विरंजनचूर्ण को ब्लीचिंग पाउडर भी कहते हैं। यह चूने का क्लोराइड होता है और देखने में चूने की तरह सफेद होता है पर इसमें क्लोरीन की गंध होती है। इसका निर्माण सर्वप्रथम ग्लैसगो के चार्ल्स टेनैंट ने सन् १७९९ में किया था।
विरंजन चूर्ण स्थायी नहीं होता। समय बीतने के साथ साथ इसमें क्लोरीन की मात्रा कम होती जाती है, जिससे इसके विरंजन गुण का ्ह्रास होता जाता है। व्यापारिक विरंजन चूर्ण में विरंजन की दृष्टि से पर्याप्त मात्रा में निष्क्रिय पदार्थ मिले रहते हैं। उच्च ताप पर यह विघटित हो जाता है। वायु की आर्द्रता और कार्बन डाइऑक्साइड से भी इसका विघटन धीरे धीरे होता है।
विरंजनचूर्ण का निर्माण चूने और क्लोरीन से होता है। बुझे चूने पर क्लोरीन की क्रिया से यह बनता है। चूने के दो से तीन इंच गहरे स्तर पर क्लोरीन गैस प्रवाहित की जाती है। चूने का यह स्तर १० से लेकर २० फुट चौड़े, १०० फुट लंबे और ६ से लेकर ७ फुट ऊँचे कक्ष में बना होता है और आवश्यकतानुसार समय समय पर स्तर को उलटते रहने की व्यवस्था रहती है। क्लोरीन का अवशोषण पहले तीव्रता से होता है पर पीछे मंद पड़ जाता है। कक्ष के स्थान में अब नलों का व्यवहार होता है, जिनमें ऊपर से चूना गिरता है और नीचे से क्लोरीन प्रविष्ट करता है और दोनों नलों के मध्य चूने द्वारा क्लोरीन के अवशोषण से तत्काल चूर्ण प्राप्त होता है।
विरंजनचूर्ण का सूत्र कैक्लो (औक्लो) [CaCl (OCl)] दिया गया है। इसमें कैल्सियम का एक बंध क्लोरीन से और दूसरा बंध हाइपोक्लोरस (OCl) मूलक से संबद्ध है। चूर्ण में कुछ असंयुक्त चूना भी मिला रहता है। अत: इसे संघटन का आभास कैक्लो. कै(औहा)२ [CaCl. (OCl). Ca (OH)2] सूत्र ने बहुत कुछ लगता है। चूर्ण का समस्त क्लोरीन विरंजन के लिए उपलब्ध नहीं होता। अधिक से अधिक ४०% क्लोरीन ही उपलब्ध होता है, पर सामान्य चूर्ण में उपलब्ध क्लोरीन की मात्रा सदा ही इससे कम रहती है और समय के बीतने के साथ घटती जाती है। विरंजन के लिए और कृमिनाशक रूप में इस चूर्ण का प्रयोग व्यापकता से होता है, पर चूर्ण के स्थान में अब अन्य कई पदार्थ, जैसे द्रव क्लोरीन, कैल्सियम हाइपोक्लोराइट, कै (औक्लो)२ २हा२औ [Ca(OCl)22H2O]. सोडियम क्लोराइट, सोक्लोऔ२ [NaClO2], जिनमें उपलब्ध क्लोरीन की मात्रा ब्लीचिंग पाउडर से कहीं अधिक है, अधिकाधिक उपयोग में आ रहे हैं। (सत्येंद्र वर्मा)