आत्मा स्वरूप ही आत्मा है। भारतीय दार्शनिकों में चार्वाक अथवा लोकायत संप्रदाय देह को ही आत्मा समझते हैं, अर्थात् भौतिक देह के अतिरिक्त आत्मा नामक किसी पृथक् पदार्थ की सत्ता वे नहीं मानते। इस संप्रदाय में बृहस्पतिप्रणीत एक प्राचीन सूत्रग्रंथ था, जिसके विभिन्न सूत्रों का उद्वरण अति प्राचीन विभिन्न सांप्रदायिक दार्शनिक ग्रंथों में मिलता है। उसमें आत्मा के विषय में सूत्र है-''चैतन्यविशिष्ट: काय: पुरुष:'', अर्थात् चैतन्यविशिष्ट शरीर ही आत्मा है। उसमें यह भी लिखा है कि चैतन्य या विज्ञान मदशक्तिवत् पृथ्वी आदि भूतों के संघर्ष से उद्भूत होता है। इस मत के अनुसार स्थूल देह की निवृत्ति, अर्थात् मृत्यु ही 'अपवर्ग' नाम से प्रसिद्ध है। चार्वाक संप्रदाय के अनुरूप भिन्न-भिन्न दार्शनिक संप्रदाय थे, जिनका मत या सिद्धांत बृहस्पति के सिद्धांत के अनुरूप था। ये भी लोकायत संप्रदाय के अंतर्गत थे। इनमें से किसी के मत के अनुसार इंद्रिय ही आत्मा है, किसी के मत के अनुसार प्राण आत्मा है और किसी के मत में मन आत्मा है। इन मतों के अनुसार आत्मा अनित्य अर्थात् उत्पतिविनाशशील पदार्थ है।
न्यायवैशषिक मत के अनुसार आत्मा नित्य पदार्थ है और देह, इंद्रिय तथा मन से पृथक् है। ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न, सुखदु:ख, धर्माधर्म और भावनाख्य संस्कार आत्मा के विशेष गुण हैं। इस मत में आत्मा नित्य और विभु-द्रव्य-विशेष है। मन नित्य और अण-द्रव्य-विशेष है। आत्माएँ बहुत हैं और मन भी बहुत हैं। प्रत्येक आत्मा से साथ निज निज पृथक् मनों का अनादिकालीन 'अजसंयोग' नाम का संबंध है। प्रत्येक आत्मा में और प्रत्येक मन में विशेष (वैशेषिक मतानुसार) है। यह विशेष ही इनका परस्पर व्यावर्तक धर्म है। विलक्षण आत्ममन: संयोग से ज्ञानादि क्रिया का उद्भव होता है। इसके मूल में है मन की क्रिया। उसके भी मूल में धर्माधर्मात्मक अदृष्ट का व्यापार है। आत्मज्ञान के उदय से धर्माधर्म के विनष्ट हो जाने पर विलक्षण आत्ममन:-संयोग नहीं होने पाता। हाँ, अनादि संयोग रह जाता है। उस समय आत्मा मुक्त हो जाती है तथा उसमें ज्ञानादि विशेष गुणों का आत्यंतिक उपरम हो जाता है। आपात दृष्टि से यह स्थिति शिलाशकलवत् प्रतीत होती है, परंतु वास्तव में ऐसा है नहीं। इस सिद्धांत के अनुसार आत्मा सत् मात्र है, अनित्य नहीं है। शून्यवत् प्रतीत होने पर भी शून्य नहीं है।
सांख्य मत के अनुसार आत्मा या पुरुष नित्य चित्स्वररूप द्रष्टा या साक्षिमात्र है। वह अपरिणामी या कूटस्थ है। परंतु प्रकृति त्रिगुणत्मिका और नित्य परिणामशीला है। प्रकृति में सदृश परिणाम निरंतर चल रहा है। सृष्टिकाल में गुणवैषम्य के कारण विसदृश परिणाम भी चलता है। आत्मा अनादि काल से अविवेकवश प्रकृति के जाल में फंसी है। स्वयं गुणत्रय से स्वरूपत: पृथक् होने पर भी अपने को पृथक् नहीं समझती। इस अविवेक का नाम है अज्ञान।
