विद्युत् संभरण, प्राविधिक दृष्टिकोण से (Electric Supply, Technical Aspects) विद्युत् औद्योगिक विकास की पहली सीढ़ी है और आधुनिक मानव सभ्यता का आधारस्तंभ है। प्राविधिक दृष्टिकाण से विद्युत् संभरण को तीन भागों में बाँटा जा सकता है, १. जनन (Generation), २. प्रेषण (Transmission) तथा ३. वितरण (Distribution)।
विद्युत्, वस्तुत:, ऊर्जा का एक प्ररूप है। इसे किसी दूसरे प्ररूप की ऊर्जा में भी परिवर्तित कर सकते हैं, जैसे प्रकाश या ऊष्मा में। ऊर्जा के दूसरे प्ररूपों से विद्युत् शक्ति का जनन किया जा सकता है। यह ऊर्जा चाहे नदी के बहते हुए पानी से प्राप्त हो, अथवा यांत्रिक ऊर्जा के रूप में भाप के टरबाइन या किसी प्रकार के इंजन से प्राप्त हो। रासायनिक अभिक्रियाओं द्वारा प्राप्त ऊर्जा से भी विद्युत् शक्ति प्राप्त की जा सकती है।
नदी में बाँध बाँधकर जमा किए हुए पानी की स्थितिज ऊर्जा (potential energy) को गतिज ऊर्जा (kinetic energy) में परिवर्तित कर जलविद्युत् टरबाइन चलाया जाता है। (देखें ''विद्युत्, जल से उत्पन्न'')
विद्युत् शक्ति जनन का दूसरा महत्वपूर्ण साधन भाप का टरबाइन, अथवा विभिन्न प्रकार के इंजन है। वस्तुत: इनमें कोयला जलाकर प्राप्त होनेवाला ऊष्मा को भाप के द्वारा, अथवा किसी दूसरे साधन द्वारा, यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं। इस यांत्रिक ऊर्जा द्वारा विद्युत् जनित्र चलाए जाते हैं और, अंतत:, विद्युत् शक्ति जनित की जाती है। ऐसे बिजलीघरों को तापीय बिजलीघर (Thermal Power station), अथवा भाप बिजलीघर (Steam Power Station) कहते हैं। ये बिजलीघर सुविधानुसार कहीं भी बनाए जा सकते हैं और इनकी स्थिति केवल कोयले की उपलब्धि तथा उसके परिवहन के साधनों पर निर्भर करती है। इनको यथासंभव उपयोग स्थल के निकट बनाया जाता है, जिससे लंबी प्रेषण लाइनों की आवश्यकता नहीं रहती। इनकी पूँजीगत लागत (capital cost) भी पनबिजलीघरों की अपेक्षा बहुत कम होती है। पनबिजलीघरों की परिचालन लागत (operating cost) पनबिजलीघरों की अपेक्षा काफी अधिक होती है। पनबिजलीघरों की परिचालन लागत लगभग नगण्य ही होती है, परंतु प्रतिष्ठापन मूल्य बहुत अधिक होता है। अतएव किसी भी बिजलीघर के प्ररूप की योजना बनाने से पहले दोनों प्रकार के बिजलीघरों की औसत लागत, प्रति वर्ष की इकाई के रूप में, ज्ञात कर लेना आवश्यक है और उसी आधार पर किस निश्चित निष्कर्ष् पर पहुँचा जा सकता है।
स्थानीय संभरण के लिए छोटे छोटे बिजलीघर डीज़ल इंजनो द्वारा चलनेवाले जनित्रों के भी होते हैं। इनका प्रति एकक मूल्य अधिक होता है। बड़े औद्योगिक स्तर पर विद्युत् के जनन के लिए छोटे बिजली पर आर्थिक रूप से उचित नहीं रहते, तथापि बहुत से स्थानों पर व्यक्तिगत संभरण के लिए ये बहुत उपयोगी होते हैं। बड़े बड़े तंत्रों में ये आपाती (stndby) के रूप में भी प्रयुक्त किए जाते हैं।
