आदिवराह 'वराह' शब्द का उल्लेख ऋग्वेद (१।६१।७; ८।७७।१०) तथा अथर्ववेद (८।७।२३) में हुआ है। एक मंत्र में रुद्र को स्वर्ग का वराह कहा गया है (ऋ. १।११४।५)। विभव या अवतार का प्रथम निर्देश तैतिरीय संहिता तथा शतपथ ब्राह्मण में मिलता है, जहाँ प्रजापति के मत्स्य, कूर्म तथा वराह रूप धारण करने का स्पष्ट उल्लेख है। ऋग्वेद के अनुसार विष्णु ने सोमपान कर एक शत महिषों को तथा क्षीरपाक को ग्रहण कर लिया जो वस्तुत: 'एमुष्' नामक वराह की संपत्ति थे। इंद्र ने इस वराह को भी मार डाला (ऋक् ८।७७।१०)। शतपथ के अनुसार इसी 'एमुष्' नामक वराह ने जल के ऊपर रहनेवाली पृथ्वी को ऊपर उठा लिया (१४।१।२।११)। तैतिरीय संहिता के अनुसार यह वराह प्रजापति का और पुराणों के अनुसार विष्णु का रूप था। इस प्रकार वराह अवतार वैदिक निर्देशों के ऊपर स्पष्टत: आश्रित है।
भारतीय कला में वराह की मूर्ति दो प्रकार की मिलती है-विशुद्ध पशुरूप में तथा मिश्रित रूप में। मिश्रण केवल सिर के ही विषय में मिलता है तथा अन्य भाग मनुष्य के रूप में ही उपलब्ध होते हैं। पशुमूर्ति का नाम केवल वराह या आदिवराह है तथा मिश्रित रूप का नाम नृवराह है। उत्तर भारत में पशुमूर्ति या आदिवराह की मूर्ति अनेक स्थानों में मिलती है। इनमें सबसे प्रख्यात तोरमाण द्वारा निर्मित 'एरण' में लाल पत्थर की वराहमूर्ति मानी जाती है। मानवाकृति मूर्ति के ऊपर कभी-कभी छोटे-छोटे मनुष्यों के भी रूप उत्कीर्ण मिलते हैं, जो देव, असुर तथा ऋषि के प्रतिनिधि माने जाते हैं एवं पृथ्वी वराह के दांतों से लटकती हुई चित्रित की गई है। वराह का सबसे प्राचीन तथा सुंदर निदर्शन विदिशा के पास उदयगिरि की चतुर्थ गुफा में उत्कीर्ण मिलता है। यह चंद्रगुप्त द्वितीय कालीन पाँचवों शताब्दी का है। वराह की अन्य दो मूर्तियाँ भी उपलब्ध होती हैं (१) यज्ञवराह (सिंह के आसन पर ललितासन में उपविष्ट मूर्ति, लक्ष्मी तथा भूदेवी के साथ), (२) प्रलयवराह (वही मुद्रा, पर केवल भूदेवी के संग में) इन मूर्तियों से आदिवराह की मूर्ति सर्वथा भिन्न होती है।
सं.ग्रं.-बैनर्जी : डेवेलपमेंट ऑव हिंदू आइकोनोग्रैफ़ी, द्वितीय सं., कलकत्ता, १९५५; गोपीनाथ राव : हिंदू आइकोनोग्रैफ़ी, मद्रास। (ब.उ.)