विद्युत् चालन श्ठोस, द्रव और गैसों में विद्युत् चालन की क्रियाविधि भिन्न-भिन्न है, अत: इन पर हम अलग-अलग ही विचार करेंगे।

ठोसों में विद्युत् चालन - यदि किसी द्रव्य के एकक धन के संमुख (oppositer) फलकों के आर-पार एकक विभवांतर अनुप्रंयुक्त करने पर उत्पन्न धारा एक (unity) हो, तो कहा जाता है कि द्रव्य में एकक चालकता है। चालकता का व्युत्क्रम (reciprocal) प्रतिरोधकता कहलाता है। विद्युत् चालन संबंधी प्रारंभिक अध्ययनों से ही स्पष्ट हो गया था कि विभिन्न ठोसों की धारा वहन करने की धारिताओं में पर्याप्त अंतर होता है। सभी ठोसों को निम्नलिखित तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है : (१) धातु या विद्युत् के अच्छे चालक, (२) अर्धचालक या विद्युत् के घटिया चालक और (३) विद्युतरोधी या विद्युत् के बुरे चालक।

धातु

चिरसंमत सिद्धांत (Classical Theory) - धातुओं की चालकता की व्याख्या करने का पहला प्रयास ड्रूड (Drude) ने १९०० ई. में किया। उन्होंने कल्पना की कि धातु के अंदर मुक्त इलेक्ट्रॉन गैस होती है। निम्न द्रव्यमान के कारण इलेक्ट्रॉनों में उच्च गतिशीलता होती है और जब धातु में विद्युत्क्षेत्र प्रयुक्त किया जाता है तब ये गतिमान होते हैं और विद्युत् को चालित करते हैं। १९०५ ई. में लोरेंत्ज़ (Lorentz) ने इस सिद्धांत में सुधार किया और ओम का नियम (Ohm's Law) तथा वाइडेमान फ्रांज़ (WiedemannFranz) नियम की भी सही व्यख्या की। ओम के नियमानुसार धारा का घनत्व श्अनुप्रयुक्त विद्युत क्षेत्र श्का अनुपाती है, अर्थात् श्जहाँ s धातु की चालकता है। वाइडेमान-फ्रांज़ नियम के अनुसार वैद्युत चालकता s और ऊष्मीय चालकता K में संबंध है श्(स्थिरांक), जहाँ T ठोस का चरम ताप है।

ड्रूड-लोरेंत्ज़ नियम के संमुख अनेक सस्याएँ उत्पन्न हुईं। मान लिया गया था कि धातु के अंदर स्थित मुक्त इलेक्ट्रॉन गैस चिरसंमत मैक्सवेल बोल्ट्ज़मान ऊर्जा वितरण से युक्त है और यह ३/२ ko (ko=वोल्ट्ज़मान स्थिरांक) प्रति इलेक्ट्रॉन स्थिर आयतन पर विशिष्ट ऊष्मा (specific heat) को अंशदान करता है। धातुओं की विशिष्ट ऊष्मा प्रति परमाणु ३ ko है और यह ५० प्रतिशत इलेक्ट्रॉनिक अंशदान सामान्य ताप पर कभी नहीं प्रेक्षित किया जाता। इसके अतिरिक्त चूँकि इलेक्ट्रॉनों में नैज चुंबकीय आघूर्ण (intrinsic magnetic moment) एक बोर मैग्नेटन (Bohr Magneton) होता है, अत: जब धातु को चुंबकीय क्षेत्र में रखा जाता है, तब उसे अल्प चुंबकन प्रदर्शित करना चाहिए और यह चुंबकीय प्रवृत्ति (susceptibility) क्यूरी के नियमानुसार X=C/T विचरित होनी चाहिए, जहाँ C एक स्थिरांक है। चुंबकीय प्रवृत्ति में ऐसा कोई विचरण नहीं दिखाई पड़ता।

क्वांटम सिद्धांत - उल्लिखित कठिनाइयाँ तब दूर हुईं जब यह पता चला कि धातु में स्थित इलेक्ट्रॉन चिरसंमत मैक्सवेल बोल्ट्ज़मान सांख्यिकी तथ्यों की बजाय फेर्मि-डिरैक (Fermi-Dirac) सांख्यिकी तथ्यों का पालन करते हैं।

परंतु एक बुनियादी सवाल टाल दिया गया है। चूँकि धातु परिमित वैद्युत चालकता प्रदर्शित करते हैं, अत: धातु में किसी प्रकार की घर्षणी क्रियाविधि होनी चाहिए, जो विद्युत् क्षेत्र की उपस्थिति में साम्यवस्था ला सके। ऐसी क्रियाविधि के अभाव में इलेक्ट्रॉनों का त्वरण अनिश्चित रूप से होगा और सभी ताप पर चालकता अनंत होगी। यह दर्शाया जा सकता है कि इलेक्ट्रॉनों में होने वाली अन्योन्य किया इतनी अल्प होती है कि वह परिमित चालकता का कारण होने में असमर्थ है।

धातु के भीतर स्थित इलेक्ट्रॉन विभव कूपों (potential wells) की एक श्रेणी में गतिमान होते हैं। इन कूपों का निर्माण आयनों के धन आवेश से होता है, जो विभिन्न जालक स्थलों (lattice sites) पर स्थित होते हैं। इलेक्ट्रॉन गति की समस्या का विवेचन क्वांटम यांत्रिक विधि से करना चाहिए। इससे धातु, अर्धचालक और विद्युतरोधियों के रूप में ठोस का वर्गीकरण स्पष्ट समझ में आता है।

सारणी १ : कुछ ठोसों के विशिष्ट प्रतिरोध

ठोस

विशिष्ट प्रतिरोध (ओम सेमी)

ठोस

विशिष्ट प्रतिरोध (ओम सेमी)

धातुएँ

अधातुएँ

ऐलुमिनियम

३.२११०-

सिलिकन

०.०६

ताम्र

१.७८

जर्मेनियम

०.०८९

स्वर्ण

२.४२

सिलीनियम

१०१६

लोह

११.५

हीरा

१०१२१०१३

सीसा

२०.८

गंधक

१०१५

पारद

९५.७६

एबोनाइट

१०१५

निकल

११.८

कॉच (पाइरेक्स)

१०१४

पोटैशियम

६.६४

अभ्रक

१०१५

रजत

१.६३

पैराफ़िन मोम

१०१८

ठोस धन आयनों से बना हुआ है। ये धन आयन एक नियमित जालक में विन्यस्त है और इन्हें इलेक्ट्रॉन गैस घेरे हुए है। ये आवेश का निराकरण कर देते हैं। परमशून्य से ऊँचे ताप पर आयन निरंतर ऊष्मीय प्रक्षोभ (thermal agitation) की स्थिति में होते हैं। इलेक्ट्रॉन इन आयनों और अन्य सभी इलेक्ट्रॉनों के विभव क्षेत्र में संचलन करता है। इसके अतिरिक्त वास्तविक ठोस में अनेक प्रकार के दोष हो सकते हैं, जैसे अपद्रव्य परमाणु, रिक्त जालक स्थल, अंतराली (interstitial) परमाणु, स्थानभ्रंश, चितिदोष (stacking faults) आदि। अत: यथार्थ क्रिस्टल की क्वांटम यांत्रिक समस्या को हल करना लगभग असंभव है। इसलिए हम आदर्श स्थिति पर ही विचार करते है। मान लिया जाता है कि इलेक्ट्रॉन स्थिर आयतनों के नियमित व्यूह (regular array) से उत्पन्न विभव क्षेत्र और अन्य इलेक्ट्रॉनों के उपयुक्त माध्य विभव में इस एक इलेक्ट्रॉन सन्निकटन (approximation) में जालक की आवर्तिता होती है। यदि इस विभव में संचालित होनेवाले इलेक्ट्रॉन का श्रेडिंगर (Schrodinger) समीकरण हल किया जाए, तो ऊर्जा के कुछ निश्चित मानो के लिए ही हल मिल पाता है। अनुमत ऊर्जा क्षेत्र सामान्यत: ऊर्जा अंतराल द्वारा पृथक् होते हैं, जिनमें किसी हल का अस्तित्व नहीं होता। यदि अनुमत ऊर्जा बैड इलेक्ट्रॉनों से प्राप्त हो तो [पाउली अपवर्जन नियम के अनुसार दो से अधिक इलेक्ट्रॉन एक ही संवेग अवस्था को अधिकृत नहीं कर सकते] विद्युत क्षेत्र का अनुप्रयोग इलेक्ट्रॉनों की ऊर्जा को नहीं बढ़ा पाएगा, क्योंकि उच्चतर ऊर्जा अवस्थाएँ वर्जित हैं। अतएव ऐसा ठोस विद्युतरोधी जैसा व्यवहार करेगा। यदि उच्चतम अधिकृत बैंड में निम्नतम ऊर्जा अवस्था के ही इलेक्ट्रॉन हैं, तो वह इलेक्ट्रॉनों के संचलन द्वारा ठोस विद्युत् को अपने में से प्रवाहित होने देगा। ऐसी स्थिति भी हो सकती है जिसमें उच्चतम अधिकृत बैंड लगभग भरा हुआ हो। यहाँ पर धारा का कारण बैंड में कोटरों (holes) की उपस्थिति है।