आजकल परमाणु ऊर्जा का उपयोग भी विद्युत् शक्ति के उत्पादन के लिए किया जा रहा है। पिछले १० वर्षो में, ब्रिटेन, रूस और अमरीका में बहुत बड़े बड़े परमाण्वीय बिजलीघरों की स्थापना हुई है और बहुतों की स्थापना होने जा रही है। परंतु पारमाण्वीय प्रणालियों पर अभी लगातार शोध हो रहे हैं और जो प्रणालियाँ ५ वर्ग पहले अपनाई गई थीं वे आज समय से बहुत पीछे समझी जाती हैं। यद्यपि ऐसे बिजलीघरों के बहुत विशिष्ट लाभ हैं और सभी देश सामर्थ्य के अनुसार उनकी स्थापना के लिए तत्पर हैं, तथापि आधुनिकतम शोधों को ध्यान में रखते हुए तथा उनकी प्रवर्तन प्रणालियों की जानकारी को समझते हुए, उनकी स्थापना के निश्चय में अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है। भारत में भी राणा प्रताप सागर एवं तारापुर में परमाणु बिजलीघर बनाए गए हैं।
शक्ति के इन सामान्य साधनों के अतिरिक्त बहुत से असामान्य साधन भी प्रयुक्त किए जा रहे हैं, जैसे ज्वार भाटे की अपरिमित शक्ति का विद्युत् जनन के लिए उपयोग एवं सूर्य तथा आँधी की शक्ति का उपयोग, परंतु ये साधन अभी सामान्य उपयोग में नही आए हैं।
जनन के पश्चात् दूसरी महत्वपूर्ण समस्या विद्युत् शक्ति को उसके उपयोगस्थल तक ले जाने की है। यह समस्या भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना विद्युत् शक्ति का जनन। उपयोगस्थल में भार के अनुसार विभिन्न स्थानों में उपकेंद्र (substation) बनाए जाते हैं, जहाँ बिजलीघर से शक्ति को विद्युत् लाइनों द्वारा प्रेषित किया जाता है। हो सकता है, उपयोगस्थलों की बिजलीघर से दूरी कई सौ मील हो। जैसा पहले कहा जा चुका है, पनबिजलीघरों के निर्माण में प्राकृतिक साधनों पर निर्भर रहना पड़ता है, जो सामान्यत: धनी आबादीवाले क्षेत्रों से दूर होते हैं। इसी प्रकार तापीय बिजलीघरों के लिए भी कोयले की उपलब्धि तथा उसके परिवहन की समस्या वस्तुत: उसकी स्थिति का निश्चय करती है। अतएव विद्युत् शक्ति के जननस्थल तथा उपयोगस्थल में पर्याप्त दूरी होने की काफी संभावनाएँ हो सकती हैं। ऐसी दशा में शक्ति को अति उच्च वोल्टताओं पर बड़ी बड़ी लाइनों द्वारा प्रेषित करना होता है। तार का आकार धाराक्षमता की कोटि पर निर्भर करता है। अत: यथासंभव, उच्च वोल्टताओं का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है। सामान्य प्रेषण वोल्टताएँ, ६६ किवो. (K.V.), १३२ किवो. २२० किवो. तथा ३८० किवो. है। इससे उच्च वोल्टताएँ भी प्रयोग की गई है। रूस में अभी हाल में ७०० किवो. की लाइन बनाई गई है और अमरीका में भी कुछ लाइनें ७०० किवो. की बनाई जा रही हैं। भारत में अभी तक उच्चतम वोल्टता ३८० किवो. की है, परंतु अखिल भारतीय ग्रिड (All India Grid) के लिए इससे भी ऊँची वोल्टता का प्रयोग करने पर विचार किया जा रहा है।
