विशिष्टाद्वैत वेदांत संप्रदाय में विशिष्टद्वैतवाद के सिद्धांत तो शंकर से पूर्व बोधायन, द्रमिड आदि आचार्यों द्वारा प्रतिपादित हो चुके थे। परंतु उनको तार्किक दृष्टि से पुष्ट करके एक सुनियोजित दार्शनिक संप्रदाय के रूप में प्रतिष्ठित करने का कार्य ग्याहरवीं शताब्दी में रामानुजाचार्य (दे. रामानुज) ने किया। तमिल प्रबंधों में सुरक्षित आलबार भक्तों की भक्ति को वेदांत की प्राचीन परंपरा से जोड़कर रामानुज ने वेदांत को वैष्णव बना दिया।
विशिष्टाद्वैतवाद के अनुसार प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ये तीन प्रमाण माने गए हैं। सविकल्प और निर्विकल्प प्रत्यक्ष का भेद मानकर भी रामानुज ने निर्विकल्प प्रत्यक्ष को भेदग्राही कहा। ज्ञान के विषय में भेदग्रहण होता ही है और वस्तु का ज्ञान विशेषण-विशिष्ट ही संभव है। निर्विशेष वस्तु कभी ज्ञात हो ही नहीं सकती। निर्विकल्प प्रत्यक्ष में जातिविशिष्ट वस्तु का ग्रहण होता है पर इस जाति का सामान्य रूप में ग्रहण सविकल्प प्रत्यक्ष में ही संभव है। अनुमान के लिए भी भेदग्रहण व्याप्ति ज्ञान में आवश्यक ही है। अत: ज्ञान सर्वदा भेदग्राही होता है - अभेद ज्ञान संभव ही नहीं है।
ज्ञान घटने बढ़ने का आश्रय होने के कारण द्रव्य तथा आत्मा का गुण होने के कारण गुण कहलाता है। द्रव्य जड़ और चेतन भेद से दो प्रकार के होते हैं पर ज्ञान दोनों से विलक्षण एक अजड़ द्रव्य है। बिना किसी सहायक के ज्ञान स्वयं को और वस्तुओं को प्रकाशित करता है अत: जड़ नहीं है, पर आत्मा की तरह इसमें स्वयं को जानने की शक्ति नहीं है अत: चेतन भी नहीं है। स्वयंप्रकाशक और स्वयंचेतना में भेद है। आत्म स्वयंचेतन और स्वयंप्रकाशक दोनों है। पर चेतन आत्म में ज्ञान विषय-विषयी-संबंध से ही संभव है। चेतनता आत्मा का आगंतुक गुण नहीं उसका अविभाज्य गुण है। पर आत्मा चेतनता से पृथक् है - शंकर की तरह रामानुज शुद्ध चेतनता और आत्मा में अभेद नहीं मानते। चेतनता सर्वदा विशिष्ट होती है क्योंकि इसमें ज्ञान रहता है और ज्ञान विषय और विषयी दोनों का अवगाहन करता है। यह चैतन्य आत्मा अणुरूप और नित्य है।
अभेद का ज्ञान भेद पर आधारित है - भेद के बिना अभेदप्रतीति नहीं हो सकती। इसलिए रामानुज शंकर के सकल भेदव्यावृत्त ब्रह्म को अस्वीकार करके भेदविशिष्ट अद्वैत ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं। परस्पर भिन्न, आश्रित विशेषणों में विशेष्य एकात्मकता स्थापित करता है - ब्रह्म विशेषणों से विशिष्ट एक विशेष्य है। यही ब्रह्म अंतर्यामी परमसत्ता है जिसके कारण आश्रित द्रव्य तथा जीवात्माएँ उसके शरीर में एकता को प्राप्त होती हैं।
विशिष्टाद्वैत में तीन तत्व माने गए हैं। तीनों तत्व सत् हैं पर चित् और अचित् तत्व ईश्वर तत्व पर आश्रित हैं। चित् और अचित् अपने आप द्रव्य हैं पर ईश्वर की दृष्टि से वे ईश्वर के गुण हैं। चित् और अचित् ईश्वर के शरीर हैं और ईश्वर उनकी आत्मा है। प्रकृति और जीवात्माओं की आत्मा ही ईश्वर या ब्रह्म है। अत: ब्रह्म शरीरी और सगुण है - निर्गुण ब्रह्म कल्पनामात्र है। जीवात्माएँ ब्रह्म के अंश हैं, ब्रह्म अंशी है।
ईश्वर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है - यह सजातीय और विजातीय भेदों से रहित है परंतु इसमें स्वगत भेद वर्तमान है। अतएव जड़ और चित् रूप विश्व उसी एक ब्रह्म से उत्पन्न है - वही इसका उपादान और निमित्त कारण है। वह विश्वातीत भी है क्योंकि विश्व का नियमनकर्ता है। अनंत सद्गुणों से युक्त ईश्वर अपनी सहचरी लक्ष्मी के साथ वैकुंठधाम में निवास करता है।
जीव ब्रह्म के साथ अपना संबंध नहीं जानता अत: वह अपने को स्वतंत्र समझकर कर्म करता है और उनके बंधन में पड़कर दु:ख भोगता है। वेदांत वाक्यों का श्रवण करके उसके मन में मुक्ति की अभिलाषा जागती है। मुक्ति का प्रथम सोपान है कामनारहित होकर कर्म करना जिससे कर्मबंधन न उत्पन्न हों। उसके बाद निदिध्यासन की अवस्था में अपने को सर्वतोभावेन ईश्वर में समर्पित कर देना इसे प्रपत्ति कहते हैं। यह प्रपत्ति मोक्ष का मार्ग है। जब ईश्वर प्रसन्न होकर भक्त के ऊपर अनुग्रह करते हैं तो भक्त को शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है - यह ज्ञान जीव और ब्रह्म के संबंध का होता है। इस ज्ञान को भक्ति कहते हैं। तदनंतर देहपातके बाद जीव ब्रह्म के शरीर का अंश होकर ब्रह्म के सान्निध्य सुख का अनुभव करता हुआ वैकुंठ में निवास करता है। इस प्रकार मोक्ष के लिए भगवद्भक्ति आवश्यक है - भक्ति ईश्वर के अनुग्रह पर अवलंबित है। जीवन्मुक्ति की कल्पना अस्वीकार्य है - देहबंधन से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है।
रामानुज कर्म को ज्ञान का आवश्यक सहकारी मानते हैं। यदि ज्ञानमात्र से मोक्ष मिलने लगे तो सभी वेदांत पढ़नेवाले मुक्त हो जाएं। माया या अज्ञान बंध का कारण नहीं है-कर्म से ही बंध होता है अत: उससे छुटकारा भी एक विशेष प्रकार के कर्म से ही संभव है। इसलिए रामानुज शंकर के ज्ञानमार्ग और मायावाद का खंडन करके उपासना मार्ग का प्रतिपादन करते हैं तथा मीमांसा और वेदांत को एक दूसरे का पूरक शास्त्र समझते हैं। ('रामानुज' तथा 'वेदांत')।
सं. ग्रं. - रामानुज : श्रीभाष्य; लोकाचार्य : तत्वत्रय, श्रीनिवासाचारी : द फिलासफी ऑव विशिष्टाद्वैत। (रामचंद्र पांडेय)