आवर्ती जालक में इलेक्ट्रॉनों का व्यवहार भौतिक युक्तियों द्वारा भी निकाला जा सकता है। v वेग से गतिशील इलेक्ट्रॉन का तंरगदैर्ध्य, l=h/m v होता है, जिसमें h प्लांक स्थिरांक औरश् इलेक्ट्रॉन का द्रव्यमान है। अत: इलेक्ट्रॉन को हम आवर्ती जालक में गतिमान तरंग के रूप में भी चित्रित कर सकते हैं। जालक की स्थितियों (sites) पर स्थित आयनों द्वारा यह तरंग प्रकीर्ण होगी और जालक यदि पूर्ण तथा शून्य ताप पर है, जिसके कारण आयन विराम की स्थिति में हैं, तो दो ऐसे आयनों का पता लगाना संभव है जो एक निश्चित दिशा में p कलांतर के साथ प्रकीर्ण हो जाएँ। ये प्रकीर्ण तरंगें विनाशी व्यतिकरण (destructive interference) करेंगी और अनुप्रस्थ दिशा में प्रकीर्णन नहीं होगा। यदि विद्युत् क्षेत्र का अनुप्रयोग किया जाता है, तो इलेक्ट्रॉन त्वरित हो जाते हैं और उनके तरंगदैर्ध्य का ्ह्रास होता है। जब तरंगदैर्ध्य जालक समतलों के पृथक्करण d के एक निश्चित समुच्चय (set) के लिए ब्राग (Bragg) प्रतिबंध 2 d sin q = l पूरा होता है (q वह कोण है जिसे इलेक्ट्रॉनों की गति की दिशा समतलों के साथ बनाती है), तब इलेक्ट्रॉन परावर्तित होते हैं और अप्रगामी तरंगें बनती है। यदि एसे इलेक्ट्रॉनों की ऊर्जा में पर्याप्त वृद्धि न की जाए जिससे वे बाद के अनुमत ऊर्जा बैंड में स्थानांतरित हो जाएँ, तो वे जालकों में से होकर नहीं गुजर सकते। दूसरी कोटि के ब्रैग परिवर्तन के होने तक बाहरी विद्युतक्षेत्र के प्रभाव से तरंगदैर्ध्य घट सकता है। अत: एकविमीय जालक के लिए ऊर्जा बनाम तरंग संख्या वक्र चित्र १. में प्रदर्शित आकार का होगा।

आंशिक रूप से भरे हुए बैंड में स्थित इलेक्ट्रॉन बिना प्रतिरोध के संचलन करेगा, यदि जालक पूर्ण और चरम शून्य ताप पर हो। घर्षणी क्रियाविधि, जो सीमित चालकता का जन्म देती है, सामान्य ताप पर परमाणुओं के ऊष्मीय विक्षोभ अशुद्धियों की मौजूदगी या अन्य जालक दोषों के कारण हो सकती है। इन सब के कारण इलेक्ट्रॉन के संघट्टन का एक सुस्पष्ट माध्य मुक्त पथ LF और विश्रांतिकाल अर्थात् दो संघट्टनों के बीच का माध्यकाल TF होगा। जो इलेक्ट्रॉन धातु में चालन को अंशदान (contribution) देते हैं, वे फर्मी वितरण के सिरे के निकट होते हैं, जहाँ पर अलेक्ट्रॉन की ऊर्जा निम्नलिखित होती है :

. . . . . . . . . . . (१)

चित्र १.

एकविमीय जालक के लिए तरंगसंख्या के फलन

के रूप में इलेक्ट्रॉन ऊर्जा का आलेखन।

k = n p/a पर ऊर्जा असांतत्य होता है,

जहाँ n एक पूर्णांक संख्या तथा a जालक अंतराल है।

जहाँ n धातु के प्रति इकाई आयतन में इलेक्ट्रानों की संख्या है। इससे VF निश्चित होता है। विद्युत् चालकता s के मापने से TF का मान मिलता है, क्योंकि ये दो परिमाण निम्नलिखित समीकरण के अनुसार संबद्ध होते हैं :

. . . . . . . . . . . (२)

LF=VF TF के मान जो इस प्रकार प्राप्त होते हैं सारणी २ में प्रदर्शित हैं। प्रेक्षित किया गया है कि यह कई सौ ऐंगस्ट्रॉमों में होता है।

ये लंबे माध्य, मुक्त पथ चिरसम्मत सिद्धांत के आधार पर कठिनाई से समझे जा सकते है, जिसमें यह माना जाता है कि आयनी क्रोडों के बीच स्थित अंतराल में इलेक्ट्रॉन गतिमान होते हैं। अतएव माध्य मुक्त पथ कुछ ऐंगस्ट्रामों से अधिक न होना चाहिए। परंतु बैंड सिद्धांत के अनुसार माध्य, मुक्त पथ चरम ताप पर पूर्ण जालक के लिए अनंत है। माध्य, मुक्त पथ ऊष्मीय विक्षोभ और जालक दोषों के कारण कम हो जाता है।

सारणी २ : ० सें. पर कुछ एकसंयोजक

धातुओं के लिए चालकता, माध्य मुक्त पथ एवं विश्रांति काल

धातु

sohs१०१७ स्थि.वि.मा. (e.s.u.)

EF (ev)

LF (A)

TF (१०-१४ सेकंड में)

लि (s)

१.१

४.७

११०

०.९

सो (s)

२.१

३.१

३५०

३.१

पो (s)

१.५

२.१

३७०

४.४

ता (s)

५.८

७.०

४२०

२.७

र (s)

६.१

५.५

५७०

४.१

मिश्रधातु

जब किसी धातु में अपद्रव्य होते हैं, तब अपद्रव्यों के निकट का क्षेत्र उस क्षेत्र से भिन्न होता है जो आतिथेय परमाणु (host atom) के निकट होता है। इस प्रकार अपद्रव्य जालक विभव की आवर्तिता में विचलन उत्पन्न करते हैं और इलेक्ट्रॉनों के प्रकीर्णन केंद्रों (scattering centres) का काम करते हैं। जालक के ऊष्मीय कंपनों द्वारा इलेक्ट्रॉनों का जा प्रकीर्णन होता है उसके अतिरिक्त यह प्रकीर्णन और होता है। चूँकि प्रकीर्णन की संभाव्यता विश्रांति काल की विलोमानुपाती है, अत: परिणामी विश्रांति काल T निम्नलिखित समीकरण द्वारा व्यक्त किया जाता है :

. . . . . . . . . . . (३)

