आयकर भारतवर्ष में आयकर का इतिहास बहुत प्राचीन है। भारत में प्रत्यक्ष तथा परोक्ष आयकर की विशद व्यवस्था सबसे पहले कौटिल्य के अर्थशास्त्र (ल.ई.पू.तीसरी चौथी शताब्दी) में उपलब्ध है। सिक्के के रूप में जो कर राजकोष में दिया जाता था, उसके रूपिक, व्याजो, परीक्षिका, परिघ आदि अनेक नाम और प्रकार थे। पराधीन राज्यों अथवा आश्रित राजाओं से जो चौथ ली जाती थी, केवल उसी को कर की संज्ञा चाणक्य ने दी है। इसके अतिरिक्त भी अनके प्रत्यक्ष तथा परोक्ष आयकर तत्कालीन (उत्तरी) भारत में प्रचलित थे।

भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन ने सर्वप्रथम प्रत्यक्ष आयकर गदर (सन् १८५७ई.) से उत्पन्न शासन के आर्थिक संकट के कारण ३१ जुलाई, सन् १८६० ई. को पाँच वर्ष के लिए लगाया। यह इंग्लैंड के सन् १८४२ ई. के आयकर विधान के अनुरूप था। इस कर में ६०० रूपए से अधिक लगानवाली खेती की आय भी सम्मिलित कर ली गई थी। सन् १८६२ ई. में लाइसेंस टैक्स के रूप में फिर व्यापारों और व्यवसायों की वार्षिक आय पर कर लगाया गया। सन् १८६७ ई. में सर्टिफिकेट टैक्स लगाया गया, जो लाइसेंस टैक्स से गुणात्मक रूप में भिन्न था। दोनों ही प्रकार के करों की देय राशियों की सीमा निर्धारित कर दी गई किंतु इस बार कृषिआय इन दोनों ही प्रकार के आयकरों से मुक्त रही।

सन् १८६९ ई. में सर्टिफिकेट टैक्स को सामान्य आयकर में परिवर्तित कर दिया गया। जिसमें कृषि आयकर फिर सम्मिलित कर लिया गया। सन् १८७३ ई. में शासन की वित्तीय स्थिति सुधरने पर आयकर उठा लिया गया।

किंतु सन् १८७७ में दुर्भिक्ष (सन् १८७६-१८७८ ई.) के कारण प्रत्यक्ष आयकर पुन: लगाया गया। यह कर व्यापारिक वर्ग पर लाइसेंस टैक्स और कृषक वर्ग पर लगान के रूप में लगा। इस आयकर से दुर्भिक्ष निवारण-कोष संचित किया गया। किंतु यह संपूर्ण भारत में समान रूप से लागू नहीं था।

सन् १८८६ ई. में जो आयकर विधेयक बना वह भारत के आयकर के इतिहास में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसका मूल ताना बाना प्राय: आज तक चला आता है। इसमें सबसे पहले कृषि आय को परिभाषित किया गया, जो परिभाषा बहुत कुछ अभी तक मान्य है। यह ऐतिहासिक विधेयक ३२ वर्ष, अर्थात् सन् १९१८ ई. तक लागू रहा। इसमें आय आँकने के लिए ब्योरेवार नियम नहीं बनाए गए थे। यह कार्य गवर्नर जनरल-इन-कौंसिल पर छोड़ दिया गया था; किंतु सन् १९१६ ई. में इसमें संशोधन करके आयकर कीे क्रमवर्ती दरें निर्धारित की गई थीं। इसमें व्यक्तिगत करदाताओं की आय आँकने और करनिर्धारण में अनके विषमताएँ उत्पन्न हो गई। अतएव सन् १९१८ ई. में इस करव्यवस्था को आमूल संशोधित किया गया। फलस्वरूप करनिर्धारण के लिए कर दाताओं के विभिन्न साधनों से प्राप्त आय और लाभ का समंजन किया गया।

सन् १९२१ ई. में अखिल भारतीय आयकर समिति ने पूर्वोक्त विधेयक का परीक्षण कर जो सुझाव दिए, उनके अनुसार सन् १९२२ ई. में वर्तमान आयकर विधेयक बना। तब से सन् १९३९ ई. तक इस विधेयक में बीस बार संशोधन हुए और सन् १९३९ ई. के संशोधन विधेयक ने तो इसमें महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिए।

