विमान एवं वैमानिकी उड़ने का विचार संभवत: उस समय से भी पहले का है जब मानव ने सर्वप्रथम विश्व का प्रेक्षण किया और उन्नति की संभावनाओं का अनुभव किया। भारतीय देवी देवताओं की आकाश में उड़ने संबंधी पौराणिक कथाएँ, डीडेलस (Daedalus) एवं आइकेरस (Icarus) संबंधी प्राचीन कथाएँ और घोड़े एवं गलीचों के उड़ने संबंधी पूर्व की प्राचीन कथाएँ ईसा से कई शताब्दियों पहले की हैं। यह स्वाभाविक था कि ये कहानियाँ मानव को प्रेरित करती रहें कि वह उड़ने के सतत प्रयास एवं प्रयोग में लगा रहे।

मानव के प्रारंभिक इतिहास से उड़ने संबंधी प्रयासों एवं प्रयोगों का पता चलता है। हवा से हलके यंत्र से उड़ने का सुझाव सर्वप्रथम द लेना (De Lana) ने १६७० ई. में प्रस्तुत किया। इन्होंने यह सुझाव दिया कि यदि पात्र पर्याप्त हलका हो और उसकी हवा निकाल दी जाए, तो यह हवा में उठ जाएगा। इसी समय ग्लाइडिंग के द्वारा समस्या को हल करने का अनुभव किया गया और इस दिशा में प्रयास और पल्लेदार डैनों (flapping wings) संबंधी प्रयोग चलते रहे। प्रसिद्ध अंग्रेज गणितज्ञ सर जार्ज केले (Sir George Caylay, १७७३-१८५७ ई.) ने अपना ध्यान उड़ने की समस्या को हल करने में पूर्ण तत्परता से लगाया। चलपक्ष विमान, या ऑर्निथॉप्टर (Ornithopter), अर्थात् मानव की पेशीय शक्ति से पल्लेदार डैनों द्वारा उड़ने के विचार, को इन्होंने पूर्णत: अस्वीकृत कर दिया और वस्तुत: यह सुझाव दिया कि समस्या का हल विस्फोटन इंजन से निकलेगा। १८०९ ई. में ऐसा सुझाव देना ईश्वरीय प्रतिभा की अपूर्व अभिव्यक्ति थी।

१७७६ ई. में हेनरी कैवेंडिश ने खोज निकाला कि हाइड्रोजन हवा से हल्की होती है। इस संबंध में अनेक प्रयोग शुरू हुए। ऐसे प्रयोगों में एक उल्लेखनीय प्रयोग इतालवी भौतिकविद् टाइबीरियस कवालो (Tiberius Cavallo) का था। इसमें इन्होंने साबुन के बुलबुले में हाइड्रोजन भरकर उड़ाया था। पीछे हाइड्रोजन से भरे गुब्बारे उड़ाए गए। इसी के आधार पर इच्छानुसार उड़नेवाला एक वायुपोत काउंट ज़ेपेलिन ने १९०० ई. में बनाया।

१७८३ ई. में मॉण्ट्गॉलफिअर (Montogolfier) ने गुब्बारे को उड़ाया। उसी वर्ष पिलेट्री ड रोजियर (Pilatre de Rozier) भी गुब्बारे में उड़े। आगामी वर्ष एडन्बर्ग में टाइटलर (Tytler) हाइड्रोजन से भरे गुब्बारे में उड़े। ये पहले व्यक्ति थे, जो ब्रिटिश भूमि पर हवा में उड़े थे।

आधुनिक युग की यह विशेषता है कि सन् १८६१ में लीलिएंटाल (Lillienthal) बंधुओं ने पक्षियों के डैनों सरीखे डैने बनाकर, उड़ने का प्रयोग रात में उपहास से बचने के लिए किया, पर शीघ्र ही ऑटो लीलाएण्टाल ने अनुभव किया कि इसके लिए शांत वैज्ञानिक अन्वेषण आवश्यक है। ग्लाइडरों से इन्होंने प्रयोग किए और इस प्रकार वैमानिकी के वास्तविक प्रवर्तकों में स्थान प्राप्त किया। लेओनार्डो डा विंचि (Leonardo da Vinchi), जो आधुनिक यांत्रिकी युग के जनक हैं, उन सभी यंत्रों को प्रयोग में लाए जो उस समय तक ज्ञात थे। यद्यपि इन्होंने पहले पहल वायु पेंच (air screw) का सुझाव दिया पर उत्थापन सतह से वायु पेंच के साहचर्य से मानवपेशीय शक्ति मानव को पृथ्वी से ऊपर कभी नहीं उठा सकेगी इसको अनुभव करने में ये असफल रहे।

स्वाभिकल्पी विमानों में अनेक उड़ान भरने के पश्चात् ऑटो लीलिएंटाल का १८९६ ई. में दुर्घटना से देहांत हो गया, पर इंग्लैंड में पिल्चर (Pilchur) तथा अमरीका में शानूट (Chanute) ने कार्य चालू रखा। यद्यपि ऑटो लीलिएंटाल की मृत्यु ग्लाइड करते समय हो गई, पर इन तीनों के प्रयासों ने स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया कि नियंत्रण में ग्लाइड करनेवाले विमान का बनना संभव है। १८६८ ई. में इंग्लैंड में स्ट्रिंगफेलो ने ऊर्ध्वाधर नोदकों से युक्त भापचालित सफल विमान बनाया, जो हवाई पेंच (aerial screw) युक्त वायुयान था और ऊँची चाल प्राप्त कर सकता था।

सन् १८९० से लेकर सन् १९०८ के बीच, फ्रांसीसी एडर तथा अमरीकी राइट (Wright) बंधुओं ने वायु में उड़ान की कला में महत्वपूर्ण योगदान किया। विलबर (Wilbur) तथा आरविल (Orville) बंधुओं ने द्वितलीय (biplane) ग्लाइडर बनाया और ऐसे यंत्रों का हवा में कैसे निंयत्रण किया जा सकता है, यह जानने के लिए व्यवस्थित रूप से कार्य करना आरंभ किया। १९०१-१९०२ ई. में राइट बंधुओं ने वात सुरंग का निर्माण किया, जिसमें हवा का झोंका नोदक की सहायता से उत्पन्न किया जाता था। इस प्रकार वे हवा से भारी विमानों को हवा में निंयत्रित करनेवाली तथा स्थिरता को बनाए रखनेवाली आवश्यक दशाओं को पूर्णत: समझने में सफल हुए। अब उनके लिए केवल अंतर्दहन मोटर (internal combustion motor) द्वारा चालित नोदक लगाना ही शेष रह गया था। १७ दिसंबर, १९०३ ई. को उड़ान करने में वे सफल हो गए। जनता की आँखों में पड़े बिना इस संबंध में निरंतर प्रगति होती रही। इन प्रयोगों के लिए एस. पी. लैंग्लि (S. P. Langley) तथा एच. मैक्सिम (H. Maxim) ने प्रचुर धन लगाया और बड़ा परिश्रम किया। अब ज्ञात हुआ है कि लैंग्लि की अंतिम मशीन वस्तुत: उड़ने में समर्थ थी। १९०६ ई. में लैंग्लि का देहांत हो गया और १९१४ ई. में उनकी मशीन हवा में सफलतापूर्वक उड़ाई गई। १९०८ से १९१४ ई. तक वायुयान की तकनीकी प्रगति होती रही, यद्यपि गति मंद थी।

