अश्वघोष बौद्ध महाकवि तथा दार्शनिक। कुषाणनरेश कनिष्क के समकालीन महाकवि अश्वघोष का समय ईसवी प्रथम शताब्दी का अंत और द्वितीय का आरंभ है। ये साकेत (अयोध्या) के निवासी तथा सुर्णाक्षी के पुत्र थे। चीनी परंपरा के अनुसार महाराज कनिष्क पाटलिपुत्र के अधिपति को परास्त कर वहाँ से अश्वघोष को अपनी राजधानी पुरुषपुर (वर्तमान पेशावर) ले गए थे। कनिष्क द्वारा बुलाई गई चतुर्थ बौन संगीति की अध्यक्षता का गौरव एक परंपरा महास्थविर पार्श्व को अैर दूसरी परंपरा महावादी अश्वघोष को प्रदान करती है। ये सर्वास्तिवादी बौद्ध आचार्य थे जिसका संकेत सर्वास्तिवादी 'विभाषा' की रचना में प्रायोजक होने से भी हमें मिलता है। ये प्रथमत: परमत को परास्त करनेवाले 'महावादी' दार्शनिक थे। इसके अतिरिक्त साधारण जनता को बौद्धधर्म के प्रति 'काव्योपचार' से आकृष्ट करनेवाले महाकवि थे।
इनके नाम से प्रख्यात अनेक ग्रंथ हैं, परंतु प्रामाणिक रूप से अश्वघोष की साहित्यिक कृतियाँ केवल चार हैं : (१) बुद्धचरित, (२) सोंदरनंद, (३) गंडीस्तोत्रगाथा, (४) शारिपुत्रप्रकरण। 'सूत्रालंकार' के रचयिता संभवत: ये नहीं हैं। बुद्धचरित चीनी तथा तिब्बती अनुवादों में पूरे २८ सर्गों में उपलब्ध है, परंतु मूल संस्कृत में केवल १८ सर्गों में ही मिलता है। इसमें तथागत का जीवनचरित और उपदेश बड़ी ही रोचक वैदर्भी रीति में नाना छंदों में निबद्ध किया गया है। सौंदरनंद (१८ वर्ग) सिद्धार्थ के भ्राता नंद को उद्दाम काम से हटाकर संघ में दीक्षित होने का भव्य वर्णन करता है। काव्यादृष्टि से बुद्धचरित की अपेक्षा यह कहीं अधिक स्निग्ध तथा सुंदर है। गंडोस्तोत्रगाथा गीतकाव्य की सुषमा से मंडित है। शरिपुत्रप्रकरण अधूरा होने पर भी महनीय रूपक का रम्य प्रतिनिधि है। अनेक आलोचक अवश्घोष को कालिदास की काव्यकला का प्रेरक मानते हैं।
सं.ग्रं.-बलदेव उपाध्याय : संस्कृत साहित्य का इतिहास, काशी, १९५८; दासगुप्त तथा दे : हिस्ट्री ऑव क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, कलकत्ता। (ब.उ.)