अल्लमप्रभु कर्नाटक के वीरशैव संप्रदाय के महान् साधक और आद्याचार्य। ये वीरशैव मत के प्रतिष्ठापक बसव के, जिनका समय १२वीं शताब्दी का मध्यभाग माना जाता हैे, गुरु थे। इस प्रकार ये बसव के ज्येष्ठ समकालीन थे। कुछ लोग इनका जन्म शिमोगा जिले के बल्लिल ग्राम में मानते हैं। कहा जाता है, इनका विवाह कामलता नाम की एक सुंदरी कन्या से हुआ था; किंतु थोड़े ही दिनों बाद उसका देहाँत हो गया। तदुपरांत अल्लम विरक्त हो गए। बाद में इन्होंने वन में रहकर दीर्घ तपस्या की। प्रसिद्धि यह भी है कि पार्वती ने इनके वैराग्य की परीक्षा ली थी। तदुपरांत ये शिवाद्वैत तत्व के समर्थ प्रचारक हुए। इन्होंने अपनी शिष्यमंडली के साथ भारत के विविध प्रदेशों की यात्रा की। इसी यात्रा में मैसूर राज्य के कल्याण नगर में बसव ने अल्लमप्रभु का दर्शन किया और इनसे दीक्षा ली।

अल्लमप्रभु के ऊपर कुछ लोग शांकराद्वैत का विपुल प्रभाव मानते हैं। इन्होंने (षट्चक्रस्थानीय) षट्स्थलों और लिंगधारण का प्रवर्तन किया। प्रभुलिंगलीला में प्राप्त अल्लमप्रभु के उपदेशों में इनका उल्लेख मिलता है। इसमें जीव और शिव के अद्वैत का सिद्धांत प्रतिपादित है। इन्होंने बाह्य कर्मकांड का खंडन करते हुए जीव और जगत् के चरम सत्य के साक्षात्कार पर जोर दिया है। हिंसा की निंदा कर इन्होंने भूमिकर्षण तक का निषेध किया क्योंकि इससे भूमिगत कीटादिकों की प्राणहानि होती है। निष्काम कर्म और फलसमर्पण का भी इन्होंने उपदेश किया है। इनके उपदशों पर विचार कर कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अल्लमप्रभु के विचारों को शंकर दर्शन के उन विचारों से प्राय: अभिन्न मानना चाहिए जिनके अनुसार एक परम सत्य ही माया और अविद्या के कारण अनेक रूपों में प्रतीत होता है। इनके द्वारा उपदिष्ट भक्ति कुछ लोगों की दृष्टि में बौद्धिक प्रकार की है जिसमें सतत निर्विघ्न ध्यान और शिव का सर्वपदार्थों में एक परमसत्य के रूप में साक्षात्कार सम्मिलित है। मुक्तायी को इन्होंने अपने उपदेश में बताया है कि जैसे मातृस्तन के दुग्ध से संपोषित शिशु क्रमश: अन्नाहार की ओर अग्रसर हाता है, उसी प्रकार गुरु की शिक्षा से भक्त बाह्य वस्तुओं के बंधन को क्रमश: त्यागकर, अंतत: विभिन्न कर्मों एवं उनके फलों के प्रति निष्काम होकर ज्ञान प्राप्त करता है। इनके उपदेशें में अध्ययन, व्याख्यानादि का उतना महत्व नहीं है जितना शिवद्वैत प्राप्ति का। विभिन्न सूत्रों से यह ज्ञात होता है कि इन्होंने बसव को भक्ति, योग, षट्स्थल और लिंगधारण का उपदेश किया था। इस योग में प्राणवायु संबंधी अभ्यासों का विशेष महत्व है जिसके बिना भक्तिप्राप्ति और बंधनिरोध संभव नहीं।

कहा जाता है, गोरक्षनाथ की भी अल्लमप्रभु से भेंट हुई थी। गोरक्ष ने अपनी योगशक्ति से शरीर को शस्त्रप्रहार से मुक्त कर लिया था और उन्होंने अल्लमप्रभु के समक्ष इसका प्रदर्शन भी किया था। अल्लमप्रभु ने भी गोरक्ष को अपने शरीर में खड्गप्रवेश करने के लिए कहा जिसमें गोरक्ष को अनुभव हुआ कि खड्ग जैसे शून्य में प्रवेश कर रहा हो। गोरक्ष ने अल्लमप्रभु से इसका रहस्य पूछा और व्याख्यांत में इनसे दीक्षा ली तथा आशीर्वाद प्राप्त किया। इस प्रसंग में गोरक्षनाथ के नाम से प्रसिद्ध सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति और प्रभुलिंगलीला में प्राप्त अल्लमप्रभु के उपदशों का तुलनात्मक अध्ययन कर कुछ लोगों ने इन दोनों के विचारों एवं सिद्धांतों के साम्य के अनेक बिंदु खोज निकाले हैं और निष्कर्षत: यह मत व्यक्त किया है कि यह असंभव नहीं है कि इन दोनों महापुरुषों में विचारों का परस्पर आदान-प्रदान हुआ हो। इन दोनों के संवादों का विवरण प्रभुलिंगलीला में देखा जा सकता है। अल्लमप्रभु के लिखे निम्नलिखित ग्रंथ कहे जाते हैं : पट्स्थलज्ञानचारित््रय, शून्य संपादन, मंत्रगोप्य, सृष्टिवचन। (ना.ना.उ.)