आरोवील अर्थात् ऊषा नगरी अथवा नवजीवन की नगरी। इस नाम की एक नई नगरी दक्षिण भारत में पांडिचेरी से छह सात मील दूर बन रही है। इसके नाम के आरंभ का अंश श्री अरविंद और ग्रीक ऊषा देवी के नाम के आद्याक्षरों से बना है। वैदिक देवी ऊषा नवजीवन की संदेशवाहिका है। धरती पर अतिमानसिक नवजीवन को अग्रसर करने के लिए इस नई नगरी की योजना कार्यान्वित हो रही है। इसका प्रवर्तन श्री अरविंद सोसाइटी, पांडिचेरी नाम की पंजीकृत संस्था कर रही हे। इसका निर्माणक्षेत्र लगभग १५ वर्ग मील है, जो समुद्र की सतह से १५० फुट से लेकर १८० फुट तक ऊँचा है। यह क्षेत्र पूर्वी समुद्र और उस क्षेत्र की पश्चिमी झील की ओर ढालू है। इस नगरी में लगभग ५० हजार लोगों के रहने की व्यवस्था की जा रही है जिसमें से २० हजार मुख्य आदर्श नगर में और शेष ३० हजार लोग योजना के पूरक आदर्श ग्रामों में रहेंगे। नगरी चार क्षेत्रों में विभाजित होगी-१. निवास क्षेत्र, २. सांस्कृतिक क्षेत्र, ३. अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र और ४. औद्योगिक क्षेत्र। निवास क्षेत्र में सभी अद्यतन सुविधाएँ उपलब्ध रहेंगी, जैसे-अतिथिशालाएँ, होटल, डाक-तार-व्यवस्था, चलचित्रशाला, टेलीविजन केंद्र, नाट्यशाला, व्यायामशाला आदि। सांस्कृतिक क्षेत्र में भी सभी देशी विदेशी नृत्यों, नाट्यों, संगीत, चित्रकला आदि सांस्कृतिक अंगों और उपादानों के विराट् प्रतिनिधित्व की व्यवस्था रहेगी। अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में विभिन्न देशों के अपने-अपने मंडपों की रचना का कार्य आरंभ हो गया है। इसी में भारतनिवास भी निर्मित हो रहा है जिसमें प्रत्येक राज्य के अपने-अपने भवन भी प्रतिनिधिस्वरूप बन रहे हैं। प्रत्येक देश के अपने-अपने मंडपों में उन देशों के कलाकौशल, स्थापत्य, संस्कृति आदि का वास्तविक निदर्शन होगा। वैशिष्ट्य यह है कि पूरी आरोवील नगरी की संरचना वृत्ताकार अलातचक्र जैसी होगी और उसके भवनों का अभियंत्रण और आकृति अब तक आकल्पित सभी भवनों से भिन्न-भिन्न और विलक्षण होगी। जो भवन अभी तक तैयार हो चुके हैं, उनसे इसका प्रमाण मिलता है।

इस नगरी में एक अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की भी योजना है जिसका आरंभ एक विद्यालय से कर दिया गया है। इस विद्यालय में तमिल, अंग्रेजी, फ्रेंच और संस्कृत प्राय: सभी सीखते हैं। यहाँ शिक्षा के नए-नए परीक्षण हो रहे हैं। प्रयास यह है कि सारा जीवन ही शिक्षा बन सके। शिक्षा का उद्देश्य उपाधियां न होकर, योग्यता, पात्रता को ऊपर उठाना है, उसकी आत्मा से संपर्क स्थापित करना है, उसकी चेतना को ऊँचे उठाना है।

आरोवील नाम की इस नगरी की योजना और क्रियान्वयन को १९६६ ई. के यूनेस्को संमेलन में स्वीकृति प्रदान की गई और समस्त देशों से उसमें योग देने की अपील की गई। २८ फरवरी, १९६८ ई. को संसार के १२२ देशों के प्रतिनिधियों ने कमल के आकार के एक बृहदाकार कलश में अपने-अपने देश की मिट्टी डालकर इसका शिलान्यास किया। उस समय संसार की प्रमुख भाषाओं में आरोवील का निम्नलिखित घोषणापत्र पढ़ा गया जिसमें श्री अरविंद आश्रम की श्री मां के १९५४ में प्रकाशित 'एक स्वप्न' शीर्षक लेख में वर्णित नगरी की मुख्य-मुख्य बातें भी सम्मिलित थीं :

आरोवील विशेष रूप से किसी का नहीं है, यह पूरी मानव जाति का है किंतु इसमें रहने के लिए भागवत चेतना का सहर्ष सेवक बनना होगा। आरोवील अंतहीन शिक्षा का, सतत विकास एवं एक जरारहित यौवन का स्थल होगा। आरोवील भूत और भविष्य के मध्य एक सेतु बनना चाहता है। अंतर और बाह्य की सभी खोजों से लाभान्वित होता हुआ आरोवील साहसपूर्वक भविष्य की उपलब्धियों की ओर बढ़ेगा। आरोवील एक वास्तविक मानव एकता को सजीव रूप में मूर्तिमंत करने के लिए भौतिक एवं आध्यात्मिक खोजों का स्थान होगा।

इस नगरी में प्रत्येक व्यक्ति जीविकानिर्वाह के लिए नहीं, अपितु मानवता की सेवा के लिए कर्मरत होगा जिसमें उसकी आत्मिक चेतना का विकास भी अग्रसर हो। राजनीति, आर्थिक शोषण, आर्थिक वैषम्य, स्वामी-सेवक-भाव, आदि विभेदात्मक तत्वों से सर्वथा मुक्त यह नगरी प्रसन्नता, सामंजस्य और विकास की नगरी होगी जिसका लघु रूप में प्रयोग अभी भी श्री अरविंद आश्रम में हो रहा है। आरोवील में प्रचलित अर्थों में कोई धर्म नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को 'स्वं स्वं चरित्रं' के अनुसार अपना धर्म खोजकर उसका अनुसरण करना है। आर्थिक और सामाजिक जीवन में दिन-प्रति-दिन उत्पन्न होनेवाली अनेक विषमताओं एवं संकटों का एक सामंजस्यपूर्ण समाधान यह आरोवील प्रस्तुत करेगा। वस्तुत: श्री अरविंद दर्शन के अतिमानसिक चेतना के स्तर तक मानव को पहुँचाने अथवा उस अतिमानसिक चेतना को ग्रहण करने की मनुष्य में पात्रता उत्पन्न करने के प्रयत्न का आरोवील शुभारंभ है। इस योजना की चरितार्थता आरोवील के वर्तमान स्वरूप से स्पष्ट होती है।