विद्युत्संभरण दो मुख्य रूपों में हो सकता है : दिष्ट धारा (Direct Current) एवं प्रत्यावर्ती धारा (Alternating Current) द्वारा अधिकांश कार्यों के लिए दोनों ही संभरणों का प्रयोग किया जा सकता है। प्रकाश एवं ऊष्मा की अधिकांश प्रयुक्तियाँ दोनों ही संभरणों में प्रयुक्त की जा सकती है, परंतु उद्योग के लिए संभरण के अनुसार विभिन्न मोटरें एवं दूसरी सज्जाएँ प्रयुक्त करनी होती हैं। दि.धा. एवं प्र.धा. मोटरों की अपनी विशेषताएँ हैं तथा ये बहुत से प्ररूपों के उलब्ध होते हैं, जिससे कार्य के अनुसार ही उनका चयन किया जा सकता है।
आर्थिक रूप से प्र.धा. का जनन एवं प्रेषण सस्ता पड़ता है। प्र.धा. जनित्र सापेक्षतया काफी ऊँची वोल्टताओं पर प्रवर्तन कर सकते हैं। प्रेषण के लिए इसे सुगमता से उच्चतर वोल्टताओं में रूपांतरित किया जा सकता है, जिससे उतनी ही शक्ति के लिए धाराक्षमता कम हो जाती है तथा प्रेषण लाइन के मूल्य में काफी बचत हो जाती है। साथ ही प्रेषणहानियाँ कम होने से प्रेषणदक्षता बढ़ जाती है।
बहुधा उपयोगस्थल की जनित्रस्थल से दूरी कई सौ मील की भी हो सकती है। अत: प्रेषण वोल्टता यथासंभव ऊँची रखनी पड़ती है, जिससे चालक का आकार छोटा हो सके और प्रेषणहानियाँ कम की जा सकें। दि.धा. का उच्च वोल्टता पर जनन प्राविधिक दृष्टिकोण से कठिन होता है तथा उसमें वोल्टता का अल्प से उच्च तथा उच्च से अल्प में परिवर्तन उतनी सुविधा से नहीं किया जा सकता जितना प्र.धा. में। प्र.धा. सापेक्षतया, अधिक ऊँची वोल्टताओं पर जनित की जा सकती है और उसे परिणामित्र (transformers) द्वारा सुगमतापूर्वक, अल्प से उच्च तथा उच्च से अल्प वोल्टताओं में परिवर्तित किया जा सकता है। जनित वोल्टता साधारणतया ११ किवो. तक ही सीमित होती है, और इसे परिणामित्र द्वारा अति उच्च वोल्टता (११० किवो., २२० किवो. या इससे भी अधिक) में रूपांतरित कर प्रेषित किया जा सकता है। उपयोगस्थल पर इस उच्च वोल्टता को अपचायी (step-down) परिणामित्र की सहायता से फिर अल्प वोल्टता में रूपांतरित किया जा सकता है। मुख्यत:, इसी सुगमता के कारण प्र.धा. संभरण ही अधिक सामान्य है और जहाँ पहले से दि.धा. संभरण था वहाँ भी आजकल उसको विस्थापित कर प्र.धा. संभरण में परिवर्तित किया जा रहा है।
परिणामित्र, वस्तुत:, एक अत्यंत सरल विद्युत् मशीन है। यह प्रेरण के सिद्धांत पर चालन करता है। इसमें प्राथमिक एवं द्वितीयक दो कुंडलियाँ होती हैं, जिनका आपस में विद्युतया कोई संयोजन नहीं होता। पारस्परिक प्रेरण (mutual induction) के सिद्धांत के अनुसार यदि एक कुंडली में प्रत्यावर्ती वोल्टता आरोपित की जाए, तो दूसरी कुंडली में भी, जो पहली के चुंबकीय क्षेत्र में होती है, एक वोल्टता प्रेरित हो जाती है। यह दोनों कुंडलियों के फेरों की संख्या के अनुपात पर