विद्युत् मोटर (Electric Motor) उद्योगों में एक आदर्श प्रधान चालक (prime mover) है। अधिकांश मशीनें विद्युत मोटरों द्वारा ही चलाई जाती है। इसका मुख्य कारण यह है कि विद्युत् मोटरों की दक्षता दूसरे चालकों की तुलना में ऊँची होती है। साथ ही उसका निष्पादन (performance) भी अधिकतर उनसे अच्छा होता है। विद्युत् मोटर प्रवर्तन तथा नियंत्रण के दृष्टिकोण से भी आदर्श है। मोटर को चलाना, अथवा बंद करना, तथा चाल को बदलना अन्य चालकों की अपेक्षा अधिक सुगमता से किया जा सकता है। इसका दूरस्थ नियंत्रण (remote control) भी हो सकता है। नियंत्रण की सुगमता के कारण ही विद्युत् मोटर इतने लोकप्रिय हो गए हैं।
विद्युत्
मोटर अनेक कार्यों में प्रयुक्त हो सकते हैं। ये कई सौ अश्वशक्ति
की बड़ी बड़ी मशीनें तथा छोटी से छोटी, श्अश्वशक्ति
तक की, मशीनें चला सकते हैं। उद्योगों के अतिरिक्त ये कृषि में
भी, खेतों के जोतने, बोने तथा काटने की मशीनों को और
सिंचाई के पंपों को चलाने के लिए, प्रयुक्त होते हैं। घरों
में प्रशीतन, धोवन, तथा अन्य विभिन्न कामों की मशीनें भी इनसे
चलाई जाती हैं।
विद्युत् मोटर भिन्न-भिन्न प्रयोजनों के लिए भिन्न भिन्न प्रयोजनों के लिए भिन्न भिन्न प्ररूपों के बने हैं। इनमें सरल नियंत्रक लगे रहते हैं, जिनसे अनेक प्रकार का काम लिया जा सकता है।
संभरण के अनुसार मोटर दो वर्गों में बाँटे जा सकते हैं : दिष्ट धारा मोटर और प्रत्यावर्ती धारा मोटर। अपने विशिष्ट लक्षणों केश् अनुसार दोनों ही के बहुतश् सेश् प्ररूप होते है। विद्युत् मोटर विद्युत् ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में परिणत करने के साधन हैं। फैराडे द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत पर ये आधारित होते हैं। मोटर में एक चालक के स्थान पर बहुत से आपस में संबद्ध चालकों का तंत्र रहता है, जो एक आर्मेचर (armature) पर आरोपित होता है। आर्मेचर, नरम लोहे की बहुत सी पट्टिकाओं (plates) को जोड़कर बना होता है और बेलनाकार (cylindrical) होता है। इसमें चारों ओर खाँचे कटे हुए होते हैं, जिनमें चालक समूहोंको कुंडली अथवा दंडों के रूप में रखा जाता है। इन चालकों को, एक निश्चित योजना के अनुसार, आपस में एक दूसरे से संबद्ध किया जाता है। इस निश्चित क्रम को आर्मेचर कुंडलन (armature winding) कहते हैं। विभिन्न प्रकार के कुंडलनों के विशिष्ट लक्षण होते हैं, जिनके विशिष्ट प्रकार के कुंडलनों के विशिष्ट लक्षण होते हैं, निके विशिष्ट लाभ होते हैं। चुंबकीय क्षेत्र भी एक दूसरे चालक समूह में से धारा को प्रवाहित कर प्राप्त किया जाता है। दिष्ट धारा मोटरों के आर्मेचर चालकों में धारा बुरुशों द्वारा ले जाई जाती है। ये बुरुश, वस्तुत: आर्मेचर से संबद्ध दिक्परिवर्तक (commutator) पर आरोपित होते हैं और संभरण से संबद्ध होते हैं। चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करनेवाले कुंडलनों से संबद्ध होते हैं। चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करनेवाले कुंडलनों को सामान्यत: क्षेत्र कुंडली (Field coil) कहते हैं। ये कुंडलियाँ आर्मेचर कुंडलन से श्रेणी में संबद्ध या समांतर में संबद्ध या समांतर में संबद्ध हो सकते हैं। यह भी हो सकता है कि उनके कुछ कुंडलन श्रेणी में हों और कुछ समांतर में। क्षेत्र