जहाँ Ti और Tth क्रमश: अपद्रव्य और ऊष्मीय प्रकीर्णन प्रक्रियाओं के लिए विश्रांति काल है। विश्रांति काल Ti ताप पर बहुत थोड़ा निर्भर करता है। अत: अपद्रव्य की उपस्थिति के कारण किसी धातु की प्रतिरोधकता लगभग स्थिर होगी। दूसरी ओर, Tth ताप के साथ विचरण करता है। इसलिए प्रतिरोधकता को उसका अंशदान ताप पर निर्भर करेगा। यदि अपद्रव्य की सांद्रता बहुत अधिक न हो, तो १/Ti तथा आपेक्षिक प्रतिरोधकता ro दोनों अपद्रव्य की सांद्रता के अनुक्रमानुपात में होंगी। शुद्ध ताँबे की प्रतिरोधकता का अल्प निकेलयुक्त ताँबे की प्रतिरोधकता के संयोजन में ताप के फलन के रूप में, चित्र २. में, व्यक्त किया गया है। निकेल की पारमाणविक प्रतिशतता प्रत्येक वक्र के साथ दिखाई गई है। ऐसे अध्ययनों से अपद्रव्यों और ऊष्मीय विक्षोभ इन दोनों की प्रतिरोधकता का अंशदान ज्ञात हो सकता है।

मिश्रधातुओं की प्रतिरोधकता के कुछ और रोचक पहलू हैं, जिन्हें हम ताँबा-सोना-समुदाय पर विचार करते हुए स्पष्ट करेंगे। जैसी आशा है, ताँबे में स्थित सोने की निम्न सांद्रताओं के लिए (या सोने में ताँबा) अपद्रव्यों की सांद्रता के साथ प्रतिरोधकता बढ़ती है (चित्र ३.)। यदि मिश्रधातु को ६५० सें. से शमित (quenched)

चित्र २.

ताप के फलन के रूप में शुद्ध ताम्र और इसी धातुओं की

प्रतिरोधकता P का आलेखन।

किया जाता है, जिससे अक्रमित समुदाय रह जाता है, तो जैसा वक्र १ में दिखाया गया है प्रतिरोधकता सोने की पारमाणवीय प्रतिशतता के अनुसार विचरण करती है। दूसरी ओर यदि मिश्रधातु २०० सें. पर तापानुशीतित (annealed) कर दी गई है, जिससे कम से कम अंशत: क्रमित अवस्था उत्पन्न हो जाती है, तो प्रतिरोधकता का निम्निष्ठ (minima) प्राप्त होगा (वक्र २.), जो Cu3 Au और Cu Au संघटन की क्रमित संरचनाओं का तदनुरूपी होगा और शुद्ध तत्वों का भी तदनुरूपी निश्चय ही होगा। इन सभी स्थितियों में अक्रमित मिश्रधातुओं के विपर्यास (contrast) में इलेक्ट्रॉनों द्वारा देखा हुआ विभव लगभग आवर्ती होगा। जालक में क्रम का परिमाण द्रव्य की प्रतिरोधकता द्वारा साफ परावर्तित होता है।

यहाँ पर यह संकेत किया जा सकता है कि ठोसों में विकिरण प्रभावों के अध्ययन में प्रतिरोधकता मापों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। किसी धातु को न्यूट्रॉनों द्वारा, या अन्य किसी प्ररूप के विकिरण द्वारा किरणित करने पर एक निश्चित संख्या में अंतराली परमाणु और रिक्तियाँ बनती हैं। इनमें से प्रत्येक इलेक्ट्रॉनों के प्रकीर्णन में और प्रतिरोधकता में भी अंशदान करती हैं। उत्पन्न दोषों की संख्या और किसी निश्चित ताप पर इन दोषों के तापानुशीतन के लिए लगनेवाले समय के संबंध में प्रतिरोधकतामापों द्वारा सूचनाएँ प्राप्त करना संभव है।

१९११ ई. में कामरलिंग आनेस (Kamerlingh Onnes) ने खोज की कि पारे की प्रतिरोधकता पूर्णतया ४.२ के. से निम्न ताप पर लुप्त हो जाती है। इस सक्रमण (transition) ताप से, जो काफी सीमित ( ०.०५ के) होता है, निम्न ताप पर पारे

चित्र २.

स्वर्ण का ताम्र में सांद्रता के फलनरूप में ताम्रस्वर्ण मिश्र धातु की प्रतिरोधकता।

वक्र १ : ६५० से. पर शामिल मिश्रधातु।

वक्र २ : २०० सें. तापानुशीतित मिश्रधातु।

की स्थिति अतिचालक अवस्था (superconducting state) कहलाती है। यह ज्ञात है कि पारे के अलावा अनेक अन्य धातुएँ, जैसे सीसा, अतिचालकता प्रदर्शित करती हैं। इसे एक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र के अनुप्रयोग द्वारा नष्ट किया जा सकता है। Hc (T) क्षेत्र की देहली (threshold), या क्रातिक मान, ताप का फलन है। क्रांतिक ताप Tc पर Hc=0 होता है। अतिचालक तार से तीव्र धारा को गुजार कर अतिचालकता नष्ट की जा सकती है। अतिचालक अवस्था का विनाश तार में से गुजारी हुई धारा के साथ संबद्ध चुंबकीय क्षेत्र द्वारा होता है।

माइसनर (Meissner) और आंशेनफील्ड (Oschenfeld) ने दिखाया है कि यदि किसी अतिचालक को एक अनुदैर्ध्य चुंबकीय क्षेत्र में ठंडा किया जाए, तो क्रांतिक ताप पर पहुँचने पर प्रेरण रेखाएँ उभारदार हो जाती है। यही है माइसनर ऑशेनफील्ड प्रभव। अत: अतिचालक अवस्था के लिए B=0, या चुंबकीय प्रवृत्ति K = -1/4 p। इससे यह अभिप्राय निकलता है कि अतिचालक अवस्थाएँ पूर्ण चुंबकत्व प्रदर्शित करती है। यह परिणाम इस तथ्य से स्वतंत्र है कि अतिचालक अवस्था का प्रतिरोध शून्य है। तथ्य यह है कि दोनों ही अतिचालक के गुण है।

यह देखा गया है कि संक्रमण के लिए क्रांतिक ताप जालक आयनों की संहति के साथ विचरण करता है। मैक्सवेल, रेनाल्ड और उनके सहयोगियों ने इसे सर्वप्रथम १९५० ई. में पारे के समस्थानिकों (isotopes) में प्रेक्षित किया था। क्रांतिक ताप (Tc) ४.१८५ के. से ४.१४६ के. तक विचरण करता है, जब कि समस्थानिकीय संहति (M) १९९.५ से २०३.४ तक विचरण करती है। प्रयोगात्मक परिणाम प्राय: किसी एक समस्थानिक श्रेणी में निम्नलिखित संबंध की पुष्टि करते हैं :

= स्थिरांक . . . . . . . . . . . (४)

यह तथ्य सूचति करता है कि अतिचालक संक्रमण इलेक्ट्रॉन जालक अन्योन्य क्रिया से उपजता है।

बहुत समय तक यह समझना अत्यंत कठिन बना रहा कि क्यों कुछ धातुएँ और मिश्रधातुएँ अतिचालक अवस्था के प्रति संक्रमण अवस्था प्रदर्शित करती है और कैसे वे इलैक्ट्रॉन, जो पॉली के अपवर्जन नियम (Pauli Exclusion Principle) का पालन करते हैं, अंत में उसी अवस्था को प्राप्त करते हैं। समस्थानिक प्रभाव की खोज के बाद अनेक प्रयत्न हुए कि इलेक्ट्रॉन जालक अन्योन्य क्रिया के आधार पर अतिचालकता का सिद्धांत विकसि किया जाए, परंतु तर्कसंगत रूप से सफल सिद्धांत का विकास अभी हाल ही में अमरीकन वैज्ञानिकों, बारडीन (Bardeen), कूपर और श्राइएफर (Schrieffer) तथा रूसी वैज्ञानिक, बोगोलूबॉफ (Bogoluboff) के प्रयत्नों से संभव हो सका। इस सिद्धांत में प्रतिपादकों ने सिद्ध किया है कि इलेक्ट्रॉनों के बीच अन्योन्य किया, इलेक्ट्रॉन अवस्थाओं के बीच सन्निहित ऊर्जा तर फोनॉन (Phonon) ऊर्जा से कम होने पर, फोनॉनों के आभासी विनिमय के कारण, आकर्षक हो सकती है। आकर्षक अन्योन्य क्रिया जब आवृत (screened) कूलंब अन्योन्य क्रिया पर हाबी हो जाती है, तब अतिबालिक प्रावस्था (phase) का निर्माण संभव है।

