विनय पिटक विनय पिटक भिक्षुसंघ का संविधान है। भगवान् बुद्ध के प्रथम उपदेश के बाद ही ऋषिपत्तन मृगदाव (सारनाथ) में भिक्षुसंघ की स्थापना हुई। क्रमश: उसकी वृद्धि होती गई। प्रारंभिक संघ का शील संयम परिपूर्ण था। इसलिए बीस वर्ष तक संघ के लिए कोई नियम नहीं बना था। बाद में संघ की वृद्धि के साथ साथ कुछ असंयमी लोग भी उसमें प्रवेश करने लगे। इसलिए संघ की परिशुद्धि, संघटन और संचालन के लिए विनयनियम बनने लगे। समय समय पर आवश्यकतानुसार नियम बनते गए और उनका संग्रह विनय पिटक में किया गया है।
प्राचीन परंपरा के अनुसार विनय पिटक के तीन विभाग हैं- १. उभतोविभंग, २. खंधक, और ३. परिवार। उभतोविभंग सुत्तविभंग भी कहलाता है। इसके दो भाग हैं-भिक्खुविभंग और भिक्खुणीविभंग। अट्ठकथाओं में इस प्राचीन विभाजन का ही उल्लेख आया है।
अर्वाचीन परंपरा के अनुसार पाँच विभाग हैं-१. पाराजिकपालि, २. पाचित्तियपालि, ३. महावग्गपालि, ४. चुल्लवग्गपालि, और ५. परिवारपालि। पाराजिकपालि और पाचित्तियपालि उभतो विभंग के अंतर्गत हैं। महावग्गपालि और चुल्लवग्गपालि खंधक के अंतर्गत हैं। उभतोविभंग के अंतर्गत नियम निषेधात्मक हैं। उनके सात विभाजन हैं, जो सप्त आपत्ति स्कंध (सत्त आपत्तिक्खंधा) कहलाते हैं। आपत्ति का अर्थ है अपराध। ये विभाजन सात प्रकार के अपराधों को लेकर हुए हैं। सप्त आपत्तिस्कंध इस प्रकार हैं -१. पाराजिका धंमा, २. संघादिसेस धंमा, ३. अनियता धंमा, ४. निस्सग्गिया पाचित्तिया धंमा, ५. पाचित्तिया धंमा, ६. सेखिया धंमा, और ७. अधिकरणसमथा धंमा।
१.����� पाराजिक का अर्थ है पराजय का कारण। इनमें मैथुन आदि चार वस्तुएँ निर्दिष्ट हैं, जिनसे भिक्षु भिक्षुभाव को खो देता है, और संघ से उसका निष्कासन होता है।
२.����� संघभेद इत्यादि तेरह प्रकार के संघादिसेस हैं। इनमें से किसी आपत्ति को प्राप्त भिक्षु को छह दिन तक संघ से बाहर रहकर प्रायश्चित्त करना पड़ता है। फिर शुद्धि के बाद वह संघ में प्रवेश पा सकता है। इस प्रकार इस कर्म के आदि और अंत में संघ की आवश्यकता पड़ती है।
३.����� अनियत दो हैं। अनियत का अर्थ है अनिश्चित। दो अनिश्चित परिस्थितियों में विश्वसनीय साक्ष्य के अनुसार इन आपत्तियों का निर्णय होता है। दोनों स्त्रीप्रसंग को लेकर हैं।
४.����� निस्सग्गिय पाचित्तिय तीस हैं। ये सब चीवर और पात्र संबंधी हैं। जो विहित संख्या से अधिक पात्र और चीवर ग्रहण करता है, उसे उन्हें त्याग कर प्रायश्चित्त करना पड़ता है।
५.����� पाचित्तिय बानबे हैं। इनके अंतर्गत असत्यभाषण आदि किसी आपत्ति के होने पर प्रायश्चित्त के बाद संयम के लिए संकल्प करना पड़ता है।
६.����� सेखिया पचहत्तर हैं। ये नियम खाना पीना, उठना बैठना, चलना फिरना इत्यादि शिष्टाचार संबंधी बातों के विषय में हैं। इसलिए ये गौण दोष (लहुकापत्ति) कहलाते हैं।
७.����� अधिकरण समय सात हैं। इनमें सात प्रकार से विवादों का समाधान बताया गया है।
इस प्रकार ये नियम कुल २२७ हैं, जो विशेष रूप से भिक्षुसंघ को लागू हैं। इनमें से अधिकांश भिक्षुणीसंघ को भी लागू हैं। इनके अतिरिक्त भिक्षुणीसंघ के लिए आठ गुरुधर्म जैसे कुछ विशेष नियम भी हैं। भिक्षुणियों के लिए ८ पाराजिक, १७ संघादिसेस, ३० निस्सग्गिय, और १६६ पाचित्तिय हैं। उभतोविभंग में संपूर्ण इतिहास के साथ इन नियमों की विशद व्याख्या है। प्राचीनता और महत्व के कारण इस व्याख्या को मूल विनय का ही अंश माना गया है।
