असुर ३. बिहार राज्य में छोटा नागपुर क्षेत्र के निवासी कबीलों में से एक नाम। असुर इनमें संभवत: सबसे अधिक पिछड़े हुए हैं। यद्यपि इनके पड़ोसी अन्य कबीलों के प्रामाणिक और तात्विक क्षेत्र अध्ययन उपलब्ध हैं, तथापि असुर कबीले का विस्तृत अध्ययन अब तक नहीं हुआ है। इस कमी का एक कारण असुरों के भौगोलिक विवरण की अनिश्चिता है। एल्विन के मत में पश्चिम में मध्यभारत के होशंगाबाद और भंडारा जिले से पूर्व में बिहार के राँची ओर पलामू जिले तक छिटपूट पाए जानेवाले लोहा पिघलानेवाले सभी कबीलों को 'अगरिया' परिवार में रखना उचित है। इस वर्गीकरण के अनुसार बिहार के असुर भी इसी श्रेणी के हैं। पर लोहा पिघलानेवाले सब कबीलों का ऐसा एकीकरण उन कबीलों की सांस्कृतिक विषमताओं को दृष्टिगत करते हुए सही नहीं प्रतीत होता। छोटा नागपुर क्षेत्र में विशेष रूप से राँची ओर पलामू जिलों की क्रमश: उत्तरी पश्चिमी और दक्षिण-पश्चिमी सीमा के पठारी प्रदेश में असुरों की संख्या सबसे अधिक है। कृष्ण वर्ण, मझोले कद, सीधे या घुंघराले बाल और चिपटी नाकवाले असुर अपने पड़ोसी मुंडा, चिरहोर तथा उरांव कबीलों की भांति ही 'पत आस्ट्रेलिया' प्रजातीय स्कंध के हैं। इनकी बोली भी मुंडारी भाषापरिवार की है। वर्तमान असुरों ने लोहा पिघलाने का धंधा छोड़ दिया हैं किंतु आज भी वे कुशल लौहार हैं। उसके नाम 'असुर' और निकट भूत में लोहा पिघलाने के धंधे के आधार पर कुछ विद्वानों क मत है कि वर्तमान असुर कबीले के पूर्वज ऋग्वेज में वर्णित असुर रहे होंगे। इस मत को स्वीकार करना संभव नहीं। मुंडा लोककथाओं में भी मुंडाओं से पूर्व छोटा नागपुर प्रदेश में लोहा पिघलानेवाली असुर जाति के आधिपत्य का उल्लेख है जिन्हें बाद में 'सिंगबोंगा' की शक्ति और तेज द्वारा परास्त कर दिया गया था। किंतु इस क्षेत्र के अन्य कबीलों से असुरों की प्रजातीय, सांस्कृतिक और भाषागत समानता को ध्यान में रखते हुए यह मत निर्विवाद प्रतीत नहीं होता।

वर्तमान असुर कबीले का मुख्य धंधा कृषि है और इनकी मुख्य फसलें धान, मकई और जौ हैं। लोहारी के अतिरिक्त पशुपालन, आखेट, मधुसंचय आदि इनके मुख्य सहायक धंधे हैं। विनिमय अदला बदली द्वारा होता है, यद्यपि हाल में निकटवर्ती नगरों के महाजनों ने इन्हें मुद्रा व्यवस्था से भी परिचित कर दिया है। असुर सामाजिक संरचना में नातेदारी के संबंध (किनशिप रिलेशंस) अब भी महत्वपूर्ण हैं। दादा दादी, नाना नानी ओर नाती नातिन को आपस में हंसी ठठ्टा करने को विशेष छूट है। कुछ हास परिहास तो निश्चय ही हमारे आदर्शो के विचार से औचित्य और श्लीलता की सीमा का अतिक्रमण करनेवाले हैं। विवाह के मुख्य रूप क्रय, विक्रय, सेवाविवाह और धरने का विवाह है। प्रथम प्रकार का विवाह 'लाठी टेकना' कहलाता है जिसमें वरपक्ष द्वारा वधू के मूल्य का भुगतान अनिवार्य होता है। यदि वर पक्ष वधू का मूल्य देने में असमर्थ हो तो विवाहोपरांत वर को घरजमाई के रूप में अनिश्चित अवधि तक अपने ससुर के घर काम करना पड़ता है। यह सेवाविवाह का ही एक रूप है। तीसरे प्रकार का विवाह वह है जिसमें अपने ससुर परिवार के विरोध की परवाह न करते हुए कन्या भावी पति के घर धरना दे देती है और कालांतर में सास असुर को सेवा द्वारा प्रसन्न कर वैध पत्नी का पद ग्रहण करती हैं। संपूर्ण असुर कबीला बहुत से बर्हिर्विवाही कुलों (एक्ज़ोगैमस क्लैंस) में बँटा है। इनमें ऐंट, बेग, बुड़वा, ऐंदुवार, किरकिटा और खुसार विशेष उल्लेखनीय हैं। प्रत्येक कुल 'टोटमी' है और कुल के सदस्यों के लिए 'टोटमी' पशु अथवा पक्षी का माँस खाना वर्जित है। असुर टोटमी कुलों के नाम मुंडा और उरांव कुलनामों के समान हैं। अन्य कबीलों की भांति असुरों में भी कुलों का नामकरण पवित्र परिवेश के पशु पक्षियों के आधार पर किया गया है। अविवाहित असुर नवयुवक ओर नवयुवतियें के परंपरागत शिक्षण, आमोद प्रमोद ओर सहयोग के हेतु प्रत्येक गाँव में युवक और युवतियों के लिए पृथक 'गितिओंडा' या युवागृह होते हैं। कबीले में नृत्य, गीत और सामूहिक आखेट का आयोजन युवागृह के तत्वावधान में होता है। असुरों के सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा या सूर्य देवता हैं। बलि द्वारा उग्र देवताओं का शमन, झाड़-फूँक द्वारा रोगों की चिकित्सा तथा महामारी आदि संकट से कबीले की रक्षा का कार्य गाँव के अनुभवी 'देउरी' के हाथ में होता है। हाल में अधिकांश असुर गाँवों के छोटे बालकों की प्राथमिक शिक्षा के लिए शासन द्वारा संचालित स्कूल खोले गए हैं। बाजारों तथा नागारिक व्यापारियों ने भी असुरों के संपर्क का क्षेत्र विस्तृत कर दिया है। भारतीय कबीलाई जनसंख्या द्वारा पर-संस्कृति-ग्रहण की प्रक्रिया के प्रसंग में असुरों की यह प्रगति निश्चय ही रोचक है। (र.जै.)