विद्युत् लैंपों का निर्माण (Electric Lamps, Manufacture of) विद्युत् लैंप सबसे सामान्य विद्युत् युक्ति है और सामान्य आवश्यकता की वस्तु है, परंतु इसका निर्माण असामान्यत: विशिष्ट है। इनका उत्पादन बड़े बड़े कारखानों में बड़े पैमाने पर किया जाता है।

विद्युत् लैंप कई प्रकार के होते हैं। सामान्य लैंप, जिसे बल्व भी कहते हैं, वस्तुत: तापदीप्त (incandescent) प्ररूप का होता है, जिसमें किसी धातु के तंतु (filament) को गरम कर प्रकाश देने योग्य बनाया जाता है। ऊष्मा तंतु में विद्युत् धारा के प्रवाहित होने से उत्पन्न होती है। इन लेपों में साधारणतया टंग्स्टेन धातु का तंतु प्रयुक्त किया जाता है, जो एक कुंडलिनी (helix) अथवा कुंडली (coil) के रूप में होता है। यह तंतु एक निर्वातित (evacuated) काँच के बल्ब में, जिसे वायुरोधी सील से बंद कर किया जाता है, निविष्ट रहता है। बंद किए हुए बल्व भी टोपी में तंतु के दोनों टर्मिनल (terminals) होते हैं, जिन्हें बल्व के लैंप होल्डर (lamp holder) में लगाने पर तंतु का परिपथ पूरा हो जाता है और तंतु में से धारा प्रवाहित होने लगती है। इसमें तंतु गरम होकर पहले लाल और फिर सफेद हो जाता है। इस दशा में वह प्रकाश का स्रोत बन जाता है।

तंतु का बंद किए हुए निर्वातित बल्ब में होना आवश्यक है, नहीं तो वह सहल ही ऑक्सीकृत (oxidized) हो जाएगा, और अपने गुण को खो देगा। तंतु का परिचालन-ताप (operating temprature) बहुत अधिक होता है। अत:, तंतु ऐसे पदार्थ का होना चाहिए जो इस ताप पर पिघले नहीं और न ऑक्सीकृत हो। इसलिए तंतु सामान्यत:, टंग्स्टेन, अथवा उसकी किसी मिश्रधातु, के बने होते हैं। तंतु की रचना भी ऐसी होती है कि न्यूनतम ताप पर अधिकतम प्रकाश उत्पन्न करे। इसलिए तंतु कुंडलिनी अथवा कुंडलित कुंडली (coiled coil) के रूप में बनाया जाता है।

बहुत से बल्बों को निर्वातित करके, उनमें कोई अक्रिय (inert) गैस भी भर दी जाती है। ऐसा तंतु को आक्सीकृत होने से बचाने के लिए किया जाता है। निर्वातित करने पर भी बल्व से वायु का पूर्ण निष्कासन नहीं हो पाता। विशेषतया पुराने बल्वों की तली में कुछ कालिख सी जम जाती है, जो वस्तुत: टंग्स्टेन ऑक्साइड होती है। उच्च ताप पर धातु का कुछ कुछ वाष्पन भी होता है और धातु के छोटे छोटे कण बल्ब की तली में जम जाते हैं। इसे बचाने के लिए, बल्व में सक्रिय गैस भरकर उसकी दाब बढ़ा दी जाती है, जिससे वाष्पन न हो सके। मुख्यत:, आर्गन गैस प्रयुक्त की जाती है। गैस से भरे बल्बों में ऊष्मा अधिक शीघ्रता से स्थानांतरित (transfer) होती है और इसलिए उनकी क्षमता भी अधिक होती है।

विद्युत् लैंपों की क्षमता उनकी वोल्टता तथा शक्ति द्वारा निर्धारित की जाती है। सामान्य लैंप २००-२५० वोल्ट और १५, २५, ४०, ६०, ७५, १००, २००, ५०० वाट की क्षमता के होते हैं। किसी लैंप की रचना उसके प्रयोग पर निर्भर करती है, परंतु किसी भी तापदीप्त लैंप के चार मुख्य भाग होते हैं :

(१)�� पाद (Stem) - यह लैंप के तंतु टर्मिनलों को धारण करता है और बल्ब के ऊपरी भाग में टोपी से जुड़ा रहता है। इसमें फ्लैंज काँच (flange glass) की एक छड़ होती है, जिसमें एक निर्वातक नलिका (exhaust tube) तथा इलेक्ट्रोड (electrodes) लगे होते हैं। इलेक्ट्रोडों को फ्लैंज में संगलित कर दिया जाता है और उसे गरम रहते हुए ही पिंच (pinch) कर दिया जाता है। निर्वातक नलिका का एक सिरा काँच की छड़ में बंद कर दिया जाता है। निर्वातक नलिका तथा पाद के शेष भाग के बीच एक छोटा सा छेद बना दिया जाता है, जिसमें से अंत में बल्व की वायु निष्कासित की जाती है।