भिक्खु पातिमोक्ख और भिक्खुणी पातिमोक्ख में इन नियमों का अलग अलग संग्रह हुआ है। महीने में दो बार-पूर्णिमा और अमावस्या के दिन-संघ में इन नियमावलियों का पाठ होता था। यदि कोई सदस्य किसी अपराध का दोषी होता तो वह नियमानुसार दंड के अधीन होता। बौद्ध देशों में यह प्रथा अब भी प्रचलित है।
खंधक का पहला भाग महावग्ग है। इसके प्रारंभ ही में बुद्धत्व की प्राप्ति से लेकर राजगृह प्रवेश तक की भगवान बुद्ध की जीवनी आई है। इस वृत्तांत में सारनाथ में धर्मचक्र प्रवर्तन, पंचवर्गीयों, यश और भद्रवर्गीयों की प्र्व्राज्या, गयाशीर्ष में शिष्यमंडली सहित तीन जटिल भाइयों की प्र्व्राज्या और राजगृह में बिंबिसार नरेश की दीक्षा आदि बातों का उल्लेख आया है। फिर प्र्व्राज्या, उपसंपदा, गुरु शिष्य का संबंध, उनके कर्तव्य, उपोसक, वर्षांवास, प्रवारण आदि संस्कारों की विधि बताई गई है। चप्पल, चीतर, ओषधि इत्यादि वस्तुओं के उचित प्रयोग संबंधी नियम भी दिए गए हैं। अंतिम अध्यायों में दंडिविधान संबंधी कुछ बातों और कौशांबी के भिक्षुओं के विवाद का वर्णन आया है।
खंधक का दूसरा भाग चुल्लवग्ग है। इससे अनुचित कुलसंसर्ग के दोष, संघादिसेस आपत्ति को प्राप्त भिक्षु के लिए विहित 'मानत्त' नामक प्रायश्चित्त, विवादों की समाधानविधि, खाना पीना पहनना इत्यादि छोटी छोटी बातों में भी उचित और अनुचित का ध्यान, अनुरूप विहार, देवदत्त द्वारा संघभेद, भिक्षुणीसंघ की स्थापना आदि बातों का वर्णन है। अंतिम दो अध्यायों में प्रथम और द्वितीय संगीतियों का वर्णन है।
परिवारपालि में कोई नई बात नहीं है। इसमें प्रकरण सहित विनय नियमों को प्रश्नोत्तर के रूप में सरल विधि से समझाया गया है। यह विनय के विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर लंका के किसी आचार्य द्वारा रचित है।
इस विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि संघ की पारिशुद्धि, व्यवस्था और संचालन संबंधी नियमों को लेकर विनय पिटक का निर्माण हुआ है। प्रकारांतर से इसमें बुद्ध की जीवनी, संघ की स्थापना और धर्म के प्रचार संबंधी बातों का भी वर्णन आया है। इसलिए बुद्धशासन के लिए विनय पिटक का महत्व असाधारण है। साथ ही इससे बुद्धकालीन भारतीयों का सामाजिक अवस्था, नैतिक स्तर,रहन सहन आदि बातों पर भी प्रकाश पड़ता है। अत: विनय पिटक का ऐतिहासिक महत्व भी सुत्त पिटक से कम नहीं है।
थेरवादी विनय के अतिरिक्त विनय के और पाँच संस्करण चीनी में तथा एक आध तिब्बती में उपलब्ध हैं। वे इस प्रकार हैं : सर्वांस्तिवादी विनय, मूलसर्वास्तिवादी विनय, धर्मगुप्त विनय, महासंधिक विनय, महिंसासक विनय। विद्वानों ने अपने निबंधों द्वारा इनपर प्रकाश डाला है। गिलगिट से प्राप्त बौद्ध ग्रंथों में भी विनय का कुछ अंश है। इसका संपादन डा. नलिनाक्ष दत्त ने किया है। स्वर्गीय राहुल जी जिन ग्रंथों को तिब्बत से लाए थे, उनमें भी विनय के कुछ ग्रंथ हैं। उनका संपादन बिहार शोध प्रतिष्ठान द्वारा हो रहा है। (धर्मरत्न)