कुंडलन के इस प्रकार संयोजन के आधार पर तीन विभिन्न प्ररूप के दिष्ट धारा मोटर प्राप्त होते हैं : श्रेणी मोटर (Series Motor) शंट मोटर (Shunt motor) तथा संयुक्त मोटर (Compound motor)। श्रेणी मोटर में जो धारा आर्मेचर में से होकर प्रवाहित होती है, वही क्षेत्र कुंडली में भी प्रवाहित होती है। अत:, इसकी क्षेत्र कुंडली में मोटे तार के बहुत कम कुंडलन होते हैं। शंट मोटर में पूर्ण धारा का कुछ अंश ही क्षेत्र कुंडली में होकर बहता है, जो उसके आरपार बोल्टता तथा कुंडलन के प्रतिरोध पर निर्भर करता है। अत: इसी क्षेत्र कुंडली में बहुत पतले तार के बहुत अधिक कुंडलन होते हैं, जिससे इस कुंडली का प्रतिरोध सामान्यत: कई सौ ओम होता है।
विभिन्न प्ररूपों के दिष्ट धारा मोटरों के लक्षण भी बहुत भिन्न भिन्न होते हैं, और उन्हीं के अनुसार इनका प्रयोग भी भिन्न भिन्न प्रयोजनों के लिए होता है। शंट मोटर लगभग स्थिर चाल परप्रवर्तन करते हैं और भार के साथ उनका चाल विचरण अधिक नहीं होता। अत: वे उन सब उपयोगों में प्रयुक्त होते हैं जहाँ एकसम चाल की आवश्यकता होती है। ये ट्राम, लिफ्ट, क्रेन इत्यादि के लिए बड़े उपयोगी हैं। किसी भार को चलन में लाने से पहले अधिक बल लगाना पड़ता है, पर जब वह चलने लगता है तब उतने बल की आवश्यकता नहीं रहती। अतएव श्रेणी मोटर इन प्रयुक्तियों के लिए आदर्श होते हैं और इनका उपयोग विस्तृत रूप में होता है।
अधिकांश प्रयोजनों के लिए शंट तथा श्रेणी प्ररूपों के बीच की आवश्यकता होती है, जो संयुक्त मोटर द्वारा प्राप्त की जा सकती है।
प्रत्यावर्ती धारा मोटरों में भी दिष्ट धारा मोटरों की भाँति ही क्षेत्रकुंडलियाँ तथा आर्मेचर होते हैं, परंतु कुछ विभिन्न रूप में। इनमें दो मुख्य भाग होते हैं : एक तो स्टेटर (stator), जो स्थिर रहता है, और दूसरा रोटर को घूमता है। प्रत्यावर्ती धारा मोटरें भी विभिन्न प्ररूपों के होते हैं। सबसे-सामान्य प्रत्यावर्ती धारा मोटर प्रेरण मोटर (induction motor) है, जो प्रेरण के सिद्धांत पर कार्य करता है। प्रेरण मोटरों में स्टेटर कुंडलन त्रिकला संभरण से संबद्ध होता है, जिसके कारण एक घूर्णी चुंबकीय क्षेत्र (rotating magnetic field) उत्पन्न होता है। रोटर के चालक आपस में त्रिकलीय कुंडलन के रूप में भी हो सकते हैं, जो दोनों सिरों पर ताँबे के वलय द्वारा लघु परिपथित (short circuited) हों। ऐसी रचना वस्तुत:, गिलहरी के पिंजरे की भाँति होती है। अत: ऐसे मोटरों को सामान्यत: गिलहरी पंजर प्रेरण मोटर, अथवा केवल पंजर मोटर ही कहते हैं। ये मोटर बनावट में बहुत सुदृढ़ होते हैं तथा साथ ही साथ सरल तथा सस्ते भी होते हैं। इनकी दक्षता भी उसी आकार के दूसरे मोटरों की अपेक्षा ऊँची होती है। अतएव इन मोटरों का प्रयोग प्राय: सार्वत्रिक है। परंतु इन मोटरों का प्रचालन, एक प्रकार से, रोटर की बनावट से अनुसार निश्चित होता है और उसमें आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन नहीं किया जा सकता। इनका आरंभिक बलआघूर्ण (starting torque) बहुत कम होता है, जिसे सुधारने के लिए रोटर परिपथ में कुछ प्रतिरोध निविष्ट (insert) करना आवश्यक होता है, परंतु स्थिर प्ररूप की रचना के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाता। साथ ही स्थायी तौर पर रोटर चालकों का प्रतिरोध भी अधिक नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा करने पर हानि अधिक बढ़ जाएगी और मोटर की दक्षता घट जाएगी। अधिक आरंभिक, बलआघूर्ण प्राप्त करने के लिए द्विपंजर (double cage) मोटर प्रयुक्त किए जाते हैं, जिनमें एक के स्थान पर दो पंजर होते हैं। रोटर के खाँचों के प्ररूप तथा उनकी स्थिति के अनुसार प्रचालन लक्षणों में कुछ विभिन्नता प्राप्त की जा सकती है और उन्हें विविध प्रयोजनों के योग्य बनाया जा सकता है।
