विद्युत् संभरण, वाणिज्य के दृष्टिकोण से (Electric Supply, Commercial Aspects) वाणिज्य के दृष्टिकोण से विद्युत् संभरण औद्योगिक विकास का महत्वपूर्ण साधन है। वस्तुत:, यह देश की औद्योगिक प्रगति का मापदंड है। आजकल विद्युत् मशीनें इतनी सामान्य हो गई हैं कि ऊर्जा संभरण के दूसरे रूप बहुत कम काम में आते हैं, विशेषतया, जब विद्युत् संभरण उपलब्ध हो। लगभग सभी उद्योगों में अधिकांश मशीनें विद्युत् मोटरों द्वारा चलाई जाती हैं। अधिकांश कारखानों में कोयला अथवा तेल को जलाकर ऊष्मा उत्पन्न कने के स्थान पर, विद्युत् द्वारा ऊष्मा प्राप्त करना उपयुक्त समझा जाता है। प्रकाश के लिए तो विद्युत् का प्रयोग लगभग सार्वत्रिक ही है। इन्हीं कारणों से विद्युत् की माँग दिनों दिन बढ़ती चली जा रही है और विद्युत् संभरण करनेवाला सगठन किसी भी देश का सबसे महत्वपूर्ण संगठन समझा जाता है।

उद्योग में विद्युत् संभरण तीन मुख्य प्रयोजनों के लिए होता है : यांत्रिक ऊर्जा के लिए, ऊष्मा के लिए, एवं प्रकाश के लिए। यांत्रिक ऊर्जा विद्युत् मोटरों द्वारा प्राप्त की जाती है। आजकल अधिकांश मशीनें विद्युत् मोटरों द्वारा ही चलाई जाती हैं। इसका मुख्य कारण विद्युत् मोटरों की सरल वनावट तथा सरल व्यवस्थापन एवं नियंत्रण (regulation) है। साथ ही विद्युत् मोटरें इतने विभिन्न रूपों में, इतनी विभिन्न आवश्यकताओं के लिए बनाई जा सकती है कि किसी भी प्रयोजन के लिए कोई न कोई उपयुक्त विद्युत् मोटर का, जो उस प्रयोजन को वांछनीय रूप में निष्पादित कर सके, चयन किया जा सकता है। इसी प्रकार ऊष्मा प्राप्त करने के लिए विद्युत् भट्ठियों का उपयोग श्रेयस्कर समझा जाता है, क्योंकि इनमें एकमान ऊष्मा प्राप्त कर सकना अधिक सुगम है और इन भट्ठियों का नियंत्रण सरलता से किया जा सकता है। प्रकाश के लिए विभिन्न प्रकार के विद्युत् लैप किसी भी स्थिति के लिए सबसे उपयुक्त होते हैं।

विद्युत् संभरण न केवल उद्योग की जीवन शक्ति है, वरन् इसके कारण बहुत से उद्योगों को प्रोत्साहन मिलता है। वस्तुत:, विद्युत्शक्ति की प्रचुर उपलब्धि ही, किसी स्थान के औद्योगिक विकास का सूचक है।