अर्धचालक (Semiconductors) - धातुओं के अलावा, जो विद्युत् के अच्छे चालक होते हैं, पदार्थों का एक वर्ग ऐसा है जो बहुत निम्न ताप पर तो बहुत ही दुर्बल चालक होता है, परंतु ऊँचे ताप पर इलेक्ट्रॉनिक चालकता प्रदर्शित करता है। कुछ पदार्थों में जब अपद्रव्य होते हैं तब कुछ मुक्त इलेक्ट्रॉन होते हैं। इस वर्ग के ठोस, जो उच्च ताप पर, या अपद्रव्यों के रहने पर, विद्युत चालक होते हैं, अर्धचालक कहलाते हैं। इनमें से प्रथम प्रकार के नैज अर्धचालक (intrinsic semiconductors) कहलाते हैं, जिनके उदाहरण हैं जर्मेनियम और सिलिकन। दूसरे प्रकार के ठोस अपद्रव्य अर्धचालक कहलाते हैं। अर्धचालकों के इस विचित्र गुण को ठोसों के बैंड सिद्धांत (band thory) के आधार पर भलीभाँति समझा जा सकता है। नैज (intrinsic) अर्धचालक में, संयोजकता बैंड (valence band) के पूर्णत: भरे रहने और चालन बैंड के पूर्णत: रिक्त रहने के कारण, चालकता शून्य होती है। नेज अर्धचालक में संयोजकता और चालन बैडों में ऊर्जा का अंतर पर्याप्त अल्प होता है, जिससे जब ठोस का ताप ऊँचा होता है, तब इलेक्ट्रॉन उत्तेजित होकर चालन बैड में चले जाते है। इस प्रकार हम चालन बैड के तल में इलेक्ट्रॉन पाते हैं और संयोजकता बैड के शीर्ष पर विवर (hole)। इलेक्ट्रॉन और विवर दोनों ही धारा का वहन करने में कार्यकारी होते हैं। इनकी संख्या ताप पर निर्भर होगी। चालकता e-b/T के समानुपाती होगी, जिसमें ऊर्जा अंतराल की चौथाई पर निर्भर होगी।

यदि किसी ठोस में अपद्रव्य मिलाए जाएँ, तो चालकता या संयोजकता बैड के ईद गिर्द स्थानीकृत तल (localized level) बनेंगे। यदि अपद्रव्य तल रिक्त चालन बैंड के निकट पड़ते हैं तो वह इलेक्ट्रॉनों के दाता (donor) के रूप में और इलेक्ट्रॉन किसी परिमित (finite) ताप पर चालन बैंड में उपस्थिति रहेंगे। ऐसे अपद्रव्य अर्धचालकों में धारा का वहन इलेक्ट्रॉन करते हैं। दूसरी ओर यदि अपद्रव्य तल भरे हुए संयोजकता बैंड से एक इलेक्ट्रॉन स्वीकार कर सकता है, तो पुन: विद्युत का चालन होगा, परंतु विवरों द्वारा होगा। इसमें ऐसा प्रतीत होता है कि धारा धन आवेशों के द्वारा प्रवाहित हो रही है, परंतु यथार्थ में इलेक्ट्रॉन ही गति में रहते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि अर्धचालकों में ताप के साथ चालकता बढ़ती है, जब कि धातुओं में यह घटती है।

प्रयोग द्वारा प्रत्यक्ष रूप से अर्धचालक में धारावाहक की प्रकृति निर्धारित की जा सकती है। जब चालक चुंबकीय क्षेत्र में धारा की दिशा के लंबत: स्थापि किया जाता है, तब क्षेत्र और धारा दोनों की दिशा के लंबत: एक विभव उत्पन्न होता है। इसे हाल प्रभाव (Hall Effect) कहते हैं। क्षेत्र और धारा की दिशा की तुलना में विभव पात के चिह्न से वाहकों के आवेश का अनुमान किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, देखा गया है कि जहाँ क्षारीय धातुएँ (alkali metals), सोना, चाँदी, ताँबा आदि इलेक्ट्रॉन धारा का वहन करती हैं, वहाँ बेरिलियम, जस्ता कैडमियम में धारा का वहन विवरों के द्वारा होता है।

आयनिक क्रिस्टल - अब हम आयनिक ठोसों की विद्युत चालकता की चर्चा करेंगे। इन ठोसों की चालकता विद्युत् अपघट्यों (electrolytes) की विद्युत चालका से साम्य रखती है। यदि आयनिक क्रिस्टल के सम्मुख फलकों के बीच विभवांतर प्रयुक्त किया जाए, तो धारा का संसूचन (delection) किया जा सकता है। क्षारीय हैलाइडों के संदर्भ में धारा इतनी बड़ी होती है कि उन्हें इलेक्ट्रॉनों की गति के पदों में नहीं व्यक्त किया जा सकता, क्योंकि सन्निहित तापों में चालन बैंड में इलेक्ट्रॉनों की संख्या बहुत कम होगी। अत: विद्युत् क्षेत्र के प्रभाव में आयनों के प्र्व्राजन के कारण धाराओं का जन्म होता है। इलेक्ट्रोडों पर जो निक्षेप होते हैं उनसे भी इस बात का संकेत मिलता है कि धाराओं की प्रकृति आयनिक है।

क्षारीय हैलाइडों की यह आयनिक चालकता रिक्त जालक स्थितियों (vacant lattice sites) की गति के पदों (terms) में व्यक्त की जा सकती है। धनात्मक आयन रिक्तियों में प्रभावी ऋणआवेश होता है, अत: वे रिक्तियाँ एनोड की ओर गतिशील होंगी और ऋणात्मक आयन रिक्तियाँ कैथोड की ओर गतिशील होंगी। क्षारीय हैलाइडों में धनात्मक आयन रिक्तियों की गतिशीलता ऋणात्मक आयनों की अपेक्षा काफी अधिक होती है, जबकि बेरियम और सीसे के हैलाइडों में स्थिति उत्क्रमित हो जाती है।

द्रवों में विद्युत् चालन - धातुओं और गैसों में विद्युत् चालन से द्रवों में विद्युत् चालन भिन्न है। जब किसी विद्युत् अपघट्य में धारा प्रवाहित की जाती है, तब चालन द्रव्यात्मक अयनों द्वारा होता है, न कि इलेक्ट्रॉनों द्वारा और द्रव्य का स्थानांतरण होता है, जिसे प्रयोग द्वारा प्रेक्षित किया जा सकता है।

विद्युत् अपघट्य मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं : एक ता व, जो शुद्ध अवस्था में चालन करते हैं, जैसे पानी, अम्ल और ऐल्काहॉल (चाँदी, बेरियम आदि के ठोस हैलाइड, संलीन लवण, हाइड्रेट और कुछ अन्य पदार्थों में भी चालन की प्रक्रिया ऐसी ही होती है) और दूसरे हैं, एक निश्चित में एक या अधिक पदार्थों के विलयन। विद्युत् अपघट्यों का यह दूसरा वर्ग अधिक महत्व का है।

धातु के प्लेट या छड़, जिनका उपयोग विद्युत् अपघट्य में से धारा को गुजारने के लिए किया जाता है, इलेक्ट्रोड कहलाते हैं। धन विभव पर स्थित इलेक्ट्रोड ऐनोड कहलाता है तथा दूसरा कैथोड। जब दोनों इलेक्ट्रोडों पर विभवांतर प्रयुक्त किया जाता है तब धन आयन, जिन्हें कैटायन कहते हैं, और ऋण आयन, जिन्हें एनायन कहते हैं, क्रमश: कैथोड और ऐनोड की ओर विस्थापन करते हैं। इसी से धारा निर्मित होती है।

आर्रेनियस (Arrhenius) ने पहले विचार प्रस्तुत किया कि द्रव के कुछ अणु धन और ऋण आयनों में वियोजित

