असहयोग विदेश अंग्रेज सरकार को देश से निकालकर देश को आजाद करने का सबसे पहला उपाय जो महात्मा गांधी ने देश को बताया उसे उन्हाँने 'असहयोग' या 'शांतिमय असहयोग (नानवायलेंट, नानको-आपरेशन) नाम दिया। कुछ दिनों बाद 'सत्याग्रह' शब्द का उपयाग भी होने लगा; किंतु यदि सही तौर पर देखा जाए तो महात्मा गांधी का सत्याग्रह असहयोग का ही एक विकसित और उन्नत रूप था। अंत में इसी उपाय से भारत ने स्वाधीनता प्राप्त की।
कुछ लोगों का कहना है कि दुनिया में कोई चीज नई नहीं होती। कम से कम असहयोग का विचार या उसकी कल्पना इस देश के राजनीतिक इतिहास में काई नई चीज नहीं थी। राजनीति में अहिंसा का विचार भी इस देश में बिलकुल नया नहीं था। महात्मा गांधी ने पचास वर्ष पहले पंजाब के नामधारी सिक्खों के गुरु गुरुरामसिंह जी ने खुले तौर पर अंग्रेजी राज के खिलाफ 'धर्मयुद्ध' यानी जेहाद का झंडा खड़ा किया था। वह अंग्रेज सरकार को भारत से निकालना अपना लक्ष्य बताते थे। पंजाब के उस समय के अंग्रेज लेफ्टिनेंट गवर्नर स्वयं भैणी साहब के गुरुद्वारे को देखने गए। गुरुद्वारे में उनकी गुरुरामसिंह से भेंट हुई। गुरुरामसिंह ने अंग्रेज शासक से स्पष्ट शब्दों में कहा कि ''मैं आप लोगों को भारत से निकालने की तैयारी कर रहा हूँ।'' जब उनसे पूछा गया कि आप अंग्रेजों को किस तरह निकालिएगा तो उन्होंने कहा कि ''मैं १०८, १०८ गोलों की बहुत सी तोपें तैयार करा रहा हूँ। जब अंग्रेज शासक ने तोप देखना चाहा तो गुरु जी ने अपने हाथ की १०८ दानों की सफेद ऊन की माला अंग्रेज शासक के सामने रख दी। 'अहिंसा' के अर्थों में वह पंजाबी 'छमा' (क्षमा) शब्द का उपयोग किया करते थे। हिंसा के वे कट्टर विरोधी थे। अपने अनुयायियों को वह अंग्रेज सरकार के साथ पूर्ण असहयोग की सलाह देते थे। उनका उपदेश था कि कोई भारतवासी अपने बच्चों को अंग्रेजों के किसी सरकारी मदरसे में पढ़ने के लिए न भेंजे; कोई, चाहे उसे कितना भी कष्ट क्यों न हो, अंग्रेजी अदालत का आश्रय न ले, न अंग्रेजी अदालत में जाए, कोई भारतवासी अंग्रेज सरकार की नौकरी न करे। वह अंग्रेजों की रेलों में बैठने और अंग्रेजी डाकखानों की मारफत चिट्ठी पत्री भेजने तक के विरुद्ध थे। कुछ बर्षों तक पंजाब में यह आँदोलन खूब फैला। अंग्रेज सरकार के लिए उसे दमन करना आवश्यक हो गया। सन् १८७२ में गुरुरामसिंह को कैद करके रंगून भेज दिया गया, जहाँ कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो गई। पंजाब के अनेक जिलों से हजारों नामधारी सिक्खों को गिरफ्तार करके स्पेशल ट्रेनों में भरकर कहीं पूरब की तरफ भेज दिया गया। आज तक इस बात का पता न चला कि उन लोगों को सुंदरवन में ले जाकर मार डाला गया या बंगाल की खाड़ी में डुबो दिया गया। भारत में अंग्रेजी राज के खिलाफ शांतिमय असहयोग का वह पहला तजरबा था। सन् १९४७ तक अर्थात् भारत के स्वतंत्रता प्राप्त करने के दिन तक हजारों ही नामधारी सिक्ख ऐसे थे जो न अंग्रेजी स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ने भेजते थे, न अंग्रेजी कचहरियों में जाते थे और न अंग्रेजों की नौकरी आदि करते थे। कुछ ऐसे भी थे जो न रेलगाड़ी में यात्रा करते थे और न सरकारी डाकखाने से अपनी चिट्ठी पत्र भेजते थे।