निर्भर करती है। यदि द्वितीयक कुंडली के फेरों की संख्या प्राथमिक से दुगनी हो, तो उसमें प्राथमिक से लगभग दुगनी वोल्टता जनित होगी तथा धारा का परिमाण उसी अनुपात में कम हो जाएगा। उच्च वोल्टता से अल्प वोल्टता मे परिवर्तिन के लिए, द्वितीयक में लगभग उसी अनुपात में कम फेरे होने चाहिएँ। इस प्रकार परिणामित्रों द्वारा वोल्टता रूपांतरण बहुत सुगमतापूर्वक किया जा सकता है। परिणामित्रों की चालन दक्षता भी बहुत अधिक होती है। बड़े बड़े आकारों (१०,००० किवो. ऐ. के लगभग) के परिणामित्रों की चालनदक्षता ९९.५ प्रतिशत तक हो सकती है। अतएव यह वोल्टता रूपांतरण न केवल सुगमतापूर्वक ही हो सकता है, वरन् साथ ही साथ बिना विशिष्ट हानियों के भी होता है।
सामान्य उपयोग वोल्टता अधिकांश देशों में २२० वोल्ट के लगभग होती है। परंतु मोटर तथा दूसरे औद्योगिक भार इससे अधिक वोल्टता पर चालन करते हैं। अत: वितरणतंत्र, साधारणतया, ऐसा होता है कि उससे दो विभिन्न वोल्टताओं का संभरण संभव हो सके, जैसे संभरण प्राकाशदीप अथवा पंखे इत्यादि के लिए भी हो सके। दि.धा. परिपथ में यह त्रितार प्रणाली द्वारा संभव हो सकता है, जिसमें बाहरी तारों की वोल्टता बीच वाले चालक के सापेक्ष +२२० वोल्ट और -२२० वोल्ट हो। इस प्रकार दोनों बाहरी चालकों के बीच ४४० वोल्ट मिलता है और एक बाहर तथा मध्य चालक के बीच केवल २२० वोल्ट। अत: विद्युत् दीप और पंखे इत्यादि, जो २२० वोल्ट पर चालन करते हैं, उन्हें एक बाहरी तथा मध्य चालक के बीच संबद्ध किया जा सकता है तथा मोटर इत्यादि दोनों बाहरी चालकों के बीच संबद्ध किए जा सकते हैं। इस प्रकार एक ही संभरणतंत्र से दोनों का अलग अलग वोल्टताओं पर चालन संभव हो सकता है, परंतु इस तंत्र के सफल चालन के लिए मध्य चालक के दोनों ओर भार का संतुलित होना आवश्यक है। इसका ध्यान भार को संबद्ध करते समय ही रखा जाता है। भार का संतुलन करने के लिए संभरणतंत्र में संतुलकों (balancers) की भी व्यवस्था की जाती है, जिससे दोनों ओर भार लगभग बराबर रहे।
प्र.धा. संभरण में दो विभिन्न वोल्टताओं की व्यवस्था त्रिफेज़ चार तार तंत्र द्वारा की जाती है। मोटर इत्यादि तो तीनों फेज़ चालकों से संबद्ध किए जाते हैं और बल्व आदि एक फेज़ तार तथा न्यूट्रल के बीच। इस तंत्र मे भी यथासंभव तीनों फेज़ों में भार संतुलित रखने का प्रयत्न किया जाता है। फेज़ तथा न्यूट्रल के बीच २३० वोल्ट की वोल्टता होती है और दो फेज़ चालकों के बीच अर्थात् लाइन चालकों के बीच, लगभग ४०० वोल्ट की। वस्तुत: दो लाइनों के बीच की वोल्टता फेज़ वोल्टता का ३ गुना होती है। इस प्रकार इस तंत्र में भी दो विभिन्न वोल्टताओं की व्यवस्था होती है। मोटर इत्यादि ४०० वोल्ट पर चालन करते हैं और बल्व तथा पंखे और दूसरी घरेलू विद्युत् युक्तियाँ केल २३० वोल्ट पर कार्य करती हैं।
