अशोक १. यह प्राचीन भारत में मौर्यवंश का तीसरा राजा था। इसके पिता का नाम बिंदुसार और माता का नाम जनपदकल्याणी, प्रियदर्शना अथवा धर्मा था। ल. २९७ ई.पू. इसका जन्म हुआ। परंपरा के अनुसार बिंदुसार के १०१ पुत्र थे, जिनमें ९९ अन्य रानियों से तथा अशोक और तिष्य प्रियदर्शना से थे। ९९ भाइयों में सबसे बड़ा सुसीम था। अशोक देखने में असुंदर, किंतु योग्यतम था। कुमारावस्था में वह अवंति राष्ट्र तथा गांधार का राज्यपाल बनाया गया था। राजकुल एवं मंत्रियों के षड्यंत्र से उत्तराधिकर के लिए सुसीम एवं अशोक में गृहयुद्ध हुआ। अंत में अशोक विजयी हुआ। बौद्ध साहित्य की यह कथा कि अशोक अपने ९९ भाइयों को मारकर सिंहासन पर बैठा, विश्वसनीय नहीं जान पड़ती, यद्यपि यह बहुत संभव है कि उत्तराधिकार के लिए युद्ध में कुछ भाई मारे गए हों। अशोक लगभग २७२ ई.पू. सिंहासन पर बैठा और २३२ ई.पू. तक उसने राज किया। उसने अपने शासन के प्रारंभ में अपने और पितामह चंद्रगुप्त एवं पिता बिंदुसार की साम्राज्यवादी नीति का अवलंबन किया। काश्मीर, कलिंग एवं कतिपय अन्य प्रदेशों को, जो मौर्य साम्राज्य में नहीं थे, उसने विजित बनाया। अशोक का साम्राज्य प्राय: संपूर्ण भारत और पश्चिमोत्तर में हिंदूकुश एवं ईरान की सीमा तक था। कलिंग के भीषण युद्ध से उसके हृदय पर बड़ा आघात पहुँचा और उसने अपनी शस्त्र और हिंसा पर आधारित दिग्विजय की नति को छोड़कर धर्मविजय की नीति को अपनाया। संभवत: इसी समय उसने बौद्ध धर्म ग्रहण किया और अपने साम्राज्य के सभी साधनों को लोकमंगल के कार्यों में लगाया।
अशोक में सम्राट् और संत का अद्भुत मिश्रण था। उनकी राजनीति धर्म और नीति से पूर्णत: प्रभावित थी। उसका आदर्श था : ''लोकहित से बढ़कर दूसरा और कोई कर्म नहीं। जो कुछ भी मैं पुरुषार्थ करता हूँ वह लोगों पर उपकार नहीं, अपितु इसलिए कि मैं उनसे उऋण हो जाऊँऔर उनको इहलौकिक सुख और परमार्थ प्राप्त कराऊँ।'' अपनी प्रजा से वह अपनी संतान के समान स्नेह करता था। उसकी हितचिंता में वह परिभ्रमण भी करता था, जिससे वह जनता के संपर्क में आकर उसके सुख दु:ख को समझे। वह अपनी प्रजा की भौतिक तथा नैतिक दोनों प्रकार की उन्नति करना चाहता था। अपने शासन को नैतिक मोड़ देने के लिए उसने कई प्रकार के धर्ममहामात्यों की नियुक्ति की। उसके शासन के विभागों में लोकोपकारी कार्यों की प्रमुखता थी।
शासन से कहीं अधिक अपने धर्म और उसके प्रचार के लिए अशोक प्रसिद्ध था। इसमें कोई संदेह नहीं कि अशोक धर्मत: बौद्ध था जो भाब्रू धर्मलेख और धर्मपर्यायों के उल्लेख से स्पष्ट है। किंतु अपने प्रचार में वह सर्वमान्य नैतिक सिद्धांतों पर ही जोर देता था, जिनका सभी धर्मों से मेल हो सकता था। इसके विधि और निषेध दो अंग थे। अपने द्वितीय तथा सप्तम स्तंभलेख में उसने साधुता (बहुकल्याण), अल्पपाप, दया, दान, सत्य, शौच, मार्दव आदि को विधेयात्मक धर्म का गुण माना है। व्यवहार में इनका कार्यान्वय प्राणियों के अवध, भूतों के प्रति अहिंसा, माता पिता की शुश्रूषा, स्थविरों की शुश्रूषा, गुरुओं के प्रति आदरभाव, मित्र-परिचित-जाति तथा ब्राह्मणों श्रमणों को दान तथा उनके साथ सुष्ठु व्यवहार, दास तथा भृत्य के साथ सुंदर बर्ताव, अल्पभांडता (कम संग्रह) और अल्पव्ययता के द्वारा अशोक ने बतलाया। इसी को वह धर्ममंगल, धर्मदान और धर्मविजय कहता है। तृतीय स्तंभलेख में धर्म के निषेधात्मक अंग का वर्णन करते हुए चंडता, निष्ठुरता, क्रोध, अभिमान, ईर्षा आदि के परित्याग का उपदेश किया गया है। धार्मिक जीवन के विकास के लिए प्रत्यवेक्षा (आत्मनिरीक्षण) की आवश्यकता बतलाई गई है। सप्तम तथा द्वादश शिलालेखों में अशोक ने धार्मिक सहअस्तित्व तथा धार्मिक समता का उपदेश किया है और वाक्संयम एवं भावशुद्धि पर जोर दिया है। अशोक के धर्म की विशेषताओं में नैतिकता, सारवत्ता, सार्वजनीनता, उदारता एवं समता मुख्य हैं।
इसी नैतिक धर्म के प्रचार को धर्मविजय कहा गया है। यह धर्मविजय परंपरागत धर्मविजय से भिन्न था। परंपरागत धर्मविजय का अर्थ था भूमि एवं धन के लोभ के बिना अपनी सैनिक शक्ति से चक्रवर्तित्व अथवा देशव्यापी साम्राज्य के लिए अन्य राज्यों के ऊपर विजय प्राप्त करना; इसमें बल और हिंसा का प्रयोग होता था। अशोक की धर्मविजय वास्तव में रणविजय नहीं, भारत तथा दूसरे देशों और राज्यों पर नीति, शांति और सेवा द्वारा धर्म की विजय थी।
धर्मविजय की प्राप्ति के लिए कई साधनों का अवलंबन किया गया। नैतिक शिक्षाओं को स्थायी रूप से प्रजा के पास पहुँचाने के लिए धर्मलेखों का प्रवर्तन हुआ जो पर्वशिलाओं, प्रस्तरस्तंभों और गुहाओं में अंकित किए गए। धर्मलेखों की गणना इस प्रकार है : १० शिलालेख-(अ) चौदह प्रमुख, (आ) पृथक् कलिंग अभिलेख, (इ) लघु शिलालेख (सहसराम, रूपनाथ, बैराट, सिद्धपुर, जातिंग रामेश्वर, ब्रह्मगिरि, मास्की'); २० स्तंभलेख-(अ) सात प्रमुख (आ) लघु स्तंभलेख (प्रयाग, सांची, सारनाथ, रुम्मिनदेई तथा निगलीव); ३० गुहालेख-(बराबर तथा नागार्जुनी की पहाड़ियों में)। धर्मप्रचार का दूसरा साधन 'अनुसंधान' था। नियमित रूप से अशोक और उसके मुख्य अधिकरी विविध जनपदों में जनता से संपर्क स्थापित करने के लिए यात्रा करते थे। इसका उद्देश्य उसी के शब्दों में ''जनस्य जानपदस्य दर्शनम'' (जनपदों तथा जनता का दर्शन) था। तीसरा साधन 'श्रावण' इसके अंतर्गत धार्मिक तथा नैतिक विषयों पर कथावार्ता का आयोजन किया जाता था। इसके अतिरिक्त विहारयात्रा के स्थान पर धर्मयात्रा (तीर्थस्थानों और धार्मिक कार्यक्रम के लिए) और विलासपूर्ण समाजों के स्थान पर धर्मसमाज (संतों अथवा धार्मिक प्रयोजन के लिए) व्यवस्था