महात्मा गांधी की सत्याग्रह की कल्पना भी दुनिया में कोई नई कल्पना नहीं थी। स्वयं गांधी जी ने सन् १९१९ में प्रसिद्ध अमरीकी संत दार्शनिक थोरो की मशहूर किताब 'दि ड्यूटी ऑव सिविल डिसओबीडिएन्स' को छपवाकर उसका अंग्रेजी में और भारत की अनेक भाषाओं में खूब प्रचार कराया था। थोरो का उपदेश भी यही था कि स्वयं अहिंसात्मक रहते हुए किसी भी अन्यायी सरकार के कानूनों को भंग करके जेल जाना या मौत का सामना करना हर न्यायप्रेमी का कर्तव्य है। महात्मा गांधी से बहुत पहले यह वाक्य ''जो सरकार किसी एक मनुष्य को भी न्याय के विरुद्ध जेलखाने में बंद कर देती है उस सरकार के अधीन रह न्यायप्रेमी मनुष्य के रहने की असली जगह जेलखाना ही है'', सारी दुनिया में गूंज चुका था। २०वीं सदी के भारत के असहयोग आँदोलन और सत्याग्रह आँदोलन से पीढ़ियों पहले अमरीका और स्वयं यूरोप के कई देशों में अहिंसात्मक असहयोग और सत्याग्रह के तजरबे हो चुके थे। हम इस स्थान पर उस सब पहले के तजरबों के विस्तार में जाना नहीं चाहते।
महात्मा गांधी के आँदोलन की विशेषता यह थी कि उन्हाँने एक इतने विशाल देश में, इतने बड़े पैमाने और इतनी शक्तिशाली सत्ता के विरुद्ध इस अहिंसात्मक हथियार का सफल प्रयोग करके दुनिया को दिखला दिया। दुनिया के इतिहास में यह सममुच एक नई बात थी।
असहयोग का अर्थ बिलकुल साफ और सीधा है। इसमें तीन बातें हैं। पहली यह कि किसी देश के लोग दूसरे देश के लोगों पर बिना शासित देश के लोगों की सहायता और उनके सहयोग के शासन नहीं कर सकते; दूसरे यह कि किसी भी अन्याय, आक्रमण, कुशासन या बुराई के साथ सहयोग करना यानी उसे मदद देना गुनाह है; तीसरी और अंतिम बात यह है कि यदि किसी शासित देश के लोग विदेशी सरकार के साथ सहयोग करना बिलकुल बंद करे दें और इस असहयोग की सजा में हर तरह के कष्ट भोगने को तैयार हो जाएँ तो कोई विदेशी सरकार उस देश पर देर तक शासन नहीं कर सकती। महात्मा गांधी के इस अनुपम आँदोलन ने करोड़ों भारतवासियों के अंदर वह जागृति, साहस, निर्भीकता, त्यागभावना, एकता और वह नई जान फूंक दी जिससे इस देश में विदेशी शासन का चल सकना सर्वथा असंभव हो गया और जिससे विवश होकर अंग्रेजों को, शासकों की हैसियत से, भारत छोड़कर चला जाना पड़ा।
असहयोग को पंजाबी में 'नामिलवर्तन' और उर्दू में 'अदमतआवुन' कहते थे। संभव है, भारत की किसी और भाषा में उसका कोई और नाम भी रखा गया हो, पर असहयोग नाम सारे भारत में प्रचलित था और अब तक है।
असहयोग आँदोलन शुरू होने से पहले देश की आजादी चाहनेवालों में मुख्यत: दो विचारों के लोग थे। एक वह जो केवल अरजी पर्चों के जरिए अंग्रेज सरकार की कृपा से धीरे-धीरे राजनीतिक उन्नति करने की आशा रखते थे और दूसरे वह जो हिंसात्मक क्रांति का रास्ता ढूंढ़ते थे। दोनों के अपने-अपने प्रयत्न चल रहे थे। उनपर विचार करने की हमें यहाँ आवश्यकता नहीं है। जहाँ तक स्वाधीनताप्राप्ति का संबंध है, इन दोनों उपायों की निष्फलता साबित हो चुकी है। पहले महायुद्ध (१९१४-१९१९) ने देशवासियों के अंदर स्वाधीनता की प्यास को और अधिक बढ़ा दिया था। अंग्रेज शासक भी दमन के नए-नए हथियार तैयार कर रहे थे। उस अपूर्व संकट के समय महात्मा गांधी के शांतिमय असहयोग कार्यक्रम ने भारत की जनता के दिलों में एक नया उत्साह, नई उमंग और आशा की नई जोत जगा दी।
