राय: १.५ प्रतिशत। उदाहरणार्थ, १९६५-६६ में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का कुल बजट करीब १५.६ करोड़ रुपए था जिसमें से प्रशासनिक व्यय सिर्फ २० लाख रुपए हुआ। १५.४ करोड़ रुपए केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों को उचित विकास अनुदान देने पर तथा केंद्रीय विश्वविद्यालयों को अनुरक्षण अनुदान देने पर पर खर्च हुए। आज ऐसे विश्वविद्यालयों की संख्या इस प्रकार है - केंद्रीय विश्वविद्यालय ४, राज्य विश्वविद्यालय ६५ और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम के अधीन विश्वविद्यालय मानी गई संस्थाएँ ९।
स्तर बनाए रखने के लिए विश्वविद्यालयों को अनुदान देने के अतिरिक्त विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को यह भी अधिकार है कि यह विश्वविद्यालय विभागों का निर्धारित तरीके से निरीक्षण की तिथि सूचित करना आयोग के लिए जरूरी होगा और निरीक्षण कार्य से विश्वविद्यालय भी संबद्ध रहेगा। निरीक्षण परिणाम के सबंध में आयोग अपने विचार विश्वविद्यालय को प्रेषित करेगा ओर विश्वविद्यालय की राय मालूम करने के बाद उससे यह सिफारिश करेगा कि निरीक्षण के फलस्वरूप विश्वविद्यालय क्या क्या करें।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम में यह भी अधिकार है कि विश्वविद्यालय की ओर से दी गई सफाई को ख्याल में रखते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अनुदान देना रोक दे। अपवाद स्वरूप ही ऐसे अधिकारों का प्रयोग किया जा सकता है। पिछले दस वर्षों में अब तक इनका प्रयोग नहीं किया गया है परंतु ये विश्वविद्यालयों की रोकथाम का काम करते हैं।
इसी तरह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम में धारा २० के अधीन राष्ट्रीय प्रयोजनों से संबंधित नीतियों के प्रश्न पर आयोग को केंद्रीय सरकार के निर्देशन से मार्गदर्शन प्राप्त करना होगा। फिर भी, यह बता दिया जाए कि अब तक ऐसे निर्देश दिए जाने का मौका नहीं हुआ है क्योंकि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारें पूर्ण समन्वित रूप से काम करती हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के हितों को सरकार का समर्थन प्राप्त होता है और राष्ट्रीय आवश्यकताओं तथा राष्ट्रीय नीति पर सरकार के विचार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के कार्यों में प्रतिध्वनित होते हैं।
अधिनियम ने आयोग को जो काम करने की जिम्मेदारी दी है उनके कार्यान्वयन के लिए आयोग की बैठक जनवरी और जून छोड़कर हर महीने में एक बार होती है - साधारणत: महीने के प्रथम बुधवार को। इस प्रकार साल में दस बैठकें होती हैं, यद्यपि विशेष बातों के लिए असाधारण बैठकें भी हो सकती हैं। आयोग की बैठकों में प्रस्ताव पारित होते हैं जिनके अनुसार सचिवालय अनुदान देता है या विश्वविद्यालय, राज्य सरकार और केंद्रीय सरकार को आयोग के परामर्श प्रेषित करता है। विशेष समस्याओं के लिए अनेक तदर्थ या विशेष समितियाँ बनाने की जरूरत पड़ती है, जैसे उच्च अध्ययन केंद्र समिति, नवीन विश्वविद्यालय समिति, क्षेत्र अध्ययन समिति, ग्रीष्मकालीन कक्षा समिति इत्यादि। इनमें से कुछ अब स्थायी समितियाँ बन गई हैं।
प्रत्येक पंचवर्षीय विकास योजना के प्रारंभ मे योजना आयोग की सलाह पर सरकार आयोग को बता देती है कि विकास कार्यक्रमों के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की कुल कितनी निधियाँ मिलेंगी। चार केंद्रीय विश्वविद्यालय-दिल्ली, वाराणसी, अलीगढ़ और विश्वभारती के अनुरक्षण अनुदान के लिए तथा दफ्तर के प्रशासनीय खर्च के लिए सरकार अतिरिक्त निधि देती है। प्रत्येक योजना के शुरू में आयोग जो सबसे महत्वपूर्ण कदम उठाता है वह है विभिन्न विश्वविद्यालयों के लिए जाँच समिति नियुक्त करना। आयोग द्वारा विश्वविद्यालयों को बता दिया जाता है कि विभिन्न विभागों और संबद्ध कालेजों के विकास के लिए उनको आयोग करीब करीब कितनी रकम देगा। तब जाँच समितियाँ विश्वविद्यालय योजनाओं की परीक्षा करती है और योजनावधि में होनेवाली वित्तीय आवश्यकताओं पर आयोग को राय देती है। तत्पश्चात् विश्वविद्यालय को विकास के