सन् १९२२ ई. के विधेयक में आय अतिकर को भी मिला लिया गया, जबकि इससे पूर्व यह अतिरिक्त शुल्क सन् १९१७ ई. से आय अतिकर विधेयक (जिसका संशोधन सन् १९२० ई. में हुआ) के अंतर्गत अलग से लगाया जाता था। दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि सन् १९२२ ई. के विधेयक में आयकर की क्रमवर्धी दरों को निर्धारित करने की प्रथा बंद कर दी गई। करनिर्धारण का कार्य एकांत रूप से वार्षिक वित्तीय विधेयकों के लिए छोड़ दिया गया। जो प्रथा अब तक चली आती है। सम्मिलित हिंदू परिवार के किसी भी सदस्य की व्यक्तिगत धनप्राप्ति को भी आयकर से मुक्त कर दिया गया। आय के अनेक साधनों में से यदि किन्हीं में घाटा हो और किन्हीं में लाभ, तो लाभ और घाटे को मिलाकर यदि कोई लाभ बच रहे, तो अब उसी पर आयकर लगने लगा। यदि कोई करनिर्धारित व्यापारी किसी कारण न रहे, तो उसके प्रति अंकित आयकर को अदा करने का दायित्व उसके उत्तराधिकारी पर रख दिया गया। किंतु यदि निर्धारित वर्ष में व्यापार किसी समय बंद हो जाए, तो कर में आनुपातिक छूट दी जाती थी। सन् १९३५ ई. में एक आयकर विशेषज्ञ समिति की नियुक्ति हुई, जिसने दिसंबर, सन् १९३६ में अपने सुझाव प्रस्तुत किए। तदनुसार दिसंबर, सन् १९३९ ई. का आयकर विधेयक बना, जिसके अंतर्गत ब्रिटिश भारत में निवासित व्यक्तियों की सब प्रकार की विदेशी आय पर भी कर लगा दिया गया। इसके अतिरिक्त आयकर से बचने का जाल करनेवालों की अनेक चतुर युक्तियों की काट भी इस विधेयक में रखी गई। साथ ही निवल (नेट) हानि को अगले छह वर्षो तक की आय में समंजित करने की छूट भी व्यापारियों की दी गई। सन् १९४५ ई. में आर्जित आय पर विशेष छूट दी गई और सन् १९४७ ई. में पूँजीगत लाभकर भी इस विधेयक में सम्मिलित कर लागू किया गया। किंतु यह कर सन् १९४९ ई. में उठा लिया गया।

द्वितीय महायुद्ध के कारण व्यापारियों द्वारा अनायास उपार्जित विपुल लाभराशियों पर अतिलाभकर लगाया गया, जो १ दिसंबर, सन् १९३९ ई. से ३१ मार्च, सन् १९४६ ई. तक लागू रहा। यह कर ३६,००० रूपए से अधिक लाभ पर लगाया गया था। तत्पश्चात् १ अप्रैल, सन् १९४६ ई. से ३१ मई, सन् १९४८ ई. तक व्यापार-लाभकर-विधेयक (जो सन् १९४७ ई. में बना) लगा रहा, जिसमें करनिर्धारण की विधि और दर अतिलाभकर विधेयक की अपेक्षा क्रमश: कम जटिल और न्यून थी।

भारत के स्वतंत्र होने तथा २६ जनवरी, सन् १९५० ई. को सार्वभौम गणतंत्र घोषित होने पर और साथ ही ६०० छोटे बड़े देशी राज्यों के इस सत्ता में समाविष्ट होने के उपरांत १ अप्रैल, सन् १९५० ई. से केंद्रीय वित्त विधेयक (सन् १९५० ई.) द्वारा आयकर विधेयक जम्मू और कश्मीर को छोड़कर समस्त देश पर लागू हो गया।