गांधी जी के असहयोग कार्यक्रम के मुख्य अंग ये थे : (१) स्कूलों और कालेजों का बहिष्कार, (२) सरकारी नौकरी का बहिष्कार, (३) सरकारी अदलतों का बहिष्कार, (४) सरकारी खिताबों का बहिष्कार और (५) सरकार की उस समय की कौंसिलों या धारासभओं का बहिष्कार। इन्हीं को गांधी जी पंचबहिष्कार कहा करते थे। गांधी जी का कहना था कि विदेशी सरकार स्कूलों और कालेजों की गलत तालीम के जरिए देश के बालकों में देशभक्ति घटाती और एक दूसरे से द्वेष को बढ़ाती है; इन्हीं स्कूलों और कालेजों में वह विदेशी शासन के लिए कर्मचारी यानी उपयोगी यंत्र गढ़कर तैयार करती है। सरकारी स्कूलों और कालेजों को सह 'गुलामखाने' कहा करते थे। विदेशी सरकार की नौकरी को वह पाप कहते थे। विदेशी अदालतों को वह देशवासियों के चरित्र को गिराने, उन्हें मिटाने और उनमें फूट डालने का एक बहुत बड़ा साधन मानते थे। विदेशी सरकार के खिताब स्वीकार करने को वह देशाभिमान के विरुद्ध बताते थे और उस जमाने में जिस तरह की कौंसिलें अंग्रेजों ने बना रखी थीं उन्हें वह जनता के हित में सर्वथा निरर्थक और आम जनता तथा पढ़े-लिखे नेताओं के बीच की खाई को बढ़ानेवाली मानते थे। पंचबहिष्कार के लिए यही उनकी खास दलीलें थीं।
इस असहयोग का ही एक और छठा अंग था, विदेशों की बनी हुई चीजों का बहिष्कार और गांवों की बनी चीजों, विशेषकर हाथ के कते सूत की हाथ की बुनी खद्दर का उपयोग। गांधी जी का कहना थ कि अंग्रेज व्यापार द्वारा धन कमाने के लिए ही दूसरे देशों पर शासन करना चाहते हैं। अगर हम उनके यहाँ की बनी चीजों को खरीदना बंद कर दें तो एक बहुत बड़ा लाभ उनके रास्ते से हट जाए और दूसरों पर हुकूमत करने का उनका उद्देश्य भी एक बड़े दरजे तक जाता रहे। जिन करोड़ों देशवासियों की जीविका विदेशियों ने अपने व्यापार द्वारा नष्ट कर दी थी उन्हें फिर से जीविका प्रदान करने और उनके घरों में खुशहाली लाने का उनके अनुसार यही एक मात्र साधन था। गांधी जी इसे बहुत अधिक महत्व देते थे और अपने असहयोग कार्यक्रम का एक अंग मानते थे। पर साथ ही वह इस प्रश्न को राजनीतिक दृष्टि की अपेक्षा आर्थिक दृष्टि से अधिक देखते थे और अंगेजी माल और दूसरे विदेशी माल में कोई फर्क करना भी नहीं चाहते थे। खद्दर और ग्रामोद्योग का प्रश्न उनके लिए एक स्थायी प्रश्न था। इसीलिए उसे असहयोग के 'पंचबहिष्कारों' में शामिल नहीं किया जाता।
अपने इस कार्यक्रम को देश भर में फैलाने के लिए गांधी जी ने सारे देश का दौरा किया। उनके व्याख्यानों से सारे देश में एक बिजली सी दोड़ गई। सैंकड़ों और हजारों उपदेशक गली-गली और गाँव-गाँव जाकर उनके उपदेशों और उनके सिद्धांतों का प्रचार करने लगे। देश भर में लाखों विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूलों और कालेजों से निकलकर स्वाधीनता आँदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। जगह-जगह अनेक राष्ट्रीय विद्यालय भी खुल गए। जो नौजवान देश के