विवेकख्याति होने पर इस अज्ञान की निवृत्ति होती है। संप्रज्ञात समाधियों में अंतिम अस्मिता नाम की जो सामधि है वही ऐश्वर्य की अवस्था है। इसके पश्चात् विवेकख्याति के साथ-साथ क्रमश: निरोधभूमि में प्रवेश होता है। विवेकख्याति पूर्ण होने पर पुरुष या आत्मास्वरूप में प्रतिष्ठित होती है और सत्व अव्यक्त या प्रलीन होता है। सत्व प्रलीन न होकर पुरुष के बराबर शुद्धिलाभ भी कर सकता है, परंतु यह वैकल्पिक स्थिति है। साधारण जीवों के लिए यह स्थिति नहीं है। लौकिक व्यवहार में आत्मा अस्मितामात्र रूप है, परंतु वस्तुत: आत्मास्वरूप में अस्मिता नहीं है। आत्मा विशुद्ध चिन्मात्र है। देश, काल, आकार आदि से इसका परिच्छेद नहीं होता।
मीमांसा मतानुसार आत्मा अहंप्रतीति का विषय है और यह सुखदुख उपाधियों से विरहितस्वरूप नित्य वस्तु है। किसी किसी वेदांत प्रस्थान में प्राण ही आत्मा कहा गया है। अभाव ब्रह्मावादी 'असदेव इदमग्र आसीद्' इस प्रकरण के अनुसार आत्मा को असत्स्वरूप समझते हैं। यह एक प्रकार से देखा जाए तो शून्य भूमि की बात है। पाँचरात्रगण जो कुछ कहते हैं उससे किसी किसी का मत है कि पाँचरात्र के अनुसार आत्मा अव्यक्त तत्व है, पराप्रकृति का परिणाम स्वीकृत होने के कारण यह मत किसी अंश में अव्यक्त का ही प्रतिपादक मालूम होता है। कई वेदांतविद् विद्वानों के अनुसार 'सदेव इदमग्र असीत्', इस श्रौत वचन के अनुसार आत्मा सत् शब्दब्रह्म मानते हैं। षोडश कलात्मक पुरुष में यह पश्यंती अमृतकला या षोडशीकला कही जाती है। उसका स्वरूपसाक्षात्कार होने पर ही अधिकार की निवृत्ति होती है। विज्ञानवादी बौद्ध मत से क्षणिक विज्ञान संतान ही आत्मा है। बौद्ध मत नैरात्म्यप्रतिपादक होने के कारण उनमें उपचार से चित्त को ही आत्मा कहा जाता है। अनादिकाल से निर्वाणकालपर्यत स्थायी एक प्रवाह में पड़ी हुई विज्ञान की धारा ही वैभाषिक दृष्टि से आत्मपदवाच्य है। योगाचार मत में यह चित्त अथवा आत्मा आलयविज्ञानात्मक है।
वैभाषिक मत में चित्त या विज्ञान अहंकार का आश्रय होने से आत्मपदवाच्य है। विज्ञानस्कांध का तात्पर्य है प्रवाहपतित विज्ञानों की समष्टि। चाक्षुष आदि पाँच प्रकार तथा मानस अर्थात् प्रात्याक्षिक निर्विकल्प विज्ञान की धारा चित्त या आत्मा के नाम से प्रथित है। स्फुटार्था में है-'अहंकारसंनिश्रय आत्मा इति आत्मवादिन: संक्लपयंति । चितमहंकार निश्रय आत्मेति उपचर्यते।'
तंत्र मत में आत्मा विश्वोत्तीर्ण प्रकाशात्मक है। किसी किसी आम्नाय के अनुसार (कुलाम्नाय) आत्मा विश्वमय है। त्रिकादि दार्शनिक दृष्टिकोण के अनुसार आत्मा विश्वोर्त्तीर्ण होकर भी विश्वमय है। वे लोग कहते है कि एक ही चिदात्मरूपी परमेश्वर के स्वातंत्रय से भिन्न-भिन्न दार्शनिक भूमियाँ अवभासित हुई हैं। भूमिगत वैचित््रय के मूल में स्वातंत्र्य के प्रच्छादन तथा उन्मीलन का तारतम्य है। वस्तुत: सर्वत्र आत्मा की व्याप्ति अखंडित ही है। जिन लोगों की दृष्टि परिरिच्छत्र है वे परमात्मा की इच्छा से ही तत्तदंश में अभिमानविशिष्ट होते हैं। जब तक परशक्तिपात या पूर्ण अनुग्रह न हो तब तक महाव्याप्ति नहीं होती और अखंडताबोध भी नहीं आता।
