अष्टछाप हिंदी साहित्य के निम्नलिखित आठ कृष्णाभक्त कवियों का वर्ग 'अष्टछाप' के नाम से प्रसिद्ध है: कुंभनदास (गोरवा क्षत्रिय, जन्मस्थान जमुनावती, गोवर्धन), सूरदास (सारस्वत ब्राह्मण, जन्मस्थान सीही), परमानंददास (कान्यकुब्ज ब्राह्मण, जन्मस्थान कन्नौज), कृष्णदास अधिकारी (कुनबी शुद्र, जन्मस्थान रामपुर, एटा), चतुर्भजदास (गोरवा क्षत्रिय, कुभंनदास जी के पुत्र), गोविंदस्वामी (सनाढय ब्राह्मण, जन्मस्थान ऑतरी, भरतपुर), छीतस्वामी (चौबे, मथुरिया ब्राह्मण, जन्मस्थान मथुरा)।इनमें से प्रथम चार कवि श्री वल्लभाचार्य (सं.१५३५ से सं. १५८७ वि. तक) के शिष्य थे और अंतिम चार आचार्य वल्लभ के उत्तरधिकारी पुत्र गोस्वामी विट्टलनाथ (सं. १५७२ से सं. १६४२ तक)के। ये आठों भक्तकवि गो. विट्ठलनाथ के सहवास में (लगभग सें. १६०६ वि.से सं. १६३५ तक) एक दूसरे के समयकालीन रहे और ब्रज में गोवर्धन पर स्थित श्रीनाथ जी के मंदिर में कीर्तनसेवा और भगवद्भक्ति विषयक पद रचा करते थे। गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने अपने संप्रदाय के परम भक्त, उत्कृष्ट कवि और उच्च कोटि के संगीतज्ञ इन आठ महानुभावों पर प्रशंसा और वैशिष्ट्य की मोखिक छाप लगाई। तभी से आठों भक्तों का वर्ग 'अष्टछाप' कहलाने लगा। इस बात का प्रमाण वल्लभ संप्रदायी वार्ता साहित्य में मिलता है। ये आठों कवि श्रीकृष्ण के आठ साखाओं की अनुरूपता में अष्टसखा भी कहलाते हैं। ब्रजभाषा को समृद्ध काव्यभाषा का रूप देने का श्रेय इन्हीं आठ कवियों को है। इनके काव्य का मुख्य विषय श्रीकृष्ण की भावपूर्ण लीलाओं का चित्रण है। सूरदास ने यद्यपि भागवत् की संपूर्ण कथा का अनुसरण किया है, तथापि इन्होंने आनंदरूप ब्रजकृष्ण के चरित्रों का तन्मयता से चित्रण किया है। मानव जीवन में बाल्य और किशोर, दो ही अवस्थाएँ आनंद और उल्लास से पूर्ण होती हैं। इसलिए इन अष्टभक्तों ने कृष्णजीवन के आधार पर जीवन के इन्हीं दो पहलुओं पर अधिक लिखा है। सौंदर्य और प्रेम की रसमयी धारा समान रूप से इनके संपूर्ण काव्य में प्रवाहित है। परंतु सूर के काव्य में ह्दयग्राहिणी शक्ति अधिक है, उसमें सार्वजनिक प्रेमानुभूतियों का सजीव और स्वाभाविक रसपूर्ण चित्रण है।
सांसारिक प्रेम की मनोवृत्तियों को संसार के आलंबनों से समेटकर इन भक्तों ने अलौकिक नायक परब्रह्म श्रीकृष्ण को आर्पित किया है। चित्त की बहुमुखी व्रत्ति को रसरूप कृष्ण में लगाकर उसका निरोध किया है, यही इनकी आध्यात्मिक साधना है। दास्य, वात्सल्य, सख्य और माधुर्य, इन चार भावों के प्रीतिसंबंधों में से एक न एक के द्वारा इन्होंने ईश्वर की आराधना की है। सूरदास ने इन चारो भावों को अपने प्रेम-भक्ति-काव्य में प्रमुखता दी है। परमानंददास ने वात्सल्य, सख्य और कांता भावों को लिया है, अन्य छह कवि कांता भाव के प्रेम में विभोर थे और इसी का उनके काव्य में अधिक चित्रण है।