चित्र ४. वैद्युत् अपघटन का परिपथ

(dissociated) हो जाते हैं और ये विद्युत् चालन का कारण है। वियोजन की मात्रा, a जिसे वियोजित अणुओं और कुल अणुओं के अनुपात के रूप में परिभाषित किया गया है, विलयन की सांद्रता पर निर्भर करती है तथा तनु विलयनों के लिए यह एक के लगभग होती है। उदाहरणार्थ, जब NaCl और KCl पानी में घुलते हैं, तब इन अणुओं का एक अंश निम्नलिखित रूप में टूट जाता है :

NaCl Na++Cl-

KCl K++Cl-

आयन पर स्थित नेट (net) आवेश उसकी संयोजकता से निर्धारित किया जाता है। उदाहरणार्थ जब बेरियम क्लोराइड पानी में घुलता है :

BaCl2 Ba++ + 2 Cl-

अर्थात् कुल तीन आयन, एक द्विगुण आवेशवाला और दो एक आवेशवाले, उत्पन्न होते हैं।

फैराडे ने द्रवों में विद्युत् के गमन का व्यपक अध्ययन किया और उसने दो नियम पाए, जो वैद्युत् अपघटन (electrolysis) के फैराडे के सिद्धांत कहे जाते हैं। इनके अनुसार (१) किसी धारा द्वारा किए हुए रासायनिक निक्षेपण का परिमाण विद्युत् अपघटनी विलयन में से होकर गुजरनेवाली विद्युत् की मात्रा का समानुपाती है, (२) विद्युत् की एक ही मात्रा भिन्न भिन्न पदार्थों की जिन राशियों को मुक्त करती है, वे उन पदार्थों के रासायनिक तुल्यांक भार (equivalent weights) के आनुपातिक होते हैं।

पहला नियम कहता है कि निक्षेपण का परिमाण धारा की सामर्थ्य और धारा प्रवाहित होने के समय का अनुक्रमानुपाती है। दूसरे नियम से यह निष्कर्ष निकलता है कि किसी पदार्थ के एक तुल्यांक भार को, जो विद्युत् की मात्रा मुक्त कर सकती है, वह पदार्थ की प्रकृति पर निर्भर नहीं है। इसे फैराडे कहते हैं और यह ९६,५०० कूलॉम के बराबर है। यदि किसी उपयुक्त विद्युत् अपघट्य में एक फैराडे विद्युत् प्रवाहित की जाए, तो वह १.००८ ग्राम हाइड्रोजन, या १०७.८८ ग्राम चाँदी, या ३१.७८ ग्राम ताँबा (ताँबे की संयोजकता २ है) मुक्त करेंगी।

फैराडे के नियम निश्चित समय में विद्युत् अपघट्य में प्रवाहित हुई विद्युत् की मात्रा का निर्धारण करने में मदद करते हैं। वैद्युत् अपघटन (electrolysis) से मुक्त धातु को तौलना भर पड़ता है। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए अभिकल्पित विशिष्ट उपकरण को वोल्टामीटर (Voltameter) या कूलोमीटर (Coulometer) कहते हैं।

इलेक्ट्रॉनिक आवेश का आकलन फैराडे के ज्ञात मान से सबसे पहले किया गया। चूँकि रासायनिक तुल्यांक भार में आयनों की संख्या N/Z है, जहाँ Z विचाराधीन परमाणु की संयोजकता है और चूँकि उनके द्वारा वहित कुल आवेश F है, आयन का आवेश

. . . . . . . . . . . (५)

जहाँ एकसंयोजी आयनों के लिए Z = 1 और e इलेक्ट्रॉनिक आवेश का मान है।

विद्युत् अपघट्यों की चालकता - किसी विद्युत् अपघट्य की चालका को मापने के लिए सामान्यतया प्रत्यावर्ती धारा परिपथ (alternating current circuits) का उपयोग किया जाता है। दिष्ट धारा मापनों से अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती है। सबसे पहली बात यह है कि विद्युत् धारा के प्रवाहित होने से इलेक्ट्रोडों पर द्रव्यात्मक आयनों का निक्षेपण होता है, जिससे विलयन में उनका सांद्रण कम होता है। इससे चालकता में अंतर उत्पन्न होता है। प्राय: इलेक्ट्रोडों पर गैसें मुक्त होती हैं, जो द्रव में विभवपात (potential drop) के प्रतिमान (pattern) को बदल देने की प्रवृत्ति रखती है, और सभी मापों को दूषित कर देती हैं। ये ही कारण हैं, जिनसे प्रारंभ में पाया गया कि विद्युत् अपघट्यों के प्रसंग में ओम का नियम नहीं चलता। परतु यदि अत्यंत दुर्बल धारा का उपयोग किया जाए और उपयुक्त इलेक्ट्रोड़ों का प्रयोग किया जाए, तो मापन संभव है। परंतु आजकल अधिकतर प्रयेग उच्च आवृत्ति की प्रत्यावर्ती धाराओं द्वारा किया जाता है। इससे त्रुटियाँ, सांद्रण में कभी और इलेक्ट्रोडों पर गैस का निकलना, दूर होती हैं। सामान्यत: चालकतामापनों के लिए अभीष्ट विद्युत् अपघट्यों को खास सेलों में स्थिर इलेक्ट्रोडों के साथ रखा जाता है।

किसी विद्युत् अपघटय की चालकता तुल्यांक चालकता, L, के पदों में ही व्यक्त की जाती है। यह उस आयतन v की चालकता है जिसमें विलायक का एक तुल्यांक भार होता है और जो एक सेंटीमीटर की दूरी पर स्थित दो प्लेट इलेक्ट्रोडों के बीच रखा जाता है। इस प्रकार

L=Kv . . . . . . . . . . . (६)

जहाँ K विशिष्ट चालकता है। यह ध्यान देने की बात है कि चूँकि प्लेटों का अलगाव १ सेंमी बताया गया है, विलयन द्वारा आवृत किसी प्लेट का क्षेत्र v सेंमी है।

विभिन्न विलयनों में चालकतामापन किए गए हैं और देखा गया है कि L घटते हुए सांद्रण के साथ बढ़ता है। अतिनिम्न सांद्रणों के लिए उपगामी (asymptotic) मान को अपरिमित तनुता पर तुल्यांक चालकता कहते हैं और Lo द्वारा निरूपित करते हैं। चित्र ५. में कुछ प्रारूपिक विलेयों (typical solutes) के सांद्रण के साथ L का विचरण दिखाया गया है।

KCl (K++Cl-); BaCl2 (Ba+++2 Cl-) और २५ सें. पर पानी में घुला हुआ Ni SO4 (Ni+++SO4--) हैं। NiSO4 और BaCl2 के पहले जो गुणनखंड श्लगा है, उसका मतलब यह है कि चूँकि Ni और Ba की संयोजकता २ है, अत: इस पदार्थ के परमाणु भार का आधा Lo के निर्धारण के लिए लेना चाहिए। Lo के क्रमश: मान हैं १४८, १३६ और ११९ ओम। -सेंमी

विद्युत् अपघट्य में विद्युत् का चालन धन और ऋण आयनों की गति या संचलन से होता है। यह देखा गया है कि अपरिमित तनुता पर दो प्रकार के आयनों का संचलन एक दूसरे से स्वतंत्र रूप से माना जा सकता है और यह आयनों के प्र्व्राजन का कोलराऊश नियम (Kohlrausch's Law) कहलाता है। इस नियम को इस रूप में व्यक्त किया जा सकता है:

Lo = lo+ + lo- . . . . . . . . . . . (७)

जहाँ अपरिमित तनुता पर lo+ और lo- क्रमश: कैवायनों और ऐनायनों की आयन चालकताएँ कहलाती हैं। सारणी ३. में कुछ प्रारूपिक मान दिए हुए हैं।

चित्र ५.