हुई। हस्तिस्कंध तथा ज्योतिस्कंध अदि स्वर्गीय दृश्यों का प्रदर्शन जनता का ध्यान धार्मिक जीवन से उत्पन्न पुण्यों की ओर आकृष्ट करने के लिए किया जाता था। सड़कों का निर्माण, उनके किनारे वृक्षों का आरोपण, पांथशालाओं और प्याउओं का आयोजन, सुरक्षा आदि का समुचित प्रबंध था। मनुष्यचिकित्सा एवं पशुचिकित्सकों की व्यवस्था भी राज्य की ओर से थी। औषधियों के उद्यान लगाए गए। जो औषधियाँ अपने देश में नहीं होती थीं, वे विदेशों से मँगाकर लगाई गई। अनेक स्तूपों, चैत्यों, विहारों और स्तंभों का निर्माण भी धर्म की स्थापना के लिए किया गया।
धर्मविजय के लिए प्रचारसंघ का भी संगठन हुआ। धर्मविजय की कोई भौगोलिक सीमा नहीं थी। इसलिए धर्मचक्र का प्रवर्तन देश विदेश दोनों में हुआ। अशोक की लोकसेवा का क्षेत्र अपने राज्य तक ही संकुचित नहीं था। उसके प्रचार के क्षेत्रों को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सता है: (१) साम्राज्य के अंतर्गत विभिन्न प्रदेश, (२) साम्राज्य के सीमांत प्रदेश की जातियाँ-यवन, कांबोज, गांधार, राष्ट्रिक, पितनिक, भोज, आंध्र, पुलिंद, (३) साम्राज्य की जंगली और पिछड़ी जातियाँ, (४) दक्षिण भारत के अर्धस्वाधीन राज्य, (५) लंका (ताम्रपर्णि), (६) सीरिया, मिस्र,, साइरीनी, मकदूनियाँ और एपिरस आदि यवन देश। इतने बड़े पैमाने पर पहले कभी नीति और धर्म का प्रचार नहीं हुआ था।
अशोक के धार्मिक प्रचार से कला को बहुत ही प्रोत्साहन मिला। अपने धर्मलेखों के अंकन के लिए उसने ब्राह्मी और खरोष्ठी दो लिपियों का उपयोग किया और संपूर्ण देश में व्यापक रूप से लेखनकला का प्रचार हुआ। धार्मिक स्थापत्य और मूर्तिकला का अभूतपर्वू विकास अशोक के समय में हुआ। परंपरा के अनुसार उसने तीन वर्ष के अंतर्गत ८४,००० स्तूपों का निर्माण कराया। इनमें से ऋषिपत्तन (सारनाथ) में उसके द्वारा निर्मित धर्मराजिका स्तूप का भग्नावशेष अब भी द्रष्टव्य हैं। इसी प्रकार उसने अगणित चैत्यों और विहारों का निर्माण कराया। अशोक ने देश के विभन्न भागों में प्रमुख राजपथों और मार्गों पर धर्मस्तंभ स्थापित किए। अपनी मूर्तिकला के कारण ये स्तंभ सबसे अधिक प्रसिद्ध है। स्तंभनिर्माण की कला पुष्ट नियोजन, सूक्ष्म अनुपात, संतुलित कल्पना, निश्चित उद्देश्य की सफलता, सौंदर्यशास्त्रीय उच्चता तथा धार्मिक प्रतीकत्व के लिए अशोक के समय अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। इन स्तंभों का उपयोग स्थापत्यात्मक न होकर स्मारकात्मक था। सारनाथ का स्तंभ धर्मचक्रप्रवर्तन की घटना का स्मारक था और धर्मसंघ की अक्षुण्णता बनाए रखने के लिए इसकी स्थापना हुई थी। यह चुनार के बलुआ पत्थर के लगभग ४५ फुट लंबे प्रस्तरखंड का बना हुआ है। धरती में गड़े हुए आधार को छोड़कर इसका दंड गोलाकार है, जो