शांकर वेदांत के दृष्टिकोण से एकजीववाद तथा नानाजीववाद दोनों का ही विवरण मिलता है। एकजीववाद के अनुसार अविद्याशबल ब्रह्म ही जीव है। यह जीव सब शरीरों में एक ही है, तथापि एक व्यक्ति के अनुभव के विषय में दूसरे व्यक्ति का अनुसंधान नहीं होता। इसका कारण है अविद्या का वैचित््रय। 'एक एव हि भूतात्मा' इत्यादि वचन एकजीववाद में प्रमाण माने जाते हैं। एकजीववाद दृष्टि-दृष्टि-वाद नाम से भी परिचित है। प्रकाशनंद का वेदांतसिद्धांतमुक्तवली एकजीववाद का एक उत्तम प्रकरण ग्रंथ है। नानाजीववाद की दृष्टि से जीव अंत:करणावच्छित्र चैतन्य माना जाता है। वेदांतपरिभाषा में नानाजीववाद का ही प्रतिपादन हुआ है।
यादवप्रकाश के अनुसार जीवात्मा ब्रह्म का अंश है। ब्रह्म सगुण है और प्रपंच सत्य है। परंतु भास्कर के मतानुसार सोपधिक ब्रह्मखंड ही जीव है। इस मत में भी ब्रह्म सगुण तथा प्रपंच सत्य है। भास्कर के मतानुसार जीव और ब्रह्म का भेद स्वाभविक है। उनमें जो अभेद है वह भी स्वाभाविक है। यादव के मत जीव और ब्रह्म में भेदाभेद स्वाभाविक है, क्योंकि मुक्ति में भेद रहता है और 'तत्वमसि' श्रुति के अनुसार अभेद तो सिद्ध ही है।
श्रीवैष्णव संप्रदाय ने इन दोनों मतों का खंडन किया है। भास्कर मत में उपाधि और ब्रह्म को छोड़कर अन्य वस्तु न रहने से ब्रह्म में उपाधि संसर्गनिमित्तक जितने औपाधिक दोष होते हैं उनमें से किसी के भी निवारण का उपाय नहीं है। इसीलिए श्रुतिप्रसिद्ध ब्रह्म के अपहसपाप्मत्वादि विशेषण व्यर्थ होते हैं। यादव के मतानुसार जीव और ब्रह्म के भेद के तुल्य अभेद भी माना जाता है। इसी से ब्रह्म को ही स्वरूपत: देवता, मनुष्य, तिर्यक्, स्थावर आदि भेदों से अवस्थित होने के कारण जीव मानना पड़ता है। इसी से जीवगत सर्व दोष ब्रह्म में आ पड़ते हैं। रामनुजीयों का अपना सिद्धांत यह है कि जीव प्रत्यक् चेतन आत्माकर्ता इत्यादि है। ईश्वर भी ठीक उसी प्रकार का है। प्रत्येक शब्द का यह तात्पर्य है कि आत्मा और ईश्वर दोनों ही अपने आप भासमान हैं। चेतन शब्द का यह तात्पर्य है कि यह ज्ञान का आश्रय है अर्थात् यह धर्मी है, इसमें धर्मभूत ज्ञान आश्रित रहता है।. 'आत्मा' शब्द से समझा जाता है कि यह शरीर प्रतिसंबंधी है। कर्ता शब्द का तात्पर्य है-संकल्प का आश्रय। इस दृष्टि से जीवात्मा तथा परमात्मा में भेद नहीं है। परंतु जीवात्मा चेतन होने पर भी अणु है ओर ईश्वर महान् है। जीव चेतन होने पर भी ईश्वर की स्वेच्छा के अधीन अर्थात् नियोज्य है, परंतु ईश्वर नियोक्ता है। जीव आधेय या आश्रित है, परंतु ईश्वर आश्रय है। जीव विधेय या नियम्य है, परंतु ईश्वर नियामक है। रामानुज के अनुसार आत्मा बद्ध, मुक्त और नित्य, तीन प्रकार का है।
आर्हत मत में आत्म जीवतत्व का ही नाम है। जीव का स्वभाव पाँच प्रकार का है-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक। प्रत्येक में अवांतर भेद है। (गो.क.)