कुछ विलेयों की तुल्य चालकता का सांद्रण के साथ परिवर्तन।

चूँकि वैद्युत धारा का घनत्व वह नेट आवेश (net charge) है जो मात्रक समय (unit time) में मात्रक क्षेत्र को पार करता

सारणी ३: २५ सें. पर तथा ओम- सेंमी में, अनंत तनुता पर आयनिक चालकता

धनायन

lo+

ऋणायन

lo-

हा+ (H+)

३४९.८२

औहा- (OH-)

१९८

पो+ (K+)

७३.५२

क्लो- (Cl-)

७६.३४

+ (Ag+)

६१.९२

गंऔ-- ( SO4--)

७९.८

सो+ (Na+)

५०.११

ना औ-(NO3-)

७१.४४

वे++ ( Ba++)

६३.६४

है, अत: वह आयनों के वेग पर निर्भर रहेगा। यह वेग विद्युत् विघट्य में अनुप्रयुक्त क्षेत्र (field) पर सीधे निर्भर है। यदि आयन १ बोल्ट विभव पात में से होकर १ सेंमी दूरी पार करता है, तो उसके द्वारा अर्जित वेग को अयन की गतिशीलता (u) के रूप में यदि हम परिभाषित करें, तो हम दिखा सकते हैं कि

lo+ = Fuo+ और lo- = F uo- . . . . . . . . . . . (८)

जहाँ u अनंत तनुता पर गतिशीलता को निरूपित करता है और F फैराडे है। कतिपय प्रारूपिक आयनों के लिए गतिशीलता सारणी ४. में दी हुई है।

सारणी ४: २५ सें. पर जल में गतिशीलता

धनायन

गतिशीलता (सेमी/से.)

ऋणायन

गतिशीलता (सेमी/सेकंड)

हा (H)

३६.२ १०-

हा औ (HO)

२०.५ १०-

पो (K)

७.६१

गं औ (SO4)

८.२७

बे (Ba)

६.६०

क्लो (Cl)

७.९१

सो (Na)

५.१९

ना औ (NO3)

७.४०

लि (Li)

४.०१

का औ (CO2)

४.६१

दूसरी बात जो यहाँ उल्लेखनीय है वह यह है कि गतिशीलता, अत: चालकता Lo, विलयन की श्यानता (viscosity) पर निर्भर है। देखा गया है कि गुणनफल lo ho विभिन्न विलायकों के लिए एक ही होता है, जिसमें ho श्यानता का गुणांक है। इसे वेल्डन का नियम कहते हैं। विलयन का Lo ताप के परिवर्तन के साथ परिवर्तित होता है, परंतु यह परिवर्तन ऐसा होता है कि lo ho स्थिर रहता है।

सारणी ५ : २५ सें. पर एकसंयोजक विद्युत् अपघट्य के लिए ऑनसेजर स्थिरांकों के मान

अ (A)

ब (B)

जल

६०.२०

०.२२९

मेथिल ऐल्कोहॉल

१५६.१

०.९२३

ऐथिल ऐल्कोहॉल

८९.७

१.३३

ऐसीटोन

३२.८

१.६३

डेबाइ हकेल सिद्धांत - आयनों की सांद्रता C के साथ तुल्यांक चालकता (equivalent conductance) के विचरण की व्याख्या करने के प्रारंभिक प्रयास में कान लिया गया था कि आयनों का वेग सांद्रण पर निर्भर नहीं है और केवल वियोजन की मात्रा (degree of dissociation) परिवर्तित होती है। वियोजन की मात्रा a चालकता अनुपात L/L के साथ अभिनिर्धारित (identify) की गई। शीघ्र ही देखा गया कि यद्यपि C के निम्न मानों के लिए आयनी वेग C पर निर्भर नहीं है, परंतु C के बड़े मानों के लिए आयनीय वेग सांद्रण पर बहुत कुछ निर्भर करता है। बड़े सांद्रणों पर अंतरा आयनी (interionic) बल महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं और आयनों को धीमा कर देने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है। इस घटना की संतोषजनक व्याख्या डेबाइ और हकेल ने दी, जिसका सुधार बाद में ऑनसेजर ने किया। हम इसपर संक्षेप में यहाँ विचार करेंगे।

हम पहले एक धन आयन पर विचार करें। अपने आवेश के कारण यह अपने चारों ओर आयनों का मेघ जुटा लेगा, जिसपर नेट ऋण आवेश होगा। यह आवेश परिमाण में धन आयन के आवेश के बराबर होगा। आयन के अर्धव्यास की १०० गुनी दूरी तक इस मेघ का प्रसार हो सकता है। इस आयन मेघतंत्र का नेट आवेश शून्य है और यह वैद्युत रूप से उदासीन है। जब कोई बाह्य क्षेत्र प्रयुक्त किया जाता है, तब आयन कैथोड की ओर गति आरंभ करता है, परंतु मेघ के जड़त्व के फलस्वरूप वह कुछ पीछे छूट जाता है। इसके कारण अवेशों का पृथक्करण उत्पन्न होता है, अर्थात् समूचा तंत्र ध्रुवित (polarised) हो जाता है। ऋण मेघ, जो पीछे छूट जाता है, आयन को पीछे की ओर खीचता है, जिससे उसकी गति मंदित होती है। दूसरा बल जो कार्यशील हो उठता है वह है, ऐनोड और ऋण मेघ के बीच पारस्परिक आकर्षण। यह भी आयन की गति को मंदित करने की प्रवृत्तिवाला होता है।

इन बलों को ध्यान में रखते हुए और यह मानते हुए कि नियोजन की मात्रा a है, डेबाइ-हैकेल-ऑनसेजर ने उस विद्युत् अपघट्य के लिये जिसमें धन और ऋण एक संयोजक हैं, यह संबंध पाया

L = a [Lo - (A + BLo)] . . . . . . . . . . . (९)

A और B स्थिर है, जो विलायक की प्रकृति और तप पर निर्भर करते हैं और कुछ विलायकों के संदर्भ में उनके मान यहाँ दिए गए हैं।

गैसों में एवं दुर्बल विद्युत् क्षेत्रों में विद्युत् चालन - सभी गैसें सामान्य ताप और दाब की स्थिति में बहुत अच्छी विद्युत्रोधी होती है। यदि एक आवेशित विद्युत्दर्शी को चुपचाप पड़ा रहने दिया जाए तो वह बहुत समय तक के लिए आवेश को धारण करेगा। बहुत ही मंद रूप से जो क्षरण (leakage) होता है, उसका कारण आसपास स्थित कॉस्मिक किरणों और अन्य रेडियोऐक्टिव संदूषणों के कारण विद्युत्दर्शी में स्थित गैस का आयनन है। ये विकिरण लगभग प्रति घन सेंटीमीटर में प्रति सेंकड १० आयन युग्मों को उत्पन्न करते हैं।

एक्सकिरण, गामा किरण आदि आयनकारी विकिरणों को गैस में से गुजार कर उसकी चालकता में वृद्धि की जा सकती है। ये विकिरण बाह्य इलेक्ट्रॉनों को कुछ परमाणुओं से निर्लेपित करते हैं, जिससे परमाणु धन आवेशवाले हो जाते हैं। इलेक्ट्रॉन अन्य उदासीन परमाणुओं से जुड़ जाते हैं, जिससे ऋण गैस आयनों का निर्माण होता है। यदि इस गैस में स्थित दो इलेक्ट्रोडों पर विभवांतर प्रयुक्त किया जाए, तो ये आयन धारा को प्रवाहित करेंगे। यह चालन ठोसों और द्रवों में विद्युत् चालन से अनेक प्रकार से भिन्न होता है। प्रथमत: ओम का नियम विभवांतर के अल्पमानों में पाया जाता है और बड़े मानों के लिए धारा संतृप्ति प्रभाव (saturation effect)

चित्र ६.