(२)�� इलेक्ट्रोड - ये बल्व के शीर्ष पर दिए गए तंतु को मिलाते हैं। इनमें भी कई भाग होते हैं। जो भाग पिंच में से होकर आता है, वह एक विशेष धातु का बना होता है और वायुरोधी संधि (air tight joint) बनाने में समर्थ होता है। सामान्यत: ताम्र लेपित प्लैटिनम (copper coated platinum) का जिसे लाल प्लैटिनम भी कहते हैं, प्रयोग किया जाता है।

(३)�� बॉस (Boss) - ठोस काँच की छड़ के सिरे पर मोलिब्डेनम धातु का बाँस आधार के रूप में लगा होता है। अधिक क्षमतावाले लैंपों में मोलिब्डेनम के साथ टंग्स्टेन धातु की मिश्रधातु भी प्रयुक्त की जाती है।

(४)�� घेरा या स्कर्ट (Skirt) - तंतु को धारण करनेवाला पाद काँच के बल्व में बंद कर दिया जाता है। बंद से पहले बल्व का बाहर को निकाला हुआ भाग काट दिया जाता है। यह भाग घेरा कहलाता है। इस स्थान पर बल्व को फ्लैंज पर संगलित (fused) कर दिया जाता है।

निर्वातित बल्बों में निर्वातित नलिका, निर्वातक पंप द्वारा निर्वातन किए जाने के पश्चात्, तुरंत ही सील कर दी जाती है। इसमें बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है, जिससे वायु बल्ब के अंदर न जाने पाए। वायु के साथ साथ नमी और धूल का पूर्णतया निष्कासन भी आवश्यक है, क्योंकि ये तंतु को क्षत कर देती हैं। बल्ब को सील करने के लिए एक स्वचालित मशीन होती है, जो बल्ब को उसी क्षण काँच के गलनांक से कुछ ही कम ताप पर सील कर देती है।

सील होने के पश्चात्, बल्ब, कैपिंग बस (capping bus) से होकर गुजरते हैं यहाँ बल्ब का काल प्रभावन (ageing) किया जाता है। यदि नमी अथवा धूल का कुछ भी अंश बल्ब में रह भी जाता है, तो वह इस क्रिया से निष्क्रिय हो जाता है। साथ ही निर्वात में भी वृद्धि हो जाती है। बल्ब पर ११०-१३० प्रतिशत अधिक वोल्टता आरोपित की जाती है। आयनन से होनेवाले विसर्जन को रोकने के लिए बल्ब के साथ श्रेणी में एक प्रतिरोध लगा दिया जाता है और उसे परिपथ से धीरे धीरे काटा जाता है। वोल्टता का मान भी सामान्य कर दिया जाता है। इस क्रिया को कुछ बार दोहराने से बल्ब कालप्रभावित हो जाता है।

गैस बल्बों में निर्वात होने के तुरंत बाद आर्गान, अथवा नाइट्रोजन, या इनके मिश्रण का बल्ब में समाविष्ट कर दिया जाता है। भरने से पहले, बल्ब को अति शीघ्रतापूर्वक ठंढा किया जाता है और तब उक्त गैस भर दी जाती है। ऐसा करने से बल्ब में लगभग ६०० मिलीमीटर की दाब हो जाती है। इसके बाद इन्हें भी निर्वातित बल्बों की भाँति ही कालप्रभावित किया जाता है, परंतु इसके लिए अधिक वोल्टता, अथवा श्रेणी में प्रतिरोध, संबद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती। गैस के गुण की जाँच करने के लिए, लैंप में उच्च आवृत्ति का विसर्जन पारित किया जाता है। चमक का रंग ही गैस का गुण निर्धारित करता है।

कुंडलित कुंडली वाले लैंपों में तंतु के टूट जाने पर गैस के आयनित हो जाने की संभावना रहती है। इससे लैंप अपनी क्षमता से अधिक धारा ले सकता है और टूट सकता है। इसे बचाने के लिए, संयोजी तारों में एक फ्यूज (fuse) भी लगा दिया जाता है।

तंतु, साधारणत:, बहुत चमकदार होते हैं और चौंध उत्पन्न कर सकते हैं। इस कारण कुछ प्रकार के बल्व की तलहटी को तुषारित (frosted) कर दिया जाता है। ऐसे बल्ब पर्ल बल्ब (Pearl-Bulbs) कहलाते हैं। इनमें चौध तो नहीं होती, परंतु इनकी ज्योतिदक्षता दूसरे बल्बों से कम होती है।

