विराम - यह शब्द वि+रम्+घञ््ा से बना है और इसका मूल अर्थ है 'ठहराव', 'आराम' आदि। जिन सर्वसंमत च्ह्रोिं द्वारा, अर्थ की स्पष्टता के लिए वाक्य को भिन्न भिन्न भागों में बाँटते हैं, या पाठक को स्वरविन्यास (Intonation) या अर्थ के संकेत के लिए जिन्हें वाक्य के अंत में लगाते हैं, व्याकरण या रचनाशास्त्र में उन्हें 'विराम' कहते हैं। 'विराम' का ठीक अंग्रेजी समानार्थी 'स्टॉप' (Stop) हैं, किंतु प्रयोग में इस अर्थ में 'पंक्चुएशन' (Punctuation) शब्द मिलता है। 'पंक्चुएशन' का संबंध लैटिन शब्द (Punctum) शब्द से है, जिसका अर्थ 'बिंदु' (Point) है। इस प्रकार 'पंक्चुएशन' का यथार्थ अर्थ बिंदु रखना' या 'वाक्य में बिंदु रखना' है।

प्राय: लोग समझते हैं कि 'विराम' शब्द का इस अर्थ में प्रयोग आधुनिक है, और यह शब्द पंक्चुएशन' का अनुवाद है। किंतु तत्वत: ऐसी बात नहीं है। पाणिनि से भी बहुत पूर्व प्रातिशाख्यों एवं शिक्षाग्रंथों में विराम शब्द का प्रयोग इससे मिलते जुलते अर्थों में मिलता है। तैत्तरीय प्रातिशाख्य चार प्रकार का माना गया है : ऋग्विराम: पदविरामो विवृति विराम: समानपदविवृत्तिविरामस्त्रिमात्रो द्विमात्र एक मात्रोर्धमात्र इत्यानुपूर्व्येंण, अर्थात् ऋग्विराम, पदविराम, विवृतिविराम, समानपदविवृत्तिविराम, इन विरामों की मात्राएँ क्रमश: तीन, दो, एक तथा अर्ध मानी गई हैं। इनमें ऋग्विराम चरण या छंद के अंत के लिए अर्थात् आज के पूर्ण विराम जैसा है। 'ऋक्' का अर्थ है छंद, इसीलिए इस विराम को 'ऋग्विराम' कहा गया है। इसके लिए प्राय: एक या दो खड़ी पाई देने की परंपरा रही है। कभी कभी छोटा वृक्ष या फूल भी बनाते रहे हैं। 'पदविराम' दो शब्दों या पदों के बीच में आता है। पदों के बीच में आता है। पदों के बीच में होने के कारण ही इसका नाम 'पदविराम' है। वस्तुत: पदों के बीच कोई विरामचिह्न दिया नहीं जाता। इसका आशय मात्र यह है सामान्य भाषा में पदों के बीच विराम अथवा ध्वनि का अभाव होता है और उसे लगभग दो मात्रा (अर्थात् दीर्घ ई या दीर्घ ऊजितना) होना चाहिए। तीसरा विराम 'विवृतिविराम' भी शब्दों या पदों के बीच में ही आता है, किंतु ये विशेष प्रकार के शब्द या पद होते हैं। कभी कभी संस्कृत में ऐसा होता है कि शब्द के अंत में स्वर आता है और उसके बादवाले शब्द के प्रांरभ में भी स्वर। सामान्यत: ऐसी स्थिति में संधि हो जाती है। किंतु जब इनके बीच संधि नहीं होती, तो इन दोनों शब्दों के बीच का विराम अन्य प्रकार के सामान्य शब्दों या पदों के बीच के विराम अन्य प्रकार के सामान्य शब्दों या पदों के बीच के विराम से आधा अर्थात् केवल एक मात्रा (अर्थात् अ, इ जितना) का होता है। यही 'विवृतिविराम' है। 'हरी एतौ,' 'अहो इशा:' के बीच के विराम इसी वर्ग के हैं। 'विवृति', स्वरों की असंधि विवृति: स्वरयोरसंधि:-तैत्तिरीय प्रातिशाख्थ) का पारिभाषिक नाम है। इसी आधार पर इस विराम को इस नाम से अभिहित किया गया है। विवृति विराम के चार उपभेद भी किए गए हैं : (१) वत्सानुसृता (अर्थात् वह गाय, जिसका बछड़ा अनुसरण करे) जिसमें पहला स्वर ्ह्रस्व तथा दूसरा दीर्घ हो। स्पष्ट ही यह नाम बहुत काव्यात्मक है। ्ह्रस्व को बछड़ा तथा दीर्घ को गाय कहा गया है। इसे याज्ञवल्क्य शिक्षा में वत्सानुमृजिता कहा गया है। (२) वत्सानुसारिणी (अर्थात् गाय जो बछड़े का अनुसरण करे) इस विराम के पूर्व का स्वर दीर्घ तथा बाद का स्वर ्ह्रस्व होता है। यहाँ भी वे ही प्रतीक हैं। (३) पाकवती (यहाँ 'पाक' का अर्थ है 'बच्चा', इस प्रकार 'पाकवती' का अर्थ है 'बच्चोंवाली)-इसमें विराम के पहले और बाद में दोनों ही ओर ्ह्रस्व स्वर होते हैं। स्पष्ट ही यहाँ ्ह्रस्व स्वरों को 'बच्चा' कहा गया है। (४) पिपीलिका (अर्थात् छोटी लाल चींटी)-इसमें विराम के दोनों ओर दीर्घ स्वर होते हैं। चींटी बीच में पतली होती है और दोनों ओर मोटी। दोनों ओर के मोटे भाग को दीर्घ स्वर का प्रतीक मानकर यह नाम दिया गया है। इन चार विरामों को विवृति के चार भेद या चार विवृतियाँ भी माना गया है।