अति उच्च प्रेषण वोल्टताओं से उपयोग वोल्टता में रूपांतरण, सामान्यत:, दो क्रमों में किया जाता है। पहले अति उच्च वोल्टताओं को साधारणतया ११ किवो. में रूपांतरित कर लिया जाता है और इसके बाद ११ किवो. की पोषक लाइनें (Feeder Lines) ठीक उपभोगस्थल तक ले जाई जाती हैं, जहाँ उन्हें सामान्य उपयोग वोल्टता २३०/४०० वोल्ट में रूपांतरित किया जाता है। यहाँ से ४०० वोल्ट की अल्प वोल्टता लाइनें भार तक ले जाई जाती हैं। इन लाइनों को वितरक लाइनें (Distributor Lines) कहते हैं और ये सामान्यत: सड़कों के किनारे ले जाई जाती है, जहाँ से विभिन्न मकानों को वितरण संयोजन (service connection) दिए जाते हैं।
अति उच्च वोल्टता की प्रेषण लाइनें बड़ी बड़ी मीनारों (towers) पर ले जाई जाती हैं, परंतु मध्यम तथा अल्प वोल्टता लाइनें खंभे (pole) पर आरोपित होती हैं। बहुत से स्थानों में विद्युत् शक्ति का प्रेषण, अथवा वितरण, ऊपरी लाइनों के स्थान पर भूमिगत केबिलों (cables) द्वारा किया जाता है। ऊपरी लाइनें साधारणतया ताँबे के तार की होती हैं, परंतु ऐलुमिनियम और इस्पात संयुक्त ऐलुमिनियम (A.C.S.R.) के तार भी बहुतायत से प्रयुक्त किए जाते हैं। साधारणतया, तार एक ठोस रूप में न होकर बहुत से तारों को एक दूसरे पर ऐंठकर बने होते हैं। ये तार, खंभे अथवा मीनार पर लगे हुए विद्युतरोधी (insulators) के ऊपर बँधे होते हैं। विद्युतरोधी, साधारणतया, पॉर्सिलेन के होते हैं और विभिन्न प्ररूपों के बनाए जाते हैं। इनका वर्गीकरण वोल्टता के आधार पर होता है। ये चालक को सँभाले रहते हैं और उसे खंभे अथवा मीनार से नहीं छूने देते। इनी बनावट भी ऐसी होती है कि किसी भी दशा में ये चालक तथा खंभे के बीच किसी प्रकार का भी विद्युत् संस्पर्श नहीं होने देते। उन्हें खंभे पर सीधे ही अथवा कैची (cross arm) पर लगाने का विन्यास होता है। तारों को उनमें दिए हुए एक खाँचे में रखकर ताँबे के बंधन तार (binding wire) द्वारा बाँध दिया जाता है।
खंभे अधिकतर लोहे की रेल, अथवा गोल नलिकाकार (tubular) प्ररूप के होते हैं। साधारणतया ये २६-३२ फुट ऊँचे होते हैं, जिसमें ५-६ फुट भूमि में गड़ा होता है। लकड़ी के खंभे भी बहुतायस से प्रयुक्त होते हैं, परंतु उन्हें दीमक इत्यादि से बचाने के लिए पहले उपचारित करना आवश्यक होता है। सीमेंट कंक्रीट के खंभे भी बनाए जाते हैं, जो देखने में काफी सुंदर लगते हैं और बड़े नगरों की सड़कों पर विस्तृत रूप से प्रयुक्त होते हैं, परंतु इनका परिवहन कठिन होने के कारण इन्हें बहुधा लगाने के स्थान पर ही बनाया जाता है।