उद्योग में विद्युत् संभरण के दो महत्वपूर्ण साधन हैं : एक तो विद्युत् कंपनी और दूसरा विद्युत् को स्वयं ही जनित करना। यह, वस्तुत: एक आर्थिक समस्या है और किस स्थित में क्या करना अच्छा रहेगा, मुख्यत:, आर्थिक दृष्टिकोण पर ही निर्भर करता है। यदि विद्युत् कपनी द्वारा दिया गया संभरण विश्वसनीय तथा उचित दामों पर हो, तो बहुधा विद्युत् का स्वयं जनन करन के झंझट में पड़ना ठीक नहीं समझा जाता। पर बहुत से उद्योग ऐसे भी है जहाँ विद्युत् का स्वयं उत्पादन ही सस्ता पड़ता है, विशेषतया, यदि माँग कुछ विशेष रूप की हो और विद्युत् कंपनी उसे उचित प्रस्ताव पर स्वीकार न करे। ऐसी दशा में उद्योग के लिए विद्युत् को स्वयं जनित करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रह जाता। विद्युत् के स्वयं जनन करने में निवेश लागत लगानी पड़ती है, जिसका व्याज तथा मूल्य्ह्रास (depreciation) का भी ध्यान रखना आवश्यक है। साथ ही उसके लिए विशेष प्रविधिक ज्ञान की भी आवश्यकता होती है, जो छोटी इकाइयों के लिए मँहगा पड़ सकता है। विद्युत् कंपनी से विद्युत् शक्ति खरीदने में निवेश खर्च के साथ साथ और भी बहुत सी झंझटों से बच जाते हैं तथा सारा ध्यान मुख्य उत्पादन की और केंद्रित किया जा सकता है। अतएव समस्या के सभी दृष्टिकोणों को ध्यान में रखकर ही कुछ निर्णय किया जा सकता है।

विद्युत् की दर उसके उपयोग, आवश्यकता, अदायगी क्षमता, स्थिति तथा जन उपयोगिता के दृष्टिकोण पर निर्भर करती है। विभिन्न उपयोगों के लिए दरें विभिन्न होती हैं, जो उपयोग की प्रकृति पर निर्भर करती हैं। उदाहरणत:, उद्योग से निश्चित की जानेवाली दर इस बात पर निर्भर करती है कि वह इतनी अधिक न हो कि उद्योग स्वयं अपने ही बिजलीघर लगाने लग जाएँ। उद्योग द्वारा विद्युत् का स्वयं जनन करने का निश्चय, विद्युत् दर का मुख्य सीमाकारक है। घरेलू उपयोग के लिए दो बातें मुख्यत: ध्यान में रखनी होती हैं : एक तो उपभोक्ताओं की अदायगी क्षमता तथा दूसरा जन उपयोगिता का दृष्टिकोण। घरेलू उपयोग के भी मुख्यत: दो भाग हैं : प्रकाश एवं पंखे का भार और दूसरा शक्ति भार, जिसमें प्रशीतित्र (refrigerator), पंप (pump), वातानुकूलक (air conditioner), विद्युत् चूल्हे इत्यादि आते हैं। इन प्रयुक्तियों में अधिक शक्ति का उपयोग होने की संभावना होती है और इनके लिए विद्युत् का खर्च, सामान्यत:, कम रखा जाता है, नहीं तो इनका उपयोग बहुत कम हो जाएगा। विद्युत् कंपनियों को प्रकाश भार का संभरण करन के लिए जो जाइन इत्यादि बनानी पड़ती है, वही शक्ति भार के लिए भी उपयुक्त हो जाती है। इन भारों के होने से माँग बढ़ जाती है, जो अंतत: विद्युत् कंपनी के हित में होती है। विद्युत् के संभरण को लोकप्रिय बनाने के लिए, पहले उसकी माँग उत्पन्न करना आवश्यक है। प्रकाश एवं पंखे के लिए दरें मुख्यत: उपभोक्ताओं की अदायगी क्षमता पर निर्भर करती है और सामान्यत:, दूसरे उपयोगों की अपेक्षा ऊँची रहती हैं। वैसे प्रकाश भार की व्यवस्था करने के लिए वितरण तंत्र के रूप में विद्युत् कंपनी को अधिक निवेश खर्च भी करना पड़ता है। साधारणतया, ये भार लाइन क्षमता से बहुत कम होते हैं। साथ ही इन लाइनों का देखभाल के रूप में भी काफी खर्च होता है। अतएव प्रकाश भार की दरें कुछ ऊँची रखनी न्यायसंगत है।