प्रथम विश्व महायुद्ध ने वैमानिकी (aviation) को प्रोत्साहन दिया तथा वायुयान का अभिकल्प इतनी तीव्रता से समुन्नत हुआ कि १९१९ ई. में सर जॉन ऐलकाक (Sir John Alcock) एवं सर ए. डब्ल्यू. ब्राउन (A. W. Brown) द्वितलीय (biplane) वायुयान में १,८९० मील की दूरी १६ घंटे में पूर्ण कर, न्यूफॉउंडलैंड से एटलांटिक महासागर पार कर, आयरलैंड गए। हवाई जहाज की तकनीक में क्रमश: उन्नति होने के कारण काल और आकाश का अंतर मिटता गया। अब व्यापारिक वैमानिकी व्यावहारिक रूप से संभव हो गई और इसके नियंत्रण के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून बनाए गए हैं।

१९२५ ई. में सर एलेन कॉबैम (Sir Alan Cobham) उड़कर केपटाउन गए और आगामी वर्ष वे वापस लौट गए। १९२६ ई. में वे उड़कर ऑस्ट्रेलिया गए और वापस लौटे। १९२७ ई. में चार्ल्स लिंडवर्ग (Charles Lindbergh) ने युगप्रवर्तक उड़ान की, ये मोनोप्लेन (monoplane) वायुयान में अकेले उड़कर, न्यूयार्क से ऐटलैंटिक महासागर पार कर पैरिस गए थे। १९२८ ई. में आस्ट्रेलियाई विमानचालक, कैप्टेन एच. जे. हिंकलर (H. J. Hinkler), ने इंग्लैंड (क्रॉयडन) से ऑस्ट्रेलिया (पोर्ट डारविन) के बीच की १,२००० मील दूरी उड़कर १६ दिन में पूर्ण की। १९३० ई. में विंग कमांडर, किंग्सफर्ड स्मिथ (Kingsford Smith), ने उपर्युक्त उड़ान १० दिन में पूर्ण की।

१९३० ई. के मई महीने में इंग्लैंड से भारत की अकेली उड़ान (solo flight) का नया कीर्तिमान कुमारी एमी जॉन्सन ने स्थापित किया। ये ६ दिन में कराची पहुंची। १९२९ ई. में भारत और इंग्लैंड के बीच नियमित डाक सेवा प्रारंभ हुई और यूरोप में हवाई कंपनियों का जाल फैल गया। इस बीच में सदर्न क्रॉस (Southern Cross) नामक तीन इंजन वाले मोनोप्लेन से चार कर्मियों (crews) सहित किंग्सफर्ड स्मिथ द्वारा प्रशांत महासागर पार किया गया। १९२६ ई. में संयुक्त राज्य, अमरीका, की नौसेना के ऐडमिरल बर्ड (Byrd) विमानचालक बेनेट के साथ ऐम्स्टर्डैम द्वीप से उड़कर उत्तरी ध्रुव पर गए और वहाँ से लौटे। अन्वेषक ह्यूबर्ट विल्किन्स (Hubert Wilkins) ने अलैस्का से स्पिट्स्बर्गेन (Spitsbergen) के मध्य की २,००० मील की दूरी को पार किया।

ऊँची चाल और उड़ान के लिए १९१३ ई. में श्लेइडर ट्रॉफी के लिए अंतरराष्ट्रीय विमान प्रतियोगिता समय समय पर चल रही थी, पर १९३२ ई. से यह बंद हो गई है।

१९३० से १९३४ ई. तक ऑस्ट्रेलिया के लिए अनेक महत्वपूर्ण उड़ानें की गई। सर मैकफर्सन (Sir Macpherson) द्वारा प्रदत्त ट्रॉफी के लिए होनेवाली, इंग्लैंड टु मेलबर्न अंतरराष्ट्रीय हवाई दौड़ (International Air Race) में सी. डब्ल्यू. ए. स्कॉट (C. W. A. Scott) एवं टी. कैंपबेल (T. Campbell) ने, दौड़ के लिए विशेष रूप से बनी डी. एच. 'कामेट' मशीन द्वारा विजय प्राप्त की, जिसके परिणामस्वरूप बाद के वर्षों में उड़ान का समय घटकर २ दिन २२ घंटा ५४ मिनट १८ सेकंड हो गया। १९३२ ई. में क्रॉयडन से केपटाउन के लिए प्रारंभ की गई नियमित उड़ान की अनुवर्ती व्यक्तिगत उड़ानें जे. ए. मॉलिसन (J. A. Mollison) तथा उनकी पत्नी ऐमी जॉन्सन (Amy Johnson) और दो फ्रांसीसी उड़ाके कूलेती (Coulette) एवं सैलील (Salel) द्वारा की गईं।

अन्य महत्वपूर्ण उड़ानें निम्नलिखित थीं : १९३० ई. में संयुक्त राज्य, अमरीका, के पोस्ट (Post) एवं ऑस्ट्रेलिया के गैटी (Gatty) द्वारा नौ दिन में की गई विश्वपरिक्रमा; १९३३ ई. में फेरीय मोनोप्लेन द्वारा २ दिन, ९ घंटा २५ मिनट में बिना रुके, क्रैनवेल से वाल्विस बे (Walvis bay) तक ५३०९ मील लंबी प्रथम उड़ान; ब्लेरिऑट (Bleriot) मोनोप्लेन में कोड्स (Codes) और रोजी (Rossi) द्वारा २ दिन ६ घंटा ४४ मिनट में न्यूयॉर्क से सिरिया तक की ५६५, मील लंबी उड़ान। १९३५ ई. में संयुक्त राज्य, अमरीका, के कैप्टन स्टीवेंस (Stevens) और ऐंडर्सन (Aderson) समतापमंडल (Stratosphere) गुब्बारे में ७४,००० फुट (लगभग १४ मील) की ऊँचाई तक गए, पर रॉयल एअर फोर्स के फ्लाइट लेफ्टिनेंट एम. जे. ऐडम (M. J. Adam) वायुयान द्वारा ५३,९३७ फुट (लगभग १० मील) की अधिकतम ऊँचाई तक गए।