प्रेरण मोटर लगभग स्थिर चाल पर चलते हैं। भार के साथ उनका चाल विचरण बहुत कम होता है। अत:, जिन भारों के लिए स्थिर चाल की आवश्यकता होती है, वहाँ वे बहुत उपयोगी होते हैं। परंतु जहाँ विचरणशील चाल की आवश्यकता हो, वहाँ पंजर मोअर सामान्यत: प्रयुक्त नहीं किए जाते। इनकी चाल तुल्यकालिक चाल से कुछ ही कम होती है, जो ध्रुव संचया तथा आवृत्ति पर निर्भर करती है। अत: चाल विचरण करने के लिए या तो ध्रुव संख्या में परिवर्तन करना आवश्यक है, अथवा आवृत्ति का ही विचरण करना आवश्यक है। आवृत्ति विचरण करने का तात्पर्य है कि अलग ऐसे संभरण की व्यवस्था करना जिसकी आवृत्ति बदली जा सके। यह साधारणतया व्यावहारिक नहीं होता, क्योंकि विद्युत् संभरण सामान्यत: स्थिर आवृत्ति पर होता है। ध्रुव संख्या को अवश्य ही एक विशिष्ट अनुपात में, कुंडलन के संबंधन में परिवर्तन करके बदला जा सकता है, जैसे एक ४ ध्रुवी मोटर को ८ ध्रुवी अथवा ६ ध्रुवी मोटर में परिवर्तित करना संभव है। इस प्रकार इन ध्रुव संख्याओं के तत्संबंधी वेग भी प्राप्त किए जा सकते हैं। ५० चक्रीय आवृत्ति पर ४ ध्रुवी मोटर की तुल्यकालिक चाल १,५०० प.प्र.मि. और ६ ध्रुवी तथा ८ ध्रुवी का क्रमश: १,००० तथा ७५० प.प्र.मि. है। इस तरह ऐसी मोटर की ध्रुव संख्या में परिवर्तन कर, इनकी तत्संबंधी चाल प्राप्त की जा सकती है। पर ये केवल दो या तीन क्रमों में ही हो सकते हैं। इस विधि से विस्तृत परास में चाल विचरण प्राप्त करना संभव नहीं है। कुछ निश्चित क्रमों में चाल विचरण की एक दूसरी विधि 'सोपानीपत नियंत्रण' (Cascade Control) कहलाती है। यह विधि बेलन मिलों (rolling mills) में अधिकतर प्रयुक्त की जाती है। विभिन्न प्रकार के मशीन औजारों (machine tools) में भी विचरणशील चाल की आवश्यकता होती है, परंतु उनमें सामान्यत:, चाल विचरण गियर क्रमों को बदलकर किया जाता है।
यदि चाल व्यवस्थापन काफी विस्तृत परास में करना हो, तो श्राग मोटर (Schrage motor) बहुत उपयुक्त होते हैं। बहुत से स्थानों में दिष्ट धारा, श्रेणी मोटर का प्रचालन लक्षण वांछनीय होता है। इसकी व्यवस्था करने के लिए प्रत्यावर्ती धारा मोटरों में भी प्रयत्न किया गया है। प्रत्यावर्ती धारा श्रेणी मोटर (A.C. Series motor) एवं दिक्परिवर्तक मोटर (commutator motor) इसी प्रकार के विशिष्ट लक्षणों की व्यवस्था करते हैं। तुल्यकालिक मोटर (synchronous motor) केवल तुल्यकालिक चाल पर ही प्रचालन कर सकते हैं। अत: जहाँ एकसमानचाल की आवश्यकता हो, वहाँ ये आदर्श होते हैं। जिस प्रकार दिष्ट धारा जनित्र एवं मोटर, वस्तुत: एक ही मशीन हैं और दोनों को किसी भी रूप में प्रयोग करना संभव है। उसी प्रकार तुल्यकालिक मोटर भी, वस्तुत:, प्रत्यावर्ती धारा जनित्र का, जिसे सामान्यत: प्रत्यावर्तित्र (Alternator) कहते हैं, ही रूप है और