बल्बों को प्रयोग के अनुसार विभिन्न रूपों में बनाया जाता है। इनमें ओपल बल्ब मुख्य हैं, जिनका प्रयोग विशेषतया सजावट के कार्यों में होता है। बहुत से बल्बों को रंग दिया जाता है, जिससे वे भिन्न भिन्न रंगों के हो जाते हैं, और सजावट के काम आते हैं। इन बल्बों में इनैमल अथवा वार्निश का लेपन भी किया जाता है।

बल्ब की टोपियाँ (caps) भी विभिन्न प्रकार की होती हैं। यह सामान्यत: पीतल की होती हैं और बल्ब के सील किए भाग पर जुड़ी रहती हैं। इनमें दो प्ररूप की टोपियाँ मुख्य हैं : एक तो लैंप होल्डर में निविष्ट होकर फँसनेवाली और दूसरी पेंच प्ररूप की, जिन्हें लैंप होल्डर में पेच की भाँति घुमाकर लगाया जाता है। बहुत सी टोपियों में केवल एक ही टर्मिनल होता है और दूसरा टर्मिनल टोपी की धातु स्वयं ही होती है।

टोपियों के प्ररूप मुख्यत: होल्डर के प्ररूप पर निर्भर करते हैं। लैंप होल्डर, बल्ब को संभ्रण से संबद्ध करता है। इसके दो टर्मिनल, जो कमानीदार प्ररूप के होते हैं बल्ब के टर्मिनलों से संस्पर्श करते हैं। ये टर्मिनल स्प्रिंग की गद्दी पर उभरे हुए होते हैं और बल्ब के लैंप होल्डर में फँसाए जाने पर तंतु का परिपथ पूर्ण कर देते हैं।

पेंच प्ररूप के लैंप होल्टरों में बल्ब को होल्डर में पेंच की भाँतिं घुमाकर लगाया जाता है। ये होल्डर पीतल एवं प्लास्टिक दोनों प्रकार के उपलब्ध होते हैं। होल्डर के पीछे का भाग भी प्रयोग के अनुसार भिन्न भिन्न होता है। ये मुख्यत: दो प्ररूप के होते हैं : बैटेन प्ररूप (Batten type) के, जिन्हें लकड़ी के गोल ब्लॉक (round block) पर सीधे ही कस दिया जाता है। दूसरे पेंडेंट (pendent) प्ररूप के होते हैं, जो साधारणतया लटकनेवाले लैंपों में प्रयोग किए जाते हैं।

विसर्जन लैंप (Discharge lamps) - विद्युत् लैंपों का एक महत्वपूर्ण प्ररूप विसर्जन प्ररूप के लैंप हैं। इनका आविष्कार बीसवीं सदी के आरंभ में हुआ था और बहुत थोड़े समय में ही ये महत्वपूर्ण प्रकाशस्रोत बन गए हैं। ये एक काँच की नलिका में विद्युत्विसर्जन के सिद्धांत पर कार्य करते हैं। इनमें प्रकाशस्रोत तापदीप्त लैंपों की तरह तंतु न होकर, नलिका के दोनों सिरों पर इलेक्ट्रोड के बीच की संपूर्ण गैस होती है और इसलिए इन्हें बिंदु स्रोत (point source) न कहकर रेखा स्रोत (line source) कहा जाता है। इसके प्रकाशस्रोत एक चमकदार बिंदुओं की शृंखला न होकर दोनों इलेक्ट्रोडों के बीच की रेखा होती है। इस कारण इनकी प्रकाशतीव्रता अधिक होती है, और ज्योतिदक्षता भी तापदीप्त लैपों की अपेक्षा अधिक होती है।

साधारणत:, विसर्जन किसी गैस अथवा पारदवाष्प भरी हुई नलिका में किया जाता है। इसके लिए एक लंबी काँच की नलिका होती है, जिसके दोनों सिरों पर इलेक्ट्रोड सील किए रहते हैं। दोनों ओर शीर्षों पर टर्मिनल होते हैं, जो लैप होल्टरों में फिट हो जाते हैं और लैंप को संभरण से संबद्ध करते हैं। नलिका को लगाने के लिए, शीर्षों पर दो पिन दिए रहते हैं, जिन्हें लैंप होल्डर के खाँचों में निविष्ट कर समकोण में घुमा दिया जाता है।

विसर्जन लैंपों में, नलिका के अंदर वाले तल पर प्रतिदीप्तिशील (fluorescent) पदार्थों का लेपन कर दिया जाता है। वास्तव में विसर्जन द्वारा उत्पन्न परावैंगनी किरणें प्रभासमान पदार्थ पर पड़ कर उसे चमकाती हैं और इस प्रकार प्रकाश का स्रोत बन जाती है। प्रतिदीप्त लेपन द्वारा लैंप का ऊर्जानिर्गत (energy output) बहुत अधिक बढ़ाया जा सकता है। साथ ही, विभिन्न लेपनों द्वारा किसी भी रंग का प्रकाश उत्पन्न किया जा सकता है।