आयकर वसूल करने की शासकीय व्यवस्था का इतिहास भी संक्षेप में जान लेना आवश्यक है। जब तक आयकर अप्रत्याशित वित्तीय विपत्तिकाल में यदा कदा लगाया जाता रहा, तब तक यह शासकीय व्यवस्था का एक अस्थायी अंग रहा। अतएव कोई स्थायी विभाग इसकी वसूली के प्रबंध के लिए नहीं खोला गया और प्रांतीय राजस्व विभागों को ही यह कार्य सौंपा जाता रहा। इस कार्य के लिए ये विभाग अस्थायी कर्मचारी नियुक्त कर लेते थे, जिनके भ्रष्टाचार तथा अयोग्यता के कारण आयकर निर्धारण तथा संग्रह करने के काम भली भाँति संपन्न नहीं होते थे। सन् १८८६ ई. के पश्चात् भी केवल कलकत्ता, बबंई और मद्रास में ही स्थायी आयकर अधिकारी थे। अखिल भारतीय आयकर समिति (सन् १९२१) के सुझाव पर सन् १९२४ ई. में भारत सरकार ने एक विधेयक द्वारा केंद्रीय राजस्व बोर्ड की स्थापना की, जिसके अंतर्गत आय-कर-संग्रह की अखिल भारतीय स्थायी व्यवस्था की गई। सन् १९२२ ई. के आयकर विधेयक के अतंर्गत प्रत्येक प्रांत में एक आयकर आयुक्त नियुक्त किया गया था, जिसके नियंत्रण में आयकर उपायुक्त तथा आयकर अधिकारी होते थे। सन् १९३९ से पूर्व आयकर उपायुक्त तत्संबंधी शासकीय व्यवस्था के अतिरिक्त कर निर्धारण की अपील भी सुनता था, किंतु सन् १९३९ ई. के बाद इन दो कार्यों के लिए अलग अलग उपायुक्त नियक्त किए गए। सन् १९४१ ई. में अपील सुननेवाले आयकर उपायुक्त के निर्णय से असंतुष्ट करनिर्धारण की दूसरी अपील करने का अधिकार दिया गया और ऐसी अपीलें सुनने के लिए दो सदस्यों का एक विशेष आयकर न्यायमंडल (इनकम टैक्स अपेलेट ट्राइब्यूनल) स्थापित किया गया, जिसे विधि (कानून) संबंधी विवादास्पद विषयों में प्रादेशिक उच्च न्यायालय विशेष से निर्णायक परामर्श् लेने का भी अधिकार है।

इसके बाद भी महत्वपूर्ण संशोधन होते रहे जिनके परिणाम प्रभावशाली सिद्ध हुए लेकिन इस प्रकार के जितने संशोधन किए गए वे अधिकतर मुख्य पृष्ठभूमि एवं आधार को दृष्टि में रखकर नहीं किए गए; परिणामस्वरूप या तो उनमें जटिलता ज्यादा रही या भाषा कीे त्रुटि रही। इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखकर १९५६ ई. में भारत सरकार ने आयकर अधिनियम को विधिआयोग के सुपुर्द कर दिया ताकि वह आयकर अधिनियम के अतंर्गत इस प्रकार संशोधन कर दे कि वह जनता को ग्राह्म होने के साथ साथ स्पष्ट और सरल हो तथा मूल पद्धति का भी कहीं हनन न हो।

उक्त आयोग ने अपनी रिर्पोर्ट सितंबर, १९५८ में प्रस्तुत की। परंतु इसी बीच सरकार ने करदाताओं की कठिनाइयों एवं करापवंचन को न्यूनतम करने के लिए प्रत्यक्ष कर प्रशासन जाँच समिति (डाइरेक्ट टैक्सेज़ ऐडमिनिस्ट्रेशन इंक्वायरी कमेटी) नियुक्त की। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सन् १९५९ में दी। विधि आयोग और प्रत्यक्ष कर प्रशासन जाँच समिति की रिर्पोर्टो पर विचार करने के लिए केंद्रीय राजस्व परिषद् (सेंट्रल बोर्ड ऑव रेवेन्यू) ने अपने उच्च अधिकारियों की एक कमेटी नियुक्त की जिसने विधि मंत्रालय के परामर्श के परिप्रेक्ष्य में इन रिर्पोर्टो पर विचार किया और अंत में २४ अप्रैल, १९६१ को आयकर विधेयक, १९६१, लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। १मई, १९६१ ई. को यह बिल चुनाव समिति के सुपुर्द कर दिया गया, जिसकी रिपोर्ट लोकसभा में १० अगस्त, १९६१ई. को प्रस्तुत की गई और आयकर अधिनियम, १९६१ सितंबर, १९६१ ई. में स्वीकृत हो गया।