कम विभवांतरों के लिए विभवांतर के फलन के रूप

में इलेक्ट्रोडों की मध्य धारा का आलेख।

प्रदर्शित करती हैं। यह इस कारण कि गैस के अंदर उत्पन्न आयनों की संख्या आयनकारी स्रोत की सामर्थ्य के अनुसार सीमित होती है और (यदि स्वयं आयनन का कोई दूसरा स्रोत काम में न लाया जाए तो) धारा इस संख्या द्वारा सीमित होगी।

गैस में आयनों का व्यवहार समझने के लिए अनेक प्रयोग किए गए हैं। दो अभिलक्षक (characteristic) परिमाण मापने पड़ते हैं : आयनों की गतिशीलता और पुनस्सयोजन दर। गतिशीलता सेंमी प्रति सेकंड में वह वेग है जो १ सेंटीमीटर की दूरी पर स्थित इलेक्ट्रोडों पर १ वोल्ट विभव प्रयुक्त करने पर आयन द्वारा प्राप्त किया जाता है और पुन: संयोजन का गुणांक a निम्नलिखित समीकरण द्वारा परिभाषित होता है :

. . . . . . . . . . . (१०)

यहाँ n1 और n2 क्रमश: प्रति इकाई आयतन में धन और ऋण आयनों की संख्याएँ हैं। आयनों की गतिशीलता और a दोनों दाब पर निर्भर है। आयनों की गतिशीलता दाब के बढ़ने पर घटती है और a बढ़ता है। ऋण आयनों की गतिशीलता हमेशा धन आयनों की गतिशीलता से कुछ अधिक होती है, परंतु दोनों ही वायुमंडलीय दाब और कमरे के ताप पर एक होते हैं। हवा का मानक ताप और दाब पर पुन: संयोजन गुणांक a लगभग १.६ १०- सेमी सेकंड- होता है, अर्थात् यदि एक धन सेंटीमीटर हवा में प्रत्येक प्रकार के आयनों की संख्या १,००० हो, तो औसतन लगभग १.६ आयन एक सेकंड में पुन: संयोजन करेंगे।

तीव्र विद्युत् क्षेत्र में चालन - ऊपर वर्णित बातें तभी ठीक उतरती है जब इलेक्ट्रोड़ों के बीच प्रयुक्त क्षेत्र बहुत बड़ा न हो। बड़े क्षेत्रों के लिए चालन की क्रियाविधि भिन्न है।

गैसों में बड़े क्षेत्रों का उपयोग करते हुए, विद्युत् चालन संबंधी अधिकांश मौलिक अनुसंधान कार्य जे.जे. टामसन और जे.जे. टाउनसेंड ने १९२०-१९२९ ई. तक किया। इन अध्ययनों के परिणामस्वरूप आवेशित कण के संसूचन (charged particle detection) के आधुनिक उपकरणों का निर्माण संभव हो सका है, जैसे गाइगर मूलर संगणक (Geiger Muller counter), आयनन कोष्ठ आदि। गरम प्लेज़्मा (plasma) अर्थात् आयनित कणो की गैस में तापनाभिकीय अभिक्रिया (thermonuclear reaction) उत्पन्न करा सकने की संभावना से, वर्तमान समय में यह क्षेत्र बड़ा ही महत्वपूर्ण हो गया है।

अब निम्न दाव पर गैसों में विसर्जन की विवेचना की जाएगी। चित्र ७. में एक गैस कोष्ठ दिखाया गया है, जिसमें दो इलेक्ट्रोड है। इनके बीच की दूरी A परिवर्तित की जा सकती है। अ (A) इलेक्ट्रोड पर विभव प्रयुक्त किया जाता है और दूसरे को एक विद्युन्मापी वि (E) से जोड़ देते हैं। यह विद्युन्मापी १०-१०

चित्र ७. किसी गैस द्वारा विद्युत्प्रवाह अध्ययन करने की नली

ऐंपियर तक की धारा को माप सकता है। एक्स किरण या गामा किरण को कैथोड ब (B) पर पड़ने दिया जाता है, जिससे वह फोटो इलेक्ट्रॉन उत्सर्जित (emit) करने लगता है। ये अ (A) की ओर चल पड़ते है और यदि विभवांतर अधिक हो, तो उनमें इतनी ऊर्जा संचित हो जाती है कि वे अपने मार्ग में स्थित अन्य परमाणुओं को आयनित करने के लिए पर्याप्त होते हैं। इस प्रकार उत्पन्न इलेक्ट्रॉन गैस को और भी इसी प्रकार आयनित कर सकते है। यह दर्शाया जा सकता है कि इलैक्ट्रोड पार्थक्य d के लिए धारा

1=1o ec 1d . . . . . . . . . . . (११)

होगी। यहाँ c1 स्थिरांक है, जो क्षेत्र (विभवांतर/दूरी) और दबाव पर निर्भर होता है। यदि d बड़ा है, तो ऊपर लिखित समीकरण को इस प्रकार सुधार लेना होगा :

. . . . . . . . . . . (१२)

यहाँ C2 दूसरा स्थिरांक है, जो दबाव और क्षेत्र पर निर्भर है। यदि १o 1/1o को d के साथ आलिखित (plot) किया जाए, तो चित्र ८. में प्रदर्शित आकार का वक्र प्राप्त होगा। d के अल्पमानों के लिए वक्र d में रेखीय है, जबकि मान d=ds के लिए

1-C2 (e1d-1) = 0 . . . . . . . . . . . (१३)

वक्र अनंत की ओर अग्रसर होता है। इसका तात्पर्य यह निकलता है कि d d मान के लिए यदि आयनकार स्रोत न भी हो, तब भी धारा प्रवाहित होगी ही। धारा का अधिकतम मान बाह्य परिपथ द्वारा निर्धारित होगा। विभव पात Vs जो इस स्थिति को ds

चित्र ८. किसी गैस के समरूप क्षेत्र में दूरी के

साथ आयनन वृद्धि की तुलना।

दूरी पर उत्पन्न करता है स्फुलिंग (sparking) विभव कहलाता है और केवल P ds पर निर्भर है जिसमें P गैस का दबाव है। यह संबंध पाशन का नियम (Paschen's law) कहलाता है।

वक्र का रेखीय भाग, जैसा हम पहले कह आए हैं, गैस को आयनित करनेवाले प्राथमिक प्रकाश इलेक्ट्रॉनों द्वारा गैस में उत्पन्न इलेक्ट्रॉनों के कारण है। d के निकट धारा में होनेवाली अकस्मात् वृद्धि द्वितीयक प्रक्रियाओं का कारण है, जैसे (१) धन आयनों द्वारा गैस का आयतन (२) धन आयन, या प्रोटॉन बमबारी आदि द्वारा कैथोड से द्वितीयक इलेक्ट्रॉनों का उत्सर्जन। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण कैथोड से इलेक्ट्रॉन उत्सर्जन है, परंतु चाहे धन आयन या फोटॉन द्वारा उत्सर्जन होता हो, कर्मक (agent) का तुलनात्मक महत्व कैथोड की प्रकृति और प्रायोगिक अवस्थाओं पर निर्भर होता है।

जहाँ तक स्फुलिंग के उपक्रम (initiation) की अवस्थाओं का संबंध है, प्रेक्षण किया गया है कि उच्च दबाव पर भी स्फुलिंग उपक्रम उन्हीं अवस्थाओं में होता है, जिनमें निम्न दबाव पर होता है, अर्थात् पाशन का नियम दाब के इस परास (range) में भी भली प्रकार लागू होता है।

विसर्जन के उपक्रम की विवेचना कर चुकने के बाद, अब हम निम्न दाब पर विसर्जन के स्वरूप पर विचार करेंगे। विसर्जन का प्ररूप (type) अन्य बातों के अलावा नली के अंदर दाब तथा उपस्थित गैस इलेक्ट्रोडों के आरपार की बोल्टता आदि पर निर्भर है। उदाहण के लिए चित्र ९. में उस स्थिति के विसर्जन लक्षण (discharge characteristics) दिए गए है जिसमें कतिपय सेंटीमीटर व्यास की ५० सेंमी लंबी नली, और १ मिलीमीटर पारे के दबाव पर नियन गैस से भरी हुई नली अल्पधारा ~१०- ऐंपियर वहन करती है। प्रेक्षित किया जाता है कि कैथोड के निकट विभव पात बड़ा ही तीखा होता है, जिसका अभिप्राय है कि वहाँ पर विद्युत् क्षेत्र बड़ा है।

यदि दाब को पारे के लगभग १०- मिलीमीटर तक घटा दिया जाए और उच्चतर वोल्टताएँ (2-50 kev) अनुप्रयुक्त