तीसरी प्रकार के भार ऐसे होते हैं जो मुख्यत: जन उपयोगिता के दृष्टिकोण पर ही आधारित होते हैं जैसे जलकल आदि। यदि इनके लिए शक्ति की दर अधिक हो, तो उन्हें पानी की दर भी अधिक रखनी होगी, जो सामान्य जनता की पहुँच के बाहर हो सकती है। अत: ऐसे उपयोगों के लिए बिजली कंपनी न्यूनतम मूल्य पर विद्युत् दे देती है। इसी प्रकार स्कूल तथा अस्पतालों से भी कम मूल्य लिया जाता है।

विभिन्न दरों का अनुमान एक विद्युत् कंपनी के इन आँकड़ों से लगाया जा सकता है :

प्रकाश तथा पंखे ३७ पैसा प्रति यूनिट

घरेलू शक्ति भार १८ पैसा प्रति यूनिट

उद्योग ८ पैसा प्रति यूनिट

स्कूल तथा अस्पताल १२ पैसा प्रति यूनिट

जलकल ७ पैसा प्रति यूनिट

उद्योग में, साधारणतया, विद्युत् की दर केवल उपभोग की हुई शक्ति पर ही निर्भर नहीं करती। प्रतिष्ठापित शक्ति तथा अधिकतम माँग का ध्यान रखना भी आवश्यक है। यदि विद्युत् की दर केवल उपयोग की हुई शक्ति पर ही निर्भर करे, तो हो सकता है, उद्योग में बड़ी बड़ी मशीनें लगी हों, जिन्हें केवल कभी कभी ही चलाया जाए, परंतु वास्तविक उपयोग की जानेवाली शक्ति अधिक न हो। विश्वसनीय संभरण के लिए विद्युत् कंपनी को तो अपन संस्थापन क्षमता के अनुसार अधिकतम माँग की व्यवस्था करनी पड़ती है। उन्हें अपना स्वयं का संस्थापन और सज्जा इसी के अनुसार करनी होती है, जिसपर निवेश खर्च काफी आ सकता है, परंतु वास्तविक उपयोग होनेवाली शक्ति के अनुसार उन्हें मूल्य बहुत कम मिलता है। अत:, उद्योग से लिए जानेवाले मूल्य के दो मुख्य घटक होते हैं: एक तो स्थिर संस्थापन मूल्य और दूसरा वास्तविक उपयोग में आनेवाली ऊर्जा का मूल्य। इस प्रकार उद्योग के लिए टैरिफ (traiff) दो भागों में बनाया जाता है और उसे द्विभाग टैरिफ (Two Part Tariff) कहते हैं। इस टैरिफ का एक भाग तो स्थिर मूल्य (fixed costs) होता है, जो उद्योग की संस्थापन शक्ति अथवा अधिकतम माँग के ऊपर आधारित होता है, और दूसरा भाग प्रचालन लागत (operating costs) है, जो वास्तविक उपयोग में आनेवाली ऊर्जा पर आधारित होता है। अधिकतम माँग प्रदर्शित करने के लिए अधिकतम माँग सूचक (maximum demand indicator) प्रयुक्त किए जाते हैं, जो किसी निर्धारित समय में (सामान्यत: आधा घंटा) अधिकतम माँग प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार किसी भी महीने में उस संस्थापन की अधिकतम माँग ज्ञात की जा सकती है। इस प्रकार का टैरिफ रखने से, उद्योग अपनी अधिकतम माँग का कम करने का प्रयत्न करेगा और विभिन्न मशीनो का इस क्रम में चलाएगा जिससे अधिकतम माँग न बढ़ जाए। इस प्रकार शक्ति का उपभोग सम (equalize) होने की ओर उन्मुख होगा, जो विद्युत् कंपनी के हित में होता है।

