विद्युत्, वायुमंडलीय हमारी इंद्रियाँ बिना उपकरण की सहायता के हमें अनेक वायुमंडलीय घटनाओं का बोध कराती हैं, जैसे पवन और मौसम, परंतु वायुंडलीय विद्युत् के सार्वत्रिक पहलुओं के बारे में ऐसा नहीं होता। तड़ित् और मेघगर्जन के रूप में हम वायुमंडलीय विद्युत् के तूफानी और चरम पहलुओं का ही प्रेक्षण कर पाते हैं। उपकरणों से प्रेक्षण करने पर पता चलता है कि पृथ्वी पर खुले वायुमंडल में सर्वत्र विद्युत् बलों का अस्तित्व है। अच्छे मौसम में औसत विद्युत् क्षेत्र की तीव्रता या विभव प्रवणता (potential gradient) प्राय: १०० वोल्ट प्रति मीटर से अधिक होती है। पृथ्वी के पृष्ठ से ऊँचे बढ़ने पर विद्युत् विभव बढ़ता है, परंतु क्षेत्र तीव्रता या विभव प्रवणता घटती है। अच्छे मौसम में वायुमंडल में स्थित विद्युत् क्षेत्र धनात्मक आयनों को भूपृष्ठ की ओर और ऋणात्मक आयनों को भूपृष्ठ से दूर प्रेरित करता है। इससे यह संकेत मिलता है कि तड़ित् झंझा (thunder storm) विस्थापक धूल आदि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों को जिनसे वायुमंडल का सामान्य क्षेत्र अव्यवस्थित हो जाता है, छोड़कर पृथ्वी की सतह सभी स्थानों पर सदा ऋण आवेश में रहती है। वायुमंडलीय विद्युत् के सार्वत्रिक पहलू का दूसरा महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि खुले में स्थित वायु पूर्ण विद्युत् रोधी (insulator) नहीं है। यद्यपि वाय की चालकता बहुत कम होती है, तथापि वायुमंडल की वैद्युत् स्थिति का निर्धारण करने में वह महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। प्रश्न यह उठता है कि पृथ्वी का ऋण आवेश किस प्रकार पोषित रहता है? वैद्युत चालन द्वारा हुई आवेशहानि की क्षतिपूर्ति के लिए पृथ्वी को क्षति की दर पर ऋण आवेश किस प्रकार कौन सा कारक प्रदान करता है? इस समस्या ने अनेक शोधकर्ताओं को प्रेरित किया और अनेक सैद्धांतिक और प्रायोगिक खोजों से कुछ ऐसे प्रमाण मिले जिनसे इस सुझाव को बल मिला कि तड़ित् झंझा से पृथ्वी को इतना ऋण आवेश मिलता है कि पृथ्वी तथा उच्च वायुमंडल से पार्श्व संबंधित होते हैं एवं पूर्तिधारा प्रदान करते है।, जिससे उच्च वायुमंडल पृथ्वी के सापक्ष सैकड़ों किलोवाट धन विभव पर रहता है।

वायु भू धारा - वायु भू धारा का घनत्व घ, जो बहुत अल्प होता है, अनेक वर्षों तक अनेक स्थानों पर स्वत:लेखी उपकरणों से निर्वारित किया गया। प्रत्यक्ष विधि से माप करने के लिए धारा को एक विद्युतरोधी प्लेट पर, जो पृथ्वी के पृष्ठ के समतल रखा होता है, एकत्र करते हैं। अप्रत्यक्ष विधि में विभव प्रवणता प्र, धनात्मक आयनों द्वारा वायु में उत्पादित वैद्युत संचालकता l तथा ऋणात्मक आयनों द्वारा वायु में उत्पादित वैद्युत संचालकता l के मापनों से घ का मान सूत्र घ = (l + l) प्र, से प्राप्त किया जाता है।