१९३७ ई. में क्लाउस्टन (Clouston) और श्रीमति किर्बी ग्रीन (Mrs Kirby Green) ने इंग्लैंड से केपटाउन की प्रत्येक दिशा में उड़ान का नया कीर्तिमान स्थापित किया। उत्तरी ध्रुव से होते हुए मॉस्को से कैलिफॉर्निया की ६,७०० मील लंबी उड़ान सोवियत संघ के विमान द्वारा बिना रुके की गई। कुमारी जीन बैटेन ने इंग्लैंड से ऑस्ट्रेलिया तक की एकाकी उड़ान का नया कीर्तिमान स्थापित किया। १९३८ ई. में फ्लाइंग अफसर, ए. ई. क्लाउस्टन (A. E. Clouston), का इंग्लैंड से उड़कर न्यूज़ीलैंड जाने और वहाँ से इंग्लैंड वापस आने में ११ दिन से कम लगे। विभागीय विमान (service machine) को एडिनबर्ग से लंदन आने में ४८ मिनट लगे। अप्रैल, १९३८ ई. में एच. एफ. ब्राडवेंट नामक ऑस्ट्रेलियाई उड़ाके को डारविन से लिंपन (Lympne) तक की उड़ान में ५ दिन ४ घंटा २१ मिनट लगे। इसके पूर्व सन् १९३७ में डारविन से क्रॉयडन तक उड़कर जाने का, आस्ट्रेलियाई महिला उड़ाका जीन बैटन (Jean Batten) का कीर्तिमान ५ दिन १८ घंटा १५ मिनट था। जुलाई, १९३८ में अमरीकी हॉवर्ड ह्यूज (Howard Hughes) ने विश्व की परिक्रमा चार दिन में की।

जर्मनी और इंग्लैंड दोनों देशों में वर्तमान शताब्दी के ४०वें वर्ष में ग्लाइड करना (gliding) विमानकी का महत्वपूर्ण अंग हो चुका था। १९३६ ई. में डिटमान (Dittman), एक यात्री सहित ८,८६० फुट की ऊँचाई तक गए, जबकि जुलाई, १९३८ ई. में जे. एफ. फॉक्स (J. F. Fox) नामक एक अंग्रेज ने डनस्टेबल (Dunstable) से नॉर्विच (Norwich) तक ९६ मील लंबी उड़ान की। १९३८ ई. में फ्लाइट लेफ्टिनेंट मरे (Murrary) और जे. एस. स्प्राउले (J. S. Sproule) २८ घंटे तक हवा में ठहरे रहे।

हवाई जहाज का उड़ना उसी सिद्धांत पर आधारित है जिस सिद्धांत पर पतंग उड़ते हैं। पतंग के चपटे पृष्ठ पर वायु के प्रवाह पड़ने पर यदि पतंग को ऊपर की ओर अल्पनत कर दिया जाए, तो वायुप्रवाह पतंगपृष्ठ को उठाता है। हवा में पक्ष प्रणोदित्र और पक्षों की मुड़ी सतह पर हवा के आपेक्षिक भार द्वारा हवा में से होकर खींचे या ढकेले जाते हैं। पक्ष के नीचे का दबाव उत्थापन का एकमात्र कारण नहीं है, अपितु पक्षों के ऊपरी धरातल पर अत्यधिक एवं विपरीत चूषण विद्यमान रहता है। पक्ष एक एअर फॉयल (air foil) है और प्राय: लकड़ी का बना होता है, जिस पर कपड़े का आवरण होता है। धातु और प्लास्टिक के पक्ष भी उपयोग में आ रहे हैं।

वायुयान के मुख्य अंग हैं : पक्ष या फलक (plane), एक या अनेक इंजन, वायु पेंच (air screw) या प्रणोदित्र (propeller), धड़ (fuselage) और रडर (rudder)। वायुयान का ढाँचा मुख्यत: हल्की मिश्रधातु (alloy), जैसे डूरैलूमिन (Duralumin), का बना होता है और पक्ष तंतुओं (fabric) या पतली धातु का बना होता है। पक्षों की काट अल्प वक्रकार होती है और ये क्षितिज के साथ न्यून कोण बनाते हुए स्थित होते हैं। अत: जब हवाई जहाज सरकता है, तब उत्थापन बल उत्पन्न होता है। हवाई जहाज के गतिशील होते ही उत्थापन बल यंत्र के भार के बराबर हो जाता है और विमान ऊपर उठता है। यदि उड़ान चाल अत्यधिक कम कर दी जाए, तो उत्थापन बल जहाज के भार से कम हो जाता है, जिससे जहाज अस्थिर हो जाता है। अस्थिरता को रोकने के लिए हवाई जहाज को अपेक्षाकृत कम वेग से उतारा जाता है। इस कार्य के लिए अनेक युक्तियाँ काम में लाई जाती हैं। ये युक्तियाँ पक्ष के प्रति हवा के प्रतिरोध को उचित ढंग से परिवर्तित कर उत्थापन बल को सुधार देती हैं। सीमित स्थान में सुगम अवतरण के लिए स्वघूर्णाक्ष (autogyro) एवं हेलिकॉप्टर किस्म के वायुयानों का आविष्कार हुआ है। दोनों किस्मों में ऊर्ध्वाधर अक्ष के चारों ओर घूमनेवाला क्षैतिज पिच्छ फलक (vanes) होता है। स्वघूर्णाक्ष किस्म में है तथा हेलीकॉप्टर में सीधे इंजन द्वारा प्रेरक ऊर्जा (motive energy) घूर्णन को प्रभावित करती है। स्वघूर्णाक्ष विमान मंद गति से उड़ सकते हैं, पर हेलीकॉप्टर व्यवहारत: मँडरानेवाले होते हैं।

वायुयान की रचना का सामान्य सही ज्ञान होते हुए भी आधुनिक वायुयानों के अभिकल्प में बहुत भिन्नता होती है। विभिन्न किस्मों में मोनोप्लेन भी सम्मिलित है, जिसमें एक ही जोड़ा पक्ष होता है, द्विफलकीय या बहुफलकीय वायुयानों में अनेक पक्ष एक दूसरे के ऊपर रहते हैं। मोनोप्लेग का अभिकल्प इस प्रकार का हो सकता है कि पक्ष के प्रतिक्षेत्र को अधिक उत्थापन प्राप्त हो सके। कुछ आधुनिक बड़े मोनोप्लेन पर्याप्त मोटे पक्षों में बनाए जाते हैं, ताकि वे इंजन को भी रख सकें।