विद्युत् संभरण की दूसरी समस्या उद्योगों के कम शक्तिगुणांक पर प्रचालन करने में आती हैं। यदि शक्ति कम हो, तो उसी शक्ति के लिए किसी निर्धारित वोल्टता पर अधिक धारा ली जाएगी। इसा तात्पर्य है कि अधिक धारा क्षमता की मशीनें तथा उससे संबद्ध सज्जा लगानी होगी, जिसका अर्थ है संस्थापन लागत में वृद्धि। इस प्रकार, शक्तिगुणांक के कम होने पर, उसी शक्ति के लिए संस्थापन लागत बढ़ जाती है। यह भी हो सकता है कि इतने कम शक्तिगुणांक का अनुमान न किया गया हो और सज्जा की धाराक्षमता, उतनी धारा वहन कर सकने योग्य न हो। इस प्रकार, कम शक्तिगुणांक विद्युत् संस्थापनों के लिए महत्वपूर्ण सीमाकारक हो जाता है। इसे प्राविधिक शब्दों में, शक्ति को दो घटकों में बाँटकर व्यक्त किया जाता है : शक्तिघटक, जो वस्तुत: उपयोग में लाई गई शक्ति को प्रदर्शित करता है, और वाटरहित घटक (wattiess component), अथवा प्रतिघाती किलो वोल्ट ऐंपीयर (reactive K.V.A.), जो व्यर्थ जानेवाली

शक्ति को प्रदर्शित करता है। इकाई शक्तिगुणांक पर सारी शक्ति वाट घटक के रूप में होती है और जैसे जैसे शक्तिगुणांक कम होता जाता है, वैसे वैसे प्रतिघाती कि. वो. ऐं. बढ़ते जाते हैं। अत:, विद्युत् कंपनी को ऊँचा शक्तिगुणांक रखना अनिवार्य हो जाता है। इसके लिए वह दो उपाय कर सकती है : पहला, स्वयं शक्तिगुणांक सुधारक का प्रयोग और दूसरा उद्योग को कम शक्तिगुणांक पर प्रचालन न करने देने के उपाय करना। इसके लिए विद्युत् संभरण की शर्तें ऐसी रखी जाती हैं कि उद्योग के लिए कम शक्ति गुणांक पर प्रचालन करना लाभदायक न हो। इसके लिए या तो बिजली कंपनियाँ कम शक्तिगुणांक पर एक अतिरिक्त कर लगा दें, अथवा ऊँचे शक्तिगुणांक के लिए दरों में कटौती कर दें। यह भी हो सकता है कि बिजली कंपनियाँ शक्ति का मापन ही किलोवाट के आधार पर न करके किलोवोल्ट ऐंपीयर के आधार पर करें। इस प्रकार, टैरिफ ऐसा बनाया जाता है कि उद्योग को निर्धारित से कम शक्तिगुणांक पर प्रचालन करने में हानि हो। अत: या तो उद्योग कम शक्तिगुणांकवाली सज्जा का उपयोग ही नहीं करेंगे, अथवा शक्तिगुणांक सुधार के लिए अलग सज्जा लगाएँगे। जहाँ बहुत से प्रेरण मोटर कार्यशील हों, वहाँ शक्तिगुणांक कम होने की संभावना होती है, विशेषतया यदि वे पूर्ण भार पर प्रचालन न करें। अतएव उद्योग की ओर से पहला प्रयत्न तो यह होगा कि सभी मोटर यथासंभव पूर्ण भार पर परिचलन करें (जिससे विद्युत् कंपनी को अव्यक्त रूप से लाभ होता है) तथा अन्य दूसरी मशीनों में प्रेरण मोटर को न प्रयुक्त कर उसके स्थान पर तुल्यकालिक मोटर (synchronous motor) का प्रयोग करें, जिससे संपूर्ण भार का ही शक्तिगुणांक सुधारा जा सके, अथवा संधारित्र का प्रयोग करके ही शक्तिगुणांक को सुधारें।