वायु की वैद्युत चालकता - १८८७ ई. में पहली बार लिंस (Linss) ने हवा की चालकता ज्ञात की। बाद में ऐल्सटर, गीटेल और सी.टी.आर. विल्सन ने ज्ञात किया कि यह चालकता आयनों की उपस्थिति के कारण है, जो ऋण और धन आवेशों के वाहक हैं। हवा मे आयनों के निर्माण के संबंध में ऐल्स्टर और गीटेल ने समाधान यह प्रस्तुत किया कि भूपर्पटी के अधिकांश महत्वपूर्ण अवयवों में रेडियोऐक्टिव पदार्थ होते हैं, जो खुली हवा को आयनित करते हैं। अन्वेषणों से सिद्ध हुआ कि निम्नतर वायुमंडल के आयनन के तीन प्रधान कारक है : (१) भूपर्पटी के रेडियोऐक्टिव अवयवों का विकिरण, (२) हवा में की उपस्थित रेडियोऐक्टिव पदार्थों का विकिरण और (३) अंतिरक्ष किरण (cosmic rays)। महासागर की सतह के ऊपर स्थित हवा और ऊपरी वायुमंडल के आयनन में अंतरिक्ष किरण ही प्रधान कारक है। १९११ ई. में वी.हेस (Hess) ने इसका संकेत दिया कि आंतरिक्ष किरणों में वेधनक्षमता अत्यधिक है और वे पार्थिवेतर उद्गम की है। बाद में अनेक अन्वेषकों ने इनके गुणों का बारीकी से अध्ययन किया। समुद्र की सतह पर अंतरिक्ष किरणें १.५ से २.० आयन प्रति घन सेंटीमीटर प्रति सेकंड की (चुंबकीय अक्षांश पर निर्भर) दर से युग्म आयन बनाती है, जिसमें से एक घन और दूसरा ऋण आवेशयुक्त होता है। यह अधिकांश समुद्री जलक्षेत्र और ध्रुवीय स्थलक्षेत्र में आयन निर्माण की व्यवहारिक संपूर्ण दर है। पर अन्य अधिकांश स्थलीय क्षेत्रों में निम्नतर वायुमंडल में रेडियोऐक्टिव पदाथों के कारण हवा के अतिरिक्त आयनन के कारण आयनों की जन्मदर इससे अनेक गुना अधिक होती है। आयनों की जन्मदर अधिक होने पर भी स्थलीय क्षेत्रों की हवा की वैद्युत चालका समुद्र पर स्थित हवा की चालकता से अधिक नहीं होती, बल्कि बड़े शहरों की हवा की चालकता बहुत कम होती है। इस असंगति का कारण यह है कि अशुद्ध हवा में छोटे आयन बड़े आयनों में रूपांतरित हो जाते हैं, जो छोटे आयनों की अपेक्षा धीरे अनुगमन करते हैं और फलस्वरूप हवा की चालकता को अंशदान कम कर पाते हैं। छोटे धन तथा ऋण आयनों की संख्या का निर्धारण करने के लिए, ऐबर्ट आयनमापी नामक उपकरण का उपयोग किया जाता है। इसमें एक भूयोजित (earthed) धातुनलिका होती है, जिसके अक्ष पर एक आविष्टरोधी छड़ चढ़ाया जाता है और उसे स्फटिक रेशा विद्युतदर्शी (quartz fibre electroscope) से जोड़ दिया जाता है। एक घटीयंत्र द्वारा चालित पंखे के जरिए नलिका के द्वारा लगभग पाँच मिनट तक हवा का चूषण किया जाता है और वायुधारा की चाल नियंत्रित करके, इतनी कम रखी जाती है कि नलिका मे प्रविष्ट होनेवाले सभी छोटे आयन, जिनका आवेश केंद्रीय छड़ के आयनों के विपरीत चिह्न का होता है, नलिका की तली तक पहुँचने के पहले छड़ से आकृष्ट हो सकें। इस क्रिया से एक प्रकार के आयनों की संख्या (जैसे न -) ज्ञात करने के लिए आवश्यक आँकड़े मिलेंगे, और यही प्रयोग विद्युत्रोधी छड़ को विपरीत आवेश देकर दुहराने पर दूसरे प्रकार के आयनों की संख्या (जैसे न +) ज्ञात करने के आँकड़े मिलेंगे।

ध्रुवीय चालकता का मापने का गर्डियन उपकरण ऊपर वर्णित ऐवर्ट उपकरण जैसा ही है। इसमें हवा की धारा इतनी तीव्र कर दी जाती है और नलिका के अंदर का क्षेत्र इतना मंदित कर दिया जाता है कि कुल आयनों का बहुत ही छोटा अंश केंद्रीय छड़ तक पहुंच पाता है। यदि ऋणात्मक आवेशयुक्त विद्युद्दर्शी तंत्र की प्रवणता प्र (v), ताप्र/ताट (dv/dt) दर से बढ़ती है और यदि केंद्रीय तंत्र, छड़, और विद्युद्दर्शी की कुल धारिता ध (c) है, तो

केंद्रीय तंत्र, छड़ और उसके आधार की धारा के प्रति अनावृत भाग की धारिता यदि ध (c) हो, तो क= प्र (Q=cv), अत:

जिससे l+ का निर्धारण हो सकता है। l- ज्ञात करने के लिए केंद्रीय छड़ को धनात्मक आवेश देकर यही प्रयोग दोहराना पड़ेगा।