लिए धनराशि वितरित करता है। कार्यक्रमों की मंजूरी विश्वविद्यालय की आवश्यकताओं के अनुसार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा विशेषज्ञों द्वारा की गई जाँच को देखते हुए दी जाती है। कालेज विकास, उच्च अध्ययन केंद्र, ग्रीष्मकालीन कक्षा जैसे विशेष कार्यक्रम विश्वविद्यालय अनुदान आयोग खुद ही विश्वविद्यालयों और कालेजों के विचार विमर्श से चलाता है। वार्षिक योजना के जरिए बजट बनाने का सामान्य तरीका विश्वविद्यालय अनुदान आयोग पर भी लागू होता है। परियोजनाओं को घटाने बढ़ाने की भी बड़ी जरूरत होती है क्योंकि कुछ परियोजनाओं की प्रगति अच्छी होती है और कुछ परियोजनाएँ निर्माण में कठिनाइयों के कारण या नए पदों के लिए उपयुक्त व्यक्ति न मिलने के कारण या ऐसे ही कारणों से, पिछड़ जाती हैं।
इस तरह के काम से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सचिवालय के अधिकारियों पर बहुत अधिक भार पड़ता है। विश्वविद्यालयों की कुछ कठिन समस्याओं को सुलझाने के लिए तदर्थ विशेष समितियाँ नियुक्त की जाती हैं। विश्वविद्यालयों और कालेजों के कार्यक्रमों को देखने जाने का और विशिष्ट प्रश्नों पर विचार विमर्श करने का प्रबंध करना होता है। विश्वविद्यालयो में जानेवाली समितियाँ नियुक्त की जाती हैं। विश्वविद्यालयों और कालेजों के कार्यक्रमों को देखने जाने का और विशिष्ट प्रश्नों पर विचार विमर्श करने का प्रबंध करना होता है। विश्वविद्यालयों में जानेवाली समितियाँ और अधिकारीगण रिपोर्ट देते हैं और इनकी राय पर आयोग कोई निर्णय करता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के विगत दस वर्षों के अस्तित्व में, उच्च शिक्षा स्तर के विकास के लिए किए गए कामों का प्रभाव भौतिक एव शैक्षिक रूप में प्रकट है स्नातकोत्तर और अनुसंधान स्तर पर उच्च शिक्षा क्षेत्र में बड़ी प्रगति हुई है और इस बात पर मतभेद नहीं हो सकता कि अब हमारे विश्वविद्यालय पहले की अपेक्षा ज्ञान के अधिक व्यापक क्षेत्र में कार्य करते हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कई समीक्षा समितियाँ पाठ्यक्रम विषयों की उन्नति पर राय देने के लिए नियुक्त की हैं। विश्वविद्यालय अब इन परामर्शों को कार्यान्वित कर रहे हैं और विश्वविद्यालयों एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की बातचीत के फलस्वरूप पाठ्यक्रम विषय की उन्नति का कार्यक्रम निरंतर जारी रहता है। इसका यह परिणाम हुआ है कि पाठ्यक्रम विषय दस वर्ष पहले की अपेक्षा गुण और विस्तार में अब बहुत ही बेहतर हो गए हैं।
एक विश्वविद्यालय से दूसरे विभाग में शिक्षास्तर में फर्क हो सकता है, लेकिन यह मानना होगा कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सहायता के फलस्वरूप जिस किसी विभाग में सुयोग्य और उचित संख्या में शिक्षक हैं और पुस्तकालय तथा प्रयोगशाला की समुचित व्यवस्था है वहाँ पिछले कुछ वर्षों में शिक्षास्तर ऊँचा उठा है। जिन नवसंस्थापित संस्थाओं में छात्रसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई है और उसी अनुपात में शिक्षक, प्रयोगशाला और अन्य सुविधाओं की वृद्धि नहीं हुई है उनमें शिक्षास्तर का नीचा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। फिर भी, किसी विकासोन्मुख समाज में शिक्षास्तर के उत्थान के लिए विश्वविद्यालयों के बीच अनुसंधान एवं प्रशिक्षण के सर्वोत्तम परिणाम के लिए स्वस्थ प्रतियोगिता का होना आवश्यक है। कई विषयों में, विशेषत: जिनमें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उच्च अध्ययन केंद्र स्थापित किए हैं, शिक्षा एवं अनुसंधान का वर्तमान स्तर विकसित देशों के विश्वविद्यालयों के सर्वोत्तम स्तर के बराबर है।