ऊपर की ओर क्रमश: पतला होता जाता है। दंड के ऊपर इसका कंठ और कंठ के ऊपर शीर्ष है। कंठ के नीचे प्रलंबित दलोंवाला उलटा कमल है। गोलाकार कंठ चक्र से चार भागों में विभक्त है। उनमें क्रमश: हाथी, घोड़ा, बैल तथा सिंह की सजीव प्रतिकृतियाँ उभरी हुई है। कंठ के ऊपर शीर्ष में चार सिंहमूर्तियाँ हैं जो पृष्ठत: एक दूसरी से जुड़ी हुई हैं। इन चारों के बीच में एक छोटा दंड था जो धर्मचक्र को धारण करता था। अपने मूर्तन और पालिश की दृष्टि यह स्तंभ अद्भुत है। इस समय स्तंभ का निचला भाग अपने मूल स्थान में है। शेष संग्रहालय में रखा है। धर्मचक्र के केवल कुछ ही टुकड़े उपलब्ध हुए। चक्ररहित सिंहशीर्ष ही आज भारत गणतंत्र का राज्यचिह्न है। चक्र वैदिक ऋत से विकसित धर्म की कल्पना का प्रतीक है, जो संपूर्ण आकश में गतिशील रहता है। उसका सिंहनाद चारों दिशाओं में चारों सिंह करते हैं। कंठ पर उभारे गतिशील चारों पशु धर्मप्रवर्तन के प्रतीक हैं। प्रलंबित कमल भारत के दार्शनिक रहस्यवाद का आधार है।
अशोक की धार्मिक नीति के प्रभाव के संबंध में इतिहासकारों में काफी मतभेद है। परंतु इस नीति के लाभ और हानि दोनों पक्षों की तुलना बहुत ही महत्वपूर्ण एवं मनोरंजक है। अशोक की धर्मविजय की नीति के द्वारा संपूर्ण देश तथा पड़ोसी अन्य देशों में सामाजिक प्रवृत्तियों को पूरा प्रोत्साहन मिला। एक लिपि ब्राह्मी तथा एक भाषा पालि का आजकल की हिंदी की भांति एकीकरण के माध्यम के रूप में सर्वत्र प्रचार हुआ। धर्म के माध्यम के रूप में स्थापत्य तथा मूर्तिकला विकसित, समृद्ध एवं प्रसारित हुई। धार्मिक सहअस्तित्व, सहिष्णुता, उदारता, और समता का प्रचार हुआ। नैतिकता, विश्वबंधुत्व और अंतरराष्ट्रीयता को प्रश्रय मिला और इनके द्वारा भारत को अंतरराष्ट्रीय जगत् में ऊँचा पद प्राप्त हुआ। अशोक की धार्मिक नीति से प्रभूत लाभ हुए। राजनीतिक और राष्ट्रीय दृष्टि से कई इतिहासकारों के मतों में कई हानियाँं हुई। इसके द्वारा भारत का राजनीतिक विस्तार रुक गया; यदि उसने चंद्रगुप्त की नीति का अवलंबन किया होता तो मकदूनी या रोमन साम्राज्य के समान एक विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना हुई होती। राजनीति का विस्तार रुक जाने से राजनीतिक चिंतन भी शिथिल हो गया, अत: चाणक्य के बाद राजनीति शास्त्र में कोई प्रौढ़ आचार्य नहीं मिलता। दिग्विजयिनी मौर्य सेना स्कंधावारों में पड़ी-पड़ी निष्क्रिय हो गई थी-इसीलिए यवन (यूनानी) आक्रमणों के सामने वह पुन: न ठहर सकी। अशोक की नीति ने भारतीयों के स्वभाव को कोमल बना दिया और उन्हें इहलौकिक और भौतिक उन्नति के मार्ग से विमुख किया। कल्पित महत्तावाली अंतरराष्ट्रीयता ने राष्ट्रीयता की भावनाओं का तिरस्कार कर उन्हें दुर्बल बना दिया, आदि। यदि नैतिक तुला पर उपर्युक्त लाभ और हानि रखी जाए तो मानव मूल्यों की दृष्टि से अशोक की धार्मिक नीति के लाभ अधिक भारी सिद्ध होते हैं।