कुछ विसर्जनों में काँच की नलिका अथवा बल्व को निर्वातित कर, उसमें पारदवाष्प भर दिया जाता है। ऐसे लैंप पारद-वाष्प कहलाते हैं और इनके प्रकाश का रंग नीला-हरा सा होता है। इनका प्रकाश निर्गत सामान्य तापदीप्त लैंपों से बहुत अधिक होता है। इन्हें अधिकतर चौराओं और बड़े बड़े भवनों को प्रकाशित करने के लिए प्रयुक्त करते हैं।

सामान्य प्रतिदीप्ति लैंपों में काँच की एक लंबी नलिका होती है, जिसके दोनों ओर दो इलेक्ट्रोड सील किए रहते हैं एक को कैथोड कहते हैं और ये इलेक्ट्रॉन के स्रोत का कार्य करता है। दूसरा ऐनोड कहलाता है और कैथोड द्वारा उत्सर्जित इलेक्ट्रॉनों को ग्रहण करता है। यह प्रक्रिया विसर्जन कहलाती है। पर यह विसर्जन साधारण वोल्टता पर इतना नहीं हो पाता कि धारा का पथ बन सके। ट्यूब में जो गैस भरी होती है उसका आयनन इस विषय में सहायक होता है। परंतु तब भी विसर्जन को आरंभ करने के लिए क्षणिक उच्च वोल्टता के प्रोत्कर्ष (surge) की आवश्यकता होती है। एक बार विसर्जन आरंभ हो जाने पर आयन न की क्रिया उसे पोषण करने में समर्थ हो सकती है और तब उतनी वोल्टता की आवश्यकता नहीं रहती। इसके लिए इन लैंपों में ऐसे परिपथ की आवश्यकता होती है जो स्विच दबाने पर इलेक्ट्रोडों के बीच उच्च वोल्टता प्रोत्कर्ष स्थापित कर सके। इसके लिए विभिन्न परिपथ एवं प्रवर्तक बनाए गए हैं। इनमें मुख्यत: चित्र में दिखाया गया परिपथ उपयोग में आता है।

स्विच दबाने पर तंतु के कैथोड टर्मिनलों पर बोल्टता आरोपित हो जाती है और आसपास की गैस आयनित हो जाती है। आयनन की गति तीव्र करने के लिए, दोनों इलेक्ट्रोडों के बीच वोल्टता को क्षणिक रूप से बढ़ाना आवश्यक है। कैथोड का ताप भी इतना होना चाहिए कि वह पर्याप्त मात्रा में इलेक्ट्रॉन उत्सर्जित कर सके। साथ ही उसके गरम होने तक विसर्जन में विलंब करना भी आवश्यक है। संलग्न चित्र में एक प्रकार का ताप आरंभक प्रयोग किया गया है, जिसमें U की शक्ल की एक द्विघात्विक (dimetallic) पट्टिका होती है। स्विच दबाने पर यह पट्टिका का तापन कुंडली (heating coil) द्वारा गरम की जाती है। पट्टिका के दोनों ओर दो संस्पर्शक होते हैं, जो समांतर में संबद्ध होते हैं। लैंप को स्विच करने के पहले संस्पर्शक मिले होते हैं। स्विच करने का धारा पट्टिका को गरम करती है और संस्पर्शक खुल जाते हैं। इससे परिपथ टूट जाता है और आकस्मिक प्रोत्कर्ष उत्पन्न होकर विसर्जन आरंभ कर देता है। जब तक स्विच बना रहता है, तापन कुंडलियों में धारा प्रवाहित होती रहती है और संस्पर्शक खुले रहते हैं। एक बार विसर्जन आरंभ हो जाने पर उसका संधारित रहना कठिन नहीं।

चित्र. प्रतिदीप्ति नलिका का परिपथ

प्रतिदीप्ति लेपन (fluorescent coating) भी विभिन्न पदार्थों की होती है। जिंक वेरिलियम सिलिकेट (Zinc Beryllium Silicate) द्वारा उत्पन्न प्रकाश पीला होता है तथा मैग्नीशियम टंग्स्टेट का नीला और कैडमियम वोरेट का लाल प्रकाश होता है। इन तीनों के संमिश्रण से कोई भी रंग प्राप्त किया जा सकता है और इसलिए प्रतिदीप्तिशील लैंप सजावट के कार्यों में बहुत प्रयुक्त किए जाते हैं। वैसे भी यद्यपि ये मँहगे होते हैं, परंतु प्रकाश तीव्रता तथा जीवन दीर्घायु होने के कारण सामान्य लैंपों से अंतत: सस्ते ही पड़ते हैं। (राम कुमार गर्ग)