आयकर अधिनियम (१९६१) १अप्रैल, १९६२ से संपूर्ण भारत मैं लागू कर दिया गया। तत्पश्चात् आयकर अधिनियम में वित्त अधिनियम १९६२, १९६३,१९६४, १९६५ (नं.२), १९६६, १९६७, (नं.२), १९६८, १९६९, १९७०, १९७१(न.२) तथा १९७२ द्वारा महत्वपूर्ण संशोधन किए गए। इसके अतिक्ति कराधान नियमों से संबंधित (संशोधन) अधिनियम, १९६२, आयकर (संशोधन) अधिनियम, १९६३, प्रत्यक्ष कर (संशोधन) अधिनियम, १९६४, आयकर (संशोधन), अधिनियम, १९६५, कराधान नियमों से संबंधित (संशोधन) कराधान नियमों से संबंधित (संशोधन), १९६६, कराधान नियमों से संबंधित (संशोधन) अधिनियम, १९६७,१९७० तथा १९७१ द्वारा भी आयकर अधिनियम में संशोधन किए गए हैं।

वास्तव में १, अप्रैल, १९६२ से लागू आयकर अधिनियम, १९६१, केवल १० वर्षो में इतनी बार संशोधित हो चुका है कि १९२२ का अधिनियम अब एक सतत परिवर्तनशील अधिनियम बन गया है।

सन् १९७३-७४ के बजट में भी वित्तमंत्री ने आयकर अधिनियम में वांचू समिति की सिफारिशों के आधार पर कुछ महत्वपूर्ण संशोधन करने का सुझाव दिया है, जिनके अनुसार कृषिआय को भी करदाता की कुल आय में जोड़ा जाना (जो अब तक पूर्णत: करमुक्त रही है), आकस्मिक आय से संबंधित परिवर्तन तथा बचत को प्रोत्साहन देने के लिए प्राविडेंट फंड तथा जीवन बीमा प्रीमियम के संबंध में और छूट की व्यवस्था प्रमुख है। आयकर की वर्तमान दर निम्न वर्गो की निम्न प्रकार से है:

करनिर्धारण वर्ष १९७३-७४ में लागू आयकर की दरें कंपनियों से भिन्न करदाताओं के लिए

(१) प्रत्येक व्यक्ति की, जो अविभाजित हिंदू परिवार, अपंजीकृत फर्म, अन्य संस्था अथवा प्रत्येक कृत्रिम न्यायिक व्यक्ति के अंतर्गत न आते हों, आय पर निम्नलिखित दर से आयकर देय है:

सकल आय

१. ५,००० रु. तक करमुक्त

२. ५,००० रु. से अधिक, पर ५,०००रु. से अधिक का १०

१०,००० रु. से अधिक न हो प्रतिशत

३. १०,००० रु. से अधिक, पर ५०० रु.+१०,००० रु. से

१५,००० रु. से अधिक न हो अधिक का १७ प्रतिशत

४. १५,००० रु. से अधिक, पर १३५० रु.+१५,००० रु. से

२०,००० रु. से अधिक न हो अधिक का २३ प्रतिशत

५. २०,००० रु. से अधिक, पर २,५०० रु.+२०,००० रु. से

२५,००० रु. से अधिक न हो अधिक का ३० प्रतिशत

६. २५,००० रु. से अधिक, पर ४,००० रु.+२५,००० रु. से

३०,००० रु. से अधिक न हो अधिक का ४० प्रतिशत

७. ३०,००० से अधिक, पर ६,००० रु.+३०,००० रु. से

४०,००० रु. से अधिक न हो अधिक का ५० प्रतिशत

८. ४०,००० रु. से अधिक, पर ११,००० रु.+ओर ४०,०००

६०,००० रु. से अधिक न हो रु. से अधिक का ६० प्रतिशत

९. ६०,००० रु. से अधिक, पर २३,००० रु.+६०,००० रु.

