विल्सन अभ्रकोष्ठ का आविष्कार इंग्लैंड के सी. टी. आर. विल्सन (C. T. R. Wilson) ने सन् १९१२ में किया था। इस अभ्रकोष्ठ का न्यूक्लीय भौतिकी और अंतरिक्ष किरणों के अध्ययन में बहुत अधिक उपयोग होता है। इसकी सहायता से आवेशित कणिकाओं का संसूचन (detection) होता है। अन्य संसूचकों (detectors) की अपेक्षा अभ्रकोष्ठ से ज्यादा सूचनाएँ प्राप्त होती हैं, क्योंकि इसमें आवेशित कणिका का पूरा मार्ग (track) दिखाई देता है। एक प्रकार से यह कहा जाता है कि अभ्रकोष्ठ में पूरी अभिक्रिया (reaction) दिखाई पड़ती है। इस अभ्रकोष्ठ की उपयोगिता इतनी अधिक है कि सन् १९२७ में विल्सन को इसके आविष्कार के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था।

विल्सन ने वाष्प के जमने से संबंधित जो प्रयोग किए, उनसे पता चला कि वाष्प के जमने के लिए धूल के कणों, या आवेशित कणों (आयनों), की उपस्थिति आवश्यक है। मान लीजिए किसी कोष्ठ में कोई ऐसी गैस भरी हुई है जो साधारण अवस्था में द्रव नहीं है, जैसे हवा या आर्गन (argon) और इस कोष्ठ में इतना वाष्प है कि हवा वाष्प से पूर्णतया संतृप्त है। अब यदि कोष्ठ को ठंढा किया जाए, तो हवा अतिसंतृप्त (supersaturated) को जाती है। प्रारंभ में हवा में धूल इत्यादि के कण होते है, इसलिए पानी की बूँदे जमने लगती हैं। तीन चार बार ऐसा ही करने से धूल के सभी कण पानी की बूँदों के साथ नीचे गिर पड़ते हैं और ऊपर की हवा पूर्णतया धूलरहित हो जाती है। अब यदि हवा को फिर ठंढा किया जाए, तब हवा वाष्प से अतिसंतृप्त हो जाती है। फिर भी बूँदे नहीं जमने पातीं, क्योंकि केंद्र का सर्वथा अभाव है। ऐसी स्थिति में हवा में यदि आयनन (ionisation) द्वारा आवेशित कणिकाएँ उत्पन्न कर दी जाएँ, तो उनपर ही पानी की बूँदें जमने लगती हैं। इसी सिद्धांत पर अभ्रकोष्ठ बना है। एक कोष्ठ में अतिसंतृप्तावस्था में कोई गैस भरी रहती है। जब कोई आवेशित कणिका इस कोष्ठ में जाती है, तब अपने मार्ग में गैस का आयनित करती जाती है। इन्हीं आयनों पर बूँदे जमने लगती हैं। प्रकाश पड़ने पर ये बूदें चमकती हैं और इस तरह आवेशित कणिका का मार्ग दिखलाई पड़ता है, जिसका छायाचित्र किया जा सकता है। विल्सन अभ्रकोष्ठ विभिन्न उद्देश्यों के लिए भिन्न भिन्न प्रकार से बनाए जाते हैं, परंतु मुख्य रूप से इसके दो प्रकार हैं :

(१)�� प्रसार अभ्रकोष्ठ (Expansion cloud chamber)

(२)�� विसार अभ्रकोष्ठ (Diffusion cloud chamber)

प्रसार अभ्रकोष्ठ में काँच का एक बेलनाकार बर्तन 'ब' (देखें चित्र) होता है, जिसके भीतर एक चल पिस्टन (piston) 'पी' होता है। इस बर्तन में हवा या आर्गन जैसी कोई गैस तथा पानी या ऐल्कोहॉलकी वाष्प का मिश्रण भरा रहता है। पानी या ऐल्कोहॉल साधारण ताप पर द्रव होते हैं, अत: इनकी वाष्प को सुविधा से संघनित किया जा सकता है। पिस्टन को अचानक बाहर की ओर खींचने से गैस फैल जाती है और उसका ताप घट जाता है। ताप घटने से गैस वाष्प से अतिसंतृप्त हो जाती है, परंतु धूल के कणों के अभाव में बूँदे जमने नहीं पातीं। कोष्ठ में जब कोई आवेशित कणिका प्रवेश करती हैं, तब आयन उत्पन्न होते हैं और उनपर बूँदे जमने लगती हैं। प्रकाश उद्गम 'प्र' तथा लेन्स 'ल' की सहायता से इन बूँदों को प्रकाशित किया जाता है तथा कैमरा 'क' की सहायता से इन बूँदों का छायाचित्र लिया जाता है। पिस्टन का ऊपरी भाग काले रंग का होता है, जिससे बूँदे काली पृष्ठभूमि पर चमकती हुई दिखाई देती है