विवृतिविराम (या विवृति) के ये भेद मांडूकी, नारदीय तथा याज्ञवल्क्य शिक्षा आदि में मिलते हैं। ऊपर कहा जा चुका है कि विवृतिविराम एक मात्रा का होता है, किंतु इसके चारों भेदों की मात्रा समान नहीं है। इनमें प्रथम दो की मात्रा तो एक एक है, किंतु तीसरे की ३।४ मात्रा तथा चौथे की १।४ मात्रा। आश्चर्य होता है भारतीय मनीषियों के इस सूक्ष्म अध्ययन को देखकर। यदि स्वर उक्त प्रकार से आएँ तो विरामकाल सचमुच ही कुछ इसी प्रकार का होता है।

पहला विराम चरणांत या छंदांत का था, दूसरे और तीसरे दो पदों के बीच के थे। चौथा विराम शब्द या पद के भीतर का है। कभी कभी ऐसा होता है कि शब्द में दो स्वर पास पास आते हैं, किंतु उनकी संधि नहीं होती। जिस प्रकार दो पदों के बीच स्वरों की असंधि का नाम 'विवृति' है, उसी प्रकार एक ही पद में दो स्वरों में असंधि का नाम समानपदविवृत्ति है। ऐसे स्वरों के बीच के विराम को समानपदविवृति विराम कहा गया है। ऐसी स्थिति संस्कृत में बहुत कम आती थी, किंतु फिर भी कुछ उदाहरण तो मिल ही जाते हैं, जैसे प्रउगम्, तितड़:।

पाणिनि में भी 'विराम' शब्द (विरामोऽवसानम् १.४, ११०) आता है। यहाँ भी विराम का अर्थ लगभग वही है अर्थात् 'मौन' या ध्वनि का अभाव। काशिकाकार कहता है 'विरतिविंराम:' विरम्यते अनेन इति वा विराम:।

काशिकाकार ने उपर्युक्त विरामों से आगे बढ़कर भी विचार किया है। उनका कहना है कि शब्द की हर दो ध्वनियों के बीच थोड़ा सा विराम होता है अर्थात् हर दो व्यंजनों या स्वरव्यंजन के बीच। इसे वे आधी मात्रा के बराबर मानते हैं। आधी मात्रा आज की दृष्टि से उदासीन स्वर या ्ह्रस्वार्ध स्वर के बराबर मानी जा सकती है।

C भारत में लेखन के विरामचिह्नों का प्रयोग काफी प्राचीन काल से मिलता है। अशोक के अभिलेखों में-, ��तथा '।' प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार पूर्व प्रदेशीय चालुक्य अभिलेखों में। का प्रयोग मिलता है : अन्य प्राचीन अभिलेखों में

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यूरोप में यूनानियों तथा रोमनों में इसका प्रचार था। प्रसिद्ध लेखक दोनेतुस ने अपने 'आर्स ग्रामेतिका' (Ars Grammatica) में उच्च बिंदु (.)। 'कामा' के लिए, मध्यबिंदु (.)। कोलन के लिए तथा निम्नबिंदु (.) पूर्ण विराम के लिए दिया है। धीरे धीरे इससे वर्तमान चिन्हों का विकास हुआ। मध्ययुग में इसके एकाधिक रूप मिलते हैं। यूरोप में १६वीं सदी से विराम का नियमित प्रयोग मिलने लगता है। आरंभ में इसका विरोध भी बहुत हुआ। द अनुंज़ियो अपने को 'कामा' का शत्रु कहा करता था। बारतोली ने यह कहते हुए विरोध किया था कि मुद्रित पुस्तकों में विराम चिह्न पतिंगों की तरह हैं जो पाठक को बहुत खटकते हैं। किंतु इस प्रकार के विरोधों के बावजूद अपनी उपयोगिता के कारण विरामचिन्हों का प्रयोग बढ़ता ही गया और अब वे लेखन एवं मुद्रण के आवश्यक अंग बन गए हैं।

हिंदी में खड़ी पाई या पूर्ण विराम भारतीय परंपरा का है, जिसका प्राचीन नाम 'दंड' था। शेष चिन्ह अंग्रेजी के माध्यम से यूरोप से आए हैं। अधिकांश विरामचिह्न (. : , ;) मूलत: बिंदु पर आधारित हैं। लिखते समय रुकने पर कलम कागज पर रखने से बिंदु सहज ही बन जाता था। इस प्रकार पूर्ण विराम के रूप में अंग्रेजी आदि का बिंदु सहज ही पूर्ण विराम का द्योतक बन बैठा। कामा, पूर्ण विराम या बिंदु में ही नीचे की ओर एक शोशा बढ़ा देने से बना है। प्रश्नवाचक या आश्चर्यसूचक चिह्नों का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ है। इसकी उत्पत्ति के बारे में मतभेद है। मेरे विचार में प्रश्नवाचक चिह्नश् लैटिन भाषा के प्रश्नार्थी शब्द Quaestio का संक्षिप्त रूप (Qo) है, जिसमें (Q) ऊपर तथा o नीचे (?) है। इसी प्रकार आश्चर्यसूचक चिह्न (!) लैटिन भाषा का प्रसन्नार्थी शब्द Io है जिसमें आइ और ओ ऊपर नीचे हैं। (भोलानाथ तिवारी)