८०,००० रु. से अधिक न हो से अधिक का ७० प्रतिशत

१०. ८०,००० रु. से अधिक, पर ३७,००० रु.+८०,००० रु.

१,००,००० रु. से अधिक न हो से अधिक का ७५ प्रतिशत

११. १,००,००० रु. से अधिक, पर ५२,०००रु.+१,००,००० रु.

२,००,००० रु. से अधिक न हो से अधिक का ८५ प्रतिशत

१२. २,००,००० रु. से अधिक १,३२,०००रु.+२,००,००० रु.

से अधिक का ८५ प्रतिशत

लेकिन अविभक्त हिंदू परिवार की ७,००० रु तक की आय करमुक्त है। ७,००० रू से अधिक किंतु ७,६६० रु तक की आय परआयकर ४० प्रतिशत से अधिक देय नहीं है।

उपर्युक्त आयकर की धनराशि में निम्न दर से अधिभार भी अलग से देय होगा:

(अ) १५,००० रु. की आय तक १० प्रतिशत

(ब) अन्य दशा में १५ प्रतिशत

(२) सहकारी समितियाँ

(१) १०,००० रु. सकल आय पर सकल आय का १५ प्रतिशत

(२) १०,००० रु. से अधिक परंतु १,५०० रु.+१०,००० से

२०,००० रु. से अधिक न हो अधिक का २५ प्रतिशत

(३) २०,००० रु. से अधिक सकल ४,००० रु.+२०,००० रु. से

आय पर अधिक का ४० प्रतिशत

आयकर पर लागू अधिभार: प्रत्येक सहकारी समिति के आयकर की धनराशि पर १५ प्रतिशत अधिभार देय है।

(३) पंजीकृत फर्म आयकर

सकल आय

(१) १०,००० रु. से अधिक न हो कुछ नहीं

(२) १०,००० रु. से अधिक, पर १०,००० रु. से अधिक का ४

२५,००० रु. से अधिक न हो प्रतिशत

(३) २५,००० रु. से अधिक, पर ६०० रु.+२५,००० रु. से

५०,००० रु. से अधिक न हो अधिक का ६ प्रतिशत

(४) ५०,००० रु. से अधिक, पर २१०० रु.+५०,००० रु. से

१,००,००० रु. से अधिक न हो अधिक का १२ प्रतिशत

(५) १,००,००० रु. से अधिक ८,१०० रु.+१,००,००० रु.

से अधिक का २० प्रतिशत

आयकर पर लागू अधिभार

(१) आयकर पर अधिभार अधिभार की दर

(क) पंजीकृत फर्म जिसकी आयकर की रकम का १०प्रतिशत

कुल आय का ५१ प्रतिशत अथवा

उससे अधिक भाग फर्म दारा

किए जा रहे व्यवसाय से अर्जित हो

(ख) पंजीकृत फर्म की अन्य आयकर की रकम का २० प्रतिशत

तरह की आय हो

(२) विशेष अधिभार

उपर्युक्त आयकर की धनराशि पर तथा आयकर पर लगे अधिभार की धनराशि पर १५ प्रतिशत की दर से विशेष अधिभार लगेगा।

अन्य संस्था आयकर अधिभार

(१) स्थानीय स्वायत्त संस्थाएँ, ५० प्रतिशत १५ प्रतिशत

संपूर्ण आय पर

(२) जीवन बीमा--बीमा के लाभ पर ५२.५ प्रतिशत

(३) कंपनी:

डोमोस्टिक ५०,००० रु. तक ४५ प्रतिशत

५०,००० रु. से ऊपर ५५ प्रतिशत

औद्योगिक

१०,००,००० रु. तक ५५ प्रतिशत

अधिक पर ६० प्रतिशत

अन्य कंपनी ६५ प्रतिशत

(का.चं.सौ.; द.शं.मि; र.प्र.गि.)