आकाश १ पंचमहाभूतों में अन्यतम भूत द्रव्य। वैशेषिक दर्शन के अनुसार आकाश नव द्रव्यों में से एक विशिष्ट द्रव्य हे। इसका विशेष गुण शब्द है। इसकी सिद्धि परिशेषानुमान से होती है। वैशेषिकों की सम्मति में शब्द न तो स्पर्शवान् द्रव्यों (जैसे पृथ्वी, जल, तेज,वायु) का गुण हो सकता है और न आत्मा, मन, काल तथा दिक् का ही। इस प्रकार आठ द्रव्यों का गुण न होने के कारण बाकी बचे हुए द्रव्य (आकाश) का ही यह गुण सिद्ध होता है। प्रशस्तपादभाष्य में पूर्व अनुमान की सिद्धि का प्रकार दिखलाया गया है। किसी द्रव्य के बाह्य प्रत्यक्ष के लिए उसमें दो गुणों का अस्तित्व नितांत आवश्यक होता है। उस पदार्थ में महत् परिमाण रहना चाहिए और अद्भूत रूप भी। आकाश न तो कोई सीमित पदार्थ है और न वह किसी रूप को ही धारण करता है। इसलिए आकाश का प्रत्यक्ष नहीं होता, प्रत्युत शब्दगुण धारण करने से वह अनुमान से सिद्ध माना जाता है। आकाश गुणवान् (अर्थात् शब्दवानू) होने से द्रव्य है और निरवयव तथा निरपेक्ष होने से नित्य है। आकाश की एकता सिद्ध करने के लिए कणाद की युक्ति यह है कि आकाश की सत्ता का हेतु बननेवाला शब्द सर्वत्र समान ही पाए जाते। शब्द की ध्वनियों में जो भेद मालूम पड़ता है, वह निमित्त कारण के भेद से है। फलत: शब्द की एकता होने से आकाश भी एक ही माना जाता है (वैशेषिक सूत्र २।१।३०)। आकाश विभु द्रव्य है अर्थात् वह सर्वव्यापक और अनंत है। घट के द्वारा अवच्छिन्न होने वाला घटाकाश तथा मठ के द्वारा सीमित होनेवाला मठाकाश आदि भेद उपाधिजन्य ही हैं। आकाश वसतुत: एक अच्छेद्य तथा अभेद्य द्रव्य है। भाट्ट मीमांसकों के मत में आकाश का प्रत्यक्ष भी होता है (मानमेयोदप, पृ. १८८, अडचार सं.)। आकाश का परिमाण 'परम महत' है और यह परिमाण सबसे बड़ा माना गया है। शब्द की ग्राहक् इंद्रिय (श्रोत्र) भी आकाश होती है, क्योंकि कान के भीतर जो आकाश रहता है, उसी के द्वारा शब्द का ज्ञान हमें होता है।
(ब.उ.)
भारतीय दर्शन में वेदांत के अनुसार आकाश की उत्पति ब्रह्मा से हुई। यह ब्रह्म का प्रतीक है क्योंकि यह अनंत, नित्य, अपरिवर्तनशील तत्व है। मीमांसकों के अनुसार दिक् (आकाश) वह सर्वगत द्रव्य है जो भौतिक अर्थो के तिरोभाव के पश्चात् भी रहता है। सांख्यमत आकाश को पंचमहाभूतों में से एक मनाता है जिसकी उत्पति शब्द तन्मात्र से होती है। इसका गुण शब्द है। न्यायवैशेषिक दर्शन में दिक् और काल दोनों ही सर्व उत्पतिमान के निमित्त हैं। वैशेषिक द्वारा माने हुए नौ द्रव्यों में से आकाश एक द्रव्य है, शब्द गुण जिसका आधार है। कणाद ऋषि दिक् और आकाश में भेद करते हैं। आकाश का गुण शब्द है और दिक् वह द्रव्यविशेष है जो बाह्म जगत् को देशस्थ करता है। पालि आम्नाय में महाभूत केवल चार हैं किंतु सूत्रों में कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं जिनके आधार पर आकाश को पाँचवाँ महाभूत कहा जा सकता है। नागार्जुन के समय में चार महाभूत, आकाश और विज्ञान नामक छह धातुओं की गणना होती थी जैन दर्शन के अनुसार आकाश द्रव्यों को अवकाश देनेवाला वह पदार्थ है जिसके लोकाकाश औ आलोकाकाश नामक दो प्रकार हैं। बौद्ध वैभाषिक दर्शन में आकाश वह निर्विशेष, अनंत, नित्य, सर्वव्यापक एवं सत्तात्मक पदार्थ है जो अरूप और अभौतिक है। भारतीय नास्तिक चार्वाकमत आकाश को जगत् के तत्व के रूप में स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार भारतीय नास्तिक एवं आस्तिक दर्शनों में मूल एवं विकसित रूपों में भी, आकाश के संबंध में भिन्न-भिन्न मत मिलते हैं।