अनुसंधान और स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए विश्वविद्यालयों को दिए गए विकास अनुदानों के फलस्वरूप विज्ञान के स्नातकोत्तर स्तर पर छात्रनामांकन १९५०-१९५१ के ४००० के मुकाबिले १९६३-१९६४ में १७००० हो गया। यह वृद्धि चार गुना से भी अधिक है। विज्ञान में अनुसंधान के लिए छात्रनामांकन उसी अवधि में ७११ से बढ़कर २२५५ हो गया। इसी प्रकार मानवशास्त्र और सामाजिक विज्ञान में तिगुनी वृद्धि हुई है। फिर भी यह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को ज्ञात है कि विश्वविद्यालय शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में, खासकर स्नातकपूर्व क्षेत्र में शिक्षास्तर उठाने के लिए स्नातकोत्तर विभागों को सर्वप्रथम शक्तिशाली बनाना चाहिए क्योंकि इस प्रकार से प्रशिक्षित छात्र भविष्य की अर्थव्यवस्था की शक्ति हैं। राष्ट्रीय विकास के काम में ये आगे रहते हैं और विश्वविद्यालय तथा कालेजों में शिक्षक रूप में लौटकर उन्हें सशक्त करते हैं। इसलिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सहायता से विश्वविद्यालय की प्रयोगशालाओं और पुस्तकालयों का विकसित किया गया है। पिछले सात वर्षों में बहुत सारे विश्वविद्यालयों में विश्वविद्यालय पुस्तकालय स्थापित किए गए हैं और करीब १.५ करोड़ रुपए भवननिर्माण आदि पर तथा इतने ही रुपए अतिरिक्त पुस्तकों की खरीद के लिए खर्च किए गए हैं। इसी प्रकार का खर्च वर्तमान प्रयोगशालाओं के विकास पर और नई प्रयोगशालाएँ बनाने पर हुआ है। इतने अधिक छात्रों को, चाहे स्नातकपूर्व हों या स्नातकोत्तर, अध्ययन के लिए पुस्तकालयों में और प्रायोगिक एवं अनुसंधान कार्य के लिए प्रयोगशालाओं में मनोनुकूल वातावरण पाने का सुख अब तक कभी नहीं प्राप्त हुआ था। इसी तरह संबद्ध कालेजों को भी विकसित किया गया है और विगत पाँच वर्षों में इनमें २५१ छात्रावास, २६३ पुस्तकालय तथा प्रयोगशालाएँ, २०४ अनिवासी छात्रकेंद्र, ६५ हॉबी वर्कशाप, और ६०० पाठ्यपुस्तक पुस्तकालय स्थापित किए गए हैं। ७२३ कालेजों का त्रिवर्षीय डिग्री पाठ्यक्रम की सुविधाओं के विकास के लिए बड़े अनुदान दिए गए हैं और वेतनमान के सुधार के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा किए गए कामों से शिक्षकों को प्रसन्नता हुई हैं।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के विभिन्न कार्यों के लिए जो धन आयोग को मिल रहा है उससे अधिक मिलना चाहिए। राज्य भी इन कार्यों में शामिल हों, इसके लिए आयोग की यह आशा उचित ही होगी कि राज्य सरकारें इन कार्यक्रमों के खर्च में हिस्सा बँटाएँ क्योंकि प्रत्येक पाँच वर्ष के अंत में विश्वविद्यालयों और कालेजों के अनुरक्षण का दायित्व राज्य पर ही आ जाता है और विकास के आयोजन में योजना आयोग ने खयाल करके राज्य सरकारों के हिस्से में उच्च शिक्षा के विस्तार और विकास के लिए धन का प्रबंध किया है। उदाहरणार्थ, द्वितीय पंचवर्षीय योजना में जब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के हिस्से में २० करोड़ रुपए रखे गए थे तो राज्यों के हिस्स में २२ करोड़। तृतीय पंचवर्षीय योजना में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के हिस्से में ३७ करोड़ रुपए और राज्यों के हिस्से में ३८ करोड़ रखे गए। ऐसा प्रस्ताव है कि चतुर्थ योजना में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के हिस्से में ५८ करोड़ रुपए रखे जाएँगे और इससे कुछ अधिक राज्यों के हिस्से में ५८ करोड़ रुपए रखे जाएँगे और इससे कुछ अधिक राज्यों के हिस्से में। इस प्रकार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग शिक्षास्तरों का समन्वय करेगा और विश्वविद्यालयों की आवश्यकताओं को राज्य एव केंद्र सरकारों के समक्ष रखने में एक अच्छे दूत का काम करेगा।
विश्वविद्यालय-शिक्षा ज्ञान के अर्जन, संप्रेषण और प्रयोग के लिए है और किसी भी विकास के लिए विश्वविद्यालय के इन तीन मुख्य कामों में से प्रत्येक को सशक्त करने की जरूरत होती है। अनुसंधान से ज्ञान का अर्जन होता है, शिक्षण से ज्ञान का संप्रेषण और विश्वविद्यालय में प्रशिक्षित व्यक्तियों की नियुक्ति करनेवाली लोकसेवाओं में ज्ञान का प्रयोग। इस तरह, किसी भी समाज में खासकर अविकसित देशों में, जनता के आर्थिक और प्रगतिशील विकास का गढ़ विश्वविद्यालय ही है, और व्यावसायिक संस्था के रूप में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग परामर्श, शैक्षिक प्रेरणा, विचार विमर्श और विकास की निधियों के जरिए इस राष्ट्रीय उद्देश्य का समर्थन करता है। (के. एल. जोाश्ी)