विभव प्रवणता - धरातल से दो भिन्न भिन्न ऊँचाइयों पर दो विद्युत्रोधी चालकों के विभव के अंतर को मापकर वायुमंडल की विभव प्रवणता ताप्र/ताट को ज्ञात किया जा सकता है। वैकल्पिक रूप से एक चालक पृथ्वी और दूसरा धरातल से लगभग एक मीटर ऊँचाई पर तना हुआ क्षैतिज तार होता है। इसका निश्चय कर लेना चाहिए कि तारों (चालकों) के टेकों, प्रेक्षक तथा उपकरणों से मापन किए जानेवाले क्षेत्र में परिवर्तन नहीं हो रहा है। विभव प्रवणताओं का लगातार अभिलेख (record) प्राप्त करने के लिए विद्युत्मापी को एक भवन में रखकर, उसकी दीवार से बहिर्दिष्ट विद्युतरोधी छड़ पर संग्राहक रखा जा सकता है। संग्राहक रेडियोऐक्टिव हो भी सकता है और नहीं भी। हर स्थिति में विद्युतरोधी तंत्र को प्राय: निम्न सुग्राही वृत्तपाद (quadrant) विद्युतमानी की सुई से संबद्ध कर दिया जाता है। वृत्तपाद का केंद्र भूवेशित होता है और उसके संमुख युग्म बैटरी से जोड़ दिए जाते हैं। सुई से संलग्न एक छोटे दर्पण से प्राप्त प्रकाशबिंदु को घड़ी ढोल (clock drum) पर लिपटे हुए ब्रोमाइट कागज पर संग्रहीत करके विद्युन्मापी सुई के विक्षेप का निरंतर अभिलेख प्राप्त किया जाता है। समुद्री क्षेत्र सहित विश्व के विभिन्न भागों से प्राप्त विभवप्रवणता के अभिलेखों से उसकी निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट हुई हैं :

(अ) पृथ्वी के पृष्ठ पर सर्वत्र अच्छे और बुरे मौसमों में विभवप्रवणता का चिन्ह सदा धन है, किंतु स्थल भाग में इसका मान स्थानीय विशेषताओं के अनुसार काफी बदलता है। समूची पृथ्वी के लिए इसका औसत मान लगभग १२० v/m है जबकि महासागरीय क्षेत्रों में यह लगभग १२६ v/m है।

(ब) अच्छे मौसम में स्थल भाग में विभवप्रवणता स्थानीय समायानुसार बदलती है, अर्थात् लगभग ४ बजे प्रात: निम्नतम और छह और आठ बजे शाम के बीच अधिकतम होती है। अनेक स्थानों पर इसका एक अतिरिक्त अधिकतम और न्यूनतम मान क्रमश: ८ बजे प्रात: और मध्यान्ह में होता है। स्थानीय समय के साथ विभवप्रवणता के बदलने और बड़े शहरों के पास वायुमंडल के धूम प्रदूषण (smoke pollution) में, ह्विपल (Whipple) ने, सहसंबंध दिखाया है।

(स) स्थलीय प्रेक्षणस्थलों पर विभवप्रवणता के वार्षिक विचरण में स्थानीय जाड़े में एक अधिकतम, और स्थानीय गरमी में एक न्यूनतम, होता है। इस नियम का एक ही अपवाद दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र है, जहाँ विचरण स्थानीय गरमी में अधिकतम और जाड़े में न्यूनतम होता है।

विक्षुब्ध मौसम में विद्युत् क्षेत्र - वह सामान्य क्षेत्र, जो अच्छे और साफ मौसम में ऊपरी वायुमंडल से नीचे पृथ्वी के पृष्ठ की ओर दिष्ट होता है, बुरे मौसम में प्राय: गड़बड़ा जाता है। कोहरे के समय क्षेत्र बढ़कर प्रा : सामान्य मान से दस गुना हो जाता है। अर्धशुष्क प्रदेश और मरुस्थल में अंधड़ के समय क्षेत्र, प्राय: उत्क्रमित (reversed) हो जाता है, जिसका मान १०,००० v/m तक हो सकता है। बदली और वर्षा में क्षेत्र परिवर्ती होता है और बारीक फुहार में कुछ सौ वोल्टों से लेकर गर्जन मेघ (thunder cloud) में ५०,००० v/m के परास में विचरित होता है। हलकी और स्थिर वर्षा में ऋणात्मक क्षेत्र होना भी सामान्य घटना है, यद्यपि कभी कभी धनात्मक क्षेत्र होना भी सामान्य घटना है, यद्यपि कभी कभी धनात्मक क्षेत्र भी प्रेक्षित किया जाता है। भारी वर्षा और मेघ गर्जन की स्थिति में क्षेत्र का चिह्न, जो प्रेक्षण बिंदु के ऊपर से गुजरनेवाले मेघखंड पर निर्भर करता है, विचरण करता है, परंतु अधिकतर ऋण विभव ही होता है। तड़ित् झंझा के समय यदि मेघ तड़ित् उत्पादन में सक्रिय हो, तो क्षेत्र बहुत अधिक घटता बढ़ता है।

गर्जनमेघ विद्युतीकरण - यह वायुमंडलीय विद्युत् का महत्वपूर्ण विषय है। इसकी क्रियाविधि की अनेक व्याख्याओं में, सी.टी.आर. विल्सन की सुझाई विधि महत्वपूर्ण है। इसके अनुसार क्रियाविधि ऊपर से गिरनेवाले बड़े जलबिंदुओं, या हिमकणों, द्वारा मेघ के सबसे ऊपरी भाग में अवशोषित होता है। विल्सन की क्रियाविधि में पहले से उपस्थित क्षेत्र में अत्यधिक वृद्धि होती है। (किरण चंद्र चक्रवर्ती)