अस्थिचिकित्सा-शल्यतंत्र का वह विभाग हैं, जिसमें अस्थि तथा संधियों के रोगों और विकृतियों या विरूपताओं की चिकित्सा का विचार किया जाता है। अतएव अस्थि या संधियों से संबंधित अवयव, पेशी, कंडरा, स्नायु तथा नाड़ियों के तद्गत विकारों का भी विचार इसी में होता है।
यह
विद्या अत्यंत प्राचीन
है। अस्थिचिकित्सा
का वर्णन सुश्रुतसंहिता
तथा हिप्पाँचक्रेटीज
के लेखों में मिलता
है। उस समय भग्नास्थिओं
तथा च्युतसंधियों
(डिस्लोकेशन) तथा
उनके कारण उत्पन्न
हुई विरूपताओं
को हस्तसाधन,
अंगों के स्थिरीकरण
ओर मालिश आदि
भौतिक साधनों
से ठीक करना
ही इस विद्या का ध्येय
था। किंतु जब से
एक्स-रे, निश्चेतन
विद्या (ऐनेस्थिज़ीया)
ओर शस्त्रकर्म की
विशेष उन्नति हुई
है तब से यह विद्या
शल्यतंत्र का एक विशिष्ट
विभाग बन गई
हैं और अब अस्थि
तथा अंगों की
विरूपताओं को
बड़े अथवा छोटे
शस्त्रकर्म से ठीक
कर दिया जाता
है। न केवल यही,
अपितु विकलांग
शिशुओं ओर
उन बालकों के,
जिनके अंग टेढ़े-मेढ़े
हो जाते हैं या
जन्म से ही पूर्णतया
विकसित नहीं
होते, अंगों को
ठीक करके उपयोगी
बनाना, उपयोगी
कामों को करने
उसका पुन:स्थापन
(रीहैबिलिटेशन)
करना, जिससे
वह समाज का उपयोगी
अंग बन सके और
अपना जीविकोपार्जन
कर सके, ये सब
आयोजन और
प्रयत्न इस विद्या के
ध्येय हैं।
हस्तसाधन (मैनिप्युलेशन) और स्थिरीकरण (इंमोबिलाइज़ेशन)-- इन दो क्रियाओं से अस्थिभंग, संधिच्युति तथा अन्य विरूपताओं की चिकित्सा की जाती है। हस्तसाधन का अर्थ है टूटे हुए या अपने स्थान से हटे हुए भागों को हाथों द्वारा हिला डुलाकर उनको स्वाभाविक स्थिति में ले आना। स्थिरीकरण का अर्थ है च्युत भागों को अपने स्थान पर लाकर अचल कर देना जिससे वे फिर हट न सकें। पहले लकड़ी या खपची (स्प्लिंट) या लोहे के कंकाल तथा अन्य इसी प्रकार की वस्तुओं से स्थिरीकरण किया जाता था, किंतु अब प्लास्टर ऑव पेरिस का उपयोग किया जाता है, जो पानी में सानकर छोप देने पर पत्थर के समान कड़ा हो जाता है। आवश्यक होने पर शस्त्रकर्म करके धातु की पट्टी और पेंचों द्वारा या अस्थि की कील बनाकर टूटे अस्थिभागों को जोड़ा जाता है और तब अंग पर प्लास्टर चढ़ा दिया जाता है।
इसी प्रकार आवश्यकता होने पर संधियों, नाड़ियों तथा कंडराओं को शस्त्रकर्म करके ठीक किया जाता है।
भौतिकी चिकित्सा-(फिज़ियोथेरापी)--ऐसी चिकित्सा अस्थिचिकित्सा का विशेष महत्वपूर्ण अंग है। शस्त्रकर्म तथा स्थिरीकरण के पश्चात् अंग को उपयोगी बनाने के लिए यह अनिवार्य है। भौतिकी चिकित्सा के विशेष साधन ताप, उद्वर्तन (मालिश) और व्यायाम हैं।
जहाँ जैसा आवश्यक होता है वहाँ वैसे ही रूप में इन साधनों का प्रयोग किया जाता है। शुष्क सेंक,आर्द्र सेंक या विद्यतुकिरणों द्वारा सेंक का प्रयोग हो सकता है। उद्वर्तन हाथों से या बिजली से किया जा सकता है व्यायाम दो प्रकार के होते हैं--जिनको रोगी स्वयं करता है वे सक्रिय होते हैं तथा जो दूसरे व्यक्ति द्वारा बलपूर्वक कराए जाते हैं। वे निष्क्रिय कहलाते हैं। पहले प्रकार के व्यायाम उत्तम समझे जाते हैं। दूसरे प्रकार के व्यायामों के लिए एक शिक्षित व्यक्ति की आवश्यकता होती है जो इस विद्या में निपुण हो।
पुन:स्थापन-यह भी चिकित्सा का विशेष अंग है। रोगी की विरूपता को यथासंभव दूर करके उसको कोई ऐसा काम सिखा देना। जिससे वह जीविकोपार्जन कर सके, इसका उद्देश्य है। टाइपिंग, चित्र बनाना, सीना, बुनना आदि ऐसे ही कर्म हैं। यह काम विशेष रूप से समाजसेवकों का है, जिन्हें अस्थिचिकित्सा विभाग का एक अंग समझा जा सकता है।
(म.कु.गो.)