आँदोलन में भाग नहीं लेना चाहते थे उनकी तैयारी के लिए जगह-जगह 'आश्रम' खोले गए। हजारों ने सरकारी नौकरियों से इस्तीफा दे दिया। सरकारी अदालतों की जगह देश भर में हजारों आजाद पंचायतें कायम हो गई। अनगिनत लोगों ने अपने खिताब वापिस कर दिए, जिनमें विशेष उल्लेखनीय कविसम्राट् श्री रवींद्रनाथ ठाकुर का अपनी 'सर' की उपाधि वापस करना थी। अनेक देशभक्तों ने सरकारी कौंसिलों में जाने से इनकार किया। देश के विस्तार और उसकी विशालता को देखते हुए गांधी जी का असहयोग कार्यक्रम केवल एक बहुत थोड़े अंश में ही सफल हो सका। फिर भी वह इतना सफल अवश्य हुआ कि कलकत्ते में ब्रिटिश सरकार के सबसे बड़े प्रतिनिधि अंग्रेज वायसराय ने खुले शब्दों में स्वीकार किया कि :
''गांधी जी के कार्यक्रम की सफलता में एक इंच ही कसर रह गई थी। मैं हैरान था, मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था।''
दमनचक्र जोरों के साथ चलना शुरू हुआ। गांधी जी गिरफ्तार कर लिए गए। लाखों कार्यकर्ता जेलों में डाल दिए गए। हिंदू मुसलमानों को लड़ाने के विधिवत् प्रयत्न किए गए। जगह-जगह हिंदू मुसलमान दंगे कराए गए। स्वाधीनता का आँदोलन एक बार दबता दिखाई दिया, पर फिर उसने जोर पकड़ा। गांधी जी के नेतृत्व में उसने नए रूप धारण करने शुरू किए। गांधी जी के जेल में रहते हुए ही जबलपुर और नागपुर में झंडा सत्याग्रह हुआ, जिसमें उनके बनाए तिरंगे राष्ट्रीय झंडे के मान की रक्षा के लिए १,६०० से ऊपर आदमी जेल गए और अंग्रेज सरकार को उस मामले में सोलह आने हार माननी पड़ी। गांधी जी के आने के बाद सुप्रसिद्ध 'नमक सत्याग्रह' हुआ। देश भर में लाखों आदमियों ने अंग्रेज सरकार का नमक कानून तोड़कर सत्याग्रह में हिस्सा लिया और लाखों ही जेल गए। राजद्रोह के कानून को तोड़कर खुले आम इस तरह की पुस्तकों का प्रकाशन और प्रचार किया गया जो देशभक्ति के भावों से भरी हुई थीं, पर जिन्हें सरकार ने राजद्रोह कहकर जब्त कर लिया था। और भी तरह-तरह के न्यायविरुद्ध कानून तोड़े गए। दूसरा महायुद्ध शुरू हुआ तो गांधी जी की आज्ञा से यह आवाज सारे देश में गूंज गई कि 'अंग्रेजों को इस युद्ध में किसी तरह की सहायता मत दो।' कुछ दिनों बाद आवाज उठी : ''अंग्रेजो भारत छोड़ो''। जगह-जगह अंग्रेज सरकार को लगान न देने तक का आँदोलन चला। ध्यान से देखा जाए ते ये सब तरह-तरह के 'सत्याग्रह' आँदोलन अहिंसात्मक असहयोग के विविध रूप थे।
गांधी जी 'अहिंसात्मक असहयोग' में 'सहयोग' शब्द से कहीं अधिक जोर 'अहिंसा' शब्द पर देते थे। ध्येय की अपेक्षा वह साधनों की पवित्रता को अधिक महत्व देते थे। सारे कार्यक्रम में उनकी सबसे बड़ी शर्त यह थी कि किसी अंग्रेज मर्द, औरत या बच्चे की जान या उसके माल को किसी तरह का भी नुकसान न पहुँचने पाए। यह शर्त उनकी इतनी बड़ी थी कि शुरू के असहयोग आँदोलन के दिनों में चौरीचौरा (उत्तर प्रदेश) में जब कुछ लोगों ने पुलिस चौकी को आग लगा दी और कुछ पुलिसवालों को मार डाला तो गांधी जी ने सारे देश के अंदर अपने आँदोलन को कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया और जनता की उस गलती का प्रायश्चित स्वयं किया। शासकों के साथ सहयोग