बिजलीघर संस्थापित करने से पहले, विद्युत् का उत्पादन मूल्य तथा संभावी लाभांशों की गणना करना भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। जितना स्वयं संस्थापन। किसी भी बिजलीघर संस्थापन का आधार भार सर्वेक्षण (load survey) है। परंतु भार भी बहुत सी दशाओं में परिस्थिति और संभावी विद्युत् की दरों पर निर्भर करता है। उपयुक्त दरों द्वारा, विद्युत् संभरण, उद्योग को प्रोत्साहन देने का सरलतम साधन है। यदि विद्युत् संभरण की दर कम रखी जाए, तो वर्तमान उद्योगों के अतिरिक्त दूसरे उद्योग भी खुलने लगेंगे और वर्तमान उद्योग सारी आवश्यकताओं को विद्युत् द्वारा ही पूरी करने लगेंगे। इस प्रकार वर्तमान भार के आधार पर बिजलीघर के संस्थापन का परिकलन करना नासमझी होगी। सामान्यत: पाँच वर्ष बाद संभावी भार के आधार पर परिकलन किया जाता है। बहुधा यही देखा गया है कि भार अनुमान से बहुत शीघ्र ही बढ़ जाता है। अतएव बिजलीघर के संस्थापनों के अभिकल्प करते समय, यह बात ध्यान में रखना बहुत महत्वपूर्ण है और विस्तार की योजना भी पहले ही बना लेनी चाहिए।

परिस्थितियों के अनुसार ही भार में काफी परिवर्तन आ सकते हैं। भारों की प्रकृति में भी बहुत विभिन्नता पाई जाती है। प्रकाशभार, मुख्यत, संध्या के समय होता है, उद्योगभार दिन के समय तथा इसी प्रकार विभिन्न भार विभिन्न समयों में हो सकते हैं, अथवा यह कहिए कि उनकी मात्रा में काफी अंतर आ सकता है। यदि किसी भार के विचरण को समय के अनुसार ग्राफ पर अनुरेखित कर लिया जाए, तो वक्र प्राप्त होगा उसे भारवक्र (Load curve) कहते हैं। भारवक्र, समय के साथ भार का उतार चढ़ाव प्रदर्शित करता है। विभिन्न प्ररूप के चारों के दैनिक भारवक्र खींच लिए जाते हैं और फिर एक ग्राफ पर एक दूसरे को अध्यारोपित कर संपूर्ण भार का भारवक्र खींच लिया जाता है। इसी प्रकार मासिक भारवक्र तथा वार्षिक भारवक्र भी प्राप्त कर लिए जाते हैं। इन तीनों के आधार पर ही तंत्र का भारविचरण निश्चित किया जाता है। हो सकता है, भार सारे महीने, अथवा सारे वर्ष उसी प्रकार से विचरण न करें। ऋतुओं के अनुसार भी यह परिवर्तन होता है। अतएव सभी भारवक्रों का खींचना आवश्यक है।

एक बात और ध्यान देने योग्य है : यह आवश्यक नहीं है, कि एक उद्योग में सभी मशीनें एक साथ कार्य करें। इस प्रकार संस्थापन क्षमता के आधार पर भार का निश्चय नहीं किया जा सकता। अनुभव के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एक प्ररूप के भार के एक साथ कार्य करने की कितनी संभावना है। उदाहरणत: यदि एक मकान में २० विद्युत् लैंप हों, तो सामान्यत: उनमें से ८-१० से अधिक एक साथ नहीं जलाए जाएँगे। इस प्रकार अनुभव के आधार पर सभी प्ररूपों के भार के लिए एक गुणक निश्चित किया जाता है, जिसे विभिन्नता गुणक (Diversity Factor) कहते हैं। यह संस्थापनक्षमता और अधिकतम भार का अनुपात होता है। यदि विभिन्नता गुणक २ है, तो इसका तात्पर्य यह है कि यदि किसी प्ररूप के भार की संस्थापनक्षमता १०० किवा. हो, तो विद्युत् कंपनी अपना परिकलन ५० किवा. के आधार पर कर सकती है, क्योंकि एक समय में संभवत: आधे से अधिक मशीनें कार्य नहीं करेंगी, अर्थात् आधे से अधिक भार नहीं होगा।