दोनों को किसी भी रूप में प्रयोग करना संभव है। इसके प्रचालन के लिए इसके स्टेटर में प्रत्यावर्ती धारा संचरण तथा रोटर में दिष्ट धारा उत्तेजक (D.C. excitation) दोनों की आवश्यकता होती है। इन मोटरों का प्रयोग कुछ सीमित है। दिष्ट धारा उत्तेजन के लिए प्रत्यावर्तित की भाँति ही इनमें भी एक उत्तेजन के लिए प्रत्यावर्तित की भाँति ही इनमें भी एक उत्तेजक (exciter) की व्यवस्था होती है। इन मोटरों का मुख्य लाभ यह है कि उत्तेजना को बढ़ाने से शक्तिगुणांक (power factor) भी बढ़ाया जा सकता है। अत: विशेषतया उन उद्योगों में जहाँ बहुत से प्रेरण मोटर होने के कारण, अथवा किसी और कारण, से शक्तिगुणांक बहुत कम हो जाता है, वहाँ तुल्यकालिक मोटरों की व्यवस्था कर शक्तिगुणांक को सुधारा जा सकता है। बहुत से स्थानों में तो ये मोटर केवल शक्तिगुणांक सुधार के लिए ही प्रयुक्त किए जाते हैं। ऐसी दशा में इन्हें तुल्यकालिक संधारित्र (Synchronous condenser) कहा जाता है।
बहुत से स्थानों में केवल एककलीय (single phase) संभरण ही उपलब्ध होता है। वहाँ एककलीय मोटर प्रयोग किए जाते हैं। छोटी मशीनों तथा घरेलू कार्यों के लिए एककलीय प्रेरण मोटर (single phase induction motor) बहुत लोकप्रिय हैं। बिजली के पंखों में भी एककलीय मोटर प्रयुक्त होते हैं। इसी प्रकार धावन मशीनों, प्रशीतकों तथा सिलाई की मशीनों इत्यादि में एककलीय मोटर ही प्रमुख किए जाते हैं। एककलीय मोटरों की मुख्य कठिनाई इनके आरंभ करने में होती हैं। आरंभ करने के लिए किसी प्रकार का कला विपाटन (phase spliting) आवश्यक होता है। कला विपाटन साधारणतया एक सहायक कुंडली द्वारा किया जाता है, जिसके एरिपथ में एक संधारित्र दिया होता है, जो सहायक कुंडलन की धारा को मुख्य कुंडलन की धारा से लगभग १० विद्युत् डिग्री विस्थापित कर देता है। इसके कारण घूर्णी चुंबकीय क्षेत्र की उत्पत्ति संभव हो सकती है और मोटर चलने लगता है। संधारित्र के परिपथ में रहने से मोटर का प्रचालन शक्तिगुणांक भी सुधर जाता है। बहुत से छोटे छोटे मोटर सार्वत्रिक किस्म के होते हैं और दिष्ट धारा एवं प्रत्यावर्ती धारा दोनों में ही प्रयुक्त किए जा सकते हैं। वस्तुत: ये श्रेणी मोटर होते हैं, जिनका प्रचालन दिष्ट धारा एवं प्रत्यावर्ती धारा दोनों में ही प्रयुक्त किए जा सकते हैं। वस्तुत: ये श्रेणी मोटर होते हैं, जिनका प्रचालन दिष्ट धारा एव प्रत्यावर्ती धारा दोनों में ही संभव है, परंतु ये अत्यंत छोटे आकारों में ही बनाए जा सकते हैं और केवल कुछ विशेष प्रयुक्तियों में ही काम आते हैं।
मीटरों तथा दूसरे उकरणों में तथा जहाँ किसी विद्युत् राशि का मापन करना हो वहाँ अत्यंत छोटे आकार के मोटर प्रयुक्त होते हैं। दूरस्थ नियंत्रण, अथवा वाल्व इत्यादि को खोलने के लिए भी, बहुत से छोटे मोटर प्रयुक्त होते हैं।