चित्र ९. विसर्जन की लंबाई के अनुदैर्ध्य विसर्जन प्राचलों का परिवर्तन।

की जाएँ, तो विसर्जन का लक्षण पूर्णत: बदल जाता है। अब यह अदीप्त विसर्जन (dark discharge) होता है, अर्थात् दृश्य प्रकाश उत्सर्जित नहीं होता और इलेक्ट्रोडों के बीच गतिशील आयनों में किरणपुंज (beam) के सभी गुण होते हैं। यदि इन्हें 'कैथोड' के किसी छिद्र द्वारा गुजरने दिया जाए, तो वे सुनिश्चित स्पष्ट किरण कूर्चिका (pencil) के रूप में निर्गत होते हैं और कैनैल किरण (canal rays) या धन रिण, कहलाते हैं। इन आवेशित आयनों के द्रव्यमान के निर्धारण का व्यापक कार्य जे.जे. टॉमसन ऐस्टन और अन्य लोगों ने किया है।

विसर्जन में शीत इलेक्ट्रॉन उत्सर्जन - ज्ञात है कि उच्च क्षेत्रों के प्रभाव में शीत धातुपृष्ठों से इलेक्ट्रॉन उत्सर्जित होते हैं। विसर्जन नली के अंदर कैथोड पृष्ठ पर निर्भर यह प्रभाव अंतिम विसर्जन के स्वरूप को बहुत अधिक प्रभावित कर सकता है। खास तौर से जब उच्च क्षेत्रों को, उच्च दाब पर और अल्प अंतराल पर, प्रयुक्त किया जाता है, तब शीत इलेक्ट्रॉन उत्सर्जन गैस में इतना आयनन उत्पन्न कर सकता है कि वह स्फुलिंग विभग Vs को घटाने और पाशन के नियम को विफल करने के लिए पर्याप्त हो। यह विदित है कि कैथोड पर ऑक्साइड की परत की उपस्थिति इस प्रभाव को और भी बढ़ाती है।

प्रत्यावर्ती और स्पंद (pulsed) क्षेत्रों में विसर्जन - उच्च आवृत्ति वाले प्रत्यावर्ती क्षेत्रों द्वारा गैस में विसर्जन को और भी उत्तेजित किया जा सकता है। इस स्थिति में, जैसा चित्र १०. में दिखाया गया है, बाह्य इलेक्ट्रोडों का उपयोग करना संभव है।

चित्र १०. किसी प्रत्यावर्ती क्षेत्र में रेखीय विसर्जन।

इससे इलेक्ट्रोडों पर काई आयन हानि नहीं होती। टोरॉइडी (toroidal) नली में भी विसर्जन को उत्तेजित किया जा सकता है (चित्र ११.)। अक्सर काम आनेवाली विधि है टोरॉइड को परिणामित्र (transformers) का द्वितीयक परिपथ बना देना। जब रेडियो आवृत्ति तापन द्वारा कुछ प्रारंभिक आयनन हो जाए, तब प्रारंभिक परिपथ द्वारा संधारित्रों का बैंक (bank of condensors) विसर्जित किया जाता है, जिससे टोरॉइड में गैस लगभग संपूर्णत: भंग (breakdown) हो जाती है और एक बहुत बड़ा धारा स्पंद उत्पन्न होता है। इन विशाल (१० से १० तक की ऐंपियर मात्रा की)

चित्र ११. गैस विसर्जन टोरॉइडी नली।

धाराओं के कारण विभिन्न धारा लाइनों के बीच। आकर्षण बल विशाल होता है और समूचा प्लैज़्मा (plasma) संकुचित हो जाता है (देखें चित्र १२.) और बरतन की काँच की दीवारों को छोड़ देता है। इस प्रकार ऊष्मा द्वारा वियुक्त प्लैज़्मा प्राप्त होता है। प्रचंड ताप उत्पन्न होता है और आशा की जाती है कि भविष्य में ऐसी ही किसी युक्ति द्वारा तापनाभिकीय अभिक्रियाएँ उत्पन्न की जा सकेंगी।

यह संकुचित विसर्जन अस्थिर है और दीवारों से भिड़ने की प्रवृत्ति रखता है और ऐसा करते समय ऊष्मा को काँच पर संचारित कर देता है। इसे स्थिरता प्रदान करने के लिए टोराइड पर लिपटी हुई कुंडली द्वारा ३१० गॉस के परिमाण का बाह्य चुंबकीय क्षेत्र

चित्र १२. टोरॉइडी नली में विसर्जन

भारी विसर्जन धारा के लिए प्लैज़्मा काँच की

दीवारों को छोड़कर संकुचित हो जाता है।

प्रयुक्त किया जाता है। उच्च प्लैज़्मा घनत्व और उच्च ताप के लिए अनेक अन्य सुधारों का समावेश कर लेना चाहिए।

रेखीय प्लैज़्मा के परिरोध (confinement) पर भी बहुत सा काम सफलतापूर्वक किया गया है। तीव्र चुंबकीय क्षेत्र नली के

चित्र १३. प्लैज़्मा का चुंबकीय दर्पण परिरोध।

सिरों पर उत्पन्न किए जाते हैं, जिससे नली के सिरों की ओर गतिशील आयन परार्वितत होकर इन क्षेत्रों की भीतरी नली की ओर लौट जाएँ।

प्लैज़्मा और चुंबकीय क्षेत्रों की परस्पर क्रिया का क्षेत्र, जिसे मैग्नेटो-हाइड्रो-डाइनैमिक्स कहते हैं, भौतिकी का अत्यधिक महत्व का प्रकरण बन रहा है।

चापविसर्जन (Arc Discharge) - जब दो कार्बन या धातु इलेक्ट्रोड, जिनमें कुछ विभवांतर प्रयुक्त हुआ हो, संपर्क में लाए जाते हैं और फिर धीरे धीरे अलग किए जाते हैं, तो चाप विसर्जन उत्पन्न होता है। विसर्जन में धारा अनिश्चित रूप से बढ़ सकती है और केवल बाह्य परिपथ द्वारा ही सीमित होती है। धारा ज्यों ज्यों बढ़ती है, विभिन्न धारा अवयवों (elements) में पारस्परिक आकर्षण के कारण समग्र विसर्जन संकुचित होता है और धारा का घनत्व १० से १० ऐपियर/सेमी तक की उच्च दाब को प्राप्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त घन आयनों का घनत्व खास तौर से कैथोड के निकट पर्याप्त बढ़ जाता है और इलेक्ट्रॉनों और धन आयनों का गैस परमाणुओं से संघट्टन (collision) ऊर्जा के क्षेत्र से गैस को स्थानांतरित कर देता है। इसके परिणामस्वरूप गैस बहुत उच्च ताप पाकर गरम हो जाती है। यह कैथोड के अपरदन (erosion) में महत्वपूर्ण साबित होता है।

तड़ित विसर्जन - मेघों में होनेवाले तड़ित विसर्जन में ५१० वोल्ट परिमाण का विभवांतर प्राप्त होता है, जो प्रयोगशाला में प्राप्य परिमाण का लगभग दूना होता है। इलेक्ट्रोडों की दूरी कुछ किलोमीटर हो सकती है और विसर्जन होने की क्रिया में प्रयोगशाला में जितना समय लगता है उससे बहुत अधिक लगता है। विसर्जन का स्वरूप इस बात पर निर्भर है कि धरती में विसर्जन हो रहा है या मेघ में। इन तड़ित् विसर्जनों में धारा २० किलोऐंपियर परिमाण की होती है और वेग १० से १० सेंमी. सेकंड तक होता है।

सं.ग्रं. - एफ. सीत्ज़ : द मॉडर्न थ्योरी ऑव सॉलिड्स १९४०, मैकग्रां-हिल, न्यूयॉर्क; एफ. लंडन : सुपरफ्लुइड्स, खंड १, १९५७, जे. विली ऐंड संस, न्यूयॉर्क; एस. ग्लॉस्टोन : इट्राडक्शन टू इलेक्ट्रोकेमिस्ट्री १९५६; एफ. लुएलिन जोन्स : रिप्स. प्राग. फिज़िक्स १६, २१६ (१९५३); एस. फ्लुगी (संपादक) : इनसाइक्लॉपीडिया ऑव फिज़िक्स, खंड २२, १९५६, स्प्रिगर क्लांग, बर्लिन; ए.एस. विशप : प्रोजेक्ट शेरवुड, १९५९, ऐडीसन वेसली, न्यूर्याक। (एल.एस. कोठारी और एम.पी.सिंह)