भारवक्रों को देखने से यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि सभी भार सभी समय पूर्ण क्षमता पर प्रचालन नहीं करते। इस प्रकार विद्युत् के संभरण की संस्थापनक्षमता तथा वास्तविक भार में काफी अंतर आ जाता है। यदि किसी समय वास्तविक भार पूर्ण क्षमता के बराबर हो जाए, पर अधिकांश समय काफी कम रहे, तो इसमें विद्युत् संभरण के लिए संस्थापनक्षमता तो अधिक रखनी पड़ेगी, परंतु पूर्णतया उसका उपयोग न हो सकेगा। इसका अंतत: परिणाम यह होगा कि उत्पादन मूल्य बढ़ जाएगा। वह भी एक गुणक के रूप में, जिसे भार गुणक (Load Factor) कहते हैं, व्यक्त किया जाता है।

भार गुणक =

अधिकांश बिजलीघरों का भारगुणक ६० प्रतिशत से अधिक नहीं होता। कम भारगुणक होने का तात्पर्य है कि बिजलीघर की पूर्ण क्षमता का उपयोग नहीं हो पा रहा है। अतएव विद्युत् कंपनियाँ अपना भारगुणक बढ़ाने के लिए भरसक प्रयत्न करती हैं। मुख्यत:, वे उद्योगों को ऐसे समय में प्रचालन करने के प्रोत्साहन देती है जब उनका भार सामान्यत: कम होता है। ऐसा करने के लिए उद्योगों को बाध्य तो नहीं किया जा सकता, परंतु आर्थिक प्रोत्साहन दिया जा सकता है। संभरण के मूल्य में ऐसी शर्त लगाई जा सकती है, जिससे विद्युत् कंपनी की सुविधा के अनुसार उद्योग चलाने में आर्थिक लाभ हो। उदाहरणत: यदि किसी विद्युत् कंपनी का भार दिन में बहुत अधिक हो और रात में बहुत कम, तो वह उद्योगों के विद्युत् के संभरण में यह शर्त लगा सकती हैं कि यदि वे रात में प्रचालन करें, तो उन्हें निर्धारित दरों में कुछ छूट मिल सकती है। इस शर्त के कारण यदि आर्थिक लाभ होता है, तो उद्योगपति यह प्रयत्न करेंगे कि वे अपने उद्योगों को रात में चलाएँ। इस प्रकार विद्युत् उपभोग का समाकरण करने का प्रयत्न किया जाता है, जिससे उतनी भार क्षमता में अधिक ऊर्जा का उपभोग हो सके। अधिक ऊर्जा का उपभोग होने से विद्युत् कंपनी की आमदनी बढ़ जाएगी और उसे अंतत: प्रति यूनिट मूल्य कम करना संभव हो सकेगा।