द्वि या बहुफलक विमान अधिक स्थायी होते हैं। ये एक ही भार के लिए संरचनात्मक दृष्टि से बहुत दृढ़ होते हैं और इनके पक्षों को कम पाट (span) की आवश्यकता होती है। विमान का स्थायित्व पिछले तल पर ही अधिक निर्भर करता है, जो विमान के उपनिवान (pitching) का प्रतिरोध करता है। जमीन पर उतरने या जमीन से ऊपर उठने के लिए विमान के निचले तल पर पहिए होते हैं। कुछ आधुनिक विमानों में उड़ते समय अवतरण गियर (landing gear) छिप जाता है। समुद्र विमान (sea plane) या जलविमान (hydroplane) का अभिकल्प जल पर अवतरण के लिए किया जाता है, अत: इनमें दो या अधिक पौंटून (pontoon) होते हैं। पौंटूनों का अभिकल्प वायुगतिकीय होता है और वे पक्षों के उत्थापन में सहायक होते हैं। हरक्यूलिस विमान १९४६ ई. में बनकर तैयार हुआ, परिवहन में यह ७५० व्यक्तियों को तथा अस्पताल के रूप में ४०० रोगियों एवं परिचारकों को ढो सकता था। उड़न नौका का धड़ (fuselage) समुद्र विमान के धड़ से कुछ भिन्न होता है, क्योंकि समुद्र विमान का धड़ समुद्र में तैरने के योग्य बनाया जाता है।

स्वघूर्णाक्ष एक क्रांतिकारी अभिकल्प है और वैमानिकी के भविष्य में इसका महत्वपूर्ण योग है। इसमें पक्षों के स्थल पर एक घूर्णक होता है। विमान के प्रस्थान और अवतरण के समय ही शक्ति से यह चलाया जाता है। यह विमान को ऊर्ध्वाधर उठाता है और विमान के उड़ने के समय स्वयं ही परिभ्रमण करता है। आधुनिक प्रायोगिक स्वघूर्णाक्ष में विमान के चलते ही घूर्णाक्ष छिप जाता है। आधुनिक स्वघूर्णाक्ष लगभग ३० फुट की उड़ान पर ही स्वयं कार्य करने लग जाता है।

आजकल जो प्रयोग हो रहे हैं उनका उद्देश्य है : १. सीधी ऊर्ध्वाधर उड़ान भरना, २. मोटर शक्ति और अग्रचाल के बिना सीधे नियंत्रण के साधान को सक्षम करना और ३. स्वघूर्णाक्ष और मोटरकार के गुणों का समन्वय करना, ताकि वह राजमार्ग और वायुयात्रा में समान रूप से व्यवहृत हो सके। १९३८ ई. में केलट ऑटोजाइरो कोर (Kellet Autogyro Corps) द्वारा निर्मित सात सैनिक जाइरों (gyros) काम कर रहे थे। इन यंत्रों से यह मालूम हो गया कि नियमित विमानों की अपेक्षा इनकी देखरेख में नाममात्र का ही अधिक खर्च बैठता है। सेना की राय थी कि युद्ध में कुछ कार्यों के लिए स्वघूर्णाक्ष बेजोड़ हैं। इनमें जो सुधार हुए उनमें पुच्छ नियंत्रण, घूर्णक अक्ष के अनमन से प्रत्यक्ष नियंत्रण द्वारा स्थायी पक्ष, उच्चालक सहपक्ष (elevator ailerons) एवं रडर का निसरण सम्मिलित है। इंग्लैंड के हैफनर ने उत्केंद्र व्यवस्था (eccentric mechanism) से चालित परिवर्तनशील अंतराल प्रणोदित्र (pitch propeller) द्वारा अवनमन घूर्णक अक्ष (rotor aixs) में सुधार किया। फिलाडेल्फिया में निर्मित हेरिक वर्टाप्लेन (Herrick Vertaplane) मध्यम विस्तार का स्वघूर्णाक्ष है, जो सामान्य: द्विफलक विमान के रूप में उड़ता है। इसका ऊपरी पक्ष इस प्रकार आरोपित होता है कि वह अपनी टेक से निर्मुक्त हो सके और ऊर्ध्वाधर अक्ष में विद्युत् मोटर से चल सके। इस प्रकार ऊर्ध्वाधर वायुयान में विमान की उच्च दक्षता का स्वघूर्णाक्ष की मंद अवतरण विशेषता के साथ संयुक्त किया गया है।

हेलिकॉप्टर ऐसा हवाई जहाज है जो क्षैतिज नोदकों द्वारा ऊपर उठता और रुका रहता है। इससे आविष्कारकों का प्राचीन स्वप्न अंत में व्यावहारिक सिद्ध हो गया। जर्मनी के प्रोफेसर हाइनारिख फॉख (Heinrich Focke) द्वारा विकसित २०० अश्वशक्ति के वायुशीतित (air cooled) इंजन से युक्त हेलिकॉप्टर ने ९६ मील प्रति घंटा की चाल प्राप्त की और वह दो घंटे से अधिक हवा में रहा। यह ७,५०० फुट की ऊँचाई तक पहुंचा। हेलिकॉप्टर सीधे ऊपर उठता है, शक्ति के चालू या बंद रहने पर सीधे नीचे उतर आता है और पूर्णत: स्थिर रहकर हवा में मंडराता है। १९४२ ई. में वाउट सिकर स्काई (Vought Siker Sky) हेलिकॉप्टर [प्रायोगिक वीएस ३०० (VS 300) ] सैकड़ों उड़ानों में सीधे ऊपर उठा, (२) वायु में गतिहीन खड़ा रहा, (३) आगे पीछे तथा अगल बगल उड़ा और (४) सीधे नीचे उतरा। इगार सिकॉर्र्स्कि (Igor Sikorsky) ने जर्मनी के १९३७ ई. के कीर्तिमान को तोड़ने के लिए १३ मई, १९४१ ई. को उपर्युक्त मशीन पर उड़ान की और वे एक घंटा ३२ मिनट ३० सेकंड तक हवा में उड़े। १९४३ ई. में संयुक्त राज्य, अमरीका, की सरकार ने बड़े नगरों तथा उनके उपनगरों में डाक ले जाने के लिए हेलिकॉप्टर के उपयोग की योजना बनाई।

द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारंभ होने पर वायुयान विशेष उपयोगों (ऊँची चाल, अधिक ऊँचाई, सैनिक उपयोग, बड़े बड़े माल ढोने, अधिक सवारी ले जाने आदि) की दृष्टि से अभिकल्पित किए गए। वैमानिकी में फ्लाइंग फ्ली (Flaying Flea) का रोचक विकास हुआ। मिन्ये (Mignet) ने जो फ्लाइंग फ्ली की अभिकल्पना की, उसमें ग्लाइडर के गुणों को मोटर प्रणोदित वायुयान के साथ जोड़कर ऐसा विमान बनाया जो बहुत छोटा, कम शक्ति से चलनेवाला, सरलता से नियंत्रित होनेवाला और कम मूल्य का था। इस विमान में एक या दो घातक दुर्घटनाएँ हो गई, जिससे ऐसा विश्वास किया जाने लगा कि इसमें सुरक्षा का अभाव है। अत: इसका आगे का विकास निलंबित कर देना पड़ा।

एक दूसरे प्रकार का वायुयान मेओ कंपोज़िट एअरोप्लेन (Mayo composite aeroplane) है। इसमें पृष्ठ पर उच्च शक्ति वाले समुद्र विमान से युक्त बड़ी उड़ानवाली नौका रहती है। प्रारंभ में दोनों एक साथ बंधे रहते हैं। तीन या चार हजार फुट की ऊँचाई पर समुद्री विमान अपना मार्ग अकेले तय करने के लिए उड़न नौका से पृथक् कर दिया जाता है। इस तरीके से समुद्री विमान जलपर उतर जाता है।