भूमिगत केबिलों द्वारा प्रेषण एवं वितरण से बहुत प्रकार के दोष एवं कठिनाइयाँ कम हो जाती हैं। परंतु केबिल ऊपरी लाइनों की तुलना में मूल्यवान होते हैं और केवल बड़े नगरों में ही प्रयुक्त किए जाते हैं, जहाँ घनी आबादी के कारण ऊपरी लाइनें ले जाना सुविधाजनक अथवा उपयुक्त नहीं होता। केबिल मे ताँबे के एक या अधिक विद्युतरुद्ध तार होते हैं, जिनके ऊपर संरक्षण के लिए सूत अथवा जूट गुँथा होता है। ये ऊपर से सीसे की नली में बंद रहते हैं, जिससे नमी विद्युतरोध तक न पहुँच सके। क्षति से बचाने के लिए सबसे ऊपर इस्पात की टेप का कवच भी लपेट दिया जाता है और इसलिए ऐसे केबिलों को कवचित केबिल कहते हैं। उच्चतर वोल्टताओं के लिए तेल से भरे केबिल भी प्रयुक्त किए जाते हैं, तेल, वस्तुत:, अच्छा विद्युतरोधी माध्यम होता है, परंतु ऐसे केबिलों की देखभाल में अधिक परेशानी होती है। अभी तक ४०० किवो. की वोल्टता तक के केबिल प्रयुक्त किए गए हैं।
बड़े बड़े जनित्रों, लाइनों तथा मीनारों के सिवाय विद्युत् संभरण के महत्वपूर्ण अंग बहुत से छोटे छोटे संघटक भी होते हैं, जो नियंत्रण (control) तथा संरक्षण (protection) के काम आते हैं। बस्तुत:, इन्हीं के द्वारा विश्वसनीय संभरण संभव होता है और इसलिए ये किसी भी बड़े संघटक से कम महत्व के नहीं होते। वोल्टता को स्थिर रखने के लिए स्वचालित वोल्टता नियंत्रक (automatic voltage regulator) प्रयुक्त किए जाते हैं। इसी प्रकार भार, शक्ति गुणांक (power factor) तथा आवृत्ति के नियंत्रण के लिए दूरस्थ नियंत्रित (remote controlled) नियंत्रकों की व्यवस्था होती है, जिनकी सहायता से नियंत्रण इंजीनियर (control engineer), नियंत्रण कक्ष (control room)में बैठा तंत्र का नियंत्रण कर सकता है। रक्षण के लिए विविध प्रकार के रिले होते हैं, जा दोष की स्थिति में परिपथ को स्वयं खोल देते हैं और मूल्यवान सज्जा को क्षति से बचाते हैं। अतिभार की दशा में अतिभार रिले (overload relay), भूमिदोष की स्थिति में भूमि लीक रिले (earth leakage relay) तथा इसी प्रकार दूसरे प्रकार के दाषों में विभिन्न प्रकार के रिले की व्यवस्था होती है। ये रिले परिपथ विच्छेदक (circuit breaker) को प्रचालित कर, परिपथ को खोल देने में समर्थ होते हैं। ये साधारणतया बहुत ही द्रुतगामी होते हैं। इनका व्यवस्थापन इस प्रकार किया जाता है कि ये केवल दोषी परिपथ को ही खोलें और, जिन प्रभावों में दोष न हो, उन्हें यथासंभव चालू रहने दें। इस प्रकार इनके चालन में विश्वसनीयता के साथ उपयुक्त वरणात्मक (selective) गुण भी रखा जाता है, जिससे दोषी परिपथों के साथ साथ निर्दोष परिपथों को भी बंद न होना पड़े।