बिजली की दर निश्चित करने के लिए, पहले उत्पादनव्यय का परिकलन करना आवश्यक है। इस परिकलन में बिजलीघर का संस्थापन खर्च, बिजलीघर के भवन तथा उसकी सज्जा एवं उपकरणों का मूल्य आता है। इसे निवेश लागत (Investment Cost) भी कहते हैं। प्रचालन लागत में कोयले अथवा ईधंन का मूल्य, उसका परिवहन एवं भंडार लागत (transportation and storage cost), कर्मचारियों का वेतन तथा आकस्मिक व्यय आते हैं। प्रति यूनिट मूल्य निकालने के लिए निवेश लागत को प्रति वर्ष के आधार पर परिकलित किया जाता है, जिससे बिजलीघर की क्षमता के अनुसार प्रति किवा. खर्च निकाला जा सके। सभी खर्चों को वस्तुत: दो घटकों में व्यक्त किया जा सकता है : १. स्थिर घटक अथवा स्थिर लागत (fixed costs), जो उत्पादित शक्ति पर निर्भर नहीं करते वरन् बिजलीघर की क्षमता पर निर्भर करते हैं। इसके अंतर्गत बिजलीघर की निवेशन लागत एवं कुछ स्थिर खर्च आते हैं, जैसे पट्टा अथवा बीमे का खर्च। यदि बिजलीघर एक बड़ी कंपनी का अंग हो, तो केंद्रीय कंपनी के संस्थापन खर्च तथा निरीक्षण एवं शोध के खर्च का अंश भी उसे वहन करना पड़ता है। यह खर्च भी खर्च का स्थिर घटक ही समझा जा सकता है। इन सभी खर्चों को प्रति वर्ष खर्च के रूप में आँका जाता है। निवेश लागत को प्रति वर्ष व्यय के रूप में परिकलन करने के लिए, निवेश के ऊपर ब्याज एवं मूल्य्ह्रास (depreciation) का परिकलन किया जाता है, जो वस्तुत: कंपनी में लगाई गई पूँजी को वार्षिक रूप में व्यक्त करता है। दूसरे खर्च भी वार्षिक आधार पर व्यक्त कर लिए जाते हैं और वर्ष भर में उत्पादित ऊर्जा पर प्रति यूनिट खर्च निकाल लिया जाता है।

उपभोक्ताओं की देय दरों को निर्धारित करने के लिए, उत्पादन लागत (production costs) में प्रेषण एवं आबंटन, अथवा वितरण का खर्च भी जोड़ना आवश्यक है। इनपर केवल वास्तविक खर्च ही नहीं, वरन् उनमें होनेवाली हानियों का परिकलन कर उनका मूल्य लगाना भी आवश्यक है। इसके उपरांत लाभांश निश्चित कर, देय करों को निर्धारित किया जाता है।

प्रति यूनिट मूल्य में कमी करने के लिए, न केवल परिचालन लागत में बचत करना आवश्यक है, वरन् बिजलीघर की अधिकतम क्षमता के अनुरूप अधिकतम उत्पादन करना भी आवश्यक है। यदि किसी बिजलीघर की अधिकतम क्षमता १०,००० किवा. है, परंतु औसत से केवल आधी ही उपयोग में आ रही हो, तो स्पष्टत: प्रति यूनिट खर्च भी अधिक होगा। यदि उसकी तीन चौथाई क्षमता का उपयोग होने लगे, तो प्रति यूनिट खर्च में भी कमी आ जाएगी। बचत के इस महत्वपूर्ण कारण को प्राविधिक रूप से व्यक्त करने के लिए, औसत उत्पादन शक्ति को भारगुणक के रूप में व्यक्त किया जाता है :

भार गुणक =

सभी विद्युत् कंपनियाँ, यथासंभव, अधिकतम भारगुणक पर प्रचालन करने का प्रयत्न करती हैं। इसके लिए वे उपभोक्ताओं को सामान्यत: इस प्ररूप के लिए प्रोत्साहन देती हैं कि उद्योग अपने अधिकतम भार के लिए अधिक से अधिक ऊर्जा का उपयोग करें, जिससे विद्युत् कंपनी अपनी भारक्षमता के अंदर ही अधिक ऊर्जा का उत्पादन कर सकें। इससे कंपनियों का प्रति यूनिट खर्च घट जाता है और अंतत: उपभोक्ताओं की दरें भी घटाई जा सकती है।

उद्योग के लिए बिजली की दर अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। उद्योग अच्छे स अच्छे उत्पादन और कम से कम मूल्य के आधार पर ही पनप सकता है। अधिकांश उद्योग विद्युत् को ही चालक शक्ति के रूप में प्रयोग करते हैं। अत: यह आवश्यक है कि विद्युत् का संभरण विश्वसनीय रूप में और कम से कम खर्च में हो। देश का औद्योगिक भविष्य इस महत्वपूर्ण चालक शक्ति के वाणिज्यिक दृष्टि कोण की सफलता पर निर्भर करता है। (राम कुमार गर्ग)