करने में उनकी साफ हिदायतें थीं कि किसी बीमार की सेवा शुश्रूषा करने में, किसी अंग्रेज स्त्री के बच्चा पैदा होने की सूरत में उसकी आवश्यक सहायता करने में कही किसी तरह की कमी न की जाए। उनकी कोई-कोई बात मामूली आदमी की समझ से ऊपर होती थी। उदहारण के लिए, दूसरे महायुद्ध के दिनों में, जब उन्होंने ''अंग्रेजों को युद्ध में किसी तरह की मदद मत दो'' की आवाज उठाई, उन्हीं दिनों उनकी यह भी हिदायत हुई कि अगर फौज के अंदर सिपाहियों को सर्दी के कारण कंबलों की आवश्यकता हुई हो तो उन्हें कंबल देना हमारा फर्ज है। उनका कहना था कि अगर मैं घोड़ों की नाल लगाने का काम करता हूँ और फौज के घोड़े पास से जा रहे हें और उनकी नालें टूट गई हों तो मेरा धर्म है कि उनकी नालें लगा दूं ताकि उनके पैर जख्मी न होने पाएँ। वह केवल उन कानूनों को तोड़ने की इजाजत देते थे जो न्याय और जनहित के विरुद्ध थे। सारे आँदोलन में दृढ़ता और आत्मबलिदान के साथ-साथ अहिंसा, मानवता और सहृदयता उनके हर कार्यक्रम में साथ-साथ चलती थी। देश की आम जनता पर कम से कम कुछ समय के लिए इसका गहरा प्रभाव पड़ा; उदाहरण के लिए, पेशावर के सरहदी पठानों पर। एक बार फौजी अंग्रेज अफसर ने एक जुलूस को आगे बढ़ने से रोक दिया। जुलूस निहत्थी जनता का था। उसमें औरतें भी थीं, जिनमें से बहुतों की गोद में बच्चे थे। जुलूस ने पीछे हटने से इनकार कर दिया। फौजी गोरों ने बंदूकें तानकर उन्हें मार डालने की धमकी दी। दस-दस करके निहत्थे पठानों के जत्थे आगे बढ़ते गए और सब अपनी छातियों पर गोलियाँ खाते गए। जब दस की लाशें हटा दी जाती थीं तब दस और थे और वहीं गोली खाकर गिर पड़ते थे। यहाँ तक कि पूरी ४०० लाशें, जिनमें बहुत सी गोद में बच्चा लिए औरतों की थीं, एक ही स्थान पर गिरीं और अंग्रेज फौजी अफसर ने घबराकर अपना हुक्त वापस लेना पड़ा। पठान जनता में से न किसी आदमी का हाथ ऊपर उठा और न किसी के पैर पीछे हटे। इसी तरह के दृश्य देश के और अनेक भागों में भी दिखाई पड़े। गांधी जी के अनुयायियों में अहिंसा की दृष्टि से यदि किसी एक सबसे बड़े और सबसे पक्के अनुयायी का नाम लिया जा सकता है तो वह 'सरहदी गांधी' खान अब्दुल गफ्फार खाँ का।
अंत में इतना कह देना जरूरी है कि महात्मा गांधी के इस अनोखे आँदोलन ने देश की करोड़ों जनता के अंदर वह दृढ़ता, निर्भीकता, उमंग और संकल्पशक्ति पैदा कर दी कि उसी के फलस्वरूप १५ अगस्त, सन् १९४७ की आधी रात बिना रक्तपात के हिंदुस्तान की हुकूमत अंग्रेजों के हाथों से निकलकर बजाब्ता देशवासियों के हाथों में आ गई।
सं.ग्रं-महात्मा गांधी : एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ, हिंद स्वराज्य, नान वायलेंस इन पीस ऐंड वार (२ खंड), सत्याग्रह, सत्याग्रह इन साउथ अफ्रीका, अंटू दिस लास्ट; राजेंद्रप्रसाद : सत्याग्रह इन चंपारन; महादेव देसाई की डायरी (३ भाग); दि स्टोरी ऑव बारडोली; आर.बी. ग्रेग : ए डिसिप्लिन फॉर नान वायलेंस; प्यारेलाल : गांधियन टेकनीक्स इन दि मॉडर्न वर्ल्ड; विनयगोपाल राय : गांधियन एथिक्स, नॉन कोआपरेशन इन अदर लैंड्स; आत्मकथा (गांधी जी, हिंदी); गोखले : मेरे राजनीतिक गुरु गांधी जी।
(सुं.ला.)