परिपथ विच्छेदक भी विभिन्न प्रकार के होते हैं। अल्प वोल्टता लाइनों के लिए बहुधा वायु विच्छेदक (air break) स्विच ही प्रयुक्त किए जाते हैं, क्योंकि ये सस्ते तथा सरल होते हैं। इनमें एक स्थिर अंशक तथा एक चलन अंशक होता है, जिनके संस्पर्श से परिपथ बंद किया जा सकता है और हटाने से खोला जा सकता है। इनका मुख्य अलाभ यह है कि खोलते अथवा बंद करते समय दोनों संस्पर्शकों के बीच जो चाप (arc) बन जाता है, उसके हानिकारक प्रभावों से बचने की कोई व्यवस्था नहीं होती। स्पष्टतया ऐसे स्विच उच्च वोल्टता लाइनों के लिए नहीं प्रयुक्त किए जा सकते। उनमें प्रयुक्त होनेवाले परिपथ विच्छेदक सामान्यत: तेल प्ररूप के होते हैं, जिनमें परिपथ को तेल के अंदर ही खोला अथवा बंद किया जाता है। इस प्ररूप के परिपथ विच्छेदक में स्थिर और चलन अंशक दोनों ही तेल की टंकी के अंदर होते हैं। तेल अच्छे विद्युतरोधी माध्यम की व्यवस्था करने के साथ साथ, उत्पन्न होनेवाले चाप को भी बुझाने में सहायक होता है और उसके हानिकारक प्रभावों से बनाता है। ऐसा करने के लिए बहुत से परिपथ विच्छेदकों में विशेष व्यवधान भी किए जाते हैं। साथ ही अल्प वोल्टता तथा अतिभार (overload) संरक्षण युक्तियों (protective devices) की भी इन्हीं में ही व्यवस्था कर दी जाती हैं।
यद्यपि प्र.धा. संभरण ही सामान्य है, तथापि बहुत से विशिष्ट कार्यों के लिए दि.धा. का प्रयोग करना आवश्यक होता है, जैसे बैटरी चार्ज करने के लिए, विद्युत् लेपन के लिए तथा अधिकांश ट्राम एवं लिफ्ट (lift) के चालन इत्यादि के लिए दि.धा. का ही प्रयोग किया जाता है। अतएव प्र.धा. संभरण की दशा में इनके लिए दि.धा. प्राप्त करना अनिवार्य हो जाता है। प्र.धा. का दि.धा. में रूपांतरण बहुत सी युक्तियों द्वारा किया जाता है, जिनमें दिष्टकारी (rectifier), तुल्यकालिक (synchronous) अथवा घूर्णी परिवर्तित (rotary convertor) तथा मोटर जनित्र सेट (motor generator set) मुख्य हैं। दिष्टकारियों का प्रयोग ही अधिक सामान्य है, क्योंकि अधिकांश भारों के लिए इनकी दक्षता अधिक होती है और चालन सुगम। साथ ही यह घूर्णी परिवर्तित्र की अपेक्षा सस्ते भी होते हैं और इनके अधिक देखभाल की आवश्यकता भी नहीं होती। शक्ति दिष्टकारी मुख्यत: दो परूप के होते हैं, काँच बल्व वाले, तथा इस्पात को टंकी वाले। काँच बल्व वाले दिष्टकारियों में काँच का एक बड़ा बल्ब होता है, जिसकी तली में पारद का ताल होता है तथा ऊपर में ऐनोड (anode) सील किए रहते हैं। त्रिफेज चालन के लिए ऐनोड संख्या ३, ६, अथवा १२ होती है और ये बार बारी से अपने तथा पारद ताल के बीच में चाप का संधारण करते हैं, और बाह्य परिपथ में दि.धा. उपलब्ध होती है। दि.धा. वोल्टता का परिमाण संभरण की जानेवाली प्र.धा. वोल्टता, फेज संख्या तथा चाप पात (arc drop) पर निर्भर करता है। अतएव दिष्टकारी को प्र.धा. की ओर संभरण करने के लिए एक परिणामित्र की आवश्यकता होती है, जो निर्गत (output) वोल्टता के अनुसार प्र.धा. वेल्टता संभरण कर सके। अत: उस अनुपात में उसके फेरों की संख्या एवं रूपांतरण अनुपात (transformation ratio) निश्चित किए जाते हैं। दि.