मोटर का ऊपरी आवरण विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार बनाया जाता है। कुछ मोटर खुले हुए प्ररूप के होते हैं, जिनमें उनके अंदर के भाग सामने दिखाई पड़ते हैं, परंतु ऐसे मोटरों में धूल मिट्टी जाने का डर रहता है। अतएव ये खुले स्थानों में नहीं प्रयुक्त किए जा सकते। परंतु ऐसे मोटरों में प्राकृतिक संवातन (ventilation) अच्छा होता है। अतएव ये शीघ्रता से गरम नहीं होने पाते। इस कारण ऐसे मोटर आकार के अनुसार सापेक्षतया अधिक क्षमता के होते हैं। जहाँ मोटर को खुले स्थानों में प्रचालन करना पड़ता है वहाँ धूल मिट्टी इत्यादि का डर हो सकता है, अत: पूर्णतया आवृत मोटर प्रयुक्त किए जाते हैं। ऐसे मोटरों में मुख्य कठिनाई संवातन की होती है। इनका आवरण भी ऐसा बनाया जाता है कि वह अधिकतम ऊष्मा विस्तरित (dissipate) कर सके। साथ ही उसी ईषा (shaft) पर आरोपित एक पंखे की भी व्यवस्था होती है, जो मोटर के अंदर संवातन वायु को प्रवेश कर सके और उसमें उत्पन्न होनेवाली ऊष्मा को विस्तरित कर सके। अधिकांश प्रयोजनों के लिए अर्ध-परिबद्ध (semienclosed) मोटर संतोषजनक होते हैं, जिनमें मोटर के दृष्टिगोचर होनेवाले भाग जाली द्वारा ढके रहते हैं। इस प्रकार इनमें उपर्युक्त दोनों प्ररूपों के लाभ निहित रहते हैं। विशेष परिस्थितियों के लिए विशेष प्रकार के आवरण बनाए जाते हैं, जैसे खानों के अंदर अथवा विस्फोटक वातावरण में पूर्णतया ज्वालारहित (flame-proof) मोटर प्रयुक्त किए जाते हैं। इसी प्रकार कुछ मोटर पानी में नीचे काम करने के लिए बनाए जाते हैं और उनके आवरण की रचना काम करने के लिए बनाए जाते हैं और उनके आवरण की रचना इस प्रकार होती है कि पानी मोटर के अंदर न जा सके। और भी बहुत सी विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार के आवरण बनाए जाते हैं।
बहुत सी मोटरों को भार से (कार्यकारी मशीन से) सीधे ही संबद्ध कर दिया जाता है और बहुत सी अवस्थाओं में उन्हें पट्टी (belt), गियर (gear) अथवा चेन (chain) द्वारा संबद्ध किया जाता है। गियर से चालक एवं चालित मशीनों में लगभग स्थिर चाल अनुपात पोषित किया जा सकता है और गियर क्रम बदलकर विभिन्न चालें भी प्राप्त की जा सकती हैं। पट्टी द्वारा शक्ति के प्रेषण में मशीन को मोटर से काफी दूर भी रखा जा सकता है और एक सामान्य ईषा को भी चलाया जा सकता है, जिससे दूसरी मशीनें संबद्ध हों। बड़े बड़े कारखानों में साधारणतया यही विन्यास होता है।
मोटरों की क्षमता के लिए मुख्य परिसीमा ताप की वृद्धि है। ताप के बढ़ने पर क्षत होने का भी भय रहता है, तथा हानियों के बढ़ जाने से मोटर की दक्षता भी कम हो जाती है। इस प्रकार मोटर अनवरत प्रचालन नहीं कर सकता। अधिकांश मोटर एक विशिष्ट ताप वृद्धि के लिए क्षमित होते हैं, जो विद्युतरोधी के वर्ग पर निर्भर करता है। बहुत से मोटर 'संतत क्षमता' (contiuous rating) के होते हैं, जिसका तात्पर्य है कि वह निर्धारित भार, बिना ताप के विशिष्ट सीमा तक बढ़े, निरंतर संभरण कर सकते हैं। बहुत से मोटर केवल अल्प काल के लिए ही पूर्ण भार पर प्रचालन करते हैं और बाकी समय बहुत कम भार पर रहते हैं अथवा बंद रहते हैं। यदि प्रचालनक्रम निश्चित हो, तो ऐसे प्रयोजनों के लिए कम क्षमता की मोटर केवल अल्प काल के लिए ही पूर्ण भार पर प्रचालन करते हैं और बाकी समय बहुत कम भार पर रहते हैं अथवा बंद रहते हैं। यदि प्रचालनक्रम निश्चित हो, तो ऐसे प्रयोजनों के लिए कम क्षमता की मोटरें प्रयोग की जा सकती हैं, जिनका प्रचालन तथा क्षमता अल्प समय के लिए ही निर्धारित होती है।
विद्युत् मोटर औद्योगिक प्रगति का महत्वपूर्ण सूचक है। यह एक बड़ी सरल तथा बड़ी उपयोगी मशीन है। उद्योगों में शायद ही कोई ऐसा प्रयोजन हो जिसके लिए उपयुक्त विद्युत मोटर का चयन न किया जा सके। (राम कुमार गर्ग)