भारतीय दर्शन एवं साधना में अनंताकाश, अव्याकृताकाश, चित्ताकाश, भूताकाश, घटाकाश आदि अनेक भेद मिलते हैं। भारतीय दर्शन में दिक् शब्द से जिस वस्तु की अभिव्यक्ति होती है, माध्व दर्शन में उसे किंचित् भिन्न रूप में अव्याकृताकाश कहते हैं। यह वह आकाश है जिसमें सृष्टि अथवा प्रलय के समय में भी किसी प्रकार की विकृति नहीं आती। न इसकी उत्पति होती है और न विनाश ही होता है। अत: यह नित्य, एक , व्याप्त और स्वगत कहा गया है। तामस अंहकार से जो आकाश उत्पन्न होता है, उसे भूताकाश कहते हैं। यह रूपयुक्त, पंचभूतों से आविष्ट देहाकार से विकारशील, तामस, अहंकार का कार्य, परिच्छित्र और गतिशील है। वैदिक साहित्य तथा उसका अनुसरण करनेवाले परवर्ती साहित्य में चित्ताकाश अथवा अंतराकाश का वर्णन मिलता है। शरीर के बाह्म नाड़ीजालों में संचरणशील वायु जब संयत हो जाती है परिणामत: जब मन भी स्थिर हो जाता है, तब जिस आकाश का आविर्भाव होता है, उसे ह्दय या 'दहर पुंडरीक' कहा गया है। इसकी कर्णिका में विकसित तेजमंडल को हृदयाकाश कहते हैं जो स्थूल वृत्तियों का लयस्थान है। इसे चित्ताकाश कहते हैं। प्राचीन उपनिषत्साहित्य में 'दहरविद्या' के प्रकरण में चिदाकाश का वर्णन मिलता है। ज्ञानसूर्य के उदय के उपरांत जिस पुंडरीकरूपी हृदयाकाश का विकास होता है, उसे चिदाकाश कहते हैं। इसे ही पुराणसंहिता जैसे ग्रंथों में परब्रह्म पुरूषोत्तम का लीलास्थान कहा गया है।
भारतीय आध्यात्मिक दर्शन में देह विज्ञान के अतंर्गत निर्गुण आकाश, पराकाश, महाकाश, तत्वाकाश और सूर्याकाश नामक पाँच आकाशों की प्रसिद्धि है, जिनके स्थान हैं-जन्मस्थान, नाभिप्रदेश, हृदयप्रदेश, बिंदु और नाद। आकाशों में सर्वोच्च परमाकाश अथवा परम व्योम है, जो नित्य, अक्षर एवं सत् है।
भारतीय योगसाधना में षट्चक्रभेद के प्रकरण में मूलाधार, मणिपूर कादि (द.'चक्र') छह चक्रों के अनंतर सातवें चक्र सहस्रार की मान्यता है जिसे 'आकाश' भी कहा जाता है। योगविभूतियों में आकाशगमन एक ऋद्धि भी है जिसे बौद्ध साधनानुसार श्रावक और प्रत्येकबुद्ध प्राप्त करते हैं। बौद्ध साहित्य में आकाश में टँगें चंदन के भिक्षापात्र को आकाशमार्ग से ही प्राप्त कर लेने पर बुद्धदेव ने भारद्वाज को निंदित किया था और लौकिक कार्य के विषय में कभी योगैश्वर्य को न प्रकाशित करने का निर्देश दिया था-इस प्रकार की कथा मिलती है। आकाशगमन एक प्रकार का आसन-उत्थान-व्यापार है जो सभी देशों के प्राचीन साहित्य एवं साधन में व्यक्त हैं। ईसाई मत के ग्रंथों में सेंट मणिका, जानब्लिचास, मिस्र की सेंट मेरी, बिशप सेंट आर.सेंट फ्रांसिस (पाओला) आदि के विषय में भी इसी प्रकार की ऋद्धि के वर्णन मिलते हैं। भारतीय महायोगियों में स्वामी विशुद्धानंद परमहंस, श्री लोकनाथ ब्रह्मचारी, श्री काठिया बाबा आदि के विषय में भी इसी प्रकार की ऋद्धियों की चर्चा की जाती है। इस प्रकार के साहित्य का बहुत विस्तार है।
(ना.ना.उ.)