१९४४ ई. के प्रारंभ में संयुक्त राज्य, अमरीका, की सेना ने विमान के रोमांचकारी विकास की घोषणा की। इस हवाई जहाज में नोदक नहीं होता। प्रसारित गैसों के विसर्जन बल (force of discharge) से यह चलता है। प्रारंभिक इंजन (starting engine) के द्वारा यान के अग्रभाग से अंदर खींची गई हवा पहले संपीडित की जाती है और तब दहन कक्ष में ठूँसकर भर दी जाती है, जहाँ यह जलते ईधंन से संयुक्त होकर अत्यधिक प्रसारित होती है। आरंभिक इंजन बंद कर दिया जाता है। प्रसारित गैसों के अल्पांश का उपयोग टरबाइन के द्वारा संपीडकों को चलाने के लिए किया जाता है, जबकि शेष गैसें विमान के पुच्छसिरे पर स्थित चंचु से विसर्जित हो जाती हैं। इस प्रकार शक्तिशाली प्रणोद, जो हवाई जहाज को आगे की ओर चलाता है, उत्पन्न होता है। अगस्त १९४५ ई. में संयुक्त राज्य, अमरीका, के युद्ध विभाग ने जेट प्रणोदित [लॉकहीड (Lockheed) पी. ८० (P. 80)] शूटिंग्स्टार (Shooting Star)] के विवरण प्रकाशित किए, तब क्लेरेंस एल. जॉन्सन (Clarence L. Johnson) के अभिकल्प पर बना विमान, ५५० मील प्रति घंटे से अधिक चालवाला होने के कारण, संसार का सर्वाधिक तीव्रगामी वायुयान था। इसमें ईधंन के लिए किरासन का उपयोग होता है। इसमें कंपन नहीं होता तथा यह अमरीका का सरलतम लड़ाकू विमान है, जिसका सुपर जेट इंजन जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी द्वारा बनाया गया है।

नवीनतम प्रचलित ऊरागैन (Ouragan) श्रेणी का जेट लड़ाकू विमान समुद्रतल पर ६०० मील प्रति घंटा की गति प्राप्त कर सकने तथा एक मिनट में ८०० फुट की ऊँचाई तक पहुंच सकने योग्य एकल सीट वाला मोनोप्लेन है। अपने अनेक सामरिकगुणों के कारण जेट लड़ाकू विमान रक्षा, वायुआक्रमण, जमीन पर आक्रमण एव अंतररोधक लड़ाकू विमान (intercepter) के रूप में अच्छा अभिकल्पित सैनिक विमान है। मोनोप्लेन की निम्नलिखित विशिष्टिताएँ हैं : पैतरायोग्यता (manoeuvrability), आरोहण की तीव्रता, फायर क्षमता (fire power), सहनशक्ति, अधिकतम चालन ऊँचाई (operating ceiling) तथा चाल। तोप से सज्जित, अपने पक्षों के नीचे राकेट एवं बमों को वहन करनेवाले ऊरागैन में दाबानुकूलित केबिन रहता है, जिसके कारण विमानचालक अधिक ऊँचाई पर विमान चला पाता है। जब विमानचालक वायुयुद्ध में व्यस्त रहता है, तब विमान का गोलीसह (bullet proof) अचल पर्दा, कवच बल और पिछला भाग (aft) विमानचालक को अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करते हैं। हवाई जहाज में निष्कास-आसन (ejector seat) होता है और परकनेवाली वितान (canopy) होती है, जहाँ से चीजें फेंकी जा सकती हैं। संकटकाल में यह जीवनरक्षा की युक्ति बन जाती है।

१९४६ ई. दाब बटन (push button) विमान का विकास हुआ। यह रेडियो नियंत्रित स्वचालित युक्ति से युक्त डग्लस (Dougles) ४ इंजनवाला सी-५४ (C-54) है। अत: पूर्ण उड़ान कर नियत स्थान पर पहुँचने के लिए विमानचालक को केवल नियत बटन दबाना पड़ता है। चालकरहित वायुयान के स्वचालित नियंत्रण की उपलब्धि उच्च स्तर तक पहुँच गई है। इसका नियंत्रण बेतारी संचार द्वारा आश्चर्यजनक सूक्ष्मता से होता है। विमान ऐसा बना है कि नियंत्रणकेंद्र पर अपने उड़ने के मार्ग को वह स्वयं अंकित करता है।

सर्वप्रथम बने प्रसिद्ध वायुयान

१४९० ई. में इटली के लेओनार्डो डा विंचि (Leonoardo da Vinchi) ने पक्षियों के डैनों के नमूने का उपयोग कर उड़नयंत्र (flying machine) का प्रथम अभिकल्प बनाया।

१८४२ ई. में इंग्लैंड के विलियम सैमुएल हेंसन (William Samuel Henson) ने भाप चालित वायुयान के अभिकल्प को पेटेंट कराया।

१८६८ ई. में मैथ्यू वोल्टन (Mathew Boulton) ने सहपक्षों (ailerons) के लिए ब्रिटिश पेटेंट प्राप्त किया।

१९०२ ई. में कैनाडा के डब्लू. आर. टर्नबुल (W. R. Turnbull) ने अंतराल नोदक (pitch propeller) का विकास किया।

१७ सितंबर, १९०३ ई. को ऑरविल राइट (Orville Wright) ने वायुयान की प्रथम उड़ान का विमानचालन किया। वे किटी हॉक, एन. सी. (Kitty Hawk, N. c.) पर १२० फुट तक उड़े।

१९०६ ई. में फ्रांस के ट्रेजैन बइआ (Trajan Vuia) ने तीन पहिएवाले अवतरण गियर और वातिल टायरों (Pneumatic tyres) से सज्जित प्रथम वायुयान बनाया।

१९१० ई. में फ्रांस के एदॉर्द न्यपार (Edouard Nieuport) ने प्रथम बार घिरे हुए धड़ (fuselage) से युक्त सुप्रवाही (streamlined) विमान बनाया और उड़ाया।

१९१० ई. में फ्रांस के हेनरी फाब्र (Henry Fabre) ने जलावतरण के लिए प्ल्व (float) से सज्जित प्रथम समुद्री विमान (seaplane) को उड़ाया।

१० सितंबर, १९१० ई. को ऑरविल राइट की आधिकारिक उड़ान में साथ उड़नेवाले प्रथम विमानयात्री लेफ्टिनेंट फ्रैंक पी. लाम (Lieut Frank P. Lahm) थे।

७ या ८ जून, १९१२ ई. को संयुक्त राज्य, अमरीका, की सेना के कैप्टन चार्ल्स चैडलर (Capto Charles Chandler) ने विमान पर लगी प्रथम मशीनगन का परीक्षण किया।

