आड़ू
या सतालू
(अंग्रेजी नाम : पीच;
वास्पतिक नाम
: प्रूनस पर्सिका;
प्रजाति : प्रूनस;
जाति : पर्सिका;
कुल : रोज़ेसी)
का उत्पत्तिस्थान चीन
है। कुछ वैज्ञानिकों
का मत है कि यह
ईरान में उत्पन्न
हुआ। यह पर्णपाती
वृक्ष है। भारतवर्ष
के पर्वतीय तथा
उपपर्वतीय भागों
में इसकी सफल
खेती होती है।
ताजे फल खाए जाते
हैं तथा फल से
फलपाक (जैम), जेली
और चटनी बनती
है। फल में चीनी
की मात्रा पर्याप्त
होती है। जहाँ
जलवायु न अधिक
ठंढी, न अधिक गरम
हो, १५°
फा. से १००°
फा. तक के तापवाले
पर्यावरण में,
इसकी खेती सफल
हो सकती है।
इसके लिए सबसे
उत्तम मिट्टी बलुई
दोमट है, पर
यह गहरी तथा
उत्तम जलोत्सरणवाली
होनी चाहिए।
आड़ू
भारत के पर्वतीय तथा उपपर्वतीय भागों में इसकी सफल खेती होती है।
आड़ू दो जाति के होते हैं-(१) देशी; उपजातियाँ: आगरा, पेशावरी तथा हरदोई; (२) विदेशी; उपजातियाँ: बिडविल्स अर्ली, डबल फ्लावरिंग, चाइना फ्लैट, डाक्टर हाग, फ्लोरिडाज़ ओन, अलबर्टा आदि। प्रजनन कलिकायन द्वारा होता है। आड़ू के मूल वृंत पर रिंग बडिंग अप्रैल या मई मास में किया जाता है। स्थायी स्थान पर पौधे १५ से १८ फुट की दूरी पर दिसंबर या जनवरी के महीने में लगाए जाते हैं। सड़े गोबर की खाद या कंपोस्ट ८० से १०० मन तक प्रति एकड़ प्रति वर्ष नवंबर या दिसंबर में देना चाहिए। जाड़े में एक या दो तथा ग्रीष्म ऋतु में प्रति सप्ताह सिंचाई करनी चाहिए। सुंदर आकार तथा अच्छी वृद्धि के लिए आड़ू के पौधे की कटाई तथा छंटाई प्रथम दो वर्ष भली भांति की जाती है। तत्पश्चात् प्रति वर्ष दिसंबर में छंटाई की जाती है। जून में फल पकता है। प्रति वृक्ष ३० से ५० सेर तक फल प्राप्त होते हैं। स्तंभछिद्रक (स्टेम बोरर), आड़ू अंगमारी (पीच ब्लाइट) तथा पर्णपरिकुंचन (लीफ कर्ल) इसके लिए हानिकारक कीड़े तथा रोग हैं। इन रोगों से इस वृक्ष की रक्षा कीटनाशक द्रव्यों के छिड़काव (स्प्रे) द्वारा सुगमता से की जाती है।
(ज.रा.सिं.)