साधारण विसार अभ्रकोष्ठ में एक बेलनाकार बरतन होता है, जिसकी पेदी बहुत ठंढी रखी जाती है तथा ऊपर का ताप अपेक्षाकृत अधिक रहता है। बरतन की दीवारों पर नमदा या सोख्ता लगा रहता है, जो ऐल्कोहॉल या पानी से तर रहता है। इससे ऐल्कोहॉल या पानी भाप बनता है और ठंढी पेंदी पर जमता है। पेंदी से कुछ ऊपर ऐसा स्थान होता है जहँ आयन के होने पर ही बूँदे जम सकती हैं अन्यथा नहीं। प्रकाश तथा कैमरा इत्यादि ऊपर की ही भाँति होते हैं।

जब बूँदे होती हैं, तब छायाचित्र अधिक स्पष्ट होता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि गैस फैलने के बाद शीघ्र ही छायाचित्र ले लिया जाए। आजकल स्वचालित अभ्रकोष्ठ में एक ही संकेत द्वारा पिस्टन बाहर खिंचता है, जिससे गैस फैलती है तथा क्षणिक प्रकाश उत्पन्न होता है और छायाचित्र उतर आता है। क्षणिक प्रकाश का लाभ यह है कि प्रकाश की गर्मी से गैस गर्म नहीं होने पाती, अत: बूँदों का पुन वाष्पीकरण नहीं होने पाता।

विल्सन अभ्रकोष्ठ द्वारा लिए गए चित्रों से यह भी पता चल सकता है कि आवेशित कण का द्रव्यमान कितना है। यदि आवेशित कण भारी हों, जैसे ऐल्फ़ा-कण (alpha particles), तो उनकी आयनन शक्ति हलके कणों (जैसे इल्केट्रॉन) की अपेक्षा अधिक होती है। अत: भारी कणों के मार्ग में अधिक आयन बनते हैं और इनका मार्ग प्रदर्शित करनेवाली रेखाएं चौड़ी बनती हैं। विल्सन अभ्रकाष्ठ को चुंबकीय क्षेत्र में रख दिया जाए, तो इस क्षेत्र के प्रभाव से आवेशित कणिकाओं का मार्ग वक्रीय हो जाता है। मार्ग की वक्रता की त्रिज्या (radius of curvature) ज्ञात करके कणिका का संवेग (momentum) निम्न सूत्र से ज्ञात हो सकता है :

p = H e r

यहाँ p कणिका का संवेग, H चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता, e कणिका पर आवेश तथा r मार्ग की वक्रता की त्रिज्या है।

आजकल गणित्र नियंत्रित (counter controlled) अभ्रकोष्ठ बनाए जाते हैं, जिनसे किसी विशेष दशा में विशेष कणिकाओं के ही चित्र लिए जाते हैं। इसके लिए अभ्रकोष्ठ के चतुर्दिक् गाइगर म्यूलर गणित्र (Geriger-Muller counter) लगा दिए जाते हैं। अम्रकोष्ठ स्वचालित होता है और उसके लिए संकेत इन गणित्रों से आता है। ऐसी व्यवस्था की जाती है कि कणिका के जिस गणित्र में प्रवेश करने की संभावना हो, उससे प्राप्त संकेत से ही अभ्रकोष्ठ चले। उदाहरण के लिए यदि ऐसे कणों का, जो अभ्रकोष्ठ में प्रवेश करके दूसरी और बाहर निकल जाते हैं, चित्र लेना है, तो अभ्रकोष्ठ के ऊपर और नीचे गणित्रों की पंक्तियाँ लगा दी जाती हैं। यदि कणिका अभ्रकोष्ठ में प्रवेश करने के बाद बाहर निकल जाती है, तो ऊपर और नीचे दोनों पंक्तियों के एक-एक गणित्र से संकेत मिलता है। इन दोनों संकेतों के सम्मिलन से ही यदि अभ्रकोष्ठ के चलने की व्यवस्था हो, तो केवल वे कणिकाएँ ही अंकित होंगी जो अभ्रकोष्ठ से पुन: बाहर निकल जाती हैं। इसके विपरीत कणिका यदि कक्ष में ही अवशोषित हो जाती हैं, तो निचली पंक्ति के गणित्रों से कोई संकेत नहीं मिलता और अभ्रकोष्ठ नहीं चलता।

विल्सन अभ्रकोष्ठ द्वारा अत्यंत महत्वपूर्ण आविष्कार हुए हैं। उदाहरण स्वरूप, पॉजिट्रॉन (Positron) तथा म्यू-मेसान (m-Meson), के आविष्कार अभ्रकोष्ठ द्वारा ही हुए हैं (देखें पॉजिट्रॉन तथा मैसॉन)। (धनवंत कािशेर गुप्त)