अष्टछाप भक्त केवल पदरचयिता कवि ही न थे, वे उच्च कोटि के संगीतकार भी थे; संगीत इनका एक आध्यात्मिक साधन था। साधनस्वरूप नवधा भक्ति के प्रकारों में कीर्तन भी भक्ति का एक प्रकार है। अष्टछाप के कृष्णभक्तों ने मन की तल्लीनता और चित्त की एकाग्रता के लिए संगीत की स्वरलहरी में अपने चित्त की वृत्तियों को रमाया है। अष्टछाप कवियों की रचनाओं में संगीत के साथ साहित्य और अध्यात्म दोनों का समन्वय है। अकबरी दरबार के प्रसिद्ध गवैए तानसेन, बैजू, रामदास, मानसिंह आदि अष्टछाप के समकालीन थे। उस समय अष्टछाप के कुंभनदास 'ध्रुपद' गायकी के लिए और गोविंदस्वामी 'धमार' गायकी के लिए प्रसिद्ध थे। '२५२ वैष्णवन की वार्ता' से ज्ञात होता हे कि तानसेन ने धमार गायन गोविंदस्वामी से सीखा था।
सूरदास और परमानंददास के काव्य में प्रेम की व्यंजना सत्य और सौंदर्य की चरम सीमा तक पहुँची हुई है। उनके भावों में सार्वजनीनता है। ब्रह्मानंदसहोदर काव्यानंद की रसप्रवाहिनी शक्ति अंधे सूरदास में अद्वितीय है। बालमनोविज्ञान और मातृहृदय का पारखी जैसा कवि सूरदास है वैसा आधुनिक भारतीय भाषाओं में कोई कवि नहीं हुआ। सूरदास के वात्सल्य और विरह के पद अनुपम हैं। जैसा ऊपर कहा गया है, अष्टछाप काव्य ब्रजभाषा में रचा गया है। उसमें भावमयता, सजीवता और स्वाभाविक अलंकारिता है। सजीव शब्दचित्र के अंकन में सूरदास, परमानंददास और नददास की कला अधिक कुशल है। इनकी भाषा में चित्रमयता के गुण के साथ साथ, सरसता, सुकुमार प्रभावत्कता और संगीतात्मक लयता है। भावानुकूल शब्दों के प्रयोग के लिए नंददास बहुत प्रसिद्ध हें। भाषा के लालित्य के कारण नंददास के विषय में कथन प्रसिद्ध है :
और सब गढ़िया, नदंदास जड़िया
अष्टछाप के सभी कवि भक्ति पद्धति की दृष्टि से पुष्टिमार्गीय तथा दार्शनिक विचारधारा की दृष्टि से शुद्धाद्वैतवादी थे। अष्टछाप के प्रत्येक भक्त कवि की प्रामाणिक रचनाओं के नाम निम्नलिखित है:
१. सूरदास : सूरसागर, सूरसारावली, दृष्टिकूट के पद (साहित्यलहरी); २. परमानंददास: परमानंदसागर; ३. कुंभनदास : पदसंग्रह; ४. कृष्णदास : पदसंग्रह; ५. नंददास : रसमंजरी, अनेककार्थमंजरी, मानमंजरी (अथवा नाममाला), रूपमंजरी, विरहमंजरी, श्यामसगाई, दशम स्कंध भाषा, गोवर्धनलीला, सुदामाचरित, रूक्मिणीमंगल, रासपंचाध्यायी, सिद्धांतपंचाध्यायी, भंवरगीत, पदावली; ६. चतुर्भुजदास: पदसंग्रह; ७. गोविंदस्वामी: पदसंग्रह; ८. छीतस्वामी : पदसंग्रह।
सं.ग्रं.-चौरासी वैष्णवन की वार्ता (गोकुलनाथ जी तथा हरिराय जी), दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता (गोकुलनाथ जी तथा हरिराय जी), अष्टसखान की वार्ता; भक्तमाल (नाभादास); अष्टछाप और वल्लभ संप्रदाय (दीनदयालु गुप्त); अष्टछाप (धीरेंद्र वर्मा)। (दी.द.गु.)