धा. वोल्टता का व्यवस्थापन भी इस परिणामित्र में टैप परिवर्तन (tap changing) अथवा ग्रिड नियंत्रण (grid control) द्वारा, सुगमता से किया जा सकता है। इस्पात की टंकीवाले दिष्टकारियों में काँच के बल्ब के स्थान पर इस्पात की टंकीवाले दिष्टकारियों में काँच के बल्व के स्थान पर इस्पात की एक टंकी होती है, जिसके कारण वे काफी मजबूत होते हैं और बड़े आकारों में भी निर्माण किए जा सकते हैं। साथ ही इनकी अतिभार क्षमता भी अधिक होती हैं। दिष्टकारियों द्वारा दि.धा. को प्र.धा. में भी रूपांतरित किया जा सकता है, जिसमें उनका चालन ठीक विपरीत होता है। अत: ये दिष्टकारी प्र.धा. कारी (Inverters) कहलाते हैं।
विद्युत् संभरण वस्तुत: एक अनिवार्य सेवा (essential service) है और इसे जन उपयोगिता के दृष्टिकोण से देखना आवश्यक हैं। विद्युत् मशीनों एवं दूसरी सज्जा के प्रतिष्ठापन एवं सधारण दोनों में ही यह दृष्टिकोण ध्यान में रखना होता है। यदि किसी नगर का भार ५,००० किलोवाट हो, और वहाँ के बिजलीघर में ५,००० किवो. की केवल एक मशीन ही लगाई जाए, तो उस मशीन में किसी प्रकार दोष हो जाने पर, अथवा मरम्मत की दशा में उसके बंद किए जाने पर सारा संभरण ही बंद हो जाएगा। अत:, या तो एक के स्थान पर ऐसी दो मशीनें लगानी होगी, अथवा किसी दूसरे बिजलीघर से ऐसी संकटकालीन अवस्था में बिजली लेने का समुचित प्रबंध करना होगा। व्यक्तिगत शक्तिगत शक्ति-कंपनियों के लिए, जन उपयोगिता के दृष्टिकोण से, यह अनिवार्य है कि सामान्य भार के बराबर की शक्ति की मशीनें संकटकालीन अवस्था के लिए अलग रख छोंड़ें, जिन्हें अल्पतम समय में व्यवहार में जाया जा सके। बड़ी बड़ी शक्ति योजनाओं में अब यह सामान्य हो गया है कि व्यक्तिगत बिजलीघरों के स्थान पर बहुत से बिजलीघरो को आपस में ग्रिड (grid) के रूप में अंतर्बद्ध कर दिया जाए, जिससे एक बिजलीघर की फालतू शक्ति का दूसरे स्थान पर उपयोग हो सके। ये ग्रिड, सामान्यत:, अति उच्च वोल्टताओं पर चालन करते हैं। इनमें तंत्र का वोल्टता एव आवृत्ति का परिशुद्ध नियमन (regulation) करना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। संपूर्ण तंत्र में शक्ति का प्रवाह स्वतंत्र रूप से हो सकता है। संपूर्ण तंत्र की सम्मिलित शक्ति की तुलना में किस एक बिजलीघर की एक या दो मशीनों की शक्ति नगण्य होती है और यदि वे किसी कारणवश बंद हो, तो तंत्र पर व्यावहारिक रूप से कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।
स्पष्टतया विद्युत् संभरण एक अत्यधिक महत्वपूर्ण उद्योग है और प्राविधिक दृष्टिकोण से य मानव की व्यवहारकुशलता का उच्चतम उदाहरण है। केवल स्विच खोल देन मात्र से सारा भवन विद्युत्प्रकाश से जगमगा उठता है, अथवा बड़ी बड़ी मशीनें चलने लगती है, परंतु प्राविधिक रूप से विद्युत् संभरण की समस्या इतनी सरल नहीं है जितना उसे उपयोग करना प्रतीत होता है। (राम कुमार गर्ग)