१९१३ ई. में सीटों पर सुरक्षा वेल्ट (safety belt) का उपयोग सामान्य हो गया।

१३ मई, १९१३ ई. को इगॉन सिकॉस्कि ने अपने द्वारा निर्मित चार इंजनवाले प्रथम विमान को उड़ाया।

१९१४ ई. में लॉरेंस स्पेरि (Lawrence Sperry) ने वायुयानों के लिए बने प्रथम घूर्णदर्शीय (gyroscopic) स्वचालित विमान के चालन का प्रदर्शन किया।

१९२३ ई. में विमानचालक रहित, रेडियो नियंत्रित वायुयान ने फ्रांस के ईटैंपीज (Etampes) हवाई अड्डे पर उड़ान भरी।

१९२६ ई. में संयुक्त राज्य, अमरीका, के ग्रोवर लोएनिंग (Grover Loening) ने प्रत्याकर्षणीय (retractable) अवतरण गियर युक्त द्वितलीय उभयचर विमान (biplane amphibian) का विकास किया।

१९२८ ई. में स्पेरि जाइरोस्कोप कंपनी (Sperry Gyroscope Company) द्वारा जाइरो होराइज़न (Gyro horizon) एअरक्राफ्ट उपकरण का विकास हुआ।

३० सितंबर, १९२९ ई. को जर्मनी के फ्रट्ज फॉन ओपेल (Fritz Von Opal) ने १ मिनट १५ सेकंड तक राकेट चालित (rocket powered) वायुयान उड़ाया।

१९३० ई. में इंग्लैंड के फ्रैंक ह्विटल (Frank Whittle) ने प्रथम जेट इंजन का अभिकल्प बनाया।

१९३६ ई. में लॉकी एअरक्राफ्ट कार्पोरेशन (Lockoee Aircraft Corporation) ने एक्स सी-३५ (Xc. 35) नामक वातानुकूलित केबिनयुक्त प्रथम विमान बनाया।

१६ फरवरी, १९३६ ई. को प्रथम डग्लस डीसी-३ (DC-3) स्लीपर (sleeper) वायुयान हवाई कंपनी सेवा में प्रविष्ट हुआ।

१९३७ ई. में त्रिचक्री (tricycle) अवतरण गियर सामान्य उपयोग में आया।

१९४७ ई. में अमरीकी वायुसेना के कैप्टन चार्ल्स यागर (Charles Yeager) द्वारा रॉकेट चालित वेल एक्स-१ में प्रथम पराध्वनिक (Supersonic) उड़ान (७६० मील प्रति घंटे से भी तेज) की गई।

२० नवंबर, १९५३ ई. को स्कॉट क्रॉसफील्ड (Scott Crossfield) ने डग्लस डी-५५८-२ स्काई रॉकेट में ध्वनि की चाल (१,३२७ मील प्रति घंटा) की दूनी चाल से प्रथम उड़ान की।

१९५४ ई. में प्रथम सार्वजनिक परीक्षण में पोगोस्टिक (Pogostick) नामक कॉनवेयर (Convair), एक्स एफ वाई-१ (X FY-1) सीधा ऊपर उठा और सीधा भूमि पर उतरा (landed tail)।

२९ अप्रैल, १९५५ ई. को मैकडोनल १५-१ (Mcdonnel XV-1) रूपांतरित वायुयान (conventional plane) की परीक्षण उड़ान के सिलसिले में हेलिकॉप्टर से परंपरागत वायुयान में प्रथम सफल रूपांतरण हुआ।

२ नवंबर, १९५५ ई. को संयुक्त राज्य, अमरीका, की नौसेना द्वारा विश्व के प्रथम जेट समुद्री विमान, मार्टिन एक्सपी-६ एम. सीमास्टर (Martin XP-6 M. Seamaster) का प्रदर्शन किया गया। (शा. ना. रा.)

वैमानिकी

श्वैमानिकी की प्रारंभिक कल्पना के मूल में मानव का यह चिरप्रेक्षित अनुभव था कि वायु के तीव्र दबाव के द्वारा एक समतल तल ऊपर की ओर स्वयमेव उठ जाता है। आँधी तूफान में पत्तों और झोपड़ी की छतों से लेकर पक्षियों के डैनों के वायु प्लवन में यह तथ्य स्पष्टत: परिलक्षित होता था। पक्षियों की उड़ान में उनकी अग्रगति में पवन प्रतिरोध का डैनों के संचालन द्वारा प्रतिकार होते हुए मनुष्य देखता रहा। इससे उसे डैनों के सहारे उड़ने और नोदक (propeller) के द्वारा वायु के झोंकों को काटने की प्रेरणा मिली। कालांतर में उड्डयन की यांत्रिकी को मानव ने बलों के संतुलन के नियमों की सहायता से निरूपित करने का प्रयत्न किया और डैनों, इंजन तथा नोदक एवं एक मानव के भार को वायु के उत्प्लावन (upthrust) द्वारा संतुलित करके वायुसंतरण की विधि आविष्कृत की।

उपर्युक्त सिद्धांतों के आधार पर विभिन्न प्रकार के शाक्तिशाली विमान इंजनों एवं मशीनों के निर्माण के प्रयास होते रहे। इस चेष्टाक्रम में सर्वप्रथम उल्लेखनीय इंजन की रूपरेखा का निर्माण हेंसन नामक यंत्रशास्त्री ने किया और उसे १८४२ ई. में पेटेंट कराया। इंजन के व्यावहारिक प्रतिरूप (model) स्ट्रिंगफेलो ने बनाए और उनका सफल प्रदर्शन पहली बार १८४८ ई. में और तदुपरांत १८६८ ई. में किया। इन प्रारूपों में डैनों की अधिकाधिक उपयोगी आकृतियों एवं आकारों का विकास करना ही प्रधान लक्ष्य रहा। कुछ ही वर्षों के अंदर वायुयान को अधिकाधिक उपयोगी आकृतियों एवं आकारों का विकास करना ही प्रधान लक्ष्य रहा। कुछ ही वर्षों के अंदर वायुयान को अधिकाधिक उत्थापन क्षमता (lifting power) प्रदान करने के लिए उसके डैनों को समतल बनाने के बजाय, उनके ऊपरी पृष्ठ को उत्तल और निचले पृष्ठ को अवतल रखा जाने लगा। इससे वायुयानों की उड़ान अपेक्षाकृत सुगम हो गई। सन् १८९६ में भाप चालित इंजन युक्त एक परीक्षण विमान ने वाशिंगटन के निकट पोटोमैक नदी के ऊपर लगभग डेढ़ मील तक की सफल उड़ान भरी। इससे अधिक सफलता के लिए चार्ल्स मैनली एवं लैंगले प्रभृति यंत्रशास्त्रियों ने इंजनों एवं यत्रों के स्वरूप में विकास करने के लिए अनेक प्रयत्न किए, किंतु वे सभी प्राय: निष्फल ही रहे।