अपनी आदर्शवादिता, नीतिमत्ता तथा लोकहितचिंता के कारण संसार के इतिहास में अशोक का बहुत ही ऊँचा स्थान है। वास्तव में अभी तक संसार का इतिहास्╔ बर्बर कृत्वों के वर्णन से भरा पड़ा है। पृथ्वी को रक्तप्लावित करनेवाले असंख्य विजेताओं की सूची में नीति और प्रेम का उपदेश करनेवाला शासक अशोक प्राय: अकेला है। एक इतिहासकार के मत में ''बर्बरता के महासागर में शांति और संस्कृति का वह एक मात्र द्वीप है।'' यदि किसी शासक की महत्ता का मापदंड राजनीतिक और सैनिक सफलता न होकर लोकहित हो तो संसार का कोई दूसरा शासक अशोक की समता नहीं कर सकता। वह केवल जनसुखवाद और मानवतावाद का ही समर्थक नहीं था, वह मानव की नैतिक और पारमार्थिक उन्नति के लिए भी प्रयत्नशील था और न केवल मानव, संपूर्ण जीवमात्र की हितचिंता में रत। सिकंदर, सीज़र, कोंस्तांतीन, अकबर, नैपोलियन आदि अपने में विशाल और विराट् थे, किंतु वे अशोक की महत्ता और उच्चता को नहीं पहुँच सकते। यदि किसी व्यक्ति के यश और प्रसिद्धि को मापने का मापदंड असंख्य लोगों का हृदय है, जो उसकी पवित्र स्मृति को सजीव रखता है और अगणित मनुष्यों की जिह्वा है, जो उसकी कीर्ति का गान करती है, तो अशोक की समता इतिहास के थोड़े से महापुरुष ही कर सकते हैं।
सं.ग्रं.-दत्तात्रेय रामकृष्ण भांडारकर : अशोक; राधाकुमुद मुकर्जी : अशोक; बेणीमाधव बरुआ : अशोक और उसके अभिलेख; वी.ए. स्मिथ : अशोक; सत्यकेतु विद्यालंकार : मौर्य साम्राज्य का इतिहास; हुल्त्श : कार्पस इंस्क्रिप्शनम इंडिकेरम, भाग १, इंस्क्रिप्शंस ऑव अशोक। (रा.ब.पा.)
अशोक २. यह वृक्ष संस्कृत, बंगला मराठी, मलयालम, तेलुगु और अंग्रेजी में भी यही भी यही कहलाता है। लैटिन में (१) जोनेसिया असोका तथा (२) सैरैका इंडिका, ये दो नाम हैं।
यह लग्यूमिनोसी जाति का वृक्ष है; देखने में सुंदर होता है। इस वृक्ष में बसंत ऋतु में फूल लगते हैं। पहले में ये नारंगी रंग और दूसरे में श्वेत रंग के होते हैं। पहले प्रकार की पत्तियाँ रामफल के वृक्ष की पत्तियों जैसी तथा दूसरे की आम की पत्तियों जैसी लंबी परंतु किनारे पर लहरदार होती हैं। इसमें श्वेत मंजरियाँ लगती हैं, जिनके झड़ने पर छोटे, गोल फल लगते हैं, जो पकने पर लाल हो जाते हैं पर खाए नहीं जाते।
यह वृक्ष समस्त भारतवर्ष में पाया जाता है। इसकी छाल आयुर्वेद में कटु, तिक्त, ज्वर एवं तृषानाशक, घाव को भरनेवाली, अंतड़ियों को सिकोड़नेवाली, कृमिनाशक तथा पाचक कही गई है। रक्तविकार, थकावट, शूल, बवासीर, अस्थिभंग तथा मूत्रकृच्छ्र में उपयोगी है। देशी वैद्य इसको स्त्रीरोगों में, जैसे गर्भाशय के रोग, रक्तप्रदर, रक्तस्राव इत्यादि मानते हैं।
(भ.दा.व.)