अशोकस्तंभ
अशोक के धार्मिक
प्रचार से कला
को बहुत ही प्रोत्साहन
मिला। अपने धर्मलेखों
के अंकन के लिए उसने
ब्राह्मी और खरोष्ठी
दो लिपियों
का उपयोग किया
और संपूर्ण
देश में व्यापक
रूप से लेखनकला
का प्रचार हुआ।
धार्मिक स्थापत्य
और मूर्तिकला
का अभूतपर्वू
विकास अशोक के
समय में हुआ। परंपरा
के अनुसार उसने
तीन वर्ष के अंतर्गत
८४,००० स्तूपों का निर्माण
कराया। इनमें
से ऋषिपत्तन (सारनाथ)
में उसके द्वारा
निर्मित धर्मराजिका
स्तूप का भग्नावशेष
अब भी द्रष्टव्य हैं। इसी
प्रकार उसने अगणित
चैत्यों और विहारों
का निर्माण कराया।
अशोक ने देश के
विभन्न भागों
में प्रमुख राजपथों
और मार्गों पर
धर्मस्तंभ स्थापित
किए। अपनी मूर्तिकला
के कारण ये स्तंभ
सबसे अधिक प्रसिद्ध
है। स्तंभनिर्माण
की कला पुष्ट नियोजन,
सूक्ष्म अनुपात, संतुलित
कल्पना, निश्चित
उद्देश्य की सफलता,
सौंदर्यशास्त्रीय
उच्चता तथा धार्मिक
प्रतीकत्व के लिए
अशोक के समय
अपनी चरम सीमा
पर पहुँच चुकी
थी। इन स्तंभों का
उपयोग स्थापत्यात्मक
न होकर स्मारकात्मक
था। सारनाथ का
स्तंभ धर्मचक्रप्रवर्तन
की घटना का स्मारक
था और धर्मसंघ
की अक्षुण्णता बनाए
रखने के लिए इसकी
स्थापना हुई थी।
यह चुनार के
बलुआ पत्थर के
लगभग ४५ फुट लंबे
प्रस्तरखंड का बना
हुआ है। धरती
में गड़े हुए आधार
को छोड़कर इसका
दंड गोलाकार
है, जो ऊपर की
ओर क्रमश: पतला
होता जाता है।
दंड के ऊपर इसका
कंठ और कंठ
के ऊपर शीर्ष
है। कंठ के नीचे
प्रलंबित दलोंवाला
उलटा कमल है। गोलाकार
कंठ चक्र से चार
भागों में विभक्त
है। उनमें क्रमश: हाथी,
घोड़ा, बैल तथा
सिंह की सजीव
प्रतिकृतियाँ
उभरी हुई है। कंठ
के ऊपर शीर्ष
में चार सिंहमूर्तियाँ
हैं जो पृष्ठत:
एक दूसरी से जुड़ी
हुई हैं। इन चारों
के बीच में एक छोटा
दंड था जो धर्मचक्र
को धारण करता
था। अपने मूर्तन
और पालिश की
दृष्टि यह स्तंभ अद्भुत
है। इस समय स्तंभ
का निचला भाग
अपने मूल स्थान
में है। शेष संग्रहालय
में रखा है। धर्मचक्र
के केवल कुछ ही
टुकड़े उपलब्ध हुए।
चक्ररहित सिंहशीर्ष
ही आज भारत गणतंत्र
का राज्यचिह्न
है। चक्र वैदिक
ऋत से विकसित
धर्म की कल्पना
का प्रतीक है, जो
संपूर्ण आकश
में गतिशील रहता
है। उसका सिंहनाद
चारों दिशाओं
में चारों सिंह
करते हैं। कंठ
पर उभारे गतिशील
चारों पशु धर्मप्रवर्तन
के प्रतीक हैं। प्रलंबित
कमल भारत के
दार्शनिक रहस्यवाद
का आधार है।