इंजनों में कोई प्रभावकारी विकास कर सकने की असमर्थता ने उड्डयन यांत्रिकों का ध्यान इन वायुयानों की ओर से हटाकर ग्लाइडरों (gliders) की ओर फेर दिया, किंतु ग्लाइडरों की गतिविधि अत्यंत सीमित एवं अनुपयोगी होने के कारण, पुन: इंजनों के सुधार की दिशा में चेष्टाएँ प्रारंभ हुईं। अंत में बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में ही फ्रांस के राइट बंधुओं ने उड्डयन के क्षेत्र में क्रांतिकारी सफलता प्राप्त की। वायुयानों को उठाने के लिए उन्होंने क्षैतिज पतवारों (rudders) का प्रयोग किया, जिन्हें राइट बंधुओं ने तो वायुयान के अग्रभाग में ही संयुक्त किया था, किंतु आधुनिक विमानों में वे वायुयान के पुच्छ भाग में लगे होते हैं। इसके अतिरिक्त वायु में संतुलन बनाए रखने के हेतु, उन्होंने मुख्य यान के पृष्ठ कोर (rear edge) के झुकाव (flexing) की समुचित यांत्रिक व्यवस्था प्रदान की, ताकि वायु में संतुलन बनाए रखने के लिए एक या दोनों डैनों के उत्थापन (lift) में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सके।

दूसरी कालावधि (सन् १९०३) में नोदक (propeller) को चलाने के लिए इंजन में एक गैसोलीन मोटर का संयोजन किया गया। इससे वायुयानों की उड्डयन क्षमता में कई गुना वृद्धि हुई। सन् १९०५ और १९०८ में राइट बंधुओं में तथा १९०८ में ही हेनरी फारमैन ने परीक्षणात्मक उड़ानें भरीं और काफी देर तक और दूर तक सफलतापूर्वक वायुसंतरण करने के पश्चात्, वे सकुशल भूमि पर उतर आने में समर्थ हो से। इसी विकसित इंजन से संयुक्त वायुयान में नंवबर, सन् १९०९, में फारमैन ने प्रथम उल्लेखनीय नभयात्रा की। उन्होंने ४ घंटे १७ मिनट ५३ सेकेंड में लगभग श्मील की यात्रा संपन्न की। आधुनिक वैमानिकी का प्रारंभ इसी ऐतिहासिक उड़ान से माना जा सकता है। इसके अनंतर तो उन्नत उड्डयन कला का अत्यंत द्रुत गति से विकास होता गया और लगभग पाँच वर्षों की अवधि के पश्चात् ही, प्रथम विश्वयुद्ध में, वायुयानों का प्रथम व्यावहारिक उपयोग किया गया। इन वायुयानों में, हेनसन और स्ट्रिंगफेलो आदि के कौतुकी वायुयानों के बदले तीन लाख पाउंड और उससे भी वायुयानों का प्रयोग किया गया। इतना ही नहीं सैनिक परिवाहक, बमवर्षक आदि के रूप में भी भारी इंजनों से युक्त वायुयानों का प्रयोग किया गया। प्रथम विश्वयुद्ध में वस्तुत: वायुयान ही प्रधान निर्णायक तत्व रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होते न होते जेठ चालित युद्धक वायुयानों का भी निर्माण हो गया, जिनकी चाल ५०० मील प्रति घंटा या उससे भी अधिक थी। कुछ ही वर्षों बाद, बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में इन विमानों की चाल बढ़कर ध्वनिवेग को भी पार कर गई। आज तो अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए प्रयुक्त राकेटों का वेग लगभग अठारह सहस्र मील प्रति घंटा, अर्थात् ध्वनिवेग का पच्चीसनुमा या उससे भी अधिक होता है।

वैमानिकी का यांत्रिक सिद्धांत - वैमानिकी का मूल सिद्धांत तरल पदार्थ, जैसे द्रव या गैस में, ठोस पदार्थों के संतरण में निहित है। ठोस पदार्थ इस प्रकार के संतरण में अपने आयतन के बराबर तरल पदार्थ को विस्थापित करता है और जब इस विस्थापित तरल का भार उक्त ठोस के भार से अधिक होता है, तब ठोस पर तरल का उत्प्लावन या उत्क्षेप अधिक हो जाता है और ठोस ऊपर उठकर तरल पदार्थ की ऊपरी सतह की ओर चलने लगता है। यदि ठोस पदार्थ गतिमान होता है, तो उसकी गति में तरल पदार्थ के कारण प्रतिरोध उत्पन्न हो जाता है। इस प्रतिरोध का स्पष्टीकरण एवं मान ज्ञात करने के लिए अनेक भौतिकविदों, यथा न्यूटन (१६४२-१७२७ ई.), जोहैन बेर्नूली १६६७-१७४८ ई., जीन लॉ राण्डॅ डी एलेंबट (१७१७-८३ ई.) लेओन्हर्ड आयलर (१७०७-८३ ई.) तथा अन्य अनेक ने अपने अपने सिद्धांतों और सूत्रों का नियमन किया। इनकी सहायता से पवन के वेग और दबाव की विभिन्न स्थितियों में कोई वायुयान कितना भार लेकर कितनी ऊँचाई या दूरी तक उड़ान भर सकता है, इसका स्थूल अनुमान किया जा सकता है।

पवन सुरंगें (Wind Tunnels) - उपर्युक्त गणना एक जटिल प्रक्रिया तो है ही, साथ ही कुछ ऐसी अपरिहार्य समस्याएँ भी विमान की उड़ान के साथ उत्पन्न हो जाती हैं जिनका निदान विशुद्ध गणित की सहायता से नहीं किया जा सकता। उनका ज्ञान तो प्रत्यक्ष प्रयोगों और परीक्षणों द्वारा ही संभव हो सकता है। यदि वायुयान को किसी प्रकार उसी गैसीय परिवेश में रखा जाए जिसमें उसे सचमुच उड़ना है और तब उसमें उसके उड्डयन संबंधी लक्षणों का अध्ययन किया जाए, तो यह ज्ञात हो सकता है कि वह वायुयान कितना भार वहन कर सकता है। इस प्रकार के कृत्रिम पवनपरिवेश की सृष्टि के लिए पवन सुरंगों का सहारा लिया गया। इनमें एक सुरंग या कंठ (throsat) में से पवन के झोंके एक आधार (stand) पर रखे एक प्रतिरूप (model) पर प्रवाहित किए जाते हैं। वास्तविक वायुयान के हवा में उड़ने पर दोनों के बीच सापेक्ष गति की उत्पत्ति स्थिर यान पर पवन के झोंके प्रवाहित करके उत्पन्न की जाती है। इस विधि से उत्थापक (lift), कर्षण (drag) एवं संतुलन बल की गणना करने में सुविधा होती है। इतना ही नहीं, प्रतिरूप को आपाती पवन झोंकों की दिशा से विभिन्न कोण बनाते हुए रखा जाता है, जिससे वायुयान पर विभिन्न दिशाओं से पड़नेवाले पवन दबावों की भी गणना कर ली जाती है। पवन और वायुयानतल की दिशाओं के बीच बननेवाले कोण को हवाकाट कोण (angle of attack) कहते हैं।

वायुयान के किसी प्रस्तावित प्रतिरूप पर विभिन्न हवाकाट कोण पर पवन झोकों को आरोपित कर उत्थापन (L), कर्षण (D), घूर्ण (M) तथा दबाव केंद्र (C.P.) के मान ज्ञात कर लिए जाते हैं और उन्हें लेखाचित्र पर अंकित करके अभिलाक्षणिक वक्र (characteristic curves) प्राप्त कर लिए जाते हैं, फिर उन्हें वास्तविक वायुयान के विशाल आकार के लिए संशोधित किया जाता है। वैमानिकी की दृष्टि से अभिलाक्षणिक वक्रों का महत्व अप्रतिम है।

चित्र. वायु की धारा में एयरफॉयल पर कार्यकारी बल

क. कॉर्ड रेखा (Chord line), ख. हवाकाट कोण

(angle of attack), ग. वायु का वेग, घ. कर्षण

(drag), च. दाब का केंद्र तथा, छ. उत्थापक बल।

किसी दिए हुए हवाकाट कोण के लिए L.D. और M. के मान निम्नलिखित सूत्रों द्वारा व्यक्त किए जाते हैं :

������������� L=CL r/2 SV2

������������� D=CD r/2 SV2

������������� M=CM r/2 SV2

यहाँ r वायु का घनत्व, S डैनों का क्षेत्रफल, तथा V वायु और यान का सापेक्ष वेग है। C1, CD तथा CM क्रमश: उत्थापन, कर्षण और घूर्ण के वायुगतिक गुणांक हैं। इन्हें पृथक् प्रयोगों द्वारा ज्ञात किया जाता है, जिनसे पहले L, D और M के मान ज्ञातकर, अभिलाक्षणिक चक्र खींचे जाते हैं और इन वक्रों की प्रवणता (gradients) से उपर्युक्त स्थिरांकों की गणना की जाती है।

पवन सुरंगों में प्रतिरूप पर किए गए प्रयोगों द्वारा जो विवरण प्राप्त होते हैं, उन्हें सीधे वास्तविक या पूर्ण आकार के वायुयानों पर लागू नहीं किया जा सकता। इसका मुख्य कारण वायुयान के आकार की विशालता के कारण उत्पन्न कुछ विशिष्ट किंतु जटिल प्रक्रियाएँ, वास्तविक वायुयान पर पड़नेवाले पवन झोंकों की गति की पवन सुरंगों में उत्पन्न पवन झोंकों की अपेक्षा कई गुना अधिक गति इत्यादि, हैं। इनके अतिरिक्त वायुमंडल के विभिन्न स्तरों में उड़ने के कारण वायुयान को विभिन्न वायु घनत्वों में से होकर गुजरना पड़ता है। इस कारण कर्षण वक्र (drag curve) के रूप में परिवर्तन तथा अधिकतम एवं न्यूनतम उत्थापन (lift) गुणांकों आदि के मानों का निरूपण करना पड़ता है। इन सब संशोधनों के उपरांत पवन सुरंगों में आरोपित पवन झोंकों के मानों को वास्तविक वायुयान द्वारा वायुमंडल में झेले जानेवाले पवन झोंकों तक प्रवर्धित करके वास्तविक गुणांकों की गणना कर ली जाती है। ये मान स्थायी रूप से वास्तविक यानों के निर्देशक अंक होते हैं।

संपीडन प्रभाव - जब वायुयान का वेग ४०० मील प्रति घंटा या इससे अधिक होता है, तब पवन झोंकों के आघात से यह अपने संपर्क में आनेवाली वायुराशि के घनत्व में परिवर्तन कर देता है। इससे वायुयान पर पवन झोंकों के आघातों की तीव्रता में अत्यंत द्रुत गति से परिवर्तन होने लगता है। यह परिवर्तन वायुयान में दोलन गति का आविर्भाव करता है, जो उसके लिए संकट का कारण बन सकता है। इसके लिए पवन सुरंग प्रयोगों द्वारा प्राप्त मानों में एक संशोधक गुणांक से गुणा करना पड़ता है, जिसका मान यान के वेग और वायु में ध्वनि के वेग के अनुपात के बराबर होता है, अर्थात् संशोधन गुणांक=वायुयान का वेग/वायु में ध्वनि का वेग। जब वायुयान का वेग ध्वनि के वेग के बराबर हो जाता है, तब पवन प्रवाह की भौतिक दशाओं में इतना व्यापक परिवर्तन हो जाता है, तब पवन प्रवाह की भौतिक दशाओं में इतना व्यापक परिवर्तन हो जाता है कि उपर्युक्त सामान्य नियम उसके लिए लागू नहीं हो सकते। इस दशा के लिए अभी तक कोई संशोधनविधि आविष्कृत नहीं की जा सकी है।

अवतरण (landing) वेग - पृथ्वी पर उतरते समय वायुयान का वेग एक निम्नतम मान से कम नहीं होना चाहिए। यह वेग स्थूल रूप में लिखित सूत्र द्वारा व्यक्त किया जा सकता है :

Vmin=[{2/rCL max}W/S]

यहाँ W/S, अर्थात् भार और पक्षों के क्षेत्रफल का अनुपात 'पंख लदान' (Wing loading) कहलाता है। इस निम्नतम भार का मान अच्छे विमानों के कुशल अवरोहण के लिए यथासंभव कम होना चाहिए।

उपर्युक्त तत्वों के अतिरिक्त अच्छे वायुयान के सफल एवं कुशल चालन के लिए कतिपय अन्य लक्षणों का होना भी आवश्यक होता है। यथा:

(१)�� इंजन की शक्ति इतनी पर्याप्त होनी चाहिए कि यह वायुयान को नियत क्षैतिज गति से संतरित करने के साथ साथ उसके उत्थापन (lift) तथा आरोहण (climbing) के लिए भी वांछित शक्ति प्रदान कर सके तथा इनके लिए इंजन पर अतिरिक्त अधिभार न पड़े और न वायुयान की गति में ही कमी हो सके।

(२)�� इंजन की दक्षता, अर्थात् नियत मात्रा में ईधंन देने पर अधिकाधिक दूरी और ऊँचाई तक उड़ान की क्षमता, यथासंभव अधिक हो।

(३)�� वायुयान में स्थायित्व हो, अर्थात् पवन झोकों के वेग में अचानक परिवर्तन होने पर वायुयान शीघ्रातिशीघ्र संतुलन की दशा पुन: प्राप्त कर ले। इसके लिए अच्छे वायुयान में स्वचालित व